वसुधा करे पुकार / कपिल शास्त्री (संपादक)
वसुधा करे पुकार
(पर्यावरण केन्द्रित लघुकथाएँ)
संपादक :
कपिल शास्त्री
प्रकाशक :
वनिका पब्लिकेशन्स
रजि. कार्यालय :
एन ए-168, गली नं-6, विष्णु गार्डन,
नई दिल्ली-110018
मुख्य कार्यालयः
सरल कुटीर, आर्य नगर, नई बस्ती, बिजनौर-246701, उ.प्र
फोन: 09412713640
Email:
contact@vanikaapublications.com, vanikaa.publications@gmail.com
Website: www.vanikaapublications.com
@: संपादक
संस्करण : प्रथम 2025
मुखावरण : सत्यपाल ग्राफिक्स
मूल्य : चार सौ रुपये $35
मुद्रक : प्रतीक प्रिंटर्स, दिल्ली
Name : Vasudha Kare Pukar (Laghukathas in Hindi)
Editor: Kapil Shastri
Price: Rs. 400/- $35
ISBN: 978-93-49084-84-1
Mobile:9789349084841
अनुक्रमणिका
1. अशोक जैन 'शांतिदूत', गुरुग्राम
बूढ़ा बरगद
2. अशोक गुजराती, मुंबई
मैं बूढ़ा कब होऊँगा
3. अनिल मकरिया, जलगाँव
बोधि वृक्ष
4. आशा शैली, नैनीताल
विवशता
5. अंजू निगम, नई दिल्ली
प्रकृति का लोबान
हौसले बुलंद रख
6. अंजू खरबंदा, दिल्ली
पर्वत की पीर
तरु को पत्र
7. डॉ. अशोक कालरा, मेरठ
यक्ष प्रश्न
सुंदर जीवन
8. अनिल कुमार जैन, सवाई माधोपुर
प्रायश्चित
9. अलका गुप्ता, नई दिल्ली
ढूँठ
वृक्ष, बाढ़ और जीवन
10. अनिता शरद झा, रायपुर
कुम्हार
11. अर्चना राय, जबलपुर
पहली बार
12. अनिता रश्मि, राँची
पतझड़ के बाद
वृक्षारोपण
13. अखिलेश शर्मा, गाज़ियाबाद
नाम गंगादास
कल्पना
14. बलराम अग्रवाल, नोएडा
अकेला कब गिरता है पेड़
वतन के पेड़-पौधे, परिंदे और तितलियाँ
15. डॉ. बिपिन पाण्डेय, औरंगाबाद
पुरस्कृत फोटो
पंद्रह दिन बाद
16. भोला नाथ सिंह, झारखण्ड
प्यासी धरती
17. भारती कुमारी, गुरुग्राम
भागीरथी
18. डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, उदयपुर
पानी हो तो कहाँ मिलेगी?
19. दिव्या शर्मा, हरियाणा
उगते रेगिस्तान
20. गीता चौबे 'गूंज', बेंगलूरु
वसुधा की जीवन-रेखा
21. घनश्याम मैथिल 'अमृत', भोपाल
आदमी और पेड़
काग़ज़ और कविता
22. स्व. इंद्रजीत कौशिक, बीकानेर
मैनस
नजारा
23. ज्योत्स्ना कपिल, बरेली
हाय रे पॉलीथिन
बिन जंगल
24. जनकजा कान्त शरण, पूना
दूरदर्शिता
चेन रिएक्शन
25. ज्योति व्यास 'अप्रतिम', खरगोन
टिश्यू पेपर
प्रकृति की ओर
26. कनक हरलालका, असम
भस्मासुर
27. कपिल शास्त्री, भोपाल
कहीं डंक न लग जाए
पर्यावरण की गोद में
28. डॉ. क्षमा सिसोदिया, उज्जैन
अतिथि मेघ
केले का पौधा
29. डॉ. कुसुम जोशी, गाजियाबाद
धुआं-धुआँ
30. डॉ. लता अग्रवाल 'तुलजा', भोपाल
बड़ा रावण
परिक्रमा
31. मृणाल आशुतोष, समस्तीपुर
मृत्यु
32. मोहन राजेश, ब्यावर
पर्यावरण दिवस
व्हिसल ब्लोअर
33. मुकेश शर्मा, गुरुग्राम
नज़रिया
34. मधुलिका सक्सेना, भोपाल
सुचिंतन
वामनावतार
35. मीरा जैन, उज्जैन
कुर्बानी
लक्ष्मी जी का नजरिया
36. मधु जैन, जबलपुर
मन मुदित
दोस्त अच्छे हैं
37. मधुलिका सिन्हा, गुरुग्राम
नई पौध
झाँकी
38. मनोरमा पंत, भोपाल
सतपुड़ा का दर्द
विकास का बेताल
39. नीलम राकेश, लखनऊ
अब पछताए का होत
दूसरे का दर्द
40. नमिता सिंह 'आराधना', अहमदाबाद
वृक्ष देवता
पावरकट
41. नयना (आरती) कानिटकर
मासूमियत का रंग
42. निहाल चन्द्र शिवहरे, झाँसी
दादा जी की चौपाल
43. नीना छिब्बर, जोधपुर
अवतरण
44. नेतराम भारती, गाजियाबाद
अनोखा प्रत्याशी
45. डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, इंदौर
थरथराहट
चीरा
46. पवित्रा अग्रवाल, बैंगलोर
आज की जरूरत
अच्छा आइडिया
47. डॉ. पुष्पा जमुआर, पटना
हौसला
48. पुष्पा कुमारी 'पुष्प', पुणे
पुराने पन्ने
मिट्टी के लड्डू
49. पदम गोधा, गुरुग्राम
मेरा गाँव खो गया है!
50. प्रेरणा गुप्ता, कानपुर
पुनरागमन
नई कविता
51. डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा, रायपुर
प्रचार नीति
समझदारी
52. रीता गुप्ता, रांची
अपने हिस्से की हरियाली
खोई-खोई सी बहारें
53. राम करन, उत्तरप्रदेश
ठिगना
54. राम मूरत 'राही', इन्दौर
निश्चित है
कुछ दिनों बाद
55. रिंकी अग्रवाल 'प्राची', बुलंदशहर
फिजूल खर्ची क्यों
लापरवाही पड़ी भारी
56. रोहिताश्व 'रोहित' शर्मा
वंश वृक्ष
57. डॉ. रजनीश दीक्षित, वडोदरा
ताबूत में जिंदगी
58. सतीश राठी, इंदौर
बेस्वाद
59. शील कौशिक, सिरसा
अनाथ
चिड़िया ने कहा था
60. डॉ. सुरेश वशिष्ठ, गुरुग्राम
गाँव की तस्वीर
61. डॉ. संध्या तिवारी, पीलीभीत
हो गई है पीर पर्वत सी...
दुरमति कूप खनावै
62. सविता मिश्रा 'अक्षजा', आगरा
पुण्य
करनी विष की लोय
63. सरस दरबारी, प्रयागराज
दायित्व
64. सन्तोष सुपेकर, उज्जैन
अप्रत्याशित
सबसे योग्य
65. शेफालिका श्रीवास्तव, भोपाल
पहल
सुकून
66. डॉ. शैलजा एन. भट्टड़, बैंगलोर
संतुष्टि
उत्सव
67. सुनीता मिश्रा, भोपाल
चीर हरण
कंक्रीट के जंगल
68. सरला मेहता, इन्दौर
झूले वाला बरगद
जिम्मेदार मर्द
69. डॉ. सुरिन्दर कौर 'नीलम', रांची
पुण्य की प्यास
शांति वन
70. सारिका भूषण, राँची
एक बड़ा पाठ
क्षमा
71. शर्मिला चौहान, ठाणे
अकेला चना
बूंद बूँद अमृत
72. डॉ. सुनीता शेवगांवकर, पुणे
कागज़ का संरक्षण
73. डॉ. सुधा गुप्त 'अमृता', कटनी
गुच्छे-गुच्छे
गुलमोहर
74. सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, उत्तरप्रदेश
रुदन
75. श्रुत कीर्ति अग्रवाल, पटना
सोलह आने सच्ची बात
76. स्नेह गोस्वामी, बठिंडा
संकल्प ज़रूरी है
77. सन्दीप तोमर, नई दिल्ली
नायाब बेटी
एक मुकदमा
78. सविता उपाध्याय 'सरिता', खरगोन
पूर्वाभास
पश्चाताप के आँसू
79. शराफतअली खान, बरेली
पर्यावरण मित्र
80. डॉ. उपमा शर्मा, दिल्ली
अस्तित्व
विकास की सजा
81. उमेश महादोषी, बरेली
नुकीली कीलों पर नंगे पाँव
82. विभा रश्मि
देह-दान
83. विजय जोशी 'शीतांशु', खरगोन
नदी का घर
84. विनीता राहुरीकर, भोपाल
थैला
कंजूसी
85. विजयानन्द विजय, बिहार
प्यासी नदी
86. डॉ. वन्दना गुप्ता, उज्जैन
दिया तले उजाला
87. डॉ. वर्षा महेश 'गरिमा', मुंबई
नई शुरुआत
दायित्व
88. प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र नाथ शुक्ल, इन्दौर
बदलाव
89. यशोधरा भटनागर, देवास
सहारा
संपादकीय
कोई हमें हमारे मुँह पर ही एहसानफरामोश बोल दे तो हम जलभुन जाएँगे परंतु जब कोई बोले ही नहीं और कोई आपत्ति भी नहीं ले तो हम नसरगट्ट की तरह एहसानफरामोश ही बने रहेंगे। पर्यावरण के मामले को भी हमने जैसे अंग्रेजी में बोलते हैं 'टेकन फॉर ग्रांटेड' ले लिया था अर्थात् बहुत सस्ते में यह सोचकर ले लिया था कि इसने तो हमेशा हमारा साथ दिया है और देता रहेगा। लेकिन विगत कुछ दशकों में देखा गया कि इसे सस्ते में लेने की भूल की बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। पर्यावरण कुछ बोलता नहीं है, पहले सिर्फ सचेत करता है फिर भारी विनाशलीला दिखाता है।
विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य के लालच ने प्रकृति का एक-एक पंख नोच डाला है। पर्यावरण कितना प्रदूषित हो चुका था, इस बात का अहसास हमें लॉकडॉउन के दौरान स्वच्छ हुए पर्यावरण को देखकर लगा जब पंजाब के जालंधर से नेपाल की धौलागिरी पर्वत मालाएँ दिखने लगी थीं। पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, सूखे, भूस्खलन की जो भयावह स्थिति बनी है वह संपूर्ण मानवता के लिए घातक सिद्ध हुई है। सार यही निकलता है कि हमने प्रकृति से सिर्फ़ लिया ही लिया है, कुछ दिया नहीं बल्कि उसका अंधाधुंध दोहन करते रहे हैं इसलिए हम बहुत बड़े एहसानफरामोश साबित हुए हैं। अभी भी अगर हम सचेत नहीं हुए तो आने वाली पीढ़ी को एक दूषित प्रकृति सौंप कर जाएँगे।
जहाँ मेडिकल साइंस आज इतने उन्नत स्तर पर है तो वहीं समय के साथ व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हुई है। बैक्टीरिया, वायरस बड़ी तेज़ी से अपना स्वरूप बदल रहे हैं। 'तुम डाल-डाल तो हम पात' वाला मामला हो गया है। अब पुरानी एंटीबायोटिक इन पर असरकारक नहीं रही। प्लास्टिक, पॉलीथिन के अंधाधुंध प्रयोग से कैंसर जैसे प्राणघातक रोग के मरीज़ बढ़ रहे हैं।
वायु प्रदूषण से व्यक्ति को साँस लेने में भी तकलीफ का सामना करना पड़ रहा है। एक-एक साँस की क्या अहमियत होती है, इस बात का पता भी वैश्विक बीमारी कोविड-19 के वक्त ही पड़ा इसलिए पर्यावरण केंद्रित जीवनशैली अपनाना आज व्यक्ति के स्वास्थ्य व धरती के स्वास्थ्य के लिए वक्त की जरूरत है।
अब आता हूँ अपनी बात पर। विगत छह वर्षों से राष्ट्रीय, साहित्यिक पत्रिका 'सत्य की मशाल' का संपादन कर रहा हूँ परंतु किसी संग्रह के संपादन करने का मेरे पास कोई पूर्व अनुभव नहीं रहा है। इज़्ज़त का सवाल भी था। अतः इस संकट के समय मुझे आप सब लघुकथाकार साथी याद आए। डर भी था कि समस्त लघुकथाकारों को पर्यावरण विषय पर ही बाँध दिया जाए और इसी समय सीमा में उनसे मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित लघुकथाएँ भेजने की अपेक्षा की जाए तो जाने क्या प्रतिक्रिया मिले किंतु देखा कि बहुत सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। रचनाकारों ने बहुत उत्साह से इस आयोजन में भाग लिया। पर्यावरण संरक्षण पर कई वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली लघुकथाएँ भी मिलीं जिनकी ज़रूरत भी थी। भविष्य की कल्पना करके रची हुई लघुकथाएँ भी मिलीं। कुल मिलाकर इन लघुकथाओं में सकारात्मकता, रचनात्मकता, मौलिकता, कल्पना के विविध रंग हैं जिनसे आशान्वित हूँ कि आने वाला संग्रह पर्यावरण संबंधित लघुकथा साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में दर्ज होगा। रचनात्मक सहयोग देने वाले सभी रचनाकारों का मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ एवं आशा करता हूँ कि उनकी रचनात्मकता के साथ पूर्ण न्याय कर पाऊँ।
हार्दिक शुभकामनाएँ।
कपिल शास्त्री
निरुपम रीजेंसी, एस-3, 231A/2A
साकेत नगर, भोपाल
मो. 9302137088
Email-kshastri121@gmail.com
प्रकृतिः रक्षति रक्षिता
भारत की प्राचीन जीवन शैली का मूलभूत दर्शन 'प्रकृतिः रक्षति रक्षिता' है। इसका अर्थ यह है कि अगर हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेंगी। धरती के प्रति अनुकूल तथा धरती को कोई नुकसान न पहुँचाने वाली जीवन शैली जीने का कर्तव्य निर्धारित करती है। ऐसी जीवन शैली अपनाने वाले लोगों को 'प्रो प्लैनेट पीपल' (P3) के रूप में जाना जाता है।
वर्तमान में सबसे बड़ी आवश्यकता पर्यावरण के अनुकूल दैनिक जीवन की गतिविधियों को क्रियान्वित करने की है। इसके लिए प्लास्टिक की थैली के स्थान पर कागज़/जूट की थैली का प्रयोग करना। जैव-निम्नीकर्णीय और गैर-जैव-निम्नीकर्णीय कचरे को अलग डिब्बे में अलग करना। आने-जाने में सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना और कम दूरी के लिए पैदल या साइकिल का उपयोग करना।
पर्यावरण के प्रति घोर लापरवाही से आदमकद मनुष्य बौना होता जा रहा है। अतएव पर्यावरण को बचाने में तथा हमारे जीवन-संदर्भों को अनुकूल बनाने में हमको पाँच प्रकार के 'R' को प्रयोजनीय बनाना पड़ेगा। Refuse (इन्कार), Reduce (कम उपयोग), Reuse (पुनः उपयोग), Repurpose (पुनः प्रयोजन) और Recycle (पुनः चक्रण)। पंचतत्त्व के भैरव मिश्रण वाले हमारे शरीर को आज की कठोर जीवन पद्धति के बीच कोई Relax दे सकता है तो ऐसा रामबाण आधार उक्त पाँच प्रकार के 'R' के सार्थक अर्थ के अनुपालन से होगा।
संकलन में पर्यावरण सरीखे गंभीर विषय पर देश में मौजूदा दौर के कई नामचीन लघुकथाकारों की लघुकथाएँ सम्मिलित की गई हैं। प्रायः सभी लघुकथाएँ विषयानुरूप जीवंत होकर बरबस ध्यान खींचती हैं।
डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'अकेला कब गिरता है पेड़' खेल संस्कृति को बढ़ावा देने के अर्थ में निर्धारित भूभाग पर संस्थान खड़ा करने की कीमत पर उस क्षेत्र की जद में आने वाले वृक्षों की कटाई के निमित्त उन वृक्षों पर लाल निशान लगाकर उनकी आत्मा में उनकी मौत का भय रोप दिया जाता है। फलस्वरूप जलवायु का अभिसिंचन करने वाले वृक्ष नभ में घिर आए बादलों की बूँदों से खेलना छोड़ देते हैं। एक दिन धारदार आरियाँ उनका जीवन तमाम कर देती हैं। पेड़ क्या गिरते हैं, मौसम गड़बड़ा जाते हैं, जलवायु दूषित हो जाती है।
मेरी लघुकथा 'थरथराहट' में दुर्जेय प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का क्रूर ध्येय ही मानवता के पक्ष में आत्मघाती कदम उठाने की विनाशक पहल के बिंदु दर्शाए गए हैं। जबकि उनकी दूसरी लघुकथा 'चीरा' पेड़ों को काटकर पर्यावरण के साथ प्रतिकूल व्यवहार कर ईश्वर प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के स्रोतों को विनष्ट करने की निहित स्वार्थ से पोषित मनुष्यों की कुत्सित भावनाओं का पर्दाफाश करती हैं।
अशोक जैन की लघुकथा 'बूढ़ा बरगद' कुपित प्रकृति के प्रहारों से जीवन मूल्यों की रक्षा में अडिग है। जबकि पर्यावरण के प्रतीक बरगद की जड़ में प्रस्फुट नवपत्तियाँ बरगद के दीर्घायु बने रहने की पहचान हैं। सतीश राठी की लघुकथा 'स्वाद-बेस्वाद' में फसलों में इंसेक्टिसाइड्स के अंधाधुंध उपयोग से बेस्वाद होती सब्जियों के प्रति चिंता व्यक्त करती हैं। दूसरी लघुकथा 'आक्रोश' में पानी की कमी के कारण किसानों के आक्रोश को गहराया गया है। उमेश महादोषी की लघुकथा 'नुकीली कीलों पर नंगे पाँव' दिन-ब-दिन विकृत होते पर्यावरण की नाभि से जन्म लेती दूषित हवाओं के विरेचन में मजदूर, किसान, नौकरीपेशा और नेतागण की चिंताओं से संबंधित विस्फोटक बयानों को एक सीध में खड़ा करती हैं। डॉ. शील कौशिक की लघुकथा 'अनाथ' आँगन में उगाई गई हरीतिमा के सौंदर्य को ढाँपने वाले अनुपयोगी वृक्षों को अवांछित स्थिति में इसलिए बचाए रखना चाहती है कि पेड़ों को रासायनिक विष देकर नष्ट करने का पाप अपने सिर कौन ले?
अशोक गुजराती की लघुकथा 'मैं बूढ़ा कब होऊँगा' सेवानिवृत्ति के बाद परिवार के वृद्ध दादाजी घर के सामने की वाटिका में लगे फूल-पौधों से युक्त बागीचे की देख-रेख में जुड़े होकर न केवल पर्यावरण को उन्नत बनाने में लगे हैं अपितु स्वस्थ पर्यावरण के वरदायी सान्निध्य में स्वयं को भी स्वस्थ बनाए हुए हैं। डॉ. सुरेश वशिष्ठ की लघुकथा 'गाँव की तस्वीर' चालीस बरस बाद शहर से गाँव लौटे मास्टर दीनानाथ गाँव के दूषित पानी के विरोध में ग्रामवासियों के बीच मुहिम चलाते हैं और गाँव को शुद्ध पेयजल देने वाले कुओं की सफाई करवाकर प्रदूषित पानी से उपजे स्वास्थ्य विषयक संकटों का निवारण करते हैं। डॉ. सन्ध्या तिवारी की लघुकथा 'हो गई है पीर पर्वत सी' में ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के कारण हिस्से की आवश्यक धूप न मिल पाने की व्यथा को विवेचित करती हैं। डॉ. रजनीश दीक्षित की लघुकथा 'ताबूत में जिंदगी' आने वाले समय में बिगड़ते पर्यावरण से उत्पन्न खतरों के एलार्म सुनाती मिलती हैं। रामकरण की लघुकथा 'ठिगना' पर्यावरण बचाओ के विश्वविश्रुत नारे के बरअक्स कुल्हाड़ी को मिले वृक्ष काटने के परमिट से पैदा मानवीय हताशा को व्यक्त करती हैं।
कपिल शास्त्री की लघुकथा 'कहीं डंक न लग जाए' शहरीकरण के समानांतर ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं की बराबरी में खड़े जीवित पेड़ रहवासियों के फ्लैट में बनी खिड़कियों से झाँककर उनको पर्यावरण का प्रीतिकर लुत्फ़ तो उठाने देती हैं बरअक्स इन पेड़ों पर आदतन अपना बसेरा बसाने वाले कीट, पतंगे, मधुमखियों के छत्ते कैसे फ्लैटवासियों का जीवन दूभर कर देते हैं। इस जीवंत घटना को कपिल की लघुकथा यह कहकर और जीवंत कर देती हैं कि मल्टीसंस्कृति खड़ी कर हमने पंछियों के मुक्त आवास छीन लिए हैं तो प्रतिकारस्वरूप पक्षीवृंदों का हमसे विरोध ठानना स्वाभाविक ही है। डॉ. लता अग्रवाल की लघुकथा 'बड़ा रावण' में पॉलीथिन के निरंतर उपयोग से पर्यावरण में पनप रहे विषैलेपन की व्यथा को दुहराया गया है। अनिल मकरिया की लघुकथा 'अव्यव बीज' में व्यक्त है कि पर्यावरण के पास मनुष्यों को जीवनदान देने के मुक्तहस्त हैं बावजूद इसके मनुष्यों के पास स्वयं के मुख के अलावा एक अन्य सावयव है सुरसमुख ! जो पर्यावरण की वरदायी मुद्रा को कच्चा चबा जाता है। कनक हरलालका की लघुकथा 'भस्मासुर' युद्ध की विभीषिकाओं से पक्षियों के जीवन पर मौत के ताण्डवों के वज्र चलाती है। आशा शैली की लघुकथा 'विवशता' पॉलीथिन के उपयोग के विरोध में सरकारी वर्जनाओं के बावजूद दुकानदारों से खरीदे हुए सामान बँधवाने में ग्राहकों द्वारा पॉलीथिन की माँग का सायास क्रम अंततः पर्यावरण की स्वस्थता पर हमले होने की वजह सिद्ध करता है। दिव्या शर्मा की लघुकथा 'उगते रेगिस्तान' में दृष्टव्य है कि पानी की बंद बोतलों में बिक्री और खरीदी गई पानी की बोतल से पानी बहाने का दुरुपयोग यही वह क्रूर प्रक्रिया है जो सरकारी नलों से पानी पीने के आम प्यासे नागरिकों के स्रोतों को हज़म किए हुए हैं। मृणाल आशुतोष की लघुकथा 'मृत्यु' में बढ़ती जनसंख्या के आतप से शहर में तब्दील होते गाँवों की खोई हुई पर्यावरणीय दास्ताँ को अश्रुपूरित भावों से सुनाया गया है। सविता मिश्रा 'अक्षजा' की लघुकथा 'पुण्य' में दिव्यदर्शन कराया गया है ताकि आम मनुष्य अपना परम् कर्तव्य समझते हुए उजड़ी हुई जमीन में हरियाली रोपने का इरादा जीवंत बनाए, यही उसके पुण्य की कमाई होंगी।
लब्बोलुआब यह कि प्रस्तुत संकलन की प्रत्येक लघुकथा पर्यावरण के तारतम्य से जुड़ी होकर अपने-अपने अभिप्रायों से पर्यावरण को सजाने, सँवारने, लोकोपकारी बनाने में संलग्न प्रतीत होती हैं। साहित्य का मकसद सबका हित साधने में हैं। यहाँ भी प्रायः हर लघुकथा में पर्यावरण के पक्ष में मनुष्यों को खड़ा कर सौहार्द भावों से उन्नत पर्यावरण के साथ स्वस्थ मानव जीवन की कामना की गई है।
मेरा विश्वास है 'पर्यावरण केंद्रित जीवन शैली' पर प्रस्तुत संकलन हिंदी लघुकथा के इतिहास में नया परिशिष्ट खोलेगा। इसके साथ सहृदय-सामाजिकों की 'माउथ पब्लिसिटी' इस कदर जुड़ने लगेंगी कि देर-सवेर यह संकलन प्रसिद्धि अर्जित करते हुए देश के बहुतायत विश्वविद्यालयों में शोधछात्रों की शुभेच्छाओं को आमंत्रित करेगा और यह संकलन शोधोपाधि का महान शैक्षणिक कारण बनेगा।
संकलन के संपादन में अपना वैचारिक कौशल्य और अभूतपूर्व संपादकीय सहयोग प्रदान करने वाले श्री कपिल शास्त्री को साधुवाद देते हुए प्रस्तुत संकलन को पर्यावरण विषयक अपनी दृष्टिसंपन्न लेखनी का अवदान श्रेष्ठी लघुकथाओं के माध्यम से देने वाले, सभी ज्येष्ठ, श्रेष्ठ लघुकथाकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैं खुद को अत्यंत विनीत अनुभव कर रहा हूँ।
डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
74 जे/ए स्कीम नम्बर 71, इंदौर
मो-9329581414
कपिल शास्त्री
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