लघुकथा-आलोचना-1991/सुरेशचन्द्र गुप्त (डॉ.)

पुस्तक : लघुकथा:सरंचना और शिल्प

लेखक : डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त

संस्करण : फ़रवरी, १९९१ / प्रकाशक : दीपशिखा प्रकाशन (फ़ोन : ५७२६३७४), ५१ /२, न्यू मार्केट, लिबर्टी सिनेमा के समीप, करौलबाग़, नयी दिल्ली- ११०००५

वितरक : पराग प्रकाशन, ३/११४, कर्ण गली, विश्वासनगर, दिल्ली ११००३२

अनुक्रम

विचार-खण्ड

लघुकथा : संरचना और शिल्प

लघुकथा : त्रासदी की प्रहेलिका

लघुकथा : संप्रेरणा और सार्थकता

लघुकथा : समष्टिमूलक व्यष्टि रेखा

लघुकथा - खण्ड

नपुंसक

कैसे-कैसे मर्ज़

मंगलसूत्र

भ्रम

धुन्ध

दवा

हमनाम

धन्धा

नामाकूल उल्लू

माई-बाप

इक्कीसवीं सदी

दुनियादारी

प्रेतलीला

दक्षिणा

देवी-देवता

संघर्ष

ड्रॅगन

छत्रछाया

आधुनिक एकलव्य

शराफ़त

निदान

दान

मृत्यु- योग

विवशता

ज़माने की हवा

इनाम

सम्बन्ध

वारिस

कर भला, हो भला

भगवत्कृपा

मुर्दाबाद जिन्दाबाद

अभिनन्दन

सर्वशिरोमणि

स्वतन्त्रता सेनानी

रिश्ते

भृगुवंशी

पतिव्रता

तीसरी लक्ष्मी

भूमिका  स्वरूप लिखित 'प्राक्कथन' :

साहित्यकार का मूल धर्म आत्माभिव्यक्ति है। अनुभवधर्मी रचनात्मकता जिस किसी भी विधा में अंकुरित पल्लवित होती है, वही संप्रेषणक्षम हो जाती है। ऐसे में किसी विधा को मुख्य और किसी को गौण कहना व्यामोह-मात्र का सूचक है। कथ्य में आत्मप्रेरणा की शुभ्रता होगी तो तथाकथित गौण विधा भी आन्तरिक ऊर्जा से आलोकित हो उठेगी। इसलिए जो लेखक या आलोचक विधाओं की पाँत में लघुकथा को सबसे अन्त में पाकर उसके प्रति उपेक्षा भाव प्रकट करते हैं, वे स्वयं अपनी अवमानना करते हैं। साहित्य का इतिहास साक्षी है कि जिस विधा अथवा रचना-धारा का कालविशेष में नोटिस नहीं लिया गया, कालान्तर में उसकी जड़ें क्रमश: इस क़दर मजबूत होती गयीं कि उसका स्थान स्वतः पुख्ता हो गया ।

साहित्य यदि संवेदना की सतत जीवन्त धारा है, तो लघुकथा को उसके अन्तर्गत विधाविशेष के रूप में मान्यता देने पर आपत्ति का प्रश्न ही कहाँ उठता है? लघुकथाकार के पास न संवेदना की कमी है और न शिल्प की। उसकी रचनात्मक सार्थकता को संशय की जकड़न से मुक्त करना आवश्यक है। विधा रूप में स्वीकृति के लिए रचनाक्रम में जिस नैरन्तर्य की अपेक्षा होती है उसमें वह किसी भी अन्य विधा की तुलना में कितने ही किलोमीटर आगे रहता है क्योंकि पत्र-पत्रिकादि में लघुकथाओं का प्रकाशन प्राय: पर्याप्त परिमाण में होता है । यह द्रुत गति ही उसके लिए वबाल-ए-जान बन गयी है। थोक में उत्पादन सत्साहित्य की प्रकृति के विरुद्ध है, इसलिए बहुलातिबहुल लघुकथाओं की पड़ताल आवश्यक है। यहीं से आरम्भ होगी वह यात्रा जो अन्ततः लघुकथा विकासात्मक इतिहास का निर्धारण करेगी और उसके शास्त्र को मंजिल तक पहुँचाएगी ।

'लघुकथा : संरचना और शिल्प' शीर्षक प्रस्तुत कृति में शास्त्र और सर्जना दोनों की बानगी प्रस्तुत की गयी है। दोनों ही दिशाओं में इसके पूर्व भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है तथा गोष्ठियों प्रायः में विचार-चर्चा होती रही है । फिर भी, अपने अनुभव खंडों को यथासम्भव सुनियोजित करने का प्रयत्न मैंने किया है। मेरी पहली लघुकथा सन् १९५० में जुलाई-सितम्बर के मध्य दिल्ली के पाक्षिक 'अधिकार' में प्रकाशित हुई थी। शीर्षक था 'पौत्र की वांछना'। दुर्भाग्य से काल-प्रवाह में यह रचना लुप्त हो गयी और चिन्तन अथवा लेखन के धरातल पर इस दिशा में कोई विशेष रुझान अगले २५-३० वर्षों तक नहीं हो पाया। सन् १९८२-८३ में इस दिशा में पुनः प्रवृत्ति हुई जिसका श्रेय डॉ० चन्द्रमोहन चमोली को है। उनके अनुरोध पर श्री अशोक वर्मा द्वारा सम्पादित 'अनकहे कथ्य' के लिए लघुकथाएँ मैंने लिखी थी। इसी कड़ी में कुछ अन्य रचनाएँ जुड़ती गयीं और मेरा पहला लघुकथा संकलन 'छोटी-बड़ी लकीरें' सन् १९८७ में प्रकाशित हुआ। 'लघुकथा : संप्रेरणा और सार्थकता' शीर्षक लेख की रचना भी लगभग उन्हीं दिनों रोहतक विश्वविद्यालय में हिन्दी प्रवक्ता डॉ० नरेश मिश्र के अनुरोध पर की थी। उक्त विषय पर अब तक के अपने सभी लेखों तथा लघुकथाओं का संकलन मैंने प्रस्तुत कृति में कर दिया है जिससे मुझे इस सन्दर्भ में एक परिदृश्य का निर्माण करने में सुविधा हुई है ।

अपनी लघुकथाएँ मुझे अपनी कविताओं से कम प्रिय नहीं हैं। मेरे लिए दोनों की रचना भूमि समान है, केवल शिल्प में अन्तर है | लघुकथा के सिद्धान्त पक्ष पर मैंने जो कुछ भी लिखा है उसे मेरी विवशता ही समझना चाहिए । कवियों के काव्य-सिद्धान्तों की समीक्षा करते-करते इस दिशा की ओर उन्मुखता अब जैसे आदत ही बन गयी है। सिद्धान्त और रचना दोनों को एक कड़ी में रखकर देखना मुझे स्वाभाविक लगता है। प्रस्तुत कृति में दोनों को एक साथ संयोजित करने का यही कारण है ।

मेरी यह कृति उन लघुकथाकारों को समर्पित है जो इसे एक सशक्त रचना विधा के रूप में सँवारने के लिए कृतसंकल्प हैं ।

५ फ़रवरी, १९९१

सी-८८ इन्द्रपुरी नयी दिल्ली ११००१२

--सुरेशचन्द्र गुप्त

अधिष्ठाता, कला संकाय आचार्य तथा अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त 

(जन्म : २० दिसम्बर, १९३३ )

(निधन :  )

• दिल्ली विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० डी० लिट० । • सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, कला-संकाय, आचार्य तथा अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग; सम्पादक, शोध प्रतिमान, संरक्षक, हिन्दी अनुसन्धान परिषद् ।

साहित्यिक योगदान

कविता संग्रह : अंगुल भर खरोंच, अंजलि भर जुगनू, दूब की ज्वाला, बर्फ़ से बारूद तक, घुन-लगे चौखटे, क्षितिज पर टँकी किरण ।

लघुकथा-संकलन : छोटी-बड़ी लकीरें, आधुनिक एकलव्य | 

उपन्यास : देवयानी ।

जीवनी : भारत की महान आत्माएँ ।

आलोचना : आधुनिक हिन्दी कवियों के काव्य सिद्धान्त, भक्तिकालीन कवियों के काव्य-सिद्धान्त, तुलसी का काव्यादर्श, केशव : काव्यशास्त्रीय विचार, आचार्य न्यामत ख़ाँ जान, महादेवी की साहित्य-साधना, समीक्षा और संदर्भ, सम्प्रेषण और विश्लेषण, शोध और समीक्षा, हिन्दी-साहित्य विविध परिप्रेक्ष्य, समीक्षात्मक निबन्ध, अनुभूति की रचनाधर्मिता, हिन्दी काव्यशास्त्र : कवियों की अवधारणाएँ, लघुकथा संरचना और शिल्प |

सम्पादित ग्रंथ : मुद्राराक्षस, शकुन्तला, मूल्यांकन, प्रसाद के नाटक और भारतीय अस्मिता, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आस्था के क्षितिज ।

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