लघुकथा-विशेषांक-2004/प्रभाकर शर्मा (सं.)

(संतोष सुपेकर के सौजन्य से)

लघुकथा-अंक : सागर के मोती (अरविंद नीमा स्मृति लघुकथा-अंक)

संस्करण : अगस्त 2004

प्रकाशक : हस्ताक्षर प्रकाशन

271, इन्दिरानगर, आगर रोड, उज्जैन-456006

प्रबन्धन : सुदेश नीमा

सहयोग राशि : रु. 20/

इस संकलन में अनुक्रम पृष्ठ नहीं है।

प्रभाकर शर्मा द्वारा लिखित संपादकीय :

लघुकथाएँ युगीन प्रवृत्तियों के अनुसार प्राचीन काल से ही लिखी जा रही हैं। पंचतंत्र की लघुकथाएँ राजपुत्रों को नीति की शिक्षा देने के लिए लिखी गई थी जिसमें वे सफल भी रहीं, वर्तमान लघुकथाएँ भी सामान्य जन के अन्दर सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक विद्रूपताओं के विरुद्ध पनप रही विरोधी भावनाओं के कारण लिखी जा रही है । हर क्षेत्र में पनप रहे दोहरे चरित्र या कथनी और करनी के अन्तर को स्पष्ट करने के लिए भी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। भारत में हो रहे पाकिस्तानी आतंकवादी गतिविधियों को आज भी अमेरिका मान्यता नहीं दे रहा है, जबकि अमेरिका पर हुए एक ही आतंकवादी हमले के कारण उसने अफगानिस्तान और लादेन के खिलाफ विश्व जनमत तैयार कर अफगानिस्तान पर आक्रमण कर समस्या का निदान कर लिया लेकिन इस घटना के बाद भारत की संसद पर आतंकी हमले के खिलाफ उसने कोई विशेष कदम नहीं उठाया। भारत जब आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए तैयार हो रहा है तो अमेरिका द्वारा भारत को संयम बरतने के लिए कहा जा रहा है। इस दोहरे चरित्र को या कहिए कथनी और करनी के अन्तर को कहने के लिए ही वर्तमान लघुकथा को कथानक मिलता है और वह इस दोहरेपन को उजागर करने का माध्यम बनती है। यह दोहरापन राष्ट्रों में समाज में परिवार में पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य, पति पत्नी, सास-बहू, मित्र मित्र, अमीर-गरीब, आदि संबंधों के व्यवहार में देखने को मिलता है।

वर्तमान समय में लघुकथा का अचानक प्रचलन में आ जाने का कारण यह है कि वह सीधे-सीधे जन मानस को प्रभावित करती है। परिस्थितिवश जब कोई बात अभिधा में नहीं कही जा सकती तब वह व्यंग्य प्रतीक या संकेतों में कही जाती है। फिर भी बात नहीं बनती है तब वह पुनः अभिधा में कही जाने का आग्रह करती है। वर्तमान या नई लघुकथा ऐसी ही यात्रा करते हुए अपने नए स्वरूप में उपस्थित हुई है ।

जब शोषण, दोहन और अत्याचारों के प्रति सहनशीलता की भी अति हो जाती है तब रचना में व्यंग्य, प्रतीक और संकेतों के बजाय सरलता और स्पष्टता की मांग होती हैं। जन-जन तक रचना के आशय का संप्रेषण हो इसके लिए रचना के कथानक में स्पष्टता की आवश्यकता महसूस होती है तब लघुकथा बगैर आवरण के वास्तविकता कहने के लिए प्रस्तुत होती है।

किसी भी रचना के मानदण्ड रचना से ही प्राप्त होते हैं। पहले रचना होती है फिर मानदण्ड निर्धारित होते हैं इन्हीं मानदण्डों के आधार पर भविष्य की रचनाओं की समीक्षा होती है और नए-नए प्रतिमान भी गढ़े जाते हैं। यह क्रम निरन्तर जारी रहता है । लघुकथा अभी भी आकार ग्रहण करने में लगी है, वह अभी अपना स्थान तय कर रही हैं, अभी वह स्थिर नहीं है शायद स्थिर हो भी नहीं क्योंकि लघुकथा निरन्तर परिवर्तित हो रही है। सुधी लघुकथाकार स्वयं भी लघुकथा कलेवर में निरसता आने पर उसमें परिवर्तन करते रहे हैं । इसलिए लघुकथा के मानदण्ड निर्धारित करना इतना आसान नहीं है क्योंकि समयानुसार रचनाओं के मानदण्ड भी रचनानुसार परिवर्तित होते रहते हैं। लघुकथा स्वयं भी समय के अनुकूल नए आकार प्रकार और कथानक लेकर प्रकट हो रही है।

लघुकथा नई विधा नहीं है लेकिन वह नित नया स्वरूप ग्रहण करती जा रही है। वर्तमान लघुकथा या नई लघुकथा अपने नवीनतम स्वरूप में हमारे समक्ष है। नई लघुकथा नीति की शिक्षा या उपदेश नहीं देती वरन वह उपदेशों और भाषणों में परोसे जा रहे आदर्शों की कथनी और करनी के भेद को स्पष्ट कर रही हैं वह सिद्धान्त और व्यवहार के अन्तर को स्पष्ट कर रही है। सही मायने में लघुकथा व्यावहारिक जीवन की आलोचना और जीवन में पारदर्शिता की पक्षधर है। हाल ही में प्रकाशित लघुकथा संकलन प्रकाश में आए हैं-- डॉ. सतीश दुबे का प्रेक्षागृह तीसरी आँख संपादक सूर्यकांत नागर, 'समांतर' का लघुकथा अंक संपादक डॉ. इसाक अश्क, क्षितिज सम्पादक सतीश राठी की लघुकथाएँ पढ़ने से लघुकथाओं की पारदर्शिता का आग्रह स्पष्ट होता है । इन लघुकथाओं के वाचन में वर्तमान लघुकथा जीवन की आलोचना के रूप में भी परिभाषित होती है । अपने पारदर्शी स्वरूप के कारण ही लघुकथा जीवन के आर पार देख रही है और जीवन की दुरूहता को अभिव्यक्त कर रही है। इसका एक कारण यह भी है कि वर्तमान लघुकथा जनता द्वारा जनता के लिए लिखी जा रही है। लघुकथा लेखक अपने आपको महानतम लेखक मानने के अहंकार से भी मंडित नहीं है, न ही इन लेखकों में अभिजात्य लेखकों-सा आभामण्डित होने का गुरूर ही है ।

वर्तमान नई लघुकथा उन पदलोलुप राजनेताओं, पदाधिकारियों, भ्रष्टाचारियों और समाज के ठेकेदारों के खिलाफ हैं जो सरल सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। नई लघुकथा उन लाचार और भोले स्त्री पुरुषों के पक्ष में लिखी जा रही हैं, जो सदियों से सामाजिक प्रतिबंधों और सत्तापक्ष की चालाकियों की पीड़ा भोग रहे हैं ।

नई लघुकथा केवल व्यंग्य या हास्य नहीं है अपितु वे सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ एक जंग लड़ रही हैं जिन्हें कविता से क्रांति के समतुल्य रखा जा सकता है।

हालांकि अभी तक लघुकथा ने ऐसी क्रांति का उदघोष तो नहीं किया है लेकिन उसने बगैर घोषणा के अपनी जंग की शुरूआत तो कर ही दी है ।

नई लघुकथा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक सत्य को उद्घाटित कर उनमें पारदर्शिता लाने के लिए प्रयासरत हैं और अपने माध्यम से ऐसे समाज की रचना प्रक्रिया में अपना योगदान देने का प्रयास कर रही है जिससे जन-जन में नई समाज रचना का भावबोध जाग्रत हो ।

अरविन्द नीमा ऐसे व्यक्तित्व का नाम था जिसने अपनी शारीरिक विकलांगता को कभी भी अपने पर हावी नहीं होने दिया। दोनों पैर पोलियोग्रस्त होने के बावजूद नियमित छात्र के रूप में वाणिज्य विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। एम. कॉम. के बाद वह चाहते तो विकलांगता कोटे में शासकीय नौकरी लग जाती लेकिन उन्होंने आरक्षण की बैसाखी का सहारा न लेते हुए अकाउंट्स की निजी कक्षाएँ चलाकर परिवार में सहयोगी की भूमिका अदा की । वे विनोदी स्वभाव के थे, वे अपने छात्रों को अक्सर हँसाते भी रहते थे। उन्होंने लेखन से भी साहित्य जगत में अपनी पहचान बनाई । विविध भारती के "हवा महल" कार्यक्रम और आकाशवाणी इन्दौर से उनके रेडियो रूपकों का प्रसारण होता रहा जिसमें उनकी अन्तर्देशीय पहचान बनी और देश व्यापी मित्र बने। स्थापित पत्र पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, और लघुकथाएँ प्रकाशित हुई । उनकी पहचान बनती जा रही थी कि अचानक वे अल्पायु में ही काल के गाल में समा गए । उनके दुःखद निधन ने उनके परिवार, विद्यार्थियों और मित्रों को हिलाकर रख दिया। शहर एक महती सम्भावना वाले हँसमुख व्यक्तित्व को खो दिया ।

उनके परिवार की ओर से उनकी स्मृति में उनकी लघुकथाओं का संकलन "गागर में सागर” का प्रकाशन किया। उज्जैन की साहित्य संस्था— 'हस्ताक्षर' ने उनकी स्मृति में लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित की और विजेताओं को पुरस्कार प्रदान किए। प्रतियोगिता में आमंत्रित शेष श्रेष्ठ लघुकथाओं का लघुकथा संग्रह प्रकाशित करने का निर्णय संस्था ने लिया ।

इस संग्रह के लिए महत्वपूर्ण आलेख वरिष्ठ साहित्यकार लघुकथाकार एवं संपादक सूर्यकांत नागर तथा आचार्य डॉ. बी. एल. आच्छा से छोटे से निवेदन पर प्राप्त हुए। मैं दोनों सुधी लेखकों के आत्मीय सहयोग का हृदय से आभारी हूँ और आभारी हूँ आत्मीय नीमा परिवार का, स्व. अरविंद नीमा के पिता श्री बंसीलाल नीमा, श्री हरिनारायण नीमा, अनुज श्री सुदेश नीमा, उनके मित्र तुल्य मार्गदर्शक डॉ. नरेन्द्र समाधिया संपादन सहयोगी भाई सरस निर्मोही का तथा मिलिन्द वझे का जिनके सहयोग से लघुकथा संग्रह का प्रकाशन संभव हो सका ।

                                         - प्रभाकर शर्मा

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