समीचीन(लघुकथा-विशेषांक-1989)/देवेश ठाकुर (सं.)
(पवन शर्मा के सौजन्य से / उनके अनुसार यह अंक जनवरी 1989 में आया था)
समीचीन
[साहित्यिक सामाजिक चेतना की मासिकी]
[लघु कथा, लघु उपन्यास अंक]
[१२]
अवैतनिक सम्पादक प्रकाशक : देवेश ठाकुर
पंजीकरण संख्या १५१/८३
संयुक्त सम्पादक : सतीश पांडेय
मुद्रक : वीरेन्द्र कुमार, नवयुगान्तर प्रेस, शारदा रोड, पोस्ट बॉक्स ३३३, मेरठ- २५०००२
सहयोग राशि : बीस रुपये
सम्पर्क सूत्र : प्रोफेसर्स फ्लैट्स, रामनारायण रुइया कॉलेज हॉस्टल, शीव, बम्बई - ४०००२२
अनुक्रमण :
खण्ड-१
लघुकथा : चिंतन के आयाम
१. लघुकथा के मानदण्ड शंकर पुणतांबेकर, पृष्ठ ६, २. हिन्दी की पहली लघुकथा और हिन्दी का पहला लघुकथा लेखक : सतीशराज पुष्करणा पृष्ठ १४, ३. लघुकथा संश्लिष्ट सुजन प्रक्रिया: कमल चोपड़ा, पृष्ठ २०, ४. लघुकथा कुछ विचारणीय प्रश्न : डॉ० कमल किशोर गोयनका, पृष्ठ ३५, ५. आमास, संबद्धता और लघुकथा : रतीलाल शाहीन, पृष्ठ ४८, ६. लघुकथा : एक समसामयिक परिप्रेक्ष्य: डॉ० बी० डी० मिश्र, पृष्ठ ५३, ७. हिन्दी लघुकथा : पक्षधरता के संदर्भ में सतीश पांडेय, पृष्ठ ५६, ८. लघुकथा : सम्भावनाएँ एवं आशंकाएँ : : डॉ० श्रवण कुमार गोस्वामी, पृष्ठ ६६, ६. लघुकथा की आलोचना-पद्धति राधेलाल विजधावने, पृष्ठ ७४, १०. हिन्दी लघुकथा शिल्प-संदर्भ: डॉ० वेदप्रकाश अमिताभ, पृष्ठ ८१, ११. लघुकथा का शिल्प प्रो० शशि मिश्रा, पृष्ठ ८७
खण्ड - २
लघुकथा सृजन के धरातल
स्वातन्त्र्योत्तर स्थितियाँ
'खान अब्दुल रशीद 'दर्द', पृ० ६६, हरेकृष्ण, पृ० १००, कृष्णशंकर भटनागर, पृ० १००, सतीश पांडेय, पृ० १०१, सुनील अग्रवाल 'कुमार', पृ० १०२/ प्रभात भास्कर, पृ० १०२, (भारत यायावर, पृ० १०३, (गह्वर गोवर्द्धन, पृ० १०३, अशोक पागल, पृ० १०४, (नैना जोगन, पृ० १०४, कृष्णानन्दन कृष्ण, पृ० १०५, तिरुण जैन, पृ० १०६, अनिल जन विजय, पृ० १०७, राम यतन प्रसाद यादव, पृ० १०८, अमर नाथ 'अब्ज', पृ० १०६, पवन शर्मा, पृ० १०६, परमेश्वरलाल वर्णवाल, पृ० १०६ (महावीर प्रसाद जैन, पृ० ११०
राजनीति और राजनीतिज्ञ
(आनन्द बिल्थरे, पृ० १११, (पुष्पलता कश्यप, पृ० ११२, विष्णु प्रभाकर, पृ० ११३, (राजेश देशप्रेमी, पृ० ११४, (नारायणलाल परमार, पृ० ११५, रंगनाथ दिवाकर, पृ० ११६ शंकर पुणतांबेकर, पृ० ११६, पारस दासोत, पृ० ११७ ।
प्रशासन और व्यवस्था
(हीरालाल नागर, पृ० ११८, (रामनारायण उपाध्याय, पृ० ११६, (अशोक भाटिया, पृ० १२०, (डॉ० श्यामसुन्दर व्यास, पृ० १२१, (सुकेश साहनी, पृ० १२२, (रतीलाल शाहीन, पृ० १२३, भगीरथ, पृ० १२४, (कमलेश भट्ट 'कमल', पृ० २५, (राजेन्द्र प्रसाद ठाकुर, पृ० १२५, (प्राणेश कुमार, पृ० १२६, विक्रम सोनी, पृ० १२६, (जया नर्गिस, पृ० १२७, (अशोक मिश्र, पृ० १२७, (आशा पुष्प, पृ० १२८, (शंकर पुणतांबेकर, पृ० १२६ ।
वर्ग विचार
(आशा गुप्ता, पृ० १३०, (कमल चोपड़ा, पृ० १३१, (अनिला वर्मा, पृ० १३२, ( रामेश्वर काम्बोज, पृ० १३३, अज्ञात बन्धु, पृ० १३३, (राजकुमार सिद्द, पृ० १३४, (मोहन राजेश, पृ० १३५, तारिक असलम 'तस्नीम', पृ० १३६ ।
दंगा, धर्म जाति, और साम्प्रदायिकता
(मार्टिन जॉन 'अजनबी', पृ० १३८, खान अब्दुल रशीद 'दर्द', पृ० १३६, ( रमेश बत्तरा, पृ० १४०, दिलीप नीमा, पृ० १४१, (उपेन्द्र प्रसाद राय, पृ० १४२, (महावीर प्रसाद जैन, पृ० १४३, राजेन्द्र राकेश, पृ० १४४, शैल अखौरी, पृ० १४५, (नीलम लाला, पृ० १४५, ज्योतिर्मय आनन्द, पृ १४६. (फजल इमाम मल्लिक, पृ० १४६, (श्यामसुन्दर चौधरी, पृ० १४७, (राजश्री रंजीता, पृ० १४७ ।
मानवीय अवमूल्यन
(विनय कुमार सिंह, पृ० १४८, राघवेन्द्र वर्मा, पृ० १४६, मदन प्रसाद सिंह, पृ० १४६, विष्णु प्रभाकर, पृ० १५०, कालीचरण प्रेमी, पृ० १५१, शराफत अली खान, पृ० १५२ ।
निर्धनता
(पारस दासोत, पृ० १५३, रत्नेश कुमार, पृ० १५४ सतीश राठी, पृ० १५४, ( रमेश बत्तरा, पृ० १५५, विजय कुमार सिंह, पृ० १५५, शैल सहाय, पृ० १५६, (अमरीक, पृ० १५६, (मधुकांत, पृ० १५७, (जया नगिस, पृ० १५७, पारस दासोत, पृ० १५८, रंजीत राय, पृ० १५८ ।
शोषण
(कमलेश भारतीय, पृ० १५६, (तारिक असलम 'तस्नीम', पृ० १६०, मदन शर्मा, पृ० १६१(श्यामबिहारी सिंह 'श्यामल', पृ० १६१, मधुकांत, पृ० १६२
सम्बन्ध जगत : विविध परिदृश्य
(सतीशराज पुष्करणा, पृ० १६३, (साबिर हुसैन, पृ० १६४, (सुरंजन, पृ० १६४, (नरेन्द्र मौर्य, पृ० १६५, (कृष्णशंकर भटनागर, पृ० १६६, (बालकृष्ण नीमा, पृ० १६७, ( केदारनाथ, पृ० १६७, (कमल चोपड़ा, पु० १६८, (अशोक लव, पृ० १६६६ सतीशराज पुष्करणा, पृ० १७० (बलराम, पृ० १७१ (धीरेन्द्र शर्मा, पृ० १७२, (रमणिका पृ० १७४० (प्रबोधकुमार गोविल, पृ १७४, (कमल चोपड़ा, पृ० १७६ ।
विविध
(सतीशराज पुष्करणा, पृ० १७७, अनिल रिसबुड 'बजरंगी', पृ० १७८, कृष्ण किसलय. पृ० १७९, (अशोक भाटिया, पृ० १८०, (सतीश दूबे, पृ. १८०, शान्ति मेहरोत्रा, पृ० १८१, मुकेश रावल, पृ० १८१, रमेश श्रीवास्तव, पृ० १८२, सुरेन्द्र कुमार भक्त, पृ० १८२९ विक्रम सोनी, पृ० १८३, (रतीलाल शाहीन, पृ० १८४, शंकर पुणतांबेकर, पृ० १८४, मातादीन खरवार, पृ० १८५ ।
खण्ड-३
लघु-उपन्यास
गुरु-कुल [देवेश ठाकुर]
इस अंक का संपादकीय
अपनी बात
पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी लघुकथा ने एक लम्बा सफर तय कर लिया है। इस बीच पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा ने 'हास-परिहास' और 'व्यंग्य का अधिकांश स्थान अपने लिए सुरक्षित रख छोड़ा है। आज शायद ही कोई ऐसी पत्रिका हो जिसमें लघुकथा के लिए कोई स्थान निश्चित न हो। पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त नवोदित रचनाकारों और सम्पादकों के द्वारा भी अनेक लघुकथा-संकलन और लघु कथा-विशेषांक प्रकाशित हुए हैं। इन सबमें लघुकथा के माध्यम से जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त असंगतियों, विषमताओं और विद्रूपताओं का अच्छा अंकन हुआ है। प्रस्तुत संकलन को तैयार करते समय ये सब हमारे प्रेरणा स्रोत रहे हैं। हमने प्रस्तुत संकलन में सक्षम, सार्थक और सामयिक लघुकथाओं का वर्गीकरण भर कर दिया है। इस संकलन की प्रस्तुति में इससे अधिक हमारी कोई अन्य उपलब्धि नहीं है ।
लघुकथाओं के साथ-साथ हमने इस विधा पर लघुकथा के जीवन्त लेखकों और समीक्षकों के ११ आलेख भी प्रस्तुत किए हैं। इन आलेखों की प्रस्तुति में हमारा यह प्रयत्न रहा है कि लघुकथा की परिभाषा, उसके स्वरूप, उसके कथ्य तथा उसकी विशिष्टताओं को एक साथ संकलित कर अपने सुयोग्य पाठकों के सम्मुख रखें, जिससे उन्हें लघुकथाओं से प्राप्त होने वाले रस के साथ-साथ लघुकथा के सैद्धान्तिक पक्ष का भी परिचय प्राप्त हो सके।
जिन संकल्पित और प्रगतिचेता रचनाकारों की लघुकथाएँ इस संकलन में प्रस्तुत की गई हैं, उन सबके प्रति हम आभारी हैं। प्रस्तुत लघुकथा-संकलन पाठकों का मनोरंजन तो करेगा ही, साथ ही वह उन्हें युगीन तथ्यों से अवगत कराने में भी सक्षम और सार्थक हो सकने में समर्थ होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
हम प्रस्तुत लघुकथा-संकलन के माध्यम से सामान्य जन का ध्यान उसकी अपनी जीवन-स्थितियों और समस्याओं की तरफ खींचना चाहते हैं। इसी मूल उद्देश्य को सामने रखकर हमने प्रस्तुत संकलन की योजना तैयार की है। आशा है, पाठकों को हमारा यह प्रयास रुचेगा ।
हमें इस संकलन के सन्दर्भ में अपने सुयोग्य पाठकों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
समाज में व्याप्त अनीति, अन्याय और अमानुषिकता को आज लघुकथाओं के माध्यम से ही नहीं, लघु उपन्यासों के माध्यम से भी अभिव्यक्ति दी जा रही है। विसंगति की यह स्थिति जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त टुच्चेपन, घटिया मानसिकता, निकृष्ट षड्यन्त्रों और जघन्य गुट ओर गिरोहबाजी को इसी अंक में संकलित 'गुरु कुल' में सशक्त और सार्थक अभिव्यक्ति दी गई है। 'गुरुकुल' आज के शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों को तो उजागर करता ही है, साथ ही शिक्षक कहलाने वाले जीवों की घटिया, अमानवीय और भ्रष्ट प्रवृत्ति को भी सीधे-सपाट रूप में स्पष्ट करता है। इस छोटो सी कृति के माध्यम से शिक्षा संस्थाओं में एक सिरे से दूसरे सिरे तक व्याप्त भ्रष्टाचार का परिचय तो मिलता ही है, साथ ही तथाकथित शिक्षकों की वह दुच्ची मानसिकता भी उजागर होती है, जिसके कारण आज शिक्षक अन्य सामाजिकों के बीच उपहास और घृणा का पात्र बनता जा रहा है। यह उपन्यास ओछेलालों, जैनों, तिवारियों, राधेश्यामों, नाहरों, कृष्णकांतों और सोमदत्तों के अधोवस्त्रों को खोलकर उनको उनके प्रकृत रूप में प्रस्तुत करता है और समाज तथा राजनीति के नियामकों को एक अप्रत्यक्ष चेतावनी देता है कि यदि देश और समाज को बचाना है तो देश और समाज की नींव- शिक्षा संस्थाओं को ऐसे ओछेलालों, जंनों, राधेश्यामों और कृष्णकांतों आदि से बचाकर रखें, तभी भविष्य में कुछ आशा हो सकती है।
हमें आशा है कि लघुकथाओं की भाँति यह लघु उपन्यास भी हमारे पाठकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उन्हें शिक्षा संस्थाओं और शिक्षा व्यवस्था के सन्दर्भ में गम्भीरता से सोचने की प्रेरणा देगा। अस्तु ।
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