लघुकथा-संग्रह-2021/मुकेश शर्मा

लघुकथा-संग्रह : जी रहे बेहोश

कथाकार  : मुकेश शर्मा

ISBN: 978-81-88819-86-1

© मुकेश शर्मा

प्रकाशक : सत्साहित्य भंडार,

57बी, पॉकेट-ए, फेज-2 अशोक विहार, 

दिल्ली -110052 

फोन: 011-27420386

प्रथम संस्करण :2021

अनुक्रम

1. साँसों की कीमत

2. अंधेरा और रोशनी

3. प्यार की अंगूठी

4. उलझो मत, सुलझो !

5. क्या धर्म केवल कल्पना है ?

6. तलाश

7. आईने वाला डिसूजा

8. फालतू चीज

9. सरकारी 'पावर' का नशा

10. सही फैसला

11. प्यार का अकाउंट

12. छोटे-छोटे सुख

13. यात्री निवास

14. प्यार के पापड़

15. अंधा समर्थन

16. वेंटिलेटर पर मोहब्बत

17. सार्थक जीने का नुस्खा

18. सारी रात

19. बर्फ पर पड़ी संवेदना

20. असली कमायी 

21. आँखों वाले अंधे

22. तिल का ताड़

23. दरद ना जाने कोय

24 नज़रिया

25. सुनीता विलियम्स ने कहा था

26. इस्तेमाल

27. शहर, दोपहर और वह लड़की

28. खेल से बाहर

29. गुरुजी

30. खिलाड़ी के साथ खेल

31. एक और अभिमन्यु

32. खरगोश

33. जाँच समिति जाँच-समिति

34. दीदी का भैया 

35. कटी हुई पतंगें

36. सीढ़ियाँ

37. देश के नाम पर

38. नहले पर दहला

39. नियम के अनुसार

40. बदलती क्लास

41. सरकारी सिस्टम

42. सरकारी रामराज 

43. उसने कहा था

44. पाँचवा शेर

45. प्यार की दुकान

46. मेरे जाने के बाद

47. दुखवा कासे कहें

48. माँ का सहारा

49. पिता-पुत्र संवाद

50. फादर इण्डिया

51. गूँगे-बहरे

52. प्रोत्साहन बसें

53. अज़ीब आदमी

54. मिस्त्री जी

55. एक शराबी की प्रेमकथा

भूमिका अंश :

एक अप्रतिम लघुकथाकार की संजीदा सोच : चित्रा मुदगल

समकालीन लघुकथा परिदृश्य में बड़ी खामोशी से एक नाम अलग से अपनी उपस्थिति की ओर आकर्षित करता है वह है मुकेश शर्मा 'आईने वाला डिसूज़ा', 'सारी रात', 'प्यार का अकाउन्ट', 'मेरे जाने के बाद', 'तलाश', 'धर्म केवल कल्पना है' आदि अनेकानेक उनकी महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं, जो उनकी बहुआयामी लघुकथा दृष्टि, शैल्पिक प्रयोगशीलता, रूढ़ विसंगतियों के प्रतिरोधात्मक पहल, मानवीय मनोविज्ञान की संवेदनात्मक पड़ताल, न्याय के प्रति सामाजिक सरोकारिये प्रतिबद्धता, गलत का अस्वीकार दरअसल उनकी लघुकथाओं के सहज पाठ को सुधी पाठकों के अन्तर्मन के संघर्ष और द्वन्द से इस तरह से जोड़ता है कि वह किसी अन्य चरित्र का घटित न होकर स्वयं उसके ऊपर बीतता या बीत रहा, वह प्रहारात्मक, यातनादायक, अन्तर्सत्य होता है, जिसका सामना वह पात्र नहीं, बल्कि पढ़ते हुए वह स्वयं भोगता है।

लघुकथाओं के विषय में श्री मुकेश शर्मा की प्रतिक्रिया काबिले गौर है। निर्मम होकर यह स्वीकारने में वह तनिक भी संकोच नहीं करते कि लघुकथा के अपरिहार्य उच्च प्रतिमानों को कायम रखने के लिए उसे उन विचलनों और बिखरावों से बचाना होगा, जो उसके सशक्त और गंभीर विधा की परिभाषा को क्षति पहुँचाते हैं। जाहिर है, यह एक अप्रतिम लघुकथाकार की संजीदा सोच का उदाहरण है, जो वह उन प्रतिमानों का अनुसरण स्वयं की अभिव्यक्ति चेतना के प्रति बरतता है। और धोक में लिखने की बाध्यता से मुक्त हो कम लिखने, किन्तु गंभीर लिखने की प्राथमिकता का अनुसरण करता है।

संग्रह  से एक लघुकथा 'आईने वाला डिसूज़ा' :

रात को थोड़ी-सी आँधी आने के साथ ही पूरी बस्ती की लाइट गुल हो गयी। शराब के नशे में लड़खड़ाता फिलॉसफ़र प्रो. डिसूजा अपने कमरे की कुण्डी खोलकर भीतर आ गया। कमरे में घुप्प अंधेरा था। मोमबत्ती थी नहीं और माचिस मिली नहीं। सामने दीवार पर बनी अल्मारी के बाहर लगे आईने में उसका दोस्त दिखायी नहीं दे रहा था। डिसूजा को झटका-सा लगा।

दरअसल रोज़ शराब पीकर, ढ़ाबे से खाना खाने के बाद दोपहर को जब डिसूजा अपने कमरे पर लौटता था तो धूप का एक टुकड़ा उसके साथ कमरे में आ जाता था। कमरे में आईने के सामने आते ही डिसूजा का ज़िगरी दोस्त स्वयं डिसूजा सामने आईने में दिखायी देता तो डिसूजा की बाँछें खिल जातीं। इस बेप्रीत दुनिया में एक आईने वाला डिसूजा ही था, जो उसके हर दर्द का साथी था। वह उसकी तरह मुंह हिलाते हुए उसके सारे दुखड़े सुनता था।

लोग कहते थे कि ज़्यादा पढ़-लिख जाने के कारण बुढापे में डिसूजा का दिमाग चल गया। डिसूजा ने हंसते-हंसते आईने वाले डिसूजा को यह बात बतायी थी। उन्हीं दिनों एक दोपहर तो रोते-रोते डिसूजा ने उसे बताया था कि महीने में एक रोज़ उसका बेटा उससे मिलने आता है, उसे बैंक ले जाकर उसकी पेंशन लेता है और उसमें से ठेके, ढ़ाबे वाले की उधार चुकाकर बाकी रकम अपने साथ ले जाता है डिसूजा रोया तो आईने वाला डिसूजा भी उसके साथ रोया था ।

आज अंधेरे में आईने में उसका हमदर्द आईने वाला डिसूजा दिखायी नहीं दे रहा था। डिसूजा बार-बार आईने में अपने दोस्त को पुकार रहा था और दोस्त आईने में दिखायी देने का नाम नहीं ले रहा। था। डिसूजा का दिल बैठ गया। वह वहीं आईने के सामने सुबकता सुबकता सो गया।

सुबह सूरज निकलने के बाद नींद खुली तो वह खुशी से खिल उठा। सामने आईने में उसका आईने वाला दोस्त डिसूजा मौजूद था। डिसूजा मुस्कराया, उसका दोस्त भी मुस्कराया। डिसूजा ने एक हाथ हिलाया तो आईने वाले दोस्त ने भी हाथ हिलाया ।

मुस्कुराते हुए डिसूजा ने कहा – “समझ गया दोस्त। मुस्कराते हुए - ज़िन्दगी जीनी है तो रोशनी में रहना होगा, अंधेरे में नहीं।" वह खुशी के मारे हैरान था कि जब उसके आईने वाले दोस्त डिसूजा ने भी बिल्कुल उसके साथ होंठ से होंठ हिलाते हुए यही बात कही ।

मुकेश शर्मा

जन्म : 20 फरवरी, 1969 ( गुरुग्राम )

शिक्षा : एम.ए, एल एल. बी, पत्रकारिता एवं जनसंचार डिप्लोमा।

हिंदी लघुकथा-रचना के प्रमुख हस्ताक्षर। तीन किताबें लघुकथा आलोचना पर, एक लघुकथा संग्रह, एक कहानी संग्रह । एक किताब कानून पर अंग्रेजी में। कहानी लेखन में हरियाणा साहित्य अकादमी से प्रथम पुरस्कार। रचना-कर्म पर एम.फिल ।

पत्रकारिता : नवभारत टाइम्स से पत्रकारिता की शुरुआत करके दो प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों के सम्पादकीय विभाग में डेस्क इंचार्ज के रूप में कार्य करने के पश्चात पत्रकारिता को बाय-बाय ।

साहित्यिक दायित्व : विश्व भाषा अकादमी (रजि.), भारत में चेयरमैन पद का दायित्व।न्यूजीलैंड के पहले हिंदी अखबार 'अपना भारत' से वरिष्ठ सम्पादक के रूप में सम्बद्ध ।

सम्प्रति : उपभोक्ता अदालत में अर्द्ध-न्यायिक सदस्य के रूप में कार्य करने के उपरांत फिलहाल एडवोकेट एवं आर्बिट्रेटर के रूप में व्यस्त। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तपती पगडंडियों के पथिक/कमल कपूर (सं.)

आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र रचनावली,भाग-1/डाॅ. ऋचा शर्मा (सं.)

पीठ पर टिका घर (लघुकथा संग्रह) / सुधा गोयल (कथाकार)