लघुकथा-संकलन-1987/सुरेश जांगिड़ उदय-मनोज कुमार 'प्रीत' (सं.)

(शराफत अली खान  के सौजन्य  से)

लघुकथा-संकलन  : आसपास का दर्द

सम्पादक द्वय :  सुरेश जांगिड़ उदय-मनोज कुमार 'प्रीत'

 प्रकाशक :  उदय 86/6 माता गेट,

जाटन मोहल्ला, कैथल-132027 (हरि)

आवरण : भाऊ समर्थ

सर्वाधिकार (रचनाओं के लिए)  लेखक व (अन्य

के लिए) प्रकाशक

पच्चीस रुपये मात्र (25/-)

● प्रथम संस्करण अप्रैल 1987 ● 

अनुकम

। अंकुश्री 31

2 अखिलेश गोपाल 31,16

3 जय सक्सेना32

4 अनिल शूर33

5 अनिल अशुमाला 34.16

6 अनिल कटारिया34

7 अनिता कालड़ा35

8 अपर्णा चतुर्वेदी 36

9 अमर नाथ मोही 37

10 अमर कोमल 39

1। अरपित अनाम 40 

12 अरुणेन्द्र भारती 40

13 अशोक लव41, 42

14 अशोक वर्मा43

16 अशोक शैल 44

15 अशोक विश्नोई 44

17 अशोक ठाकुर45

18 अशोक अम्बर 47 

19 अशोक सन्नी47,16

20 अष्ट भुजा48

21 आरिफ जमाल49,50

22 आनन्द बिल्थरे  50

23 इन्दु वाली 51

24 इकबाल गावा53

25 उषा शर्मा54

26 कमल चोपड़ा 55,20

27 कमलेश भट्ट 56,16

28 कुलभूषण कालड़ा57

29 कृष्ण धमीजा58

30 खुशविदर कुमार59

31 गुलशन मदान कलिड़ा60

32 गोपाल60, 16

33 चमन सिंगला 61

34. चरनजीत कुकरेजा 63

35 चन्द्रभूषण सिंह चन्द्र 64

36 चन्द्रकांत त्रिवेदो 64,

37 चितरंजन भारती66

38 चांद मुंगेरी68,20

39 जयपाल70,18

40 जय प्रकाश मानस71

41 जसनीत चंडिहोक 71

42 जितेन कोही72

43 तरुण जैन73,17

44 तलविन्द्र सिंह74

45 तजिन्द्र चंडिहोक 75

46 तारिक असलम 76,14

47 देवी प्रकाश77

48 दीपक शर्मा78

49 नन्द किशोर 79,14

50 नरेन्द्र लाहा79,17

51 पवन शर्मा80

52 पुष्पलता कश्यप82

53 पुष्पा रघु83

54 पुष्पेन्द्र वर्णवाल 83

55 प्रद्युम्न भल्ला 84

56 प्रमोद बेअसर85.19

57 प्रकाश सूना86, 14

58 भरत लाल88.18

59 मनजीत शर्मा88

60 मदन अरोड़ा91

61 मधुबाला मोनलिजा92

62 मनोज प्रीत93

63 मनोज शर्मा93

64 मनोज हिसारी94,17

65 मांघी लाल95,18

66 मुकेश जैन पारस96,14

67 यतेन्द्र चौधरी97

68 यश खन्ना नीर97

69 योगी साहू किसलय 98 

70 रमाकांत श्री99

71 राज कुमार कमल100

72 राज कुमार निजात 102

73 राज घीमान103

74 राम जी शर्मा 104,20

75 राम कुमार 105, 15

76 राजेन्द्र धवन107

77 राम कृष्ण108

78 राम निवास पंथी109

79 राम कुमार109,18

80 रोहतास तंवर 110, 15

81 रोहित कुमार111

82 रुप देवगुण112

83 ललन तिवारी113

84 वासुदेव (डा.) 114,17

85 वृन्दावन त्रिपाठी115

86 विक्रम सोनी116,20

87 शराफत अली117,18

88 शमशुद्दीन अजहर118

89 व्यामेन्द्र श्याम119,18

90 सतीशराज 120,14

91 सतीश राठी121,19

92 सत्य प्रकाश121

93 एस. मोहन 122,15

94 संदीप दाखा 122,15

95 सिद्धेश्वर 124

96 सुनील रस्तोगी 125, 13

97 सुनीता जांगड़ा 127

98 सुव्रत गोस्वामी128

99 सुरजीत कौशल129

100 सुरेश जांगिड़ उदय 130

101 सुशील अग्रवाल130

102 सूर्य गिरि शास्त्री 131

103 सोहनलाल व्यास  131,16

104 हनुमान प्रसाद 132

105 हरी शंकर त्रिपाठी 133

106 हेमन्त कुमार134

107 ज्ञानचन्द गर्ग134

108 सुरेन्द्र मंथन135

109 सत्यपाल सिंह135

सम्पादकीय 

साहित्य और लघुकथा : एक नजर...

साहित्य स्वयं में निर्मल व स्वच्छ है। इसकी प्रोत-प्रोत हेतु कुछ लिखना महज लोलुपता ही होगी. इस विधा से जुड़ा कोई श्रीजी जहा हमरि प्रतिदिन के समाज में कम ही मिलता है। इससे आपर एक नजर देखने से मालूम होता है कि प्रसंख्य अब अपनी-2 पौड़ा-पीडी में लीन हैं। कोई गुटबंधी तो कोई आप नजर से और कोई स्वयं अकेला ही इस सलीब को खींचने का प्रयत्न कर रहा है।

आज के दौर में वह कहता प्रसंगत न होगा कि आखिर इस निर्मल स्वच्छ विधा में भी दुराचार, भ्रष्टाचार और भतीजावाद का बोलबाला है। लोलुपता के बल पर अनेक जन घिसते स्वयं की दिखाई देते हैं। जबकि साहित्य का इन सब से कोई वास्ता है ही नहीं ? फिर भी लोभी मनुष्य अपनी छवि के लिये साहि की छवि को बिगाड़ता चला या रहा है और यह भी स्पष्ट है कि भूतकाल समुद्र न रहा हो उसका भविष्य भी निर्बल ही आंका जाता है।

है और लघुकथा भी तो साहित्य का एक अंग है भला ही इस का प्रकाश पिछले कुछ गिने-चुने वर्षों से हुआ है परन्तु इस बात से हम अलग नहीं होंगे कि आखिर यह है साहित्य का अंग हो... अला ही सरकारी रूप में अभी तक यह विवा एकांकी यौवन में गजर रही है परन्तु इस विवा के प्रेमी किसी न किसी प्रयास से इसे जीवित रख रहे हैं।

आज के अत्याधिक व्यस्तित समाज ने इस लघु कटाक्ष को अधिक पसन्द इसलिये किया है चूंकि इस में लम्बी बुनियाद या ताना-बाना नहीं बल्कि स्पष्ट प्रहार की क्षमता होती है जो प्रथम प्रहार में ही मनुष्यता को बौना कर देती है।

यह तो अच्छी बात है कि भारत के किसी न किसी कोने से कोई न कोई साहित्य प्रेमी इसके सृजना को बांध पुस्तक का रुप देने में व्यस्त रहता है परन्तु दुःख तब होता है जब राजनीति को तरह ही कुछ बंधु इसे अखाड़े का रुप बनाकर साहित्य की वि धूमिल करते रहते हैं ।

होता यूं है परिपत्र प्रकाशित होते है, वितरित होते हैं, भावुक साहित्य प्रेमियों से धन बटोरा जाता है और फिर, फिर बगुले भक्त की तरह अनेक पत्रों का उत्तर ही नदारद रहता है।

मेरे अनुभव के सार में यही बात है कि ऐसे बंधुओं से सावधान रहना होगा और पकड़ के लिहाज में पूरी छानबीन करके ही साहित्य छवि को बचाया जा सकेगा ।

इन्हीं तानो-बानों की रस्साकशी का यह संग्रह आपके हाथों में है।

मनोज कुमार 'प्रीत'

(सम्पादक)

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