छोटे-छोटे इन्द्रधनुष-1988/अनिरुद्ध प्रसाद विमल (सं.)
सम्पादक- अनिरुद्ध प्रसाद विमल
★ आवरण - रामानन्द
★ प्रकाशक/सम्पर्क :
समय साहित्य सम्मेलन, पुनसिया भागलपुर - ८१३१०६ (बिहार)
★ प्रथम संस्करण - अप्रैल, १९८८
★ मूल्य - बीस रुपये
अनुक्रम
मेरी बात / लघुकथा : दिशाएं एवं संभावनायें
भूमिका – सतीशराज पुष्करणा
लघुकथायें :
अशोक मिश्र-आये/ जगदीश - चपरासी/ मोड़ा-दोष सतीशराज पुष्करणा- सीमा का अतिक्रमण रूपसिंह देश-कुर्सी संवाद | कुलदीप जैन मिस्टर एम०पी० /सुकेश साहनीपति जना सुराज/ शिवनरायण हालात / चांद मु मेरी पहचान / मंजुरे नगर बायन कफन / पारस दासीत लूटे हुए राहगोर/ रामयतन प्रसाद यादव- मातृ भूमि का प्यार / सुमन सूरो-महानता का बो/ अशोक जैन--सुनहरी चने वाली बड़ी इलाझा स्वकृतिल आदेश कुमार-अ भिखारो/ शैली बलजोत बिना टीकट माटिन जान 'अजनबी' खून के व्यापारी/ सतोश राठो जन्म दिन पुस्कर द्विवेदी दर्द सिन्हा बद्र मूल्यांकन / अतुल मोहन प्रसाद खुलती आखें / देवी प्रसाद वर्मा- सारा जहां हमारा / सुनील- फैमली-बैक ग्राउन्ड / पुष्पलता कक्ष्य राजनेता/ निर्मल मिलिन्द - लड़का / सुभाष नीरव - एक खुशी खोखली सी/ राम नारायण उपाध्याय मेम्बरी लग गई। फजल इमाम मल्लिक-झूठ / प्रेम विज धूप-छाव/ हेमन्त प्रसाद दोक्षित बंधुआ मजदूर / रमेश अस्थिवर सर्वोच्य मत्ता नरायण लाल परमार रिश्तेदारी / श्याम महासेठ - [भू डा० अखिलेश शर्मा- राज की बात / डा० चन्द्र श्वर कर्ण चुनाव / शोक शर्मा 'भारती' - घर | कुवर प्रोमिल-चिन्ता दहेज की / अमर नाथ चौधरी "अब्ज" - रोजगार / सतीश उपाध्याय-बन बिलाव / रामनिवास मानव - औरत की भूख / राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी "बन्धु" दरिन्दे शिव मित्र - परिवेश को सीख/ सुरेन्द्र तनेजा-सुवसुरती का नशा हरनाम शर्मा- अब ऐसे ?/ कालो चरण प्रोमो - सरकारी दादा / रसीद दर्द - प्रणा - तंत्र / सिद्धेश्वर प्रतिबिम्ब / अविनाश लिहाज / रामाकांत श्री वास्तव- उलझन / प्रकाश सूर्यवंशी परिस्थिति बोध / कैलाश चन्द्र शर्मा- अब ? | बी० के० विजय – हिस्सा / राजेन्द्र परदेशी - प्रतिक्रिया | श्याम सुन्दर 'सुमन' -वस्तविकता / रवीन्द्र कंचन-सम्मान / शिव रेना- पाचन शक्ति / शराफत अली खान-परम्परा / अहमद सगीर उम्मीदवार / सुनील हेम्ब्रम - 'दिलखुश" - तमाचा/ मुकेश कुमार जैन 'पारस" टक्कर डा० मनाशीर आसिक हरगांवी - कौन/ अनिरुद्ध सिन्हा कमोज / पारव कुंज शिला न्यास/ विपिन परमार- उत्तराधिकार / राज कुमार सीढ़ी / राम शुक्ला 'राम'- चुनाव/ डा० स्वर्ण किरण-भावी शंका/ साबरी - गिरगिट / आमोद कुमार मिश्र भगवान जी रहते हैं। प्रताप राव कदम - राजनितिराम रोशनी उन बाली पेट ि महत्वपूर्ण प्रसाद गुप्ता नारायण अनुराग जुअल-को काढ दिल-जवस्य/ अनल भारती हिजड़ों के देश में जगप्रकीटसन स्वर्णनग का कारण देवेन्द्र कुमार दंगा/ विजय पागल | मिथिलेश कुमार सिंह -प्रकाश तातेड-मशीन/ उदणकुमार की पराई परमेश्वरगोलसरपैड/ आगीपुरबी- परिभाषा| अवधेश प्रोत आज/ शोक भाटिया उनकेत राधे अज्ञानी जन-वितरण | ● सुरेश कुमार समानता/ नीलम चोर/ कमलेश भारतीय नशे | ई० केदारनाथ मानसिकता दीपक पालावत वापसी | श्याम बिहारी सिंह 'क्यामल'- मेजवान/ मोना शिक्षा शिक्षा / राम जी शर्मा 'पत्रिका'-- देवता नही आदमी प्रसाद ग्रहण करता है। चितरंजन भारती-चांदी का जुला/ विक्रम सोनी- आने वाला कल / खुशी लाल मंजर - एक कप चाय आनन्द विश्थरे चेहरे / श्याम सुन्दर दीप्ति मान्यतायें। बारिका बाल ताजा अलवार सदा शिव सुगन्ध इमेज / संजय राव स्थिति पवन शर्मा स्तब्ध/अनिल शकर झा तेज-तर्रार होना/ महेन्द्र सिंह मलहान डाका डा० सतीश दूबे-पीड़ा शकर पुणताम्बेकर सत्य की बात | तरुण जैन- अपने भाई / यश खन्ना नीर खून का रंग | अंजना अनिल करट टापिक / अमरेन्द्र न्याय का तराजू / गंगा प्रसाद राब रहस्य प्रसाद विमल-मूख भगवती प्रसाद द्विवेदी अन्तरा . बालेन्दु शेखर तिवारी योजनात / गिरिजा शंकर मोदी बोट अनिरुद्ध प्रसाद विमल यक्ष-प्रश्न डा० अमरेन्द्र - लेख।
लघुकथा : विद्वान समीक्षकों ओर कथाकारों की दृष्टि में ।
सम्पादकीय 'अपनी बात' :
लघुकथा : दिशाएं एवं संभावनायें
लघुकथा हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चचित विधा के रूप में अपनी खास पहचान बनाने हेतु संघर्षरत है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज लघुकथा साहित्य की किसी भी विद्या से अधिक के साथ लिखी, पढ़ी जाती है। लेकिन इस बात का दुःख भी कम नहीं होता है कि लघुकथा लेखन को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। यह सच है कि लघुकथाएँ काफी संख्या में लिखी जा रही है लेकिन श्रेष्ठ लघुकथाओं को तादाद भी उतनी हो कम है। शीघ्रता में लिखकर प्रसिद्धि पाने की होड़ में हम लघुकथा का अनिष्ट कर रहे हैं. शाश्वत मानवीय मूल्यों का सार्थक चित्रण अभी इस विधा में पूरी मजबूती के साथ नहीं हो पा रहा है। अधिकांश लघुकथाओं के कथ्य एक-दूसरे से मेल खा जाते हैं। लगता है कथाकारों के पास विषय-वस्तु की कमी हो गई है। जबकि लघुकथा सशक्त लेखन और मेहनत की माँग करती है, कथाकार को अपनी रचनाओं के प्रति ईमानदार होना चाहिए। लघुकथा को अभी बहुत लंबी दूरी तय करनी है। एक स्वतंत्र विद्या के रूप में इसे स्थापित होना अभी शेष है। ऐसी बात भी नहीं कि इस विधा में कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है, परन्तु जितना लिखा जा रहा है उमसे संतुष्ट हो जाना लेखकीय दायित्व से कतराना होगा। हमें सार्वजनिन, सार्वकालिक एवं सार्वदेशीय लघुकथा प्रणयन का संकल्प लेना होगा। अपने आप से झगड़ना होगा, तभी लघुकथा का स्वर्णिम इतिहास निर्मित हो पायेगा। लघुकथा के पास विस्तृत यथार्थवादी जमीन है, व्यापक और अनन्त परिवेश है, उर्जा है। जरूरत है कथ्य और शिल्प में पूर्ण सामर्थ्य के साथ बाँधकर इसे प्रस्तुत करने को ।
मैं दावे के साथ कहता हूँ कि लघुकथा का भविष्य स्वर्णिम है। इस भौतिकवादी युग में आदमी को समय का अभाव है। आदमी कम से कम समय में बहुत-कुछ पा लेना चाहता है। उसके पास लंबी कहानियों-उपन्यासों को पढ़ने का वक्त नहीं है। वह अल्प समय में ही ढेर सारी चीजें बटोरकर अपने दामन में समेट लेना चाहता है। निश्चय ही लघुकथा आदमी की इस जरूरत को पूर्ण करने में समर्थ है। आदमी की इस मृग-मरीचिका में लघुकथा अथाह जलराशि के समान है। अपने लघु आकार में ही इसके पास यह मारक शक्ति है, जिसका कोई इलाज नहीं है। जरूरत है इसे दिखा देने की। इसे निराश, हताश, राक्षसी प्रवृति पीड़ित मानवता के लिए कार्य करना है। गांव सोंधी मिट्टी की गंध से कथा को सुवाधित करते हुए आम आदमी की पीड़ा के सजग एवं सार्थक चित्रण से जोड़ना है।
लघुकथा की मर्यादा उसकी लघु सीमा में है। अपने नाम के अनुकूल यह अपने छोटे आकार का बोध कराती है, लेकिन इतनी छोटी भी नहीं कि अर्थ एवं भावबोध ही पैदा न कर सके। अपनी लघु सीमा कथ्य और शिल्प की कसावट के साथ गंभीर भावबोध पैदा करने को क्षमता का नाम ही लघुकथा है। जिस बात को लेखक अपनी कहानियों में विस्तार के बाद कह पाता है, उसे लघुकथा सहजतापूर्वक अनोखे पैनेपन के साथ कहकर प्रश्न पैदा करती है, जबरन झकझोर कर सोचने के लिए विवश करती है।
लघुकथा कोई नई विधा नहीं है। यह तो हमारे देश की मिट्टी में सदियों पूर्व वेद, उपनिषद्, षड्दर्शन ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, महाभारत पुराभ, रामायण जैन ग्रंथ, बौद्ध ग्रंथ में खासकर बौद्ध जातक कथाओं पंचतन्त्र आदि मैं बोप में सुरक्षित हैं। भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से लघुकथा एक सफल और सशक्त विधा है। आठवेंक से लघुकथा को मिलना प्रारंभ हुआ। आज तो कथ्य और शिला को लेकर ये नये प्रयोग हो रहे हैं। अल्प ही सही परन्तु सशक्त लघुकथाएं लिखी गई है और लिखी मी जा रही है।
प्रत्येक विधा में लिखने वालों की भीड़ है। इससे हमें घबराना नहीं चाहिए। देखना तो सच में यह है कि ठहर कितने पाते हैं। लघुकथा लिखने और लिखवाने की जरूरत से कौन इंकार करेगा ? यह कार्य संपादक मित्रों को निर्मतापूर्वक करना होगा ।वे कमजोर लघुकथाओं को अपनी पत्रिका में जगह देकर इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहन न दें। कुछ ऐसे भी लघुकथा लेखक एवं संपादक है जो इस विधा का व्यास बनने को प्रयासरत हैं। समीक्षा के प्रति भी ईमानदारी नहीं बरती जा रही है। हमें इन तमाम घातक प्रवतियों से जूझते हुए अपने गंतव्य पर पहुँचना है।
अपने उत्कृष्ट गुण रूपों के कारण लघुकथा से भारी संभावनाएँ है। सभ्यता और संस्कृति के विकास-क्रम में संघर्ष और द्वन्द्व के बढ़ने से लघुकथा का क्षेत्र भी बढ़ा है। ऐसे में युगान्तकारी परिवर्तन की अनिवार्यता से इंकार नही किया जा सकता। नि:संदेह, कला को नये-नये आयाम से गुजरना होगा और इसकी संभावनाएँ चतुर्दशी मानवीय सम्भावनाओं को स्पर्श करती हुई प्रतिफलित होगी। परिवेश के दोगन, प्रशासन जो नैतिक मूल्यों से गिरकर जन-जन के दिलों के खिलाफ हो गया है, उससे भी निर्ममतापूर्वक विटना होगा। मुझे विश्वास है कि यह कार्य लघुकथा पूरी शक्ति और सफलता के साथ करने में समर्थ है। लघुकथा के माध्यम से यह कार्य होना चाहिये।
अनिरुद्ध प्रसाद विमल
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