लघुकथा में पर्यावरण/डॉ. नीरज सुधांशु (सं.)
संपादक : डॉ. नीरज सुधांशु
प्रकाशक :
वनिका पब्लिकेशन्स
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मुख्य कार्यालय: सरल कुटीर, आर्य नगर, नई बस्ती बिजनौर- 246701, उ.प्र
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संस्करण प्रथम : 2021
मुखावरण सौजन्य- आकाश अग्रवाल (कैनेडा)
मूल्य : दो सौ रुपये $15
अनुक्रम
आभा सिंह
अन्नदा पाटनी
बलराम अग्रवाल
दिव्या शर्मा
डॉ. लता अग्रवाल
डॉ. नीरज सुधांशु
गीता परिहार
कल्पना मनोरमा
कमल चोपड़ा
कनक हरलालका
कमल कपूर
कन्हैया लाल पाण्डेय
कृष्ण चंद्र महादेविया
कुसुम पारीक
लक्ष्मी मित्तल
मधु जैन
मधुकांत
माधव नागदा
मिनी मिश्रा
नमिता सचान
पवित्रा अग्रवाल
प्रेरणा गुप्ता
डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
राम मूरत राही
रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'
डॉ. संध्या तिवारी
संतोष श्रीवास्तव
रेणु चंद्रा माथुर
सविता इंद्र गुप्ता
सविता मिश्रा
सीमा व्यास
शराफत अली खान
शोभना श्याम
डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति
सुकेश साहनी
सुषमा सिंह चुंडावत
उमेश महादोषी
विभा रश्मि
विरेंदर वीर मेहता
योगराज प्रभाकर
संपादक की क़लम से...
प्रकृति एवं जीव पंचमहाभूत निर्मित हैं। दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। प्रकृति और मानव का भी उतना ही गहरा संबंध है जितना शरीर और प्राण का।
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा ।
पंचतत्व मिल बना सरीरा।।
पंचतत्वों का शुद्ध रहना पर्यावरण संरक्षण के लिए अत्यंत आवश्यक है।
हमारा सामाजिक, आध्यात्मिक, वैदिक, पौराणिक तानाबाना व उपदेश हमें सदैव पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित करते हैं।
आइए, कुछ तथ्यों व उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयत्न करें...
विभिन्न त्योहारों के माध्यम से प्रकृतिपूजा हमारी परंपरा रही है। यह कार्य हमारे अध्यात्म व आस्था से भी जुड़ा है। आम, पीपल, बरगद, केला, तुलसी इत्यादि अनेक छोटे-बड़े वृक्षों, नदियों के जल की पूजा की जाती है।
बुन्देलखंड व बघेलखंड के कुछ भागों में आम का वृक्ष रोपित कर पुत्रजन्मोत्सव की तरह मनाते हैं। पुत्र की तरह उसका उपनयन संस्कार भी करते हैं। इस संस्कार के दौरान जब 'भवति! भिक्षां देहि' कहा जाता है तो सारा गाँव उमड़ पड़ता है भिक्षा देने के लिए। वह वृक्ष घर का सदस्य हो जाता है। घर के लोग बधाई के पात्र होते हैं। उस वृक्ष के फल खाए व दान किए जाते हैं।
बहुत से क्षेत्रों में विवाह से पूर्व लड़की का विवाह आम के पेड़ से कराया जाता है।
पुत्र के विवाह से पूर्व आम के विवाह की परंपरा भी दृष्टिगत होती है। पुत्र की बारात निकलने से पहले माता आम के वृक्ष के पास जाती है और विवाह संपन्न कराती है। आम की ओट से माँ को यह वचन दिया जाता है कि 'हे माता! मैं सदैव तुम्हारी सेवा करूँगा। किसी भी स्थिति में तुम्हारा परित्याग नहीं करूंगा।' आम का महत्त्व उसके जातक पुत्र की अपेक्षा अधिक माना जाता है।
छठ पूजा का संदर्भ देखें तो वह भी जल, सूर्य, वृक्ष की महत्ता दर्शाता त्योहार है। इसी तरह अन्य त्योहार भी हैं।
श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को वृक्षों का महत्त्व बताते हुए कहते हैं
वृक्ष इतने महान होते हैं कि परोपकार के लिए ही जीते हैं। ये आँधी, वर्षा और शीत को स्वयं सहन करते हैं। इनका जन्म बहुत अच्छा है क्योंकि इन्हीं के कारण सभी प्राणी जीवित हैं। जिस प्रकार किसी सज्जन के सामने से कोई याचक • खाली हाथ नहीं जाता उसी प्रकार इन वृक्षों के पास से भी कोई खाली हाथ नहीं जाता। ये हमें पत्र, पुष्प, फल, छाया, मूल, वल्कल, इमारती और जलाऊ लकड़ी, सुगंध, राख, गुठली और अंकुर प्रदान करके हमारी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं।
ऋग्वेद के अरण्यानी सूक्त भी वनों की स्तुति करते हुए उनकी महिमा का गान करते हैं।
श्रीकृष्ण ने पर्यावरण संरक्षण हेतु इंद्र को छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा का आह्वान किया था।
मनुस्मृति वृक्ष को काटने वाले या विनष्ट करने वाले को दण्ड विधान करती है। मनु कहते हैं--
“अन्त: संज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः"। मनु की इस घोषणा के लगभग दो हज़ार साल बाद महान वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस ने इस मत को पूर्णतः वैज्ञानिक सिद्ध किया तथा इसे प्रमाणित भी किया।
दशकूपसमा वापी दशवापीसमो हृदः ।
दशहृदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः।।
अर्थात् एक बावड़ी दश कुओं के बराबर होती है, एक हृद (तालाब) दश बावड़ी के बराबर होता है तथा एक पुत्र दश हृद के समान होता है और एक वृक्ष दश पुत्रों के समान होता है। इससे स्पष्ट है कि वृक्षारोपण को हमारी पुराण परंपरा पुत्र से भी बढ़कर महत्त्व देती है। पर्यावरण मंत्रालय ने उपर्युक्त श्लोक के आधार पर "एक वृक्ष दश पुत्र समान" जैसा नारा बनाकर जनसामान्य में " पर्यावरण चेतना को जगाने के लिए जगह-जगह पर उल्लेख किया है।
ऋग्वेद के शांति मंत्रों में भी दिन-रात, सूर्य-चंद्र, जल, अग्नि, रुद्र, ऋभु, आकाश, पृथ्वी आदि से स्वस्ति की कामना की जाती है।
पृथ्वी समस्त भूतों को जन्म देती है, अतः सर्वभूतधरित्री है। समस्त विश्व का भरण-पोषण करती है, अतः विश्वम्भरा है, सभी प्राणियों को धारण करती है, अतः धरित्री है, बहुमूल्य खनिज इसके गर्भ में हैं, अतः वसुधानी है। यजुर्वेद गर्व से इसे 'ध्रुवासि धरित्री' कहता है। 'विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी' कह कर इसका गुणगान करता है।
अद्भुत है कि हमारी लोकोक्तियों में निहित पर्यावरण से संबंधित विचार शास्त्र और विज्ञान दोनों को चमत्कृत करते हैं। पं. मधुसूदन ओझा कादम्बिनी नामक वृष्टि विज्ञान विषयक ग्रन्थ में लिखते हैं--
ज्येष्ठकृष्णाष्टमी चन्द्रे मेघाच्छन्नं न दर्शयेत्। जलपूर्णा तदा पृथ्वी निर्मलेन्दुरवृष्टिकृत्।।
अर्थात् ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अष्टमी का चन्द्र यदि काले बादलों के कारण न दिखाई दे तो समझो पृथ्वी पर खूब बरसात होगी। यदि उस रात चन्द्रमा दिखाई दे तो सूखा पड़ेगा, यह समझना चाहिए।
जल संरक्षण पर आचार्य चरक कहते हैं--
पिच्छिलं कृमिलं क्लिन्नं पर्णशैवालकर्दमैः ।
विवर्णं विरसं सान्द्रं दुर्गन्धं न हितं जलम् ॥
चिकनाई से युक्त, जिसमें कीड़े पड़ गए हों, जिसमें पत्ते, शैवाल और कीचड़ सड़ रहे हों, विवर्ण, नीरस और दुर्गंधयुक्त जल उपयुक्त नहीं होता। अतएव हमारी परंपरा में जल को सदैव पवित्र रखने की बात की जाती रही है।
किसी जलाशय के निकट, पवित्र नदी के तट पर मल, मूत्र आदि का त्याग पूर्णतः वर्जित है।
ऐसे अनेक उदाहरणों से संपूरित हैं हमारे शास्त्र।
पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से पाँच जून का दिन संपूर्ण विश्व में पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रकृति, जीव-जंतु व मनुष्य परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। ये जानते हुए भी मनुष्य अंधाधुंध प्रकृति का दोहन करने की प्रवृत्ति से बाज़ नहीं आ रहा। कहते हैं न कि कण-कण में भगवान न बसते हैं यानी प्रकृति के हर जीव में ईश्वर का वास है। ईश्वर की ही अनमोल कृति या कहें चमत्कारिक देन है मनुष्य लेकिन वही आज सबसे बड़ी समस्या बनकर खड़ा है प्रकृति के समक्ष ।
गांधी जी के शब्दों में--'धरती वह सब पर्याप्त मात्रा में देती है जो हर व्यक्ति की आवश्यकताएँ पूरी कर सके किंतु उसका लालच नहीं।'
कितना सच है न ये! मनुष्य अपने लालच, अपनी एषणाओं की पूर्ति हेतु किसी को भी नहीं बख़्शता। स्वार्थ में अंधा मनुष्य वृक्ष, पशु-पक्षी, नदी, समुद्र, पहाड़, वायु, धरती का कभी प्रदूषण फैला कर, कभी दोहन कर तो कभी हत्या कर अहित कर रहा है और वह ये भी जानता है कि उसके इस कृत्य का सबसे अधिक दुष्प्रभाव स्वयं उसी पर पड़ रहा है। पर कहते हैं न--सावन के अंधे को सब हरा ही दिखाई देता है।
जल प्रदूषण के कारण पीने के पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। यह समस्या दिनोंदिन विकराल रूप धारण कर रही है। विशेषज्ञों के अनुसार तृतीय विश्वयुद्ध का कारण जल की समस्या हो सकती है।
वायु प्रदूषण ने खुलकर साँस लेना दूभर कर दिया है।
वृक्षों के अंधाधुंध कटान के कारण ऋतुओं का संतुलन बिगड़ गया है। वन्य जीव-जंतुओं का जीवन खतरे में पड़ गया है। वृक्षों के अभाव में घोंसला बनाने से महरूम पक्षी मारे-मारे फिरने को मजबूर हैं। लब्बोलुआब यह है कि प्रदूषण के कारण प्रकृति का संतुलन डावाँडोल व जीवों का जीवन खतरे में है।
आज विश्व कोरोना नामक जिस महामारी से जूझ रहा है, क्या हमारी लापरवाही व पर्यावरण के प्रति उदासीनता का परिणाम नहीं है?
परमाणु व जैविक हथियारों का निर्माण व गुलत उपयोग मानव के लिए अभिशाप है। कल-कारखानों, मोटर, कार आदि का धुआँ तथा सूक्ष्म ठोस कण, औद्योगिक संस्थानों से निकलने वाला कूड़ा-कर्कट, परमाणु शस्त्रों के निर्माण के समय उत्सर्जित रेडियो धर्मी कण, खाद तथा कीटनाशक औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त विविध कृषि रसायन, ज्वालामुखी पर्वतों द्वारा उत्सर्जित गैसें, युद्धास्त्रों में प्रयुक्त ईंधन, वायुयान, कृत्रिम उपग्रह आदि में प्रयुक्त ईंधन आदि अनेक कारण जिसका परिणाम जानते हुए भी हम अनजान बने हुए हैं।
ऐसी विषम परिस्थितियों में समाज के दिग्दर्शक साहित्यकारों का कर्तव्य बनता है कि वे पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के समक्ष रखें, उसकी भयावहता से अवगत कराएँ, साथ ही समाधान भी सुझाएँ। इसी बात के मद्देनज़र इस संकलन की परिकल्पना की गई है।
पर्यावरण संतुलित है तो हम हैं, धरती का हर प्राणी है।
संकलन में संकलित लघुकथाओं में लेखकों ने विभिन्न मुद्दों को लेकर लघुकथाओं की रचना की है। समाज को पर्यावरण से संबंधित समस्याओं का आईना दिखाने का सार्थक प्रयास किया है। आशा करते हैं कि यह संकलन समाज में जागरूकता लाने के प्रयास में सफल होगा।
अंत में, रचनात्मक सहयोग के लिए सभी चालीस लघुकथाकारों का हृदयतल से आभार।
यह संकलन इस उम्मीद के साथ आप पाठकों के हस्तगत है कि अपने पर्यावरण को शुद्ध रखने में हम सभी यथासंभव योगदान देंगे ।
अस्तु।
जन्म : 17 सितंबर, लखनऊ
शिक्षा : बी.ए.एम.एस., डिप्लोमा इन एक्स्पोर्ट मेनेजमेंट, पी.जी. डिप्लोमा इन जर्नलिज्म एंड मास कॉम्युनिकेशन।
व्यवसाय : चिकित्सक (प्रसूति एवं स्त्रीरोग), निदेशक- वनिका पब्लिकेशन्स लेखन विधाएँ: कविता, गीत, दोहे, ग़ज़ल, लघुकथा, कहानी, निबंध, व्यंग्य, मेडिकल लेखन।
प्रकाशित कृतियाँ : 'आँसू लावनी' - ताटंक छंद पर आधारित - 111 सचित्र मुक्तक, 'निःशब्द नहीं मैं' (ल. सं.) ।
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं की रचनाएँ निरंतर प्रकाशित कई लघुकथाओं का पंजाबी व गुजराती में अनुवाद। 40 से अधिक संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन ।
संपादित कृतियाँ: बूँद-बूँद सागर, अपने-अपने क्षितिज, सफर संवेदनाओं का स्वाभिमान, लघुकथा में किसान, आयोजन 2020 - एक समग्र प्रयास (ल.सं), व्यंग्य बत्तीसी, व्यंग्य के पाँच स्वर, व्यंग्यकारों का बचपन, थाने-थाने व्यंग्य (व्यंग्य संकलन), चंद कदम, कितने गुलमोहर, कहानी है कि ख़त्म नहीं होती, खुसरो दरिया प्रेम का गूंगे नहीं शब्द हमारे, अँधेरे में उजास, मृगतृष्णा, उजाले की ओर खुलती खिड़कियाँ (कहानी संकलन), बाल कहानियाँ ।
प्रसारण : आकाशवाणी नजीबाबाद से नियमित रूप से महिला जगत एवं स्वास्थ्य चर्चा कार्यक्रमों में वार्ताओं का प्रसारण ।
सम्मान : अखिल भारतीय साहित्य कला मंच, चाँदपुर द्वारा 'साहित्यश्री' सम्मान, 'जैमिनी अकादमी पानीपत द्वारा रामवृक्ष बेनीपुरी जन्मशताब्दि सम्मान', 'बज्मेसईद झाबुआ (म.प्र) द्वारा 'शाईरेवतन' सम्मान, 'स्व. श्री हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, 'साहित्यश्री' -भारतेंदु समिति कोटा, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना द्वारा 'लघुकथा मंच सम्मान', आचार्य रत्नलाल विद्यानुग स्मृति अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता सम्मान - 2017, शोभा कुक्कल स्मृति सम्मान, विश्व मैत्री मंच द्वारा 'मनीषी' सम्मान, हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच द्वारा लघुकथा सेवी' सम्मान।
संपर्क : सरल कुटीर, आर्य नगर, नई बस्ती, बिजनौर- 246701
मोबाइल: 09412713640
ईमेल: drniraj.s.sharma@gmail.com
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