समय (लघुकथा-विशेषांक-1987)/अनिरुद्ध प्रसाद विमल (सं.)

(इस विशेषांक से भाई अशोक जैन ने परिचित कराया और  फोटो उपलब्ध कराया )


समय परिवार :

● प्रधान सम्पादक असल भारती ● मुख्य रुप सम्पादक: गंगाप्रसाद रा

कुमारी मोना राज/बांवरी

●सम्पादन सहयोग उदय मेहता/जनार्दन प्रकाश गुप्ता/लक्ष्मण प्र० चौधरी |

* सम्पादक : अनिरूद्ध प्रसाद विमल

● प्रकाशक / सम्पर्क : समय साहित्य सम्मेलन, पुनसिया, भागलपुर ८१३१०२ (बिहार)

इस अंक में :

बो- अशोक मिश्र- १/ चपरासी- जगदीश कश्यप- १/ दोष कम चोपड़ा-२ / सीमा का अतिक्रमण - सतीष राज पुष्करणा-२/कुर्सी संवाद रुप सिंह चंदेल-३/ मिस्टर एम० पी०- कुलदीप जैन- ४ | साहनी-५/ सुराज - आशा पुष्प-६ / हालात - शिवनारायण ७/ पहचान चाँद मुंगेरी - ८ / कफन-मंजुरेनजर बादल-६/लुटे हुए राहगीर-पारस दासोत ९ / मातृभूमि का प्यार-रामयतन प्र०यादव-६ / महानता का बोझ-सुमन सुरो १०/सुनहरी चेन वाली घड़ी-अशोक जैन- ११ / स्वीकृति अम्वीकृति इला झा १३/ अमीब भिखारी- आदर्श कुमार १४/ बिना टिकट-सेवी बल जीत-१५/ खून के व्यापारी मार्टिन जॉन 'अजनबी'-१६/ जन्म दिन सतीश राठी-१७ / दर्द- पुष्कर द्विवेदी-१७/ मूल्यांकन सिन्हा 'योरेन्द्र' १८/ खलती आँखें अतुल मोहन प्रसाद-१८/ सारा जहां हमारा देवी प्रसाद वर्मा-१६/ सेवा विपुल ज्वाला प्रसाद-२० / इशारा- बाबाद राम पुरी- २१/ फैमिली-बैकग्राउण्ड - सुनील- २२/ राजनेता पुष्पलता कश्यप २४/ लड़का- निर्मल मिलिन्द २५/ एक लशी बोलली-सी- सुभाव मीरव २६/ मेम्बरी लग गई - राम नारायण उपाध्याय २८ / झूठ-फजल इमाम महिलक-२८/ धूप-छांव-प्रेम विज-२६/ बंधुआ मजदूर- हेमन्त प्रसाद दीक्षित- ६/ सर्वोच्च सत्ता - रमेश अस्थिवर-३०/ रिश्तेदारी - नारायण लाल परमार- ३१/ मूल- श्याम महासेठ- ३२ / राज की बात- डा० अखिलेश शर्मा - ३२/

सम्पादकीय

लघु कथा मेरी दृष्टि में

लघुकथा पर बहुत अधिक बहस हो रही है। समीक्षाएं काफी हुई और हो भी रही है। सशक्त लेखन के बजाय समीक्षा अधिक हो रही हैं। अब श्रेष्ठ लघुकथा लिखने और जाने की जरूरत है। कुछ ऐसे भी लघुकथा बेखक एवं संपादक है जो इस विधा केस बनते को प्रयासरत हैं। मेरी दृष्टि में यह होड़वादिता लघुकथा के लिए घातक नहीं बल्कि लाभदायक है। इसी के माध्यम से यह अपने गंतव्य पर पहुंचेगी।

प्रत्येक विधा पर लिखने वालों की होड़ है। इससे हमें घबड़ाना नहीं चाहिए। देश तो सच मे यह है कि ठहर कितने पाते हैं । लघुकथा के को पाठकों पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि पाठक स्वयं समय का एक मात्र है यह कार्य

लघुकथा की मर्यादा उनकी लघु सीमा में है। अपने नाम के अनुकूल यह अपने छोटे आकार का बोध कराता है, लेकिन इतना छोटा भी नहीं कि अर्थ एवं भावबोध ही पैदा न कर सके । अपनी लघु सीमा में गंभीर भावबोध पैदा करने की क्षमता का नाम ही लघुकथा है । जिस बात को लेखक अपनी लंबी कहानियों में विस्तार के बाद कह पाता है, उसे लघुकथा सहजता पूर्वक अतोने पनेपन के साथ कहवार प्रश्न पैदा करती है, जवरन झकझोर कर सोचने के लिए विवश करती है ।

मैंने अपने इस अंक में कुछ लंबी लघुकथाओं को भी आपके संमुख परोसा है। मैंने यह कार्य स्वस्थ प्रतिक्रिया की आशा में निश्छल भाव से किया हैं।

संपादक

अनिरुद्ध प्रसाद विमल


आंखें

-अशोक मिश्र

एक निर्दोष युवक को जब युवावस्था में ही फांसी होने लगी तो जेलर ने फांसी से पूर्व उसकी अन्तिम इच्छा पूछो।

"तुम मरने से पूर्व कोई इच्छा पूरी करना चाहते हो।" "क्या आप पूरी कर सकेंगे ?"

"जेल के नियमानुसार मृतक की अन्तिम इच्छा पूरी करने का पूरा प्रयास किया जाता है।"

“तो सुनिये, मैं मरने के पश्चात अपनी दोनों आँखें अन्धी न्याय व्यवस्था को देना चाहता हूँ जिससे वह देख सके।"

चपरासी

-जगदीश कश्यप

यह संयोग ही था कि जिस विभाग में मेरा दोस्त काम करता था, उसी में मेरा भी स्थानान्तरण हो गया। एक बार उसने मेरी एक कहानी पर खुलकर समीक्षा की थी और पत्रों के माध्यम से हम गहरे मित्र बन गये थे । कथा-साहित्य पर उसका अद्भुत अधिकार था। स्थानान्तरण पर मुझे खुशी हुई कि अब हम दोनों निकटवर्ती बन कर रह सकेंगे। मैंने उसे उत्साह भरा पत्र लिखा कि मैं उसके यहाँ ब्रांच मैनेजर होकर आ रहा हूँ। मैं वहां पहुंचा तो मुझे मालूम हुआ कि वह मेरे आने से पहले ही त्याग-पत्र दे हमेशा के लिए अपने गांव जा चुका था।

उस दिन मुझे विश्वास नहीं हुआ कि विभाग की उस शाखा में वह चपरासी था।

पृष्ठ- १

दोष

-कमल चोपड़ा 

तक की जान पहचान पाके पर नहीं परेशान कि रात के मौ बनेको आये तक लोही नहीं। कोई बात हो गई तो लोग कहेंगे? के मरने के बाद अपनी जवान जहान बहन को संभाल नहीं की। वह खुद इसी जज की बजाय अच्छी नौकरी पर होता तो बहन को घर से बाहर भी ना निकलने देता पर सोचा कि शोला भी छ कमाने लगे तो कुछ सहारा मिल जाये और किस्मत की बात की शीला की नौकरी भी लग गई। उसकी पत्नी मीना घर के काम के अलावा थोड़ा बहुत सिलाई का काम करती है पर उससे बनता क्या है...

यह सुन कर जवाहर और भी परेशान हो गया कि शीला जिस फॅक्टरी में पंकिंग का काम करती है उसका मालिक वैसे तो अच्छा आदमी है पर जरा चरित्र के मामले में सेठ की कोठी का पता मालूम कर उधर जाने को बजाय उसने सोचा एक बार घर जाकर देख लू, शायद आ चुकी हो।

परेशान सा वह घर लौटा तो उसी समय कार से उतर कर शोला घर की तरफ बढ़ रही थी। घर घूसते ही वह फट पड़ा, "हरामजादी मैं तुझं जिन्दा नहीं छोडूंगा हम गरीब जरूर है पर एक इज्जत है लेकिन तू ऐसी पैदा हुई है कि खानदान की इज्जत मैं तुझे जिन्दा नहीं छोडूंगा..."

जवाहर बहन पर टूट पड़ा। उसकी पत्नी मीना बीच बचाव करने लगी। एकाएक शीला फट पड़ी, "भईया मारना ही है तो उस कमीने फैक्टरी मालिक को मारो दम है तो अपनी बहन के बलत्कृत होने का बदला लो मेरा कसूर क्या है ? मेरे साथ तो पहले ही से जुल्म हुआ है"

सीमा का अतिक्रमण

-सतीशराज पुष्करणा

एक तोता पिंजरे में बन्द था। एक चिड़िया आयो। उसने उसके पिंजरे में गर्दन डालकर तोते की कटोरी में से उसका दाना चुगना शुरू कर दिया। चिड़िया की यह गुस्ताखी देवकर तोता चेतावनी के तौर पर गुराया। मगर

पृष्ठ - २

चिड़िया को यह भान था कि यह तो आजाद है और हादरे में है। अतः उसने पुनः उसकी कटोरी से दान देने की गुस्ताखी की। इस दूसरी देवी के रूप में गरजा मगर चिड़िया के कामों में करेंगी। बार जैसे ही केरे में अपनी गर्दन दासी सपक कर चिड़िया की गर्दन दबोच ली और देखते ही देखते उसे पराशायी कर दिया।

मृतक चिड़िया को अपने पिंजरे से बाहर फेंकते हुए तोता मन ही मन उबला, "मैंने अपने को अहिंसा के मजबूत पिंजरे में अवश्य कर रखा है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं कमजोर हूँ और किसी को अपनी सीमा का अतिक्रमण करने दूंगा या अपना हक किसी को छीनने दूंगा।''अक् थू "

कुर्सी संवाद

--रूपसिंह चंदेल

काफी हाउस को दो अलग मेजों के साथ रखी दो कुसियों को बेयरे ने उठाकर छत पर आमने-सामने रख दिया। काफी देर तक चुप रहने के बाद एक ने दूसरी से पूछा, “बहन बहुत दुखी दिखाई दे रही हो।"

“बात ही कुछ ऐसी हो गई है।" उसका स्वर भीगा हुआ था। “क्या बात कह रही हो बहन ?"

"क्यों क्या हुआ ?" “मैं अपवित्र हो गई हूं।"

“मैं सच कह रही हूँ..."

"आखिर हुआ क्या ?"

•"मुझे यहाँ बाए चार साल हुए आज तक यहां आने वालों में साहित्य कार, कलाकार ही होते थे, लेकिन आज "

“आज क्या..?"

"आज आज एक नेता यहां आया और पूरे डेढ़ घण्टे तक जमकर मुझपर बैठा रहा मैं तो कहीं को न रही बहन।" वह फफक पड़ी। दूसरी की आंखें भी गीली हो गयीं। उसे भी अपनी पवित्रता भंग हो जाने की चिन्ता सताने लगी थी। 

पृष्ठ - ३

मिस्टर एम. पी.

- कुलदीप जैन

जिस उत्साह और पाण्डिस्यपूर्ण श्रंदाज में उन्होंने संसद के प्रथम अधि बेशन में भाग लिया था, उन्हें पूरा विश्वास था कि विरोधी और सत्तापक्ष के लोग उनका लोहा मान जायेंगे। अपने ओजपूर्ण भाषण और गरीबो की समस्याओं को ऊपर तक पहुँचाने और मनमाने की प्रवृत्ति ने उन्हें जिले भर में भाईजी के नाम से प्रसिद्ध कर दिया था। इसी कारण सत्तारूढ़ दल को न चाहते हुए भी उन्हें टिकट देना पड़ा था। उनके पिता गांधीवादी थे । स्वतन्त्रता सेनानी होते हुए भी सरकार से कोई मदद नहीं ली और किसी भयंकर बीमारी से ग्रस्त होकर नरे थे ।

विधेयक पर बहस चल रही थी। विरोधी और सत्ता पक्ष वाले शोर व गाली-गलोज पर उतर आये थे जैसे कि गन्दी बस्तियों में पानी के सवाल पर औरत एक-दूसरे को लुच्ची लफंगी बताती हैं और दूसरी-तीसरी कलास के बच्चे शोर मचाते हैं। भाईजी इस गाली और शोर भरे माहौल को देखकर हैरान थे। उनका जी खट्टा हो गया।

सुबह लोकसभा की कैण्टीन में संसद सदस्य अपने-अपने गुटों में चुहल बाजी व संसदीय कार्यवाही की रणनीति पर जोर-जोर से चर्चा कर रहे थे जबकि भाईजी उपेक्षित से दब्बू बने चुपचाप चाय सिप कर रहे थे। वह दिल्ली रवाना होने से पूर्व गाँव वालों से वायदा कर आये थे कि प्रधान मंत्री से मिल कर उस पिछड़ो क्षेत्र में खाद का कारखाना और डिग्री कालेज की स्थापना की बात जरूर करेंगे, पर यहाँ तो संसद सदस्य तक उनका नोटिस लेने को तैयार नहीं हैं। उनके जी में आया कि वह तुरन्त त्याग-पत्र देकर अपने गाँव लौट जायें, जहाँ ग्राम प्रधान क्या एम० एल० ए० तक उनकी राय को आखिरी फैसला करार देते हैं। भाईजी का सिर भारी हो गया ।

तभी पास बैठे साथी संसद सदस्य ने उन्हें कोहनी मारी- “ए मिस्टर, हाथ क्यों नहीं उठाते, क्या सोच रहे हो ?

और भाईजी ने खिसियाये अंदाज में भरे हुए उत्साह से अपना हाथ ऊपर उठा दिया।

पष्ठ ४

फिर भी, जो हमने हा वो तो हुआ नहीं !!"

• मैं समझ नहीं ?"

"वही तो वही तो मुझे इस क्षेत्र में एक समझदार जरूरत है किसी लगा की नहीं, हम तो चाहते थे, गांव वालों को पा चल रहे कि 'हमें उनकी चिन्ता है, 'हम' उनकी समस्याओं को दूर करने में है, जो काम तुमने किया है, उसके लिये मे समय ठीक नहीं था। मई, तुम तो खुद ही हीरो बन गये । अखबार में तुम्हारे फोटो छपे तारीफें हुई--- 'हम' तो कही पिक्चर में आये ही नहीं बरखुरदार कहीं चुनाव लड़ने का इरादा तो नहीं ?

सुराज

-आशा 'पुष्प' 

पाँव दबाते हुए भजना ने मालिक से कहा- सरकार ! कुछ स्पा देवन तलड़िकया के कपड़ा बनतो ।

क्यों ? शादी में जाना है ?

नहीं मालिक ! हमरा लड़िकया इस्कूल जाय है न ? तीन-चार वसि और दुख है मालिक ! मेट्रिक पास कर लेत न ता कोनो ठाँव नौकरी भेजते । खेती छूट जतै । वह भावना मैं बहकर बोल रहा था और उसकी जागती आँखों में सपने तर रहे थे ।

हूँ ! एक गम्भीर आवाज उठी । लेकिन भजना तुम अपने बेटे को गांव के सड़ स्कूल में क्या पढ़ाते हो ? ऐसी बात थी तो हमसे कहते। अपना छोटन है न शहर में ? कहो तो उसके पास भेज दूं। तुम कोई गैर थोड़ो ही हो। कई पीढ़ी से हमारे नौकर हो। तुम्हारे लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता हूँ ?

उसने गद्गद् कंठ से “मालिक !" कहा और दोनों पर सिर पर रख लिए ।

चार साल से आंखों में कामना का दीप जलाये बैठा भजना आज ज्योंहि हवेली पहुॅचा, शहर से आए अपने लड़के को देखकर दालान में लगी महात्मा गांधी की तस्वीर के नीचे खड़ा होकर अश्रुपूरित नेत्रों से बुदबुदाया- देख लिए न गांधी महात्मा ! हो गेलो न ग्रामोद्वार ? नौकर का बेटा नौकर, बाबू का बेटा बाबू । यही सुराज है ?

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हालात

- शिवनारायण

आज भी भारत निराश लौटा दरवाजे पर ही की सुन्दर मूर्ति मिल गई। दोनों की आंखें भर हुई सो रही भारत मुस्कुरा पड़ा। उसने पत्नी को बाहों में करना चाहा कि सभी उसे मां को आवाज सुनाई पड़ी-"आ गए बेटे आज फिर बहुत देर कर दी तूने जा बैठक में पापा तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

उसने नम विवाहिता पत्नी को निमुखाकृति को अवश दृष्टि से देवा और अनचाहे बैठक की ओर हो लिया। बैठक वाले कमरे में पापा एक ईजी चेयर पर पसरे हुए पाईप पो रहे थे। भारत उनके सम्मुख जा बढ़ा हुआ और बाएं हाथ की कनिष्क के नाखुन कुतरने लगा। पापा की ल आवाज सुनाई पड़ी" क्या हुआ राज फिर निराश लौटेन ?" उसने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी आंबे पापा के पैरों को माप रही थी। उसने मुना क्या अब भी तुम हिन्दुस्तान का मोह नहीं छोड़ सकते हो? तुम्हारे जैसे होनहार इंजिनियर की इज्जत डिया में नहीं हो सकती यहां तुम्हारे रोजगार के कोई अवसर नहीं हैं वेवल कोरी देशभक्ति से बीबी की मांग पूरी नहीं कर सकते हो। नौकरी पाने के लिए तुम्हारे पास सिर्फ एक वर्ष का समय शेष है, जबकि इ'डिया के बेरोजगार इंजिनियरों की फौज में खड़े होकर एक वर्ष तो क्या सौ वर्ष में भी नौकरी नहीं पा सकते हो।" भारत न चाह कर भी सुनता जा रहा था। और दिनों की तरह आज उससे पापा की बातों का प्रतिवाद करते नहीं बना। वह जोरदार शब्दों में पाया की बातों का खंडन करते हुए भारत की महिमा का मंडन करना चाहता था, किन्तु उसके होंठ जैसे निष्पन्द १ड़ गए थे। वह जड़वत सुनता जा रहा था। अंत में उसे पापा की आज्ञा सुनाई पड़ी-"जाओ हाथ-मुँह धो लोबाहर ज्योति बहू तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। फिर अगले सनडे तुम्हें कनाडा जाने की तैयारी भी करनी है। मैंने सारी व्यवस्था कर दी है। कनाडा का एक विश्व विख्यात फर्म तुम्हारी प्रतिभा से लाभ उठाने के लिए सहर्ष तैयार है। वहाँ तुम्हारे अंकल मारी व्यवस्था कर देंगे जाओ।"

अब भारत चीत्कार उठना चाहता था कि उसे कंगन की खनक सुनाई पड़ी। यह मुद्दा-सामने उसकी पत्नी खड़ी थी। वह तेजी से बाहर निकल

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गया। एक उसे ही पोजाओ यह उसकीका है।"

प्रतविरोध करने के बावजूद उसे जाना पड़ा पानी उसके साथी की एक फर्म ने उसे पूरी के साथ अपने यहाँ प्रतिष्ठित किया। पचि वर्ष बाद पहली बार भारत का एक पत्र उसके पास के पास पहुंचा है। आपके बताए रास्ते पर चलकर मैंने बहुत प्रगति की है। कनाडा स्थित एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था इस वर्ष मुझे मेरी सेवाओं के लिए सम्मानित कर रही है।"

जिस दिन भारत का यह पत्र उसके पापा को मिला उस दिन शहर में दहात फैला था। तीन हजार बेरोजगार इंजिनियरों के एक प्रदर्शन को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने उस पर लाठियां चार्ज की थी एवं सू के गोले वरसाये थे । बेरोजगार इंजिनियरों ने भी अपना पत्थरों के साथ जाहिर किया तो सशस्त्र पुलिस में कई राउन्ड गोलियां दागी थी। शहर में कफ्यू लगने की पूरी संभावना थी। इन्हीं स्थितियों में भारत के पापा ने वह पत्र पढ़ा था और यह महज संयोग हो या कि उसी दिन के दैनिको में देश के युवा प्रधान मंत्री का वह संदेश भी छपा था, जिसमें उन्होंने विदेशी में बसे भारतीय वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, इंजिनियरों से स्वदेश लौटने की अपील की थी।

पहचान

चाँद मुंगेरी

अस्सलामों अलंकुम अंकल !

मैं असलम भाई के घर ज्योंहि प्रवेश करता हूँ, उसका आठ वर्षीय पुत्र मुझे सलाम करता है। मैं स्तब्ध या खड़ा सोचने लगता हूँ कि क्या सलीका सिखाया है असलम भाई ने अपने पुत्र को !

मुझे इस प्रकार स्तब्ध देख असलम भाईने अन्यथा लिया और आदेशात्मक स्वर में कहा—बेटे, अंकल को प्रणाम करो !

लेकिन अब्बू कल जब मैंने सुलेमान अंकल को प्रणाम किया था तो आपने डांटते हुए कहा था-ग्रंकल को सलाम करो, हाँ, और मैंने यह भी समझाया था कि किसे सलाम करना चाहिये और किसे प्रणाम !

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रहाको हिन्दूको प्रणाम पर पहचाना है? 

कफन

-मंजुरे नजर बादल

इंस्पेक्टर राज कर सामने उसको कफन का?"रहीम को आँखों से आँसू बहकर गाल पर जम गये थे ! वह में बोला करता साहब मैं मजबूर था !" मजबूरी थी कि तुम्हें "

"साहब आज का दिन है, और मेरा बच्चा नये कपड़ों के लिए जिकर रहा था!"

लुटे हुए राहगीर

- पारस दासोत

रिटायरमेन्ट के पहले दिन पत्नी ने पूछा-"क्यों जी क्या साग बनाले ?" उसने धीरे से जवाब दिया--"अरबी बना लो।" “क्या कहा? अरबी ? आप खा लेंगे ?

इसके उत्तर में कुछ न बोलते हुए उसने बेटे से कहा "बेटे ! आफिस जाते समय छतरी ले जाना न भूलना।"

कुछ ही क्षण बाद उसने पत्नी की तरफ देखा जो कि लुटे हुए राहगीर की तरह चौके की ओर जा रही थी।

मातृभूमि का प्यार

- राम यतन प्रसाद यादव 

धुंधलके में दो परछाईयाँ उसके समझ सोना तानकर खड़ी हो गई। एक के हाथ में साँप के फल की तरह चमचमाती और लपलपाती छुरी थी। दूसरे के हाथ में विदेशी पिस्तौल

पृष्ठ - ९

बोलायों से सुना है आलतू कुछ ज्यादा हो देशभक्त बन गया है।

त भगत सिंह की मौलाद बन गया है। दूसरी परछाई ने कहा।

'तुमलोग कौन हो ?' उसने परछाईयों से पूछा । एक जोरदार टहाना हवा में गेंद की तरह उससा।

"हम हम यही है जिसे तुम अपने अहवार में आतंकवादी और देश ही कहकर संबोधित करते हो।'

‘चाहते क्या हो ?' उसने परछाईयों को वृणात्मक दृष्टि से पुरते हुए पूछा 'हम चाहते है कि तुम हमारे विरूद्ध विग उगलना बन्द कर दो।

'नही कदापि नहीं, तुमलोग भारत माँ की कोख का कलंक हो तुन्हें शर्म जानी चाहिए।'

घप्प ! पप्प ! चप्प छुरे का प्राणघातक प्रहार हुआ। 'साला हमें गाली देता है, टुकड़े-टुकड़ कर दूंगा।'

‘मगर मेरे भाई मातृभूमि को टुकड़े-टुकड़ो मत करना।" उसने करा हुए परछाईयों से कहा और सदा के लिए शांत हो गया।

महानता का बोझ

- सुमन सूरी

पंकज ने हर रोज की तरह कार्यालय से आते ही पूछा- कोई चिट्ठी है ?' पत्नी जैसे उत्तर के लिए तैयार खड़ी थी- दिनभर के काम-काज से चलकर आये हो, मुँह हाथ धोकर कुछ नास्ता कर लो. फिर चिट्ठियाँ पढ़ना। पंकज को आज अपनी पत्नी के मुलायम व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। और दिन तो देहरी पर पाँव रखते ही वह कोई-न-कोई समस्या लेकर उलझ पड़ती थी।

'क्यों आज कोई खास बात है क्या ?' कहते-कहते वह कुए की तरफ लपका।

नास्ता कर लेने के बाद उसने फिर चिट्ठियाँ माँगी। कई चिट्टियाँ थी। एक परिचित जज साहब ने लिखा था-'विशेषण का मुकुट पहनकर

पृष्ठ १०

और लोग भले महान बन जायें आप तो इसलिये महान है कि जा महान है। पंजस्या उसने गलत होकर पत्नी की ओर बढ़ाते हुए कहा- 'देवो कैसी-कैसी बातें बनाना जानते है लोग ?' "ओर यह बन की चिट्ठी है। सोचती रही या न लेकिन इसे भी यही बालो

पत्नीन्न होकर बोली।

खगेन उसका पुत्र है, जो दूर शहर में स्नातकोत्तर कक्षा में पढ़ता है। "क्यों ऐसी क्या बात है ?" कहते हुए वह पढ़ने लगा। पिछले महीने खच के रुपये भेजने में कुछ विलंब होने के कारण उसकालोपत्र की पंक्ति पंक्ति से टपक रहा था। उसकी बाँधे मंत्र के एक हिस्से पर जम गई, जहाँ लिखा था- "पहले मैं भी आपको एक महान आदमी मानता था, लेकिन वास्तव में आप महान नहीं, एक गये बीते आदमी हूँ।"

पत्नी ने हाथ से पत्र लेते हुए कहा--"जाने दो वह बच्चा है। उसकी समझदारी ही कितनी है ?"

पंकज बोल उठा- "हाँ, दो-चार दिनों के लिए उसके सचॅ घट गए। उसे कष्ट पहुंचा।" और वह उठकर बरामदे में घूमने लगा। उसके भीतर कहीं हलचल मची हुई थी। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि पत्रोत्तर क्या दे। उसने पोस्टकार्ड पर बेटे का पता लिखा। फिर घूमने लगा महसा उसके मन में एक विचार आया। उसने बिना किसी संबोधन के पोस्टकार्ड पर लिखा

मैं पहले भी एक साधारण आदमी था, आज भी हूँ। वह महानता तो तुम्हारी थी कि तुमने मुझे मान दिया। और उसे लगा कि उसने अपने मन पर से कई मन का बोश उतार फेंका है। (अंगिका से अनूदित ) 

सुनहरी चेन वाली घड़ी

-अशोक जैन

बात सहज रूप से शुरू हुई थी इस बार पर बढ़ते बढ़ते उसने उम्र रूप ले लिया। गत दस वर्षों से चली आ रही संबंध की डोर आज यकायक उलझ गई जिसे सुलझाना असंभव सा हो गया था।

पृष्ठ ११

गया आने का ?" बढ़के से प्रदन किया। पिछले दिनों बीमार रहा फिरकी कनियमितता। इस

''बाहकर भी न आ सका।" छुटकायत रहा।

‘तुमते चाहा कम है पाना ? दोन्दो पोस्टकार्ड डालने के बाद भी चुप्पी क्यों ?"

छुटका चुप रहा। बड़का अपने अन्तस्का आक्रोश उगलने लगा “दो वक्त की मिलने लगी है न अब ! बहुत बड़े हो गए हो !" !

“आप काम की बात करें तो बेहतर मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है।"

छुटके का तमतमाया चेहरा देख बड़का क्षणभर को चौका ।

"कसे बोल रहा है आज ?"

"क्यों, मैं नहीं बोल सकता क्या ?"

"किसलिए ?"

"ताकि आप यह महसूस कर लें कि दूसरे के भी जुबान होती है।" 

"तुम साफ-साफ क्यों नहीं कहते?"

"रहने दें आप। आज तक नहीं बोला मैं इसके मायने यह तो नहीं है कि मेरा अस्तित्व नहीं है।"

क्या कहना चाहते हो तुम ?" बढ़के ने उबलते स्वर में पूछा । "गत दस वर्षों से बहुत सहता आया हूँ यहाँ तक कि हर तरह की जलालत भी। परन्तु आज "

"आशे!” बड़का चिल्लाया।

"चिल्लाओ नहीं भंवा यथार्थ कहवा होता है। महले ने घर बरबाद कर दिया फिर भी वह आपका भला और माँ को अपने पास रखने के निर्णय के बाद, इतना बुरा हो गया कि उस दिन भरी बिरादरी में माँ को पागल और मुझे निकम्मा साबित करने की कोशिश की गई। आखिर क्यों ?"

बड़के ने महसूस किया कि बात आगे बढ़ने से उसका अपना मकसद अधूरा रह सकता है। स्वयं को संतुलित कर उसने कुछ कागजात लाकर उसके आगे रखते हुए कहा। "साइन दीज पेपसं सो दंट आइ मे कॉलेक्ट मनी फ्रॉम दी आफिस ।"

छुटका क्षण भर को उन्हें देखता भर रहा ।

तभी भावज चाय की टू लेकर आई। उसके हाथ में बंद डिब्बी भी बी जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था- एच० एम० टी० "तुम्हारे भैया तुम्हारे लिए लाये थे, आगे रख लो !"

पृष्ठ १२

आज की ओर उठी ही पकड़े छुटके को भावज के हाथ की अंगुलियों काँपने लगी थी।

छुटके ने पेपर्स अपने आगे बीचे और साइन पीटते हुए महा-"आगे से पोस्टकार्ड खरीदने की जहमत न उठाना, भैया" कह कर उसने हाथ जोड़ दिए और उठ खड़ा हुआ।

बड़के ने देखा-कलाई पर पहले से ही सुनहरे बाद

थी। भाव को कती अंगुलियों में दबी एच० एम० टी० अब भी यथावत थी ।

सीढ़ियों पर छुटके के उतरने का स्वर स्पष्ट था- दोनों के लिए। दोबार पर टंगे 'माउंटिड' तैलचित्र का ऑयल पेपर तिड़कने लगा था

स्वीकृति अस्वीकृति 

-इला झा

"मैं किसी हालत में यह शादी नहीं कर सकती। मैंने अगर अंततीय शादी कर ली तो मेरे बाद मेरी दो बहनों का गया होगा ? माँ तो सुनते ही बात्म-हत्या कर लेगी," रेखा ने सुबकते हुए कहा।

"यह सब तुम्हें पहले ही सोचना चाहिए था। भुवन ने तुम्हारे सिवा अपनी जिंदगी में किसी दूसरे की कल्पना तक नहीं की। उसके साथ तुम अन्याय कर रही हो। जब विरोध की हिम्मत नहीं थी तब इन बातों में खुद को समेटा ही क्यों ?"

“सिर्फ जाति की बात है वरना मैं उसकी बेरोजगारी के बावजद अपने घरवालों का विरोध कर सकती थी।"

"तुम्हें तो पता है कि उसका बस थाइवा बाकी है। वह आइ० ए० एस० बनने वाला है।"

"बहुत लोग वादवा में नहीं सेलेक्ट होते खैर समस्या तो है जाति की बेरोजगारी का दुःख तो मैं खुद झेलूगी किन्तु जाति की समस्या अपनी बहनों पर थोप जाऊगी ।" मुझमें आगे सुनने का घंर्य नहीं था। घर लौट आयी । भुवन आया हुआ था। उसे देख ते ही मैंने रेखा से हुई बातों का जिक्र किया एवं अपनी प्रतिक्रियायें सुनायी, किन्तु मेरी बातों के बावजूद वह मुझे शांत

पृष्ठ- १३

एवं विकार नगा थोड़ी देर मौन रहा। मौन तोड़ते हुए बेहद तटस्थ भाव से उसने कहा "मैं बाइवा में सेलेक्ट हो गया। "क्या तुम तबसे चुप क्यों से ?" फिर कहा, "मैं रेखा को भी सूचित करती हूं।"

दूसरे दिन भुवन की चिट्ठी मिली कि बलरा में रेखा ने उसके कम्पीट करने की खुशी में उसे मुबारकबाद देने के साथ-साथ शादी का प्रस्ताव श्री भेजा था किन्तु उसने प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। चिट्ठी मेरे सामने खुली थी। मैं हतप्रभ थी।

अजीब भिखारी

-आदर्श कुमार

एक गाँव में एक भिखारी प्रतिदिन भिक्षा माँगने जाया करता था। वह एक अजीब भिखारी या जो भिक्षा में पैसा न लेकर केवल आटा लिया करता था। जब कभी भी कोई ग्रामीण उसे पैसे देने लगता तो वह लेने से इन्कार कर देता ।

एक दिन जब वह भिक्षा माँग रहा था तब एक व्यक्ति ने उससे पूछा, "बाबा ! आप भिक्षा में आटा ही क्यों लेते हो, पैसा क्यों नहीं लेते ?"

भिखारी हँसते हुए बोला, “पैसा तो कुछ देर का गेहमान है, ज्यादा देर किसी के पास नहीं रहता। आप लोग जो आटा मुझे भिक्षा में देते हैं मैं उससे चार कार्य करता हूँ।"

"आप भिक्षा से चार कार्य करते हैं। भला कोई शिक्षा से क्या कर सकता है।" व्यक्ति ने हैरान होते हुए पूछा। अब तक उनके गिर्द काफी लोग जमा हो चुके थे ।

भिखारी ने उत्तर दिया, "बेटा ! मैं भिक्षा से एक तो अपना कर्ज उतारता हूँ। दूसरे कर्ज देता हूँ। तीसरे अपने पेट की भूख मिटाता हूँ। कुछ दान भी करता हूँ

"बाबा ! हम कुछ समझ नहीं", कुछ व्यक्ति बोले ।

भिखारी ने उन्हें समझाते हुए कहा", सज्जनों, जब मैं छोटा था तो मेरे पिता जी ने मुझे रोटी दी थी। अब मैं अपने पिता को रोटी देकर अपना

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कर्ज उतारता हूँ। मेरा एक लड़का है। मैं उसे रोटी देकर कर्ज देता है। ताकि जब वह कमाने लायक हो जाए तो मुझे रोटी खिला सके। इसी भिक्षा से मैं अपना पेट भी भरता हूँ। जो कुछ थोड़ा बहुत बन जाता है उसे मैं पास के आश्रम में दान कर देता हूँ। ताकि मेरा भविष्य सुधर सके।"

भिखारी का उत्तर सुनकर सभी लोग बहुत प्रभावित हुए। वह भिक्षा मांगकर भी दान कर रहा था। एक भिखारी भी कितना नियमबद्ध जीवन बिता रहा था। सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। परन्तु भिखारी उनको प्रशंसनीय बातों की तरफ ध्यान न देते हुए अपने दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिए फिर से भिक्षा मांगने चल पड़ा।

बिना टिकट

- सैली बलजीत

बस ठसाठस भरी हुई थी,

फण्डक्टर ऊचे स्वर में चिल्ला रहा था, कोई बगैर टिकट ?

देना भाई एक, करतारपुर की. मैंने कण्डक्टर को पैसे थमाते हुए

‘लो भाई' कण्डक्टर मेरी हथेली पर छुट्टा थमाते हुए आगे सरक गया।

'टिकट ?"

"देता हूँ' इसके साथ वह अन्य यात्रियों में व्यस्त हो गया था।

'कोई बगैर टिकट ??

'टिकट तो दो ना'मैंने फिर दुहराया।

'टिकट को खाना है क्या बाब? देता हूँ एक बार कहा है कण्डक्टर अड़ियल चोड़ो की तरह मस्त रहा।

'तुम टिकट का क्या करोगे भाई ? उस गरीब के पैसे बनते हैं तो तुम क्या ऐवराज है बोलो ?" बस में बैठा एक यात्री उबकाई लेते हुए बुदबुदाया, मैं चुपचाप कण्डक्टर को देखने लगा था, जो अब भी चिल्लाए जा रहा था- 'कोई बगैर टिकट कोई बर्गर टिकट

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खून को व्यापारी

-माटिन जॉन 'अजनबी'

वह मेरे साथ ही अस्पताल के आहते से बाहर निकला।

उसकी आँखों में कुछ खोने का अफसोस कहीं से भी नजर नहीं जा रहा था। हाँ, कुछ देने का सुख उसके चेहरे से साफ झलक रहा था। हालांकि उसने अपने खून की कीमत ली थी मात्र चार सौ रुपये।

पिताजी को ग्रुप 'बी' का खून की सख्त जरूरत थी। ब्लड बैंक में नहीं था। परिवार के तमाम सदस्य बारी-बारी ब्लड टेस्ट करवाये थे। किसी का खून बप 'बी' नहीं निकला। अस्पताल का वार्ड-बॉय ने ही मंटू को ढूंडकर लाया था। उसका खून ग्रप 'बी' का है !

हम दोनों सामने वाले होटल में बैठ गए। हमने दो कप चाय का ऑर्डर दिया । “चा नहीं पिएगा हम बाबू अभी चा पीना अच्छा नहीं !" हमने अपनी गलती महसूस की। खून देने के बाद भला चाय पी जाती है !

“दूध पी लो !”

"हाँ, पी लेगा ।”

होटल का छोकरा गरम दूध ले आया। वह धीरे-धीरे दूध की चुस्कियाँ लेने लगा ।

अचानक हमने एक सवाल कर डाला, “चार सौ रूपये का क्या करोगे ?” "चार सौ रूपिया ?दू सौ रूपिया बोलो बाबू

मुझे विस्मय हुआ, "क्यों हमने तो तुम्हें चार सौ रूपये दिए है न ?" “सो तो है उसमें से डेढ़ सौ डाक्टर बाबू ने झपट लिया और पचास बाडवाई !"

"लेकिन खून तो... मेरे आगे के शब्द अटक गए ।

आँखों के आगे डॉक्टर का चेहरा घूम गया। उसका शांत, शिष्ट देहरा अब मुझे खूंखार लगने लगा।

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जन्मदिन

-सतीश राठी

गोलू आज एक साल का हो गया है। के मुंह में सूखा स्तन हूँसते हुए मुगना ने अपने चौकीदार पति से कहा। तुम्हें कैसे याद रह गया इसका जन्म दिन?" चौकीदार का प्रश्न था। - उसी दिन तो साहब की अल्सेशियन कृतिया ने यह पिल्ला बना था, जिसका जन्मदिन कोठी में धूमधाम से मन रहा है। ईडी उसांस लेते हुए सुगना बोली

दर्द

- पुष्कर द्विवेदी

रोडवेज के दरवाजे पर वह चीखता हुआ दिखाई पड़ा, अपने दोनों हाथों से वह अपने पेट को दबाये हुए फराह रहा था। उसके आगे एक चटाई का टीप उल्टा पड़ा था।

रोडवेज पर आने-जाने वाले लोग उसे एक क्षण कराहते हुए देखते। फिर उनमें से कुछ लोग उस टीप के कटोरे में पैसे फेंकते और चलते बनते। मैं आधे घंटे से दूर खड़ा हुआ उसे व उसके पेट के दर्द को समझने को पूरी चेष्टा में था। मेरी बस देर से आने वाली थी ।

तभी उसने अपने पेट पर से हाथ हटाकर चीखना बन्द कर दिया। टीप के इर्द-गिर्द पड़ तथा टीप के अन्दर एकत्रित हुए पैसों को अपनी पेंट की जेब के हवाले किया फिर टोप को सिर पर लगाकर वह सामने की एक केन्टोन में चला गया।

उसे समोसे खरीदते देख कर मुझसे न रहा गया। वह काफी प्रसन्न एवं तसल्ली वाली मुद्रा से समोसे खाने ही जा रहा था कि मैंने निकट वाकर उसे टोका- “तुम्हारे तो पेट में दर्द हो रहा था।" मैंने लगभग उसे याद दिलाते हुए सहानुभूतिपूर्वक कहा, "तुम्हें मंदे और खराब तेल के समोसे नहीं खाने चाहिए।" मेरी इस बात पर वह कुछ उपेक्षा से हंसा। फिर बोला, "मेरे पेट में दर्द वर्द कुछ नहीं, पर क्या करें बाबूजी, पेट के खातिर सब कुछ करना पड़ता

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है।" कहते-कहते उसके पेट का दर्द ही उसके चेहरे पर बढ़कर उभर आया। जब मैं उसके पेट के दर्द और चेहरे पर उभर आये दर्द में अन्तर को भी समझने की पेष्टा में पा

मूल्यांकन

- सिन्हा 'वीरेन्द्र'

"आप अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजते ?" मैंने प्रश्न किया था एक ग्रामीण मजदूर से। "

"क्या करेगा पढ़ लिखकर?"

“अपने आपको पहचान पायेगा--अपने अधिकार, अपने कर्तव्य को जान सकेगा।" मैंने समझाने की कोशिश की।  

“पर हम तो यही देखते हैं, आजकल के पढ़-लिखे लड़के नाराबाजी, प्रदर्शन, तोड़-फोड़ और हिंसा आदि में ही व्यस्त दिखाई देते हैं—इससे अच्छे तो हम मूरख लोग हैं जो एक दूसरे से प्रेम करते हैं, एक दूसरे को आदर सम्मान देते हैं, नियंत्रित मान-मर्यादा में जीते हैं।" एक क्षण रुक गया था बोलते-बोलते, फिर आगे बोला था, “सच पूछिए बाबू जी, तो यह पढ़ाई-लिखाई ही सारी खुराफात की जड है। इन्सान को कुछ ज्यादा ही ज्ञानी बना देती है। जाति, भाषा और धर्म की परिभाषा जो गढ़ने आ जाती है और फिर एकजुट होकर जीने के बजाय टुकड़ों में बैठकर जीना भी तो यही सिखाती है।"

मैं अपना कोई तर्क प्रस्तुत कर पाता, इससे पहले वह अपने कंधे पर कुदाल उठाये खेतों की ओर बढ़ गया था।

खुलती आंखें

-अतुल मोहन प्रसाद

फुरसत के क्षण में मां को स्वेटर बुनते देख एक बात पुछने की बहुत दिन से प्रतीक्षारत प्रतीक्षा ने पूछ ही डाला, “एक बात पूछू मां ?”

"पूछो।"  सलाइयों से नजर उठाती मां ने कहा। 

"मां ! मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ ?"

"क्यों ? ऐसा पागलपन भरा सवाल ही तुम्हें पूछना है ?"

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"हो! मुझे जबाव दो प्रतीक्षा का स्वर और कोमल हो गया।

"हां बेटी !"

"जोर अपेक्षा ?"

"वह भी मेरी बेटी है।"

"और पार?".

"वह भी अपना बेटा हूँ।"

आधार को ही आप सारी सुविधाएं क्यों मुहैया कराती है ? हमें और अपेक्षा को क्यों नहीं ! किसी भी गलती के लिए आधार के बदले हमलोगों को डोट क्यों सुननी पड़ती है ?

"तुम्हारा दिमाग ठीक है ? आजही हो?" -मां का तेवर बदलने लगा ।

"मो ! क्या बचपन में आपके मां-पिताजी भी आप से इस ढंग का भेदभाव किया करते थे। उस समय मां आपको कैसा लगता था ?"

"ठीक ऐसा ही हमलोगों को भी लगता है। बहुत दिन से लगने वाली बात आज मैंने जानने के लिहाज से पूछ डाली” – कातर दृष्टि से प्रतीक्षा ने अपनी आँखें उठायी

मां की आंखों से अनवरत आंसू गिर रहे थे। उसने तुरंत प्रतीक्षा को गले लगा लिया— "अब से ऐसा नहीं होगा प्रतीक्षा ! मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ रही हूँ।"

सारा जहां हमारा

-देवी प्रसाद वर्मा

सम्पादक जी, आधी रात तक जागते रहे- उन्हें जो स्वाधीनता दिवस पर सम्पादकीय जो कल देना था- उन्होंने अपनी सम्पादकीय में आत्म अनु शासन, आदर्श आदि की चर्चा थी और पूरा देश हमारा है आदि। शीर्षक दिया था-सारा जहाँ हमारा।

वे सुबह उठे जल्दी तैयार होकर प्रेम गए-जाते हो हमेशा की तरह फोरमैन को बुलाकर उन्होंने सम्पादकीय दिया और विज्ञापन का चार्ट मंगाया। अपने काम में वे व्यस्त हो गए ।

कुछ देर बाद प्रूफ रीडर सम्पादक जी के सामने आकर ताड़ के पेड़ की

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तरह आकर खड़ा हो गया-सम्पादक जी ने घुड़ककर पूछा, "क्या है?" 

जैसे मंत्री मुख्यमंत्री के सामने और मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के पूछे गए सवाल का जवाब बमुश्किल हकलाते हुए ही दे पाते हैं--उसी लहजे में किसी प्रकार उसने कहा--"शीर्षक यही जायेगा...।" उन्होंने कापी लेकर देखा और देखते ही पहिचान लिया कि उनके साहबजादे, जो आठ कक्षा के छात्र हैं--सारा जहाँ हमारा के ऊपर सुडौल अक्षरों से लिखा था --

स्कूलों में लगा है ताला, 

सारा जहाँ हमारा 

सम्पादक कुतुब मीनार की तरह खड़े के खड़े रह गए। मात्र इतना बोले--इसे रोक दो।

सेवा

-विपुल ज्वाला प्रसाद

रात का समय था। टिकिट कलेक्टर अपनी कुर्सी पर ऊँघ रहा था। उसके सामने रखे काउन्टर पर लिखा था मैं यहाँ आपकी सेवा के लिये उपस्थित हूँ।

तभी एक पोर्टर ने उसे आ झकझोरा "ए बाबूजी ! डीलक्स से मुर्गा उतरा है।"

टिकट कलेक्टर फुरफुरी-सा कुर्सी से उठ बैठा, "कहां है ? बुला !" 

पोर्टर ने दूर खड़ आदमी को आवाज लगाई “ए. इधर आ। बाबूजी बुलाते ऍ।"

मुसाफिर सहमता हुआ लँगड़ाता-लँगड़ाता उनके पास आया । 

“कहाँ से आया है ? कहाँ जायेगा ? टिकट कहाँ है?" टिकट कलेक्टर उसपर गुर्राया |

"दिल्ली से आरियाज बाबूजी ! पैर में फक्चर ऐ। कोटा में चढ़ने उतरने वालों की भीड़ ज्यादा थी। पैर में लगने की वजह से भीड़ छटने का इन्तजार करता रहा। उत्तर नहीं पाया। गाड़ी चल दी। दिल्ली से कोटा तक का टिकट ये रिया बाबूजी !"

"कोटा से यहाँ तक का ?"

"मैंने बताया ना बाबूजी ! मजबूरी की वजह से यहाँ तक..." 

"साड़े ग्यारह रूपया निकाल दस रुपया पैनल्टी । डेढ़ रुपया कोटा से यहाँ तक का किराया।"

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"माई ग्यारह रुपया तो मेरे पास नहीं है बाबूजी !!"

फिर क्या है ?"

"दस रुपये"

"निकाल"

टिकट कलेक्टर ने उससे दस रुपये ले अपनी जेब में डाल लिये "जा आयंदा बिना टिकट मत चलना।" 

"ठीक ऐ बाबूजी ! लेकिन मैं यहाँ से कोटा कैसे जाऊँगा ? इन दस रुपये के अलावा और कुछ मेरे पास नहीं है। टिकट का डेढ़ रुपया वापस कर दो।" मुसाफिर रिरियाया।

“अब तु भाग जा। दिमाग खराब मत कर, नहीं तो जी आर पी के लिये मीमो दे दूंगा। जेल में सड़ता फिरेगा।"

यात्री लँगड़ाता-लँगड़ाता फिर उसी दिशा की ओर चल दिया था सहमता हुआ।

इशारा

- आजाद रामपुरी

एक दिन मैं बालकुज कार्यक्रम में कविता पाठ करने हेतु आकाशवाणी के स्थानीय केन्द्र में गया। मेरा कविता पाठ रिकार्डिंग न होकर (एलाइव) सीधा प्रसारण के रूप में था। वह भी बालकों की उपस्थिति में। मैं समय से दस मिनट पूर्व प्रसारण रूम में स्थान ग्रहण कर चुका था। कार्यक्रम के उद्घोषक के रूप में विराजमान "भैया जी" किस बच्चे को क्या-क्या सुनाना है, का रिहर्सल करा रहे थे। उनके आस-पास जो बच्चे उन्हें घेरे बैठे थे उनमें एक बारह वर्षीय लड़की भी बैठी थी। लड़की गोरांग, छरहरी बदन की सुन्दर नाक नक्श वाली थी। उसके शरीर पर तरणाई के चिन्ह उभर आये थे । उद्घोषक भैया अपना गला बार-बार खखारकर साफ करते हुये उस लड़की के शरीर को स्पर्श करते हुये कहते — “सभी लोग गला साफ करके रखें।" 

मैं उनके मन के पाप को समझ चुका था। इससे पहिले मैं कुछ कहता एक लड़का जो कुछ बुद्धिमान लग रहा था, बोला भंया जी, दिल भी तो साफ होना चाहिये ।

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फॅमिली-बैकग्राउन्ड

- सुनील

रूम में बंदना के रिश्ते की बात चल रही थी और वह रसोईघर में नाश्ता तैयार करते हुए सारी बातें बहुत दिपी से सुन रही थी। रूम अर्थात् को चार सयां और एक मेज और दीवार पर शकर और राधाकृष्ण की तस्वीरों वाले दो कैलेंडर ।

प्रकाश वर्मा, वंदना के पिता, चारपाई पर बैठे थे ।

उमाशंकर, लड़के के पिता ने बात शुरू करने के ख्याल से कहा, "आपकी पत्नी?"

“जी ?" प्रकाश वर्मा की आवाज भीगने लगी, "दो साल हुए वह..."

"ओह, क्या हुआ या उन्हें ?" 

"दमा ।"

"दमा ?"

"हां, सांस की बीमारी ।"

"आपको कोई बड़ी लड़की भी है, न ?"

"हां, सपना !"

"उसकी शादी हो गई ?”

"हां !"

"रिश्ता आपने तय किया था ?" 

“नहीं, उसने खुद...''

"निखिल सपना से छोटा है न ?" 

"हां, सपना से छोटा और वंदना से बड़ा।"

"वंदना नाम है आपकी छोटी लड़की का ?

"हां !"

"अच्छा नाम है। वैसे निखिल को आप मना नहीं करते ?"

"किस बात से ?"

"वह आवारा लड़कों के साथ नुक्कड़वाली पान की दूकान के पास...'' 

"दरअसल, ऑफिस से लौटते मुझे देर हो जाती है और मुझे सचमुच पता नहीं था कि वह..."

"पता होना चाहिए न ? आप उसके पिता है। वैसे किस विभाग में है आप ?”

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"डाक विभाग में !"

"ओह !"

लड़का मैगजीन के पन्ने पलट रहा था और उसकी बहन च्यूइंग गम चबा रही थी और कमरे की दीवारों को देख रही थी, जिनका कहीं से रंग, कहीं से पलस्तर उखड़ा हुआ था और वे सख्ख, खुरदरी और कमजोर लग रही थी - प्रकाश वर्मा की तरह ।

लड़के की मां को जब लगा कि वह अभी तक चुप है, तो उसने कहने के स्थाल से कहा, "ये कुसियां बहुत पुरानी मालूम होती है।" कुछ

"हां, एक अर्सा हो गया।"

"आजकल ड्राइंग रूम में सोफा न हो तो .."

"मैंने सोचा, पहले वंदना की शादी कर लूं, फिर ' "ओह, पहले बंदना के लिए बनवाना चाहते हैं ?"

"जी ?"

"वैसे वह है कहां ?"

“किचन में है शायद ।”

"कोई नौकरानी नहीं है ?"

किचन में वंदना के हाथ पर गर्म तेल के छींटे पड़ गए ।

"नहीं है नौकरानी, " प्रकाश वर्मा अपनी पूरी कोशिशों के साथ स्वयं को संयत रखे हुए थे, "इसलिए तो आते ही उसे..."

"आते ही ? कहां से आई वह ?" लड़के की मां ने पूछा ।

"कॉलेज से !"

"भाभी पढ़ती हैं ?" पहली बार लड़के की बहन ने कुछ कहा। उसकी आवाज बहुत बारीक थी।

"नहीं, काम करती है।"

"लेक्चरर है ?" उमाशंकर ने पूछा ।

"नहीं, टाइपिस्ट !"

"ओह !" लड़के की मां को शायद दुःख हुआ। "सुना कि सपना भाग गई थी." उमाशंकर ने जैसे कोई राज की बात पूछी।

“क्या ?"

“कुछ नही, बस, मैंने ऐसा सुना है कि..." 

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"नहीं, भागी नही थी वह। उसने कोर्ट-मैरिज की थी और आकर मुझसे आशीर्वाद लिया था।" 

"खैर, वंदना को तो बुलाइये या हम यूँ ही बातें करते रहेंगे?" लड़के की माँ ने कहा। 

"मैं बुलाती हूँ।" लड़के की बहन उठ खड़ी हुई, "किचन किस तरफ है ?"

"इधर, इस तरफ।" प्रकाश वर्मा ने संकेत से बताया। 

पर्दा हटाकर वह चली गई। क्षणांश के बाद वह घबराकर लौट आई, "पिछला दरवाजा बुला है।" 

"तो क्या हुआ, बेटी?" प्रकाश वर्मा बोले ।

"सामने के घर के बाहर एक लड़का खड़ा है, वह इस तरह इधर देख रहा है, जैसे "

"सामने प्रो० कुमार का घर है। वह उन्हीं का लड़का होगा।" उन्होंने उमाशंकर और लड़के की मां को जाने क्या समझाना चाहा। 

"लेकिन इस तरह झांकना..." लड़के की मां ने कहा, "कही वन्दना से उसका कोई...”

'किचन' में वंदना का चेहरा तमतमा गया। उसके जी में आया कि जाए और बुढ़िया का चेहरा नोंच ले। फिर उसे पापा का ख्याल आ गया, जो अक्सर बीमार रहते थे और वह नहीं चाहती थी कि उन्हें कोई तकलीफ..."

"आप क्या सचमुच अपने बेटे की शादी वंदना से करना चाहते है ?" प्रकाश वर्मा का स्वर गंभीर था।

"सोचकर तो यही आए थे। तस्वीर में वंदना सुन्दर भी लगी थी लेकिन उसका फॅमिली बँकग्राउन्ड" लड़के के पिता ने यहा और खड़ हुआ।

प्रकाश वर्मा ने मुठियां बांध ली और जबड़े भींच लिए। 

'किचन' में चाय का पानी खोल चुका था।

राजनेता

- पुष्पलता कश्यप

चुनाव प्रचार के अभियान के अन्तर्गत नेताजी का अपने समूचे निर्वाचन क्षेत्र में तूफानी दौरा चल रहा था। विशेष रूप से आयोजित विभिन्न वर्गो

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दना रहे थे उनकी पताह में ही दगार के बारे में पाए

बाई की रात में ड्यूटी से रहे कि एकोहुई कार के इ लोगों को देखा। कार का शीशा टूटा हुआ था और कार चलाने वाले लड़के को खींचना चाह रहे थे। लड़का तगड़ा और सुन्दर होया पर भी वयस्क नहीं हुआ था। शीशे के चुमने से उसके शरीर के कहीं-कहीं खून निकल रहा था। सिपाही ने तमाशाइयों को खा को हरपेटा और लड़के को थाने में गाड़ी लगाने का हुक्म दिया। हालांकि मन ही मन वह इस केस को अकेले निपटाना चाहता था लड़का डरकरा हो गया और छोड़ दिए जाने के लिए गिरगिटाने लगा। सिपाही ने त्यो चढ़ाई और गाड़ी बढ़ाने का हुक्म दुहराया । गाड़ी बड़ो कि सिपाही ने बुक माल-पानी के लिए अपनी मंशा जाहिर की। अब सड़क पर इसके इसके सम थे । लड़के ने सौ रुपये का एक नोट बढ़ाया जिसके स्पर्श से सिपाही दबोभूत हो गया । उसने सोचा यह भी तो लड़का ही है। बाड़ की रात हाजत में गुजारको होगी बेचारे को । सिपाही ने उसे भाग जाने का आदेश दिया और अपना रास्ता लिया। अब लड़के का नामांकन पक्का हो गया था।

एक खुशी, खोखली-सी

- सुभाष नौरव 

मन खुशी में बल्लियों उछल रहा था। चाहता था, उड़कर जाऊँ । कितना खुश होंगे, गाँव के लोग। बापू और मां, खुशी से फूले नही समायेंगे, यह जानकर कि उनका हरिया अब इंजीनियर बन गया है। गर्व से सभी की छाती गजभर की हो जाएगी जब वे जानेगे कि उनकै हरिया ने परीक्षा में 'टॉप' किया है। अखबार में फोटू छपा है उनके हरिया का बापू और मां तो आगे और पढ़ाना नहीं चाहते थे। बहु मुश्किलों से राजी कर पाया था मैं उन्हें अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के

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लिए। घर की हालत तो होनी मेरे दाखिला लेने के बाद तो बापू को एक खेत तक बेचना पड़ा था। घरको जो भी वापरावा उन्होंने छोड़ दिया था। ब उन्होंनेछ वर्षों के लिए स्थगित कर दी थी। यह सब मुझे जीनियर बनाने के लिए ही तो किया अब मैं इंजीनियर बन गया हूँ। मां-बाप के सभी सपने जल्द पूरे कर दूंगा।

पर पहुंचकर मैंने मां-बापू के पांव छुए और उन्हें खुशखबरी सुनाई। मैं बहुत उत्साह और खुशी से एक-एक बात उन्हें बता रहा था। पर, मैंने देखा, मेरी खुशी को बांटने वाले पहरे तो वहां थे ही नहीं। बापू के नेहरे पर अचाह उदासी थी माँ की आँखों में मायूसी के बादल तैर रहे थे। मैंने पूछा, "आप लोगों को कोई बुशी नहीं हुई ?"

बेटा, हमारे लिए तो खुशी का वह दिन होगा, जब तू चार पैसे कमाने लगेगा।"

मेरे उत्साह और खुशी पर जैसे घड़ों पानी फिर गया। मैं सोचने लगा, है न ! ये क्या जाने मेरी उपलब्धि के महत्व को... कुछ ही देर बाद, मैं कपड़े बदलकर गांव में घूमने निकल गया।

सबसे पहले मैं अपने मित्र श्याम से मिला। मेरे इंजीनियर बन जाने पर वह बहुत खुश हुआ। मैंने तुरन्त अपनी जेब से मुड़ा-तुड़ा अखबार निकालकर उसके सामने फैलाते हुए कहा, “देख, तेरे यार की फोटो छपी है इसमें और कितने मोटे-मोटे अक्षरों में तारीफ की गई है तेरे यार की। "

अखबार पढ़ने के बाद, श्याम का चेहरा एकदम उदास हो गया। मैंने पूछा, "तुझे खुशी नहीं हुई इसे पढ़कर ?" उसने मेरी ओर एक नजर देखा और फिर ठण्डे स्वर में बोला, "मोटे मोटे अक्षरों में छपी यह खबर नहीं पड़ी ?”

"कौन सी?"

'बेकारी से जूझते देश में दस हजार इंजीनियर..' मोटे-मोटे अक्षरों में छपी यह खबर मुझे मुंह चिढ़ाती हुई लग रही थी।

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मेम्बरी लग गई

- रामनारायण उपाध्यय 

उस दिन का पुराना पटेल आया और बोला, "दादा मैं तो कही का नहीं रहा। सब जगह से हारकर ही आपके पास आया हूँ।" मैंने कहा- "बाबा कैसी बातें करते हो। आपने तो जमाना देखा है।

बोले-"भैया आप तो जानते हैं मेरा एक ही बेटा है। कई देवी देवता पूजे तब यह दिन देखने को मिला। उसके जन्म पर मैंने सारे गाँव में शक बंटवाई थी। गांव में पढ़ाया। फिर उसकी शादी कर दी। सोचा घरा सम्भालेगा। भगवान की दया से इतनी खेती-बाड़ी है कि तीन पीढ़ी खाए तो भी कम न हो। खेत में पक्का कुप्रा है और उस पर मोटर पम्प लगा है। लड़के ने जिद की तो उसे मोटर सायकल भी ला दी। लेकिन वह दिन है कि आज का दिन। उस दिन से एक रात भी चैन से नहीं सो सका है। शहर जाता है तो चार-चार दिन नहीं लौटता । न मां की सुनता है, न बाप की। अगर कुछ कहो तो लड़ने को आमादा हो जाता है। गाँव में बड़े-बूढ़ों से हुज्जत करता है। किसी की इज्जत नहीं करता। सेठ साहूकार और अक्सरो से लड़ता है। गाँव की बहू-बेटियाँ उसके सामने से निकलने में डरती है। ओछे लोगों की सौबत करता है। किसी के भी साथ खाता है। रात में सोता है तो उल-जलूल बड़बड़ाता है। सारे इलाज किए, देव बड़वे घुमाए, दवा-दारू की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। न जाने मेरे बेटे को कौन सी बीमारी लग गई ।

इतने परेशान क्यों हो ?"

मैंने कहा-- दादा घबराने की बात नहीं। ओपके बेटे को मेम्बरी ग गई है । पाँच साल तक इसका क्रौरा रहता है। एकाध चुनाव हार गया तो सब ठीक हो जायगा।

झूठ

फजल इमाम मल्लिक

वह जिन्दगी भर झूट बोलता रहा और लोग उसे सच समझते रहे ! आज उसने पहली बार सच बोला था, और लोगों । उसकी बात पर यकीन नहीं आया।

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धूप-छांव

-प्रेम विज

राम शाम को जब घरातो उसकी एक उसके हाथ में म दिया। पति-पत्नी दोनों के लिए कालो मेस के बराबर था। वह पत्र लेकर पड़ोसी के घर गया पता चला कि यह उसे चपरासी की नौकरी के लिए रोजगार कार्यालय से आया है। राम को ऐसा अनुमन हुआ, जैसे भगवान से उसको लाटरी निकाल दी हो। पत्र मेकर वह कार्यालय पहुंचा दफ्तर के बाबू ने अपनी कार्यवाही कर उसकी सुमेर साहिब के साथ ड्यूटी लगा दी। साहब बहुत अनुशासनप्रिय तथा समय के पाबंद है, इधर-उधर मत जाना। राम स्टूल पर बैठकर साहिब को घटी कोतजार करने लगा। घंटी बजी। यह कांपते कदमों से अन्दर गया तो अबाकूर गया सामने बैठी था। उसके बचपन का साथी । 

बँधुआ मजदूर

-हेमन्त प्रसाद दीक्षित

यह अर्थशास्त्र का प्राध्यापक था। देश में अर्थ तंत्र पर किसका कब्जा है, इससे वह सबंधा अनभिज्ञ था। वह दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों के उद्धरण देने की कला में माहिर था। अयंतंत्र पर जो बहसे छिड़तो, उनमें भ्रम को घुघलका पैदा करना उसे इचिकर जान पड़ता। सुरेश उपाध्याय कहते – उस 'कोलियॉरी में चौबीस मजदूर खान में दब गए।

वह निष्कर्ष निकालता – कुछ दिनों के लिए कोयले का खनन कार्य रुका। उत्पादकता को कितनी बड़ी हानी हुई।

अनिल वर्मा किसी जमाने में बबई की कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल का जिक्र करते ।

वह मुह सिकोड़ कर कहता – देशी वस्त्रोद्योग दुनिया के मार्केट में प्रति योगिता कर रहा है। इस तरह की चीजों से तो 'क्वॉलिटी' का नुकसान होगा।

कोई और साहब पूछते स्वामी अग्निवेश का कोई बंधुआ मुक्ति आंदोलन क्या अब भी चल रहा है ?

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वह सपाट जवाब देता- अब कहाँ रहे बंधुआ मजदूर ? मजदूर तो जब अफसर से ज्यादा कमा रहा है। महीने का जतिम दिन वेतन का था। पता चला संस्था के अध्यक्ष और सचिव बाहर होने के कारण वेतन के चंकों पर हस्ताक्षर नहीं हो पा रहे हैं।

पांच दिनों तक इंतजार करना होगा।

सब कुछ न कुछ बोल रहे थे। वह भी गुराँया और फिर दहाड़ा कैसे रोक सकते हैं वेतन ? हम कोई बंधुआ मजदूर है क्या ?

सर्वोच्च-सत्ता

-रमेश अस्थिवर

दरबार का कार्यपाल प्राप्त हुई याचिका (अपोल) के विषय में ईश्वर को बता रहा था, "लच्छीराम का कहना है कि उसने अपना कारोबार को टाल से आरंभ किया था। चार साल तक कोयले की दलाली करता रहा पर कभी हाथ काले नहीं किये । वह मानता है देर सबेर कुसंगत में पड़कर वह डाकू बन गया। लेकिन जिन लोगों ने उसे सताया था उसने उन्हीं लोगों से बदले लिए। हाथ खून से रंगे। लेकिन इस सबमें उसका स्वयं का कोई दोष नहीं। लच्छीराम ने यमराज जी के फैसले से असहमति जताई है और ये याचिका सर्वोच्च सत्ता यानि आपके दरबार में पिछले वर्ष दाखिल की थी। लच्छीराम का कहना है कि उसे न्याय दिया जाय।"

"ईश्वर याचिका सुनकर अचम्भित हुवे। उन्होंने लच्छीराम की "केस फाईल" रात में पढ़ी थी। उन्हें तभी शक हो गया था कि लच्छोराम जानबुझ कर केस को उलझा कर समय बरबाद कर रहा है। पर क्यों ? उन्हें इसका कारण नजर नहीं आया और न रात में नीद। वे सन्नीदें थे इस समय मो उन्होंने लच्छीराम से सवाल किया।

"तुम डाकू बने। तुमने पाप किये। यमराज मे तुम्हे नर्क को सजा दी। यह न्याय हुआ है। हम बाइबस्त है। तुम्हें कुछ और कहना है।"

"नहीं प्रभु, कुछ नहीं कहना। जब आप भी अन्याय करेगें तो कुछ क फायदा ही क्या।"

ईश्वर चौके ।” उनको सत्ता को सरासर चुनौती थी। वे गरज उठे, "तुम कहना क्या चाहते हो ? स्पष्ट कहो।"

पृष्ठ - ३०

"प्रभु आप अन्याय कर रहे हैं। मुझे तो जैसा आपका आदेश था, मैंने वैसा ही किया अपनी ओर से कुछ नहीं किया । फिर ये सजा अन्याय नहीं तो  क्या है।" 

"क्या मतलब ? हमने तुम्हें कोई आदेश नहीं दिया था। तुम जानबूझकर..."

"नही प्रभु, जरा याद कीजिए आप ही तो किस्मत लिखते हैं, और जो किस्मत में लिखा होता है वही तो हम भोगते हैं। सारे किये धरे का कारण तो मात्र साधन है। फिर भी नर्क के भागीदार हम। सोचिए प्रभु, ये हमारे साथ अन्याय नहीं तो क्या है।” 

ईश्वर पल भर को सन्न रह गये। लच्छी राम ने भो ईश्वर की नस पकड़ ली थी। वह मुस्कुराने लगा। अब उसकी जीत निश्चित थी।

रिश्तेदारी

-नारायण लाल परमार 

तत्काल उसे स्पेशल वार्ड में कई डाक्टर एक साथ अचानक एक अमीर आदमी बीमार हुआ । भरती कराया गया ! दौड़ पड़े। परिचितों की भीड़ लग गई।

"खून देना पड़ेगा।" मुख्य डाक्टर ने कहा। सुनकर आधी भीड़ छंट गई। नाते-रिश्ते के लोगों से भी पूछा गया लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ।

"खून अभी और इसी वक्त चाहिए। क्या आपका कोई ऐसा रिश्तेदार नहीं है जो तत्काल आपको अपना खून दे सके ?" डाक्टर ने पूछा। 

"एक क्या अनेक रिश्तेदार मिल जाएँगे डॉ० साहब, लेकिन उनको खबर करनी होगी।" 

काफी भाग दौड़ के बाद एक आदमी उपस्थित किया गया, जिसने डाक्टर से कहा कि वह अपना खून सहर्ष देने के लिए तैयार है।

डाक्टर ने उसे बिस्तर पर लेट जाने को कहा और पूछा- "आप रिश्ते में इस मरीज के क्या लगते हैं?" "जी मैं पिछले पांच वर्षों से इनके बच्चों को स्कूल लाने ले जाने का काम करता हूँ। रिक्सा चालक हूँ।" आगन्तुक का जवाब था।

पृष्ठ - ३१


अनिरुद्ध प्रसाद विमल (सं.)

जन्म : 20 नवम्बर, 1950, मिर्जापुर, चंगेरी।

प्रकाशित कृतियाँ : 
हिन्दी: 
1. पागल विद्रोही- नाटक, 2. अंधेरी घाटियों के बीच कविताएँ, 3. अंकुर की आँखें - कविताएँ, 4. आपकी सुनीता कहानी संग्रह, रानी 5. लचिका उपन्यास, 6. मुखिया मंगनीलाल-नाटक, 7. विमल सतसई- दोहे, 8. अपने हिस्से का महाभारत कहानियाँ, 9. मुट्ठी में आकाश हायक, 10. मेरी प्रिय कविताएँ - कविताएँ

अंगिका

1. साँप- नाटक, 2. कागा की संदेश उचारै प्रगीत प्रबंध काव्य, 3. शुकरी- कहानी संग्रह, 4. मेघना - बाल एकांकी, 5. नदी रॉ मोड़ गीति नाटय, 6. ऋतुराग- हायकू काव्य, 7. नीमियां के छाँव-गीत संग्रह, 8. जैवा दी उपन्यास, 9. चानो-कहानी संग्रह 10. आग राग - कविता संग्रह, 11. स्मृति सुधा संस्मरण

प्रवर्तक : 'शुद्ध कहानी आंदोलन'

शोध कार्य : 'अनिरुद्ध प्रसाद विमल और आपकी सुनीता' - 'एम फिल'।

संपादन

1. छोटे-छोटे इन्द्रधनुष - लघुकथा संग्रह 2. समय स्वर- हिन्दी कविताएँ 3. शुद्ध कहानी- कहानी पत्रिका 4. गुलमोहर के गाँव में, 5. समकालीन अंगिका कहानी 6. समय रॉ सूरज

सम्प्रति : 'समय', हिन्दी एवं 'अंगधात्री' अंगिका त्रैमासिक पत्रिका का संपादन।

संपर्क
: संपादक- 'समय', समय साहित्य सम्मेलन, पुनसिया, बाँका, बिहार - 813109

मोबाइल : 6202283140/ 9934468342

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