ऋषि रेणु / अशोक कुमार धमेंनियाँ 'अशोक'
लघुकथा-संग्रह : ऋषि रेणु
कथाकार : अशोक कुमार धमेंनियाँ 'अशोक'
ISBN: 978-93-91610-88-3
कुल पृष्ठ : 196
मूल्य : 250 रु. (पेपरबैक)
प्रथम संस्करण : 2022
आवरण : अमित कुमार श्रीवास्तव
प्रकाशक : आईसेक्ट पब्लिकेशन
ई-7/22, एस. बी. आई. अरेरा कॉलोनी, भोपाल-462016
फोन : 0755-4851056
शुभ संकल्प की पावन रचनाएँ
मोटे तौर पर लेखक-समाज को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है, एक तो ऐसे रचनाकार जो बिना किसी मत-मतांतर, आग्रह - दुराग्रह पूर्वाग्रह के और उनके अभाव- प्रभाव - दुष्प्रभाव की परवाह किए कृति को 'स्वांतः सुखाय' की सर्जनात्मक दृष्टि से लिखते हैं। उनकी मान्यता है कि 'स्व' की स्वतंत्र अभिव्यक्ति लेखक का धर्म है और यही साहित्य सृजन का माध्यम भी। दूसरी ओर लेखकों की वह जमात है जिसके लिए सामाजिक सरोकारों के प्रति रचनात्मक प्रतिबद्धता सर्वोपरि है। वे मानकर चलते हैं कि समाज के व्यापक हितों के विस्तार और विकास में लेखक का योगदान निश्चित रूप से सकारात्मक और प्रेरणास्पद होना चाहिए। "परांतः सुखाय' की आदर्शवादिता से अभिभूत और संचालित ऐसे लेखकों की बलवती आस्था के कुछ केन्द्र सुनिश्चित होते हैं।
इन दोनों मतों के लेखक-वर्गों में सदियों से वैचारिक टकराव जारी है जिसका एक सुखद परिणाम यह अवश्य है कि लेखन की विषय-वस्तु, भाव-भूमि और भाषा, शिल्प तथा शैली के प्रयोगों को लेकर साहित्य की धारा कभी एकांगी नहीं रही और बहुलतावादी विराट साहित्य का आस्वाद हमें लगातार मिलता रहा।
इन दोनों प्रकार के लेखकों की अपनी-अपनी महिमा और महत्ता है । उनके द्वारा रची गयी कृतियों की कलात्मकता और भाव बोध की गहनता के आधार पर एक को दूसरे से छोटा नहीं समझा जा सकता है लेकिन विचार के क्षेत्र में होते रहे निरंतर नित नये परिवर्तनों, समसामयिक विभिन्न आंदोलनों के महत्वपूर्ण प्रभावों और नए रूप - स्वरूपों को गतिशीलता से ग्रहण करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति ने समाज की मानसिकता पर अपनी तरह से प्रभाव डाला है जिसके परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के वर्षों से लेकर आज तक एक ऐसी गहरी सूक्ष्म दृष्टि विकसित हो चुकी है जो इन दोनों प्रकार के रचनाकारों का समुचित सम्मान करते हुए उन लेखकों के प्रति विशेष अनुराग रखती है जो व्यक्ति की तुलना में समष्टि को तरजीह देता हुआ सामाजिक सांस्कृतिक विमर्श के विविध आयामों को अपनी रचनाओं में रेखांकित करते हैं तथा जन-मानस में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए लगातार जतन करते हैं, भले ही ऐसी कोशिशें सफल हों या न हों, वे अपना अभियान जारी रखते हैं क्योंकि यही उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता है और यही जीवन का एक मनोवांछित ध्येय भी ।
श्री अशोक धर्मेनियाँ 'अशोक' की रचनाओं को पढ़ते हुए यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि लेखक 'स्वातः सुखाय' नहीं लिखते बल्कि वे समाज के साथ, समाज में रहकर, समाज के सुख-दुःख, आशा-निराशाओं, पीड़ा, विषमताओं, विद्रूपों विरोधाभासों और विसंगतियों के संग-साथ जीते-चलते हुए उन लोगों की सुन्दर और सार्थक जिजीविषा से प्रेरित, प्रभावित और उत्साहित हैं। वे अपने इस मंतव्य को इसी किताब में दिए गए "अपनी बात" में बेहतरी से प्रकट करते हैं कि "लेखन कार्य में मेरी यह सोच हमेशा जागृत रहती है कि रचना किसी भी विधा में हो, उससे कोई न कोई सकारात्मक संदेश निकलना चाहिए। यह संदेश प्रत्यक्ष हो सकता है और परोक्ष भी ।"
इस प्रकार उनके लेखन का उद्देश्य और गति अपने आप में सुदृढ़ और सुनिर्धारित है। प्रस्तुत लघुकथा संग्रह "ऋषि रेणु" की एक शतक से अधिक रचनाओं में यह जीवन-दृष्टि बार- बार आलोकित होती है जब लेखन का उद्देश्य इतना जन मांगलिक और गहन सकारात्मक हो और रचना का कलेवर लघुकथा जैसी शब्द मितव्ययी और 'गागर में सागर' भरने वाली विधा को चुना गया हो तो असानी से लेखक पर आए कठिन काम की मुश्किलों को समझा जा सकता है। यह दुधारी तलवार पर चलने के हुनर जैसा ही है। लेकिन अशोक जी ने इस कला में अपनी महारत महत्वपूर्ण ढंग से दर्ज कराई है जो वाकई सराहनीय है। इस बात की पुष्टि के लिए उनकी एक लघुकथा गुरु महाराज' को उद्धरण के तौर पर लिया जाना मुनासिब होगा जिसमें भक्त पूछता है कि हमें कितना भजन और कितना भोजन करना चाहिए ? प्रश्न सामान्य है लेकिन गुरु का उत्तर उतना ही गहन-गंभीर । गुरु कहते हैं कि भजन शब्द में कोई मात्रा नहीं है, अतः इसे निरंतर करते रहना चाहिए जबकि भोजन शब्द में मात्रा है तो इसकी मात्रा संयत होना चाहिए। यह आप्तवचन ही इस लघुकथा का प्राण है और मनुष्य की प्रत्येक लौकिक और अलौकिक गतिविधि में इस महान दर्शन के तत्व ज्ञान को पाया जा सकता है। लघुकथा की सिद्धि भी यही है कि बहुत कम शब्दों में और सरल - सहज-सुबोध शैली में जीवन के मर्म और उसके रहस्यों को पाठक तक आसानी से पहुँचाया जा सके।
यही विशेषता उनकी अन्य कहानियों में भी प्रमुख रूप से पाई जाती है जो अपने छोटे स्वरूप में बड़े अर्थ और आशय को वहन करती हैं। इस संदर्भ में पारिवारिक रिश्तों पर लिखी गई उनकी कुछ कहानियों का जिक्र करना इस तथ्य को सप्रमाण साबित करता है कि वर्तमान समय और समाज के विषम दबाबों के चलते और आर्थिक कठनाइयों के दुष्चक्र में पिसते हमारे घरेलू जीवन में जिन नैतिक मूल्यों का क्षरण और अब तक के संचित संस्कारों का जिस प्रकार पतन हुआ है, उससे परस्पर प्रेम और आत्मीयता के स्थान पर दुराव और वैमनस्य ने संबंधों को कलुषित कर दिया है और भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपराओं से पोषित हमारी महान सामाजिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हुई है जिसके नतीजे में एक बहुगुण संपन्न जाति वर्तमान में दैनिक दुःख और संताप भोग रही है ।
लेखक अपने देश की जातीय अस्मिता और इतिहास-बोध को भली-भाँति जानता है और वर्तमान सामाजिक परिवेश में व्याप्त दोषों और बुराइयों को खत्म कर उसी पुनीत सपने को साकार होते देखना चाहता है जिसने एक समय इस देश को आदर्श स्थिति में प्रतिष्ठित कर विश्वगुरु का दर्जा दिलाया था। इसलिए हर विकृत सामाजिक समस्या के समाधान में उसका नया प्रतिलोम गढ़कर एक सुखद स्वरूप प्रस्तुत करना अशोक जी की लघुकथाओं का मूल मंतव्य तय होता है। 'स्वार्थ लीला' में दर्शाई गई ओछी मानसिकता के बरक्स वे अपनी 'संतोष', 'अच्छे दिन', और 'बहु हो तो ऐसी आदि लघुकथाओं को प्रस्तुत कर समाज को एक आदर्श दिशा-निर्देश देने की प्रस्तावना करते हैं।
इसके साथ ही, अपने लेखकीय उद्देश्यों को सफल करने के ध्येय से वे घर, पड़ोस और वृहत्तर समाज में बहुतायत से पाये जाने वाले पाखंड और अनाचार का पर्दाफास करने की मुहिम अपनी रचनाओं मे गंभीरतापूर्वक सुनियोजित करते हैं। इस संग्रह में दी गई 'हाथी के दाँत', 'टूट गया मिथक', 'पुण्य की दुकान', 'भूख बड़ी बलवान' आदि लघुकथाओं में इन्हीं अभिशप्त विरोधाभाषों और विसंगतियों का खुला बयान है और समाज को नष्ट करने वाली ऐसी ताकतों के खिलाफ एक लेखक का प्रतिकार है जो वह अपने सामाजिक सरोकारों के निर्वहन के दायित्वों में अंगीकार करता है।
इसके अलावा अशोक जी ने भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी आदि समाज की अनेक समस्याओं को केन्द्र में रखकर बहुत सुंदर लघुकथाएँ इस संग्रह में दी हैं जो क्लिष्ट भाषा से हटकर आम बोलचाल की शैली में रची गयी हैं।
जिससे वे सहज सम्प्रेषणीय और आत्मीय बन पड़ी हैं। आज के समय में उन्होंने अपने लेखकीय कर्तव्यों का संजीदगी से निष्पादन किया है। लेखन को एक पवित्र तथा प्रेरणास्पद कार्य के रूप में लेना अशोक जी को सराहनीय बनाता है।
मैं उन्हें इस शुभ संकल्प के लिए बधाई देता हूँ और भविष्य में निरंतर कलम के कीर्तिमान गढ़ते रहने के लिए अशेष शुभ-कामनाएँ देता हूँ।
मुकेश वर्मा
अध्यक्ष
वनमाली सृजनपीठ, भोपाल
अनुक्रमणिका...
उपदेश / 23
बेटी / 24
श्रमिक / 26
लव जिहाद / 27
टूटा सपना / 29
पेड़ / 31
संतोष / 32
गौ-महिमा / 34
अच्छे दिन-एक / 36
बहू हो तो ऐसी / 38
उल्टा चोर कोतवाल को डाटे / 39
भूख बड़ी बलवान / 40
हाथी के दाँत / 42
नीयत का मामला है / 45
क्या यही इंसानियत है / 46
पवित्रता का तकाजा / 48
बिल्ली मौसी संकट में / 49
देर आये दुरुस्त आये / 51
सड़क खुदाई का रहस्य / 52
बात समझदारी की / 53
तुगलकी आदेश / 55
स्वार्थ लीला / 57
पाखंड / 59
अपराध बोध / 61
तिजोरी की चाबी / 63
गरीबी क्या-क्या नहीं कराती / 64
संबंध / 67
रिश्ते की महिमा / 69
आचरण का प्रभाव / 71
एम. बी. बी. एस. में दाखिला / 72
फायदे वाला झूठ / 73
ठगी का अनुसरण / 75
गमले के पौधे / 77
सब्जीवाला ठेला / 78
गुरु महाराज / 80
चिरंजीवी रिश्ता / 82
गोवर्धन का गुमान / 84
योग्य संत कौन / 86
अपनी अपनी जरूरत / 88
घर के रहे न घाट के / 90
भैंस के आँसू / 92
टूट गया मिथक / 94
कवि पत्नी / 96
सास- बहू / 97
फसाद का प्रसाद / 99
पुण्य की दुकान / 109
व्यवस्था का ढोंग / 103
कथनी और करनी / 105
परिश्रम समृद्धि की कुन्जी / 107
पेड़ों की संगत / 107
युवाओं की छोटी क्रान्ति / 111
देशी उपचार का कमाल / 113
अवसरों की खोज / 114
कर्मवीर सीमा / 116
भटकाव से मुक्ति / 118
भुक्त भोगी रामदास / 120
सही कौन / 123
शाबाश जावेद / 125
आत्मघाती मानव / 127
अच्छा कार्य - एक / 128
सेवा परमोधर्म / 130
राइस किंग / 132
सीख / 134
चेहरे पे चेहरा / 135
इंतजार / 137
कामवाली / 139
बड़ा भाई / 141
पैसे वाला औरा / 143
मजबूरी के मारे बेचारे / 145
बिजली के खंबे / 147
छोटे पक्षियों की बड़ी बातें / 149
पीले फूल / 151
सवारियों पर टिकी आस / 153
मैट्रो ट्रेन / 155
अपने अपने राम / 157
मोर और ड्रेगन / 159
होनहार बच्चे / 160
जोड - तोड़ / 162
शस्त्र पूजा / 163
चौपाटी / 165
दान / 167
तिनके की ओट / 169
वह कौन था / 171
अच्छे दिन - दो / 172
सवाल बालों की कटिंग का / 173
अभी मैं जिन्दा हूँ / 175
संस्कार - एक / 176
स्वतंत्रता / 178
गोशालाओं का सच / 179
अपना घर / 181
नदी जल / 183
आस्था और हकीकत / 184
बारिश / 186
पहराई / 187
दुर्जन / 188
संस्कार - दो / 189
कौआ और कोयल / 190
नम्रता / 191
ऋषि रेणु / 192
आतंकबाद / 193
महाभारत का युद्ध / 194
प्रवासी / 195
अशोक कुमार धमेंनियाँ 'अशोक'
जन्मस्थान : मऊरानीपुर (झाँसी) उ. प्र.
जन्म दिनांक : 22 मई, 1955
पिता : स्व. श्री जैतराम जी धमेंनियाँ 'जैत',
स्थायी निवासी एवं संपर्क : सी-49, पद्मनाभ नगर, पोस्ट- गोविंदपुरा, भोपाल, म. प्र.,
मोबाइल : 9893494226
E-mial: dhameniyaak1955@gmail.com
प्रकाशन : 1. "बड़ेबोल" (काव्य संग्रह) 2. "मेरा उपवन (काव्य संग्रह) 3. "केवट गंगा" (खण्ड काव्य) 4. "लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं" (व्यंग्य और कहानी संग्रह) 5. "मेरे ईश" ( यात्रा वृत्तान्त ) 6. चन्द्र खिलौना (काव्य संग्रह) 7. ऋषि रेणु (लघुकथा कृति) 8. "देखो दादू बादल आये (बाल गीत, प्रकाशनाधीन) 9. दोहावलि (प्रकाशनाधीन), साँझा संकलन 1. सहोदरी सोपान - काव्य संग्रह (नई दिल्ली से प्रकाशित) 2. अभ्युदय काव्यमाला काव्य संग्रह ( इंदौर से प्रकाशित) 3. काव्य रत्नावलि-काव्य संग्रह (जलगाँव, महाराष्ट्र से प्रकाशित) ।
सम्मान : विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से लगभग तीन दर्जन सम्मानों से सम्मानित, कुछ प्रमुख निम्नानुसार हैं: 1. उ.प्र. शासन, हिन्दी विभाग, लखनऊ द्वारा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय सम्मान 2. विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, गांधीनगर, भागलपुर बिहार से विद्या वाचस्पति सम्मान, 3. पं. हरिशंकर तिवारी यात्रा वृत्तान्त सम्मान (म. प्र. लेखक संघ, भोपाल) 4. अमृतादित्य साहित्य गौरव सम्मान (अमृतधारा आर्गनाइजेशन जलगाँव, महाराष्ट्र) 5. तुलसी छंद सम्मान (म. प्र. तुलसी साहित्य अकादमी, भोपाल) 6. अटल साहित्य भूषन सम्मान (विश्व हिन्दी रचनाकार मंच, दिल्ली) 7. बुन्देली साहित्य रत्न सम्मान (बुन्देली भवन, भोपाल ) 8. भाषा सहोदरी सम्मान ( भाषा सहोदरी हिन्दी, दिल्ली ) 9. साहित्य मार्तन्ड सम्मान (साहित्य संगम संस्थान, दिल्ली) 10. साहित्य लोक कौमी एकता सम्मान (साहित्य लोक इमेजिन परिवार झाँसी) 11. मेरा भारत महान सम्मान (आदर्श संस्कृति युवा मंडल एवं श्रमिक शिक्षा व कल्याण समिति, भोपाल) 12. साहित्य रत्न सम्मान (पुष्पगंधा प्रकाशन, छत्तीसगढ़) 13. साहित्य सौरभ सम्मान (शिव संकल्प साहित्य परिषद, नर्मदापुरम) 14. डा. चन्द्र प्रकाश वर्मा स्मृति श्रेष्ठ साधना सम्मान (अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन)
अन्य गतिविधियाँ : कार्यकारी संपादक- 'सत्य की मशाल', मासिक साहित्यिक पत्रिका, भोपाल, संस्थापक अध्यक्ष - धर्मेनियाँ साहित्य एवं समाज सेवा संस्थान (भोपाल), उपाध्यक्ष- कला मंदिर ( प्राचीन साहित्यिक संस्था, भोपाल ) । अन्य कई साहित्यिक संस्थाओं में आजीवन सदस्यता । कवि गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों में निरंतर भागीदारी, न्यूज चैनलों, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का विभिन्न विधाओं में सतत् प्रसारण, प्रकाशन । सम्प्रति : म० प्र० खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड, भोपाल में वरिष्ठ उपसंचालक के पद पर सेवायें देते हुए दिसंबर, 2015 में सेवानिवृत्त ।
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