ताश का घर / सविता स्याल
(शोभना श्याम द्वारा प्रेषित)
लघुकथा संग्रह : ताश का घर
कथाकार : सविता स्याल
ISBN : 978-93-91559-44-1
मूल्य : ₹ 250.00
प्रथम संस्करण : 2022
प्रकाशक : कौशिक पब्लिशिंग हाउस
ए-49, गली नं. 6, जगतपुरी एक्सटेंशन दिल्ली-110093
मोबाइल : 0-9811827837
Email : kphouse2016@gmail.com
ब्रांच आफिस : के-225, यू.पी.एस.आई.डी.सी., सेक्टर-5, कासना, ग्रेटर नोएडा-201310 (उत्तर प्रदेश)
अनुक्रम
1. विवशतायें
2. मृगतृष्णा
3. एक दोस्ती, ऐसी भी....
4. भोजन क्रम
15. बुद्धिजीवी कौन ? (मानवेत्तर लघुकथा)
6. बेमेल
7. अपने बनाम पराये
8. बदलती संवेदनायें
9. उसके फैसले
10. दोषी कौन
11. मेरे अपने
12. दिल की भाषा
13. डील
14. ज़ूम वाली दादी
15. माँगे
16. कुछ
17. मौत के सौदागर
18. कहानी, घर-घर की
19. थीम पार्टी
20. बस इतना ही
21. शोक
22. कागज़ की कीमत
23. पितृ दिवस
24. पी. पी. ई. किट
25. इंसान
26. जवाब
27. परिवर्तन
28. जड़ और चेतन
29. अब और नहीं
30. जहाँ चाह, वहाँ राह
31. प्रसाद
32. दो बार
33. और.... मयखाना चालू हो गया
34. जड़ों से दूर
35. दूसरी माँ
36. स्लो प्वाइजन
37. बख़्शीश
38. रक्षक/ भक्षक
39. अपराधी
40. थोपी गयी साहानुभूति
41. मोल-तोल
42. अपने हिस्से का आकाश
43. अनुत्तरित प्रश्न
44. निपटारा
45. मुआवजा
46. आँधी (मानवेतर लघुकथा)
47. विजय पथ
48. श्राद्ध
49. दृष्टिकोण
50. वापसी
51. सड़क (मानवेतर लघुकथा)
52. ट्रेनिंग
53. टूटन
54. अद्भुत प्रेम (मानवेतर लघुकथा)
55. आस्तिक, नास्तिक
56. आवश्यकता बनाम अविष्कार
57. मी टू
58. मानो या न मानो
59. ताश का घर
60. अभाव का आनन्द
संग्रह की समीक्षा
संवेदनाओं के सागर से भावों के मोती ढूंढती लघुकथाएं
लघुकथा कथा साहित्य की ऐसी विधा है जो कम शब्दों में बड़ा संदेश देने में सक्षम है| निरंजन बोहा के अनुसार "मानव संवेदनाओं के महत्वपूर्ण क्षणों के सशक्त प्रत्यक्षदर्शी का नाम लघुकथा है|" तो प्रो. बी एल आच्छा के शब्दों में लघुकथा "अनुभव के समुद्र की एक लहर जो स्पर्श के क्षण का लघु गद्य-द्वीप रच जाती है|"
'ताश का घर' वरिष्ठ लेखिका सविता स्याल जी का प्रथम लघुकथा-संग्रह है मगर समग्र रूप से यह आपकी पांचवी कृति है इसकी प्रभान्विति प्रस्तुत संग्रह में सशक्त प्रवाहमयी भाषा के रूप में सामने आती है| सविता जी शिक्षिका और समाजसेविका रही हैं अतः इनके पास अनुभवों का अथाह भंडार तथा अनुभूतियों की अक्षय निधि है इसी कारण इनके विषयों और कथ्यों में न केवल विविधता है बल्कि भावों की तरलता भी है| ‘ताश का घर’ संग्रह में न केवल नए कथ्य हैं बल्कि पुराने कथ्यों को भी नवीन कहन द्वारा प्रस्तुत किया गया है जिसका एक अच्छा उदाहरण है लघुकथा- 'अद्भुत प्रेम' जिसमे स्त्रियों द्वारा अपने घर परिवार और जिम्मेदारियों के लिए अपने स्वास्थ्य से समझौता किये जाने के पुराने कथ्य को नायिका के तकिये द्वारा कहलाया गया है जो सर्वथा नवीन प्रयोग है| इसी प्रकार परिवार में बड़े बुजुर्गों की उपस्थिति के सकारात्मक पहलू को 'ज़ूम वाली दादी' लघुकथा में एक नए ही अंदाज़ में कहा गया है| कथानक, शिल्प, प्रस्तुति में कसावट और उपयुक्त शीर्षक के कारण यह एक सशक्त लघुकथा बन पड़ी है|
कहते हैं अनुभव सबसे बड़ा शिक्षक है और ये जरूरी नहीं कि अग्नि की ज्वलनशीलता के अनुभव के लिए खुद के हाथ जलाये जाएं| हम दूसरों के अनुभव से भी सीख सकते हैं जैसे कि संग्रह की शीर्षक लघुकथा 'ताश का घर' में मिनी अपनी सखी के ‘लिव-इन’ में रहने के दुष्परिणामों से सीख लेती हैं और आज के दिशाहीन युवा वर्ग को यही चेतावनी देना इस कथा का उद्देश्य भी है| 'मानो या न मानो' और 'अनुत्तरित प्रश्न' आदि लघुकथाएं बेटियों को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं तो 'उसके फैसले' विकलांगता पर हौसले और जिजीविषा की जीत का उत्सव मनाती है| समाज में बढ़ती स्वार्थपरता और भौतिकता के चलते संतान द्वारा अपने माता पिता की उपेक्षा और तिरस्कार को कई लघुकथाओं ने अलग अलग प्रकार से प्रस्तुत किया है जिनमें ‘बदलती संवेदनाएं' अत्यंत मार्मिक बन पड़ी है तो 'भोजन क्रम' में पैना व्यंग्य भी है| “कुत्तों के खाली बर्तन लौट आये हैं बस अब मेरी बारी है।" बुजुर्ग की निरीहता को उजागर करता यह वाक्य पढ़कर पाठक एक ओर तिलमिला उठता है तो दूसरी ओर उनके द्वारा वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लेने की विवशता पर रो पड़ता है| 'अपने बनाम पराये' कोरोना के परिणाम स्वरूप उपजी संवेदनशून्यता को चित्रित करती है|
'प्रसाद' लघुकथा में देवस्थान जैसी जगहों में भी पनपते अमीरी गरीबी के भेदभाव का मार्मिक चित्रण है| ज्ञान-पिपासा पर हावी होती ऐंद्रियता का सटीक चित्रण 'और... मयखाना चालू हो गया' में मिलता है| लेखिका स्वयं एक शिक्षिका रही है अतः एक शिक्षिका के मन में अपने छात्रों के प्रति ममत्व-भाव को उकेरती 'दूसरी माँ' लघुकथा पाठक के मर्म को छू जाती है| युगों से चलती आ रही धनाढ्य वर्ग की अपने घरेलू सहायकों के प्रति संवेदनशून्यता की सामंती प्रवृत्ति आज भी विद्यमान है, इस सत्य से अवगत कराती हैं 'अपराधी' तथा 'बख्शीश' जैसी लघुकथाएं| ऑनर किलिंग के प्रति एक बहन का आक्रोश 'रक्षक/भक्षक' में फूट पड़ता है| 'डील' लघुकथा माँ और बेटे के रिश्ते की खूबसूरत कथा है तो 'मोल तोल' बेटे द्वारा माँ की उपेक्षा का सर्वथा नया कोण सामने लाती है|
संग्रह की पहली ही कथा 'विवशताएँ' एक और वृद्धावस्था की अवशता और दूसरी ओर गरीबी से उपजी विवशता, दोनों के एक धरातल पर आकर एक दूसरे से बात करने की मार्मिक कथा है| अपने सपनों को पाने के लिए इंसान को कभी-कभी कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं लेकिन क्या सपने पूरे हो जाने पर भी इंसान सुखी हो जाता है ? यही उहापोह है 'बेमेल' कथा में जिसके शीर्षक ओर कथ्य में भी मेल नहीं बैठ रहा है| समलैंगिकता का दंश सहते रिश्ते की करुण गाथा है लघुकथा -'दोषी कौन'| 'दिल की भाषा' एक हल्की फुलकी परन्तु लचर लघुकथा है, जो थोड़े और श्रम की मांग करती है| 'माँगे' राजनैतिक धूर्तता की कथा है तो 'कुछ' लघुकथा में एक छोटे बच्चे की जागरूकता से एक बड़ा अनिष्ट होते होते रह जाता है, यह कथा अपने कुटिल उद्देश्य की पूर्ति हेतु मासूम बचपन के प्रयोग की विसंगति को भी उजागर करती है| 'मौत के सौदागर' लघुकथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय माफिया की पोल खोलती है यद्यपि यह विषय नया नहीं मगर इतना महत्वपूर्ण है कि जितना लिखा जाए उतना कम है|
'कहानी घर घर की' घरेलू हिंसा की त्रासदी के भयावह रूप को उजागर करती है| मारपीट से तंग आयी चिंकी पुलिस में जाने का साहसिक निर्णय तो ले लेती है लेकिन वहां जाकर क्या उसकी समस्या का हल मिलता है ? इस कथा का शीर्षक कुछ अधिक रोचक होना चाहिए था| 'थीम पार्टी' में प्रदर्शन की प्रवृत्ति का घातक परिणाम तो दिखाया गया है लेकिन इसमें अतिश्योक्ति का समावेश हो गया है| आजकल महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी सामर्थ्य का परिचय दे रही हैं किन्तु शारीरिक श्रम आधारित कार्यों में आज भी उसे कमतर समझने की ग्रंथि बनी हुई है 'बस इतना ही’ लघुकथा में इसी तथ्य पर प्रकाश डाला गया है जो किसी भी पाठक को सोचने पर विवश कर सकता है| 'शोक' लघुकथा में असलियत और दिखावे के बीच के हैरतअंगेज़ अंतर को दर्शाया गया है|
"जस्टिस बिलेटेड, जस्टिस डिनाइड” की कहावत पर आधारित है लघुकथा 'कागज़ की क़ीमत' तो आजकल रिश्तों में पसरी संवेदनशून्यता का नग्न प्रदर्शन है लघुकथा 'पी.पी.ई. किट'| लघुकथा 'जवाब' में पुत्र की बेहतरी के लिए लिए गए कठोर निर्णय के औचित्य को सिद्ध किया गया है| लघुकथा 'परिवर्तन' आदर्श की स्थापना में थोड़ी नाटकीय हो गयी है| उपेक्षित और तिरस्कृत पत्नी में स्वाभिमान जाग उठने की कथा है 'अब और नहीं'| 'जहाँ चाह वहाँ राह' लघुकथा अपनी परेशानियों का रोना रोते रहने की बजाय सुलभ उपादानों के माध्यम से उन्हें हल करने की सलाह देती है| मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अकेलापन उसे तोड़ डालता है| 'स्लो प्वॉइज़न' लघुकथा में इसी की पुष्टि की गयी है| लघुकथा 'रक्षक/भक्षक' राखी के धागों को कलंकित करने वाले भाई को सबक सिखाती है| 'निपटारा' में अपने दिवंगत बुजुर्गों के प्रति अपने कर्तव्यों को बोझ की तरह निपटाए जाने का वर्णन है| लघुकथा 'मुआवज़ा' रिश्तों के मुखौटों में छिपी पशुता को इस प्रकार उद्घाटित करती है कि पाठक सन्न रह जाता है| 'श्राद्ध' में रूढ़ियों के मोह से निकलकर श्रद्धांजलि के आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है| "दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है|"- की तर्ज़ पर जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाने की शिक्षा देती है लघुकथा 'दृष्टिकोण'| 'वापसी' विदेशी चकाकचौंध से मोह-भंग की कथा है| 'सड़क' में एक सड़क भी मानवीय कही जाने वाली संवेदनाओ से ओतप्रोत हो मनुष्य को स्वार्थपरता का त्याग कर एकजुट हो अन्याय और अनाचार का सफाया करने की सीख देती है| 'मी टू' का शीर्षक ही बता देता है कि यह यौन शोषण के मुद्दे पर लिखी गयी है|
इस प्रकार यौन शोषण, नई पीढ़ी में संस्कारों के रोपण, विदेशी चकाचौंध से मोहभंग, बलात्कार, दृढ़ संकल्प से लक्ष्य-प्राप्ति, क्रूरता की हदों को पार करती स्वार्थपरता, बाल-शोषण, दिखावे की प्रवृत्ति, घरेलु हिंसा, बाजारवाद के घातक पंजे, नेताओं की चाल-बाजियां, साम्प्रदायिकता, समलैंगिकता, पर्यावरण, किन्नर अर्थात विविध विषयों की पूरी दीर्घा यहां सजी हुई है|
लेखिका ने पहले से अवस्थित समस्याओं के साथ-साथ समाज में उगती नित नई विसंगतियों पर भी कलम चलाई है| प्रस्तुत लघुकथाएँ यथार्थ के कठोर धरातल पर तीव्रानुभूति की छेनी से उकेरी गयी है अतः इनका भाव पक्ष अत्यंत सबल है| इन कथाओं में लक्ष्यों की गहरी संलग्नता, सम्प्रेषणीयता, सांकेतिकता, मनोवैज्ञानिक परख, सूक्ष्म व्यंगात्मकता, वैचारिक संस्पर्श, भरपूर कथा तत्व, वैचारिक एवं भावात्मक द्वन्द के दर्शन होते हैं| शिल्प की बात करें तो यह कथाओं में अनायास ही आ गया है इसके लिए लेखिका का कोई विशेष आग्रह नहीं है| शिल्प ने कथ्य और कथानकों का सहज अनुसरण किया है जिससे अधिकांश लघुकथाओं में सहज प्रवाह उत्पन्न हो गया है| कुछ कथाएँ मानवेतर प्रारूप में भी प्रस्तुत की गयीं हैं| कहीं कहीं लेखकीय प्रवेश भी दृष्टिगोचर होता है| किन्तु यह लेखिका का पहला लघुकथा संग्रह है अतः इस छोटी सी कमी को अनदेखा किया जा सकता है | प्रसिद्ध लेखिका चित्रा मुद्गल जी भी कहती हैं--"इसमें कोई नियम नहीं, आप किसी दृश्य से छोटी सी बात को बहुत गहराई से व्यक्त करना चाहते हैं तो वह आप किसी भी शिल्प में लिखें बस आपके कहन में संवेदना, विषय का गाम्भीर्य, द्वन्दात्मकता को संजीदगी से सम्प्रेषित करने कीक्षमता होनी चाहिए| अवधनारायण मुद्गल तो यहाँ तक कहते हैं कि स्वरूप, आरम्भ, अंत आदि तय कर दिए जाने पर विधा मर जाती है|
लघुकथा में शीर्षक भी शिल्प का एक महत्वपूर्ण अंग है| असल में शीर्षक का जितना महत्व लघुकथा में है उतना किसी अन्य विधा में नहीं| लेखिका के ज्यादातर शीर्षक लघुकथा के लक्ष्य या परिणाम को ध्यान में रखकर दिए है यानि ये शीर्षक कथा का उद्देश्य बता देते हैं ऐसे शीर्षक बोध-कथाओं या नीति कथाओं में ज्यादा पाए जाते हैं आजकल इनका प्रचलन कम हो रहा है| ‘आवश्यकता बनाम अविष्कार’, ‘अपने बनाम पराये’, ‘थोपी गयी सहानुभूति’ और ‘अभाव का आनंद’ ऐसे ही शीर्षक हैं| आजकल व्यंजना एवं प्रतीक रूप में शीर्षक रखने की पद्धति सर्वाधिक लोकप्रिय है| प्रस्तुत संग्रह के कई शीर्षक इस प्रकार के भी हैं| जैसे 'ताश का घर', ‘मेरे अपने', ‘भोजन-क्रम', ‘आँधी', 'निपटारा', ‘अपने हिस्से का आकाश', 'अपराधी' आदि|और अब बात इस संग्रह की सबसे सशक्त लघुकथा 'मृगतृष्णा' की| कथ्य, उद्देश्य, कथानक, शिल्प सभी पक्षों से उत्कृष्ट कथा को इसके व्यंजनात्मक शीर्षक ने अत्यंत ऊंचाई पर पहुंचा दिया है| यह शीर्षक इतना सटीक एवं श्रेष्ठ है कि यह कथा के दोनों पात्रों और आजकल के सोशल मीडिया तीनों पर चरितार्थ होता है| कथा की आखिरी पंक्ति "उधर प्रिंस की उँगलियाँ फिर फेसबुक पर थिरकने लगीं, एक और मान्या की तलाश में…|” ऐसा केटेलिस्ट (उत्प्रेरक) है कि पाठक को न केवल धोखा खाने वाले बल्कि धोखा देने वाले से भी सहानुभूति हो जाती है| वस्तुतः यह लघुकथा पूरे संग्रह की अप्रतिम उपलब्धि है|
लेखिका ने संग्रह के आत्मकथ्य में-"उसे (लघुकथाकार को) एक मंजे हुए खिलाडी की भांति नियमों एवं सीमाओं में बंधकर अपने शब्द-कौशल से 'गागर में सागर' भरने का कार्य तो करना ही है|"-कहकर अपने सामाजिक एवं साहित्यिक दायित्व के प्रति जागरूकता का परिचय दे ही दिया है| अंत में यह कहा जा सकता है कि सविता स्याल जी की लघुकथाएं भाषा और अभिव्यक्ति, कथावस्तु एवं पात्रों के गठन, संवेदनाओं और सरोकारों द्वारा जीवन जीवन को एकदम पास से दिखाती हैं| लगभग हर कथा से गुजरते हुए हमें लगता है कि अरे! यह तो हमारे आस-पास ही घटित हुआ है| लघुकथा जगत तथा पाठकों को सविता जी की यह लघुकथाओं की प्रथम क्यारी सौंदर्य और खुशबु दोनों प्रदान करेगी| इस विश्वास के साथ सविता जी के आगामी लघुकथा संग्रहों के लिए शुभकामनायें|
समीक्षक - शोभना श्यामकथाकार : सविता स्याल
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