संभावना/पंकज साहा
लघुकथा-संग्रह : संभावना
कथाकार :
डॉ पंकज साहा
स्वत्त्वाधिकार : पंकज साहा
प्रथम संस्करण: 2022
ISBN: 978-93-93028-95-2
मूल्य: रु: 200.00/- (पेपरबैक)
प्रकाशक / विपणक :
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भूमिका
हिंदी साहित्य में कथाएँ विभिन्न रूपों में मिलती हैं। सामान्य तौर पर लघुकथा आकार में छोटी होती हैं किंतु वो स्वयं में परिपूर्ण होती हैं। प्राय: जीवन की किसी घटना या किसी भावना से जुड़ी होती हैं। छोटी कहानी होने के नाते इसमें कम शब्दों में संपूर्ण कहानी कही जा सकती है, जिसका अंत सार्थक शब्दों में होता है। यह उल्लेखनीय है कि लघुकथा किसी कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं होता या किसी कहानी का सार नहीं होता, अपितु अपने आप में एक संपूर्ण विधा है ।
लघुकथा लिखने का दौर प्राय: 1940-50 के आस-पास कहा जाता है, किंतु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी लघुकथाएँ कही गई हैं और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में लघुकथा लिखने का दौर थोड़ा तेज हो गया। इस काल में रवीन्द्रनाथ टैगोर. शरदचंद्र चट्टोपाध्याय और प्रेमचंद आदि की लघुकथाएं देखी जा सकती हैं। लघुकथाओं के लिखने का दौर भारत में ही नहीं विदेशों में भी तेजी से विकसित हुआ। किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कलात्मक लघुकथाओं के लेखकों की संख्या तेजी से बढ़ी। इन लघुकथाओं में यथार्थवाद और अतियथार्थवाद का सम्मिश्रण देखने योग्य है। इस दरम्यान विदेशों में लघुकथाओं का लेखन बड़ी तीव्रता से बढ़ा। हिंदी में लघुकथाओं को समृद्ध करने का काम जिन लेखकों ने किया उनके नाम हैं- अमृता प्रीतम, धर्मवीर भारती, भीष्म सहानी, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, मन्नूभंडारी और हरिशंकर परसाई । इस काल में बांग्ला में भी लघुकथाओं का निरंतर विकास हुआ । कथा और वर्णनात्मक गद्य में एक केंद्रित संक्षिप्त रूप में लघुकहानी को नाट्य संरचना के पारंपरिक तत्वों के माध्यम से सिद्धांतबद्ध किया गया है। इन तत्वों में प्रथम है प्रदर्शनी, जिसमें मुख्य पात्रों का परिचय एवं स्थिति का संकेत मिलता है। दूसरा तत्व है जटिलता, जो घटना से संबद्ध विसंगति या संघर्ष को स्पष्ट करती है। तीसरा तत्व है संकट, जो नायक के लिए निर्णायक क्षण और कार्यवाही के लिए उसकी प्रतिबद्धता को इंगित करती है। अगला तत्व है चरमोत्कर्ष, जो संघर्ष के मामले में उच्चतम रुचि का बिंदु होता है और अंतिम तत्व है संकल्प, जो संघर्ष के निवारण से संबंद्ध होता है। अपनी लंबाई के कारण लघुकथाएँ इन पारंपरिक तत्वों का अनुसरण करती भी हैं और करती भी नहीं। लंबी कहानियों की तरह लघुकथाओं में भी चरर्मोत्कर्ष, संकट या मोड़ होता है और सामान्य तौर पर लघुकथाओं के अंत में निर्णायक या खुला प्रश्न निदान के लिए छोड़ दिया जाता है।
पंकज साहा एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और उनके कृतित्व में आलोचना, आलेख, व्यंग्य, कविता, कहानी आदि विधाओं का सृजन देखा जा सकता है। उन्होंने कई पुस्तकों व पत्रिकाओं का संपादन भी किया है और उनकी 300 से भी अधिक रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में एवं शोध पत्रों के रूप में प्रकाशित हुई हैं।
पंकज साहा का यह प्रथम लघुकथा संग्रह इसलिए उल्लेखनीय है कि एक आलोचक होते हुए उन्होंने लघुकथा के क्षेत्र में कदम बढ़ाया। वैसे तो वह कई विधाओं में रचना-कार्य कर चुके हैं, किंतु लघुकथा के क्षेत्र में ये कदम उनका कोई प्रयोग हो सकता है। जब हम उनकी कथाएँ पढ़ते हैं तो हमें उनका आलोचक कहीं दिखाई नहीं पड़ता । अपितु सरल कथ्य के साथ सहज एवं बोधगम्य विषयों पर प्रवाहपूर्ण भाषा में कुछ-कुछ पौराणिक शैली भी देखी जा सकती है।
'संभावना' में उनकी 27 लघुकथाएँ संग्रहित हैं। इन कथाओं में उनका विषय वैविध्य दिखाई देता है। कुछ-कुछ विषय निहायत ही ध्यान आकर्षित करते हैं। जैसे 'उनकी बहन आज भी कुंवारी है', 'जिंदा मछली', 'उतर गया पानी', 'कातर आँखें' 'अन्नब्रह्म', 'अपना-अपना अतिक्रमण', 'सामाजिक न्याय', जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स', 'आयकर', 'भीड़ छंटने लगी', जानवर गाड़ी आदि । इन लघुकथाओं में विषयवस्तु का प्रभाव निस्संदेह कहानी के रूप में दिखाई देता है।
'संभावना' की लघुकथाओं में भाषा विषय के अनुरूप चलती है और कहीं-कहीं तो एक अलग वैशिष्ट्य के साथ उभरकर आती है। भावों का जैसा समायोजन प्रांजल भाषा के साथ पंकज साहा ने किया वो उनकी अभिव्यक्ति की कुशलता दर्शाती है। मानवीय संवेदनाओं का जैसा चित्रण इन कथाओं में मिलता है, वह अनुपम है। इसी प्रकार उनकी लेखन शैली पौराणिक कथाओं वाली शैली से भी प्रभावित है। वो अपनी बात सलीके से कहते हैं। हाँ, कहीं-कहीं संवाद में चुटीलापन कम दिखाई देता है। लेकिन दृश्य के अनुरूप उनकी भाषा में मारकता और संवेदनशीलता दोनों ही एक साथ उपस्थित है।
पंकज साहा के इस लघुकथा संग्रह में कथा-वैविध्य है और अपनी भाषा और शैली के वैशिष्ट्य के साथ वो प्रभावी रचनाएँ लिखने में सफल हुए हैं। उनके इस संग्रह को एक मील का पत्थर कहा जाएगा। पंकज जी अपनी इस अनुपम कृति के लिए बधाई के पात्र हैं और उन्हें मेरी कोटि-कोटि शुभकामनाएँ।
- डॉ. संजीव कुमार
इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड
नोएडा - 201301
संभावनाओं के द्वार खोलती हैं पंकज साहा की लघुकथाएँ
आज शनै: शनै: लघुकथा हिन्दी साहित्य की केंद्रीय विधा बनती जा रही है। इसका कारण है लघुकथा में अपने युग के यथार्थ की सघन उपस्थिति। आज पाठक पत्र-पत्रिकाओं में सर्वप्रथम लघुकथाएँ ही पढ़ते हैं। समय तो एक कारक है ही। एक दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण भी है। वह यह कि यहाँ आकर पाठक को गहरे जुड़ाव की अनुभूति होती है । वह देखता है कि लघुकथा उसकी स्वयं की बात कह रही है। उसके जीवन संघर्ष, उसके दुःख, उसके राग-द्वेष, पंगु व्यवस्था के प्रति उसके मन में दबा आक्रोश आदि तमाम बातें यहाँ पर्याप्त विश्वसनीयता और त्वरा के साथ आतीं हैं। वह एक बार फिर लघुकथा के माध्यम से स्वयं को जी लेता है।
आधुनिक लघुकथा का जन्म 1970 से माना जाता है। अब यह पचास वर्ष की युवा और सयानी हो चुकी है। परंतु इसकी जीवन यात्रा एक गरीब अभावग्रस्त परिवार में पले-बढ़े बच्चे की तरह रही है। पर्याप्त संघर्षमय और उपेक्षापूर्ण प्रारम्भ में इसे संपादक किसी फिलर की तरह हाशिये में डाल देते थे। साहित्यकार इसे चुटकुले से अधिक महत्त्व नहीं देते थे । आलोचक तो इसकी ओर मुँह उठाकर देखना तक पसंद नहीं करते थे। परंतु लघुकथाकारों की अडिग तपस्या के चलते देखते ही देखते लघुकथा 'फिलर से पिलर' बन गई। असगर वजाहत, विष्णु नागर, हेमंत शेष, बलराम, रूपसिंह चंदेल, डॉ. सत्यनारायण, शिवमूर्ति जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार भी लघुकथाओं में हाथ आजमाने लगे हैं। यही नहीं, लघुकथा पर विश्वविद्यालयों में शोधकार्य आरंभ हुए, पाठ्यक्रमों में सम्मिलित की जाने लगी और आलोचक इस विधा पर कलम चलाने लगे।
अब तो आलोचक स्वयं लघुकथा लेखन की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। प्रमाण है डॉ. पंकज साहा का प्रथम लघुकथा संग्रह 'संभावना'। यों पंकज ने व्यंग्य कहानियाँ एवं कविताएँ भी लिखीं हैं। परंतु साहित्य जगत उन्हें एक समालोचक के रूप में अधिक जानता है। उनकी आलोचनाएँ और समीक्षाएँ हिन्दी की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में नजर आ ही जातीं हैं। एक आलोचना ग्रंथ भी प्रकाशित हो चुका है। अतः पंकज साहा जैसे आलोचक का लघुकथा लेखन के क्षेत्र में उतरना इस विधा की सेहत के लिए एक शुभ लक्षण है। पंकज साहा की विशेषता है कि वे जिस भी विधा में लिखने बैठते हैं उस समय अपने आलोचक को विस्मृत करते हुए उसी विधा में डूब जाते हैं। 'संभावना' संग्रह की लघुकथाओं में भी हम यह बात देख सकते हैं। यहाँ सभी लघुकथाएँ उपदेशात्मकता से दूर, विद्वत्ता के बोझ से मुक्त, सहज एवं बोधगम्य हैं। इनमें राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार है तो साहित्य जगत के विरोधाभासों को भी उजागर किया गया है। कुछ लघुकथाएँ कथनी और करनी के भेद को सामने लाती हैं। ‘संभावना' उनकी बहन आज भी क्वाँरी है', 'तरकीब', 'जिंदा मछली', 'सनसनी बनाम संवेदना', 'सामाजिक कार्य', 'चिंता-1' 'चिंता-2',' सृजन कर्म' आदि इसी प्रकार की लघुकथाएँ हैं। 'संभावना' शिक्षक भर्ती में शीर्षस्थ अधिकारियों और निर्णायकों की मिलीभगत एवं उनकी स्वार्थी प्रवृत्ति को उजागर करती है तो 'उनकी बहन आज क्वाँरी है' एक ट्यूशनखोर शिक्षक के काइयांपन को बेनकाब करती है। ‘तरकीब' मनुष्य के अंतस में घर करके बैठे अहंकार और उपयोगितावादी मनोवृत्ति पर चुटकी है। 'जिंदा मछली' अर्थहीन होते जा रहे रिश्तों की पड़ताल करती है। ‘सृजनकर्म' में ऐसे साहित्यकारों की ख़बर ली गई है जो जो एयरकंडीशंड कमरों में बैठकर ग्रामीण जनजीवन और ग़रीब की काल्पनिक रचनाएँ लिखते हैं। 'कविता की समझ' में संपादक की कुर्सी पर बैठकर स्वयं को सर्वज्ञानी समझने वाले संपादकों की बखिया उधेड़ी गई है तो 'देशभक्त' लघुकथा बेबाक ढंग से बताती है कि एक व्यक्ति नेता और देशभक्त दोनों एक साथ नहीं हो सकता। 'सहिष्णुता' में भी पंकज की इसी लेखकीय निर्भीकता के दर्शन होते हैं। वे यहाँ सहिष्णुता शब्द से बिदकने वाले राजनीतिकों पर व्यंग्य करते नजर आते हैं। यह लघुकथा पौराणिक कथा शैली में कही गई है। कथा के अंत में ऋषि का यह कथन महत्त्वपूर्ण है, सहिष्णु व्यक्ति दुःख पाएँगे। कुछ लोग उन पर हँसेंगे। कुछ लोग राजनीति करेंगे।' इसी प्रकार 'चिंता-1' में राजनीतिबाजों की ध्रुवीकरण की मनोवृत्ति पर करारा प्रहार किया गया है जिसके तहत वे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए भारत के दो संप्रदायों को आमने-सामने करते हुए उनके मध्य दुश्मनी की दीवार चुनने में लगे हुए हैं। 'कुली', 'श्राद्ध', 'कातर आँखें' और 'कन्फेशन' गहरी मानवीय संवेदनाओं की लघुकथाएँ हैं जो मन को कहीं गहरे तक छू जाती हैं। 'श्राद्ध' कोरोना काल में हुए लॉकडाउन से उपजी श्रमिकों की मजबूरी की लोमहर्षक कथा है। यहाँ एक महिला एक वर्षीय बालक को गोद में लिए भीख मांगती नजर आती है। उसका पति बेरोजगार होकर घर में पड़ा पड़ा शराब पीता है। उसे आए दिन पैसों की जरूरत है। वह अपनी पत्नी को कहता है कि चाहे धंधा कर मुझे पैसा चाहिए। महिला देह व्यापार के बजाय भीख मांगना ज्यादा पसंद करती है। वह स्वयं को विधवा बताती है। वह मानती है कि जिस दिन पति ने उसे धंधा करने के लिए कहा. उसी दिन से वह मरे समान है। यह लघुकथा एक गरीब अनपढ़ स्त्री के स्वाभिमान और उसकी अस्मिता को गहरी संवेदना के साथ चिह्नित करती है।
'कुली' एक कुली की मजबूरी का चित्रण है जो उसकी आँखों की लाचारी से अभिव्यक्त होती है। इसी प्रकार 'कातर आँखें' भी गहरी मानवीय संवेदना एवं करुणा की लघुकथा है। गार्ड के पहरे में विद्यालय के गेट के भीतर खड़ी भूख से व्याकुल लड़की की कातर आँखों को देखकर कथानायक समय पर नौकरी पर जाने की अनिवार्यता के बावजूद उसे समीप की दुकान से कचौड़ियाँ लाकर देता है। फिर लड़की अपनी माँ के श्रम की कहानी सुनाती है तो कथानायक हतप्रभ रह जाता है। यहाँ संवेदनात्मक गहराई तो है किन्तु लघुकथा अधिक विस्तारित हो गई है।
'कन्फेशन' सबसे हटकर है। इस लघुकथा में जिस प्रकार एक बेरोजगार युवक की विवशता, समझदारी और ईमानदारी का मणिकांचन योग देखने को मिलता है वह पंकज साहा में लघुकथा विधा के लिए अकूत संभावनाओं का द्वार खोलता है। कथ्य की नवीनता, ट्रीटमेंट का टटकापन और शब्दों की मितव्ययता को देखते हुए मेरी दृष्टि में यह लघुकथा संग्रह की सर्वश्रेष्ठ रचना है। एक नौकरी हेतु साक्षात्कार के लिए जाने वाला युवक ट्रेन से उतरते समय किसी के नए जूते पहन लेता है और अपनी पुरानी चप्पल छोड़ जाता है। चप्पल में एक पर्ची फंसी हुई है। जब जूतों का मालिक अपनी नई जोड़ी के स्थान पर चप्पल की पुरानी जोड़ी पड़ी देखता है तो एकबार तो वह हैरान रह जाता है। परंतु जब पर्ची उठाकर पढ़ता है तो वास्तविकता सामने आती है। यह पर्ची गरीब बेरोजगार युवक के दर्द को बयान करती है जिसे पढ़कर एक तरफ युवक के प्रति सहानुभूति उपजती है तो दूसरी तरफ अमानवीय मशीनरी पर आक्रोश पैदा होता है। पर्ची यों है- “क्षमा करें, आपके जूते ले जा रहा हूँ। आज भागल मेरा साक्षात्कार है। अच्छे वस्त्र और जूते न रहने के कारण पहले दो बार छोट दिया गया हूँ।" यह लघुकथा हमें अंदर तक हिला देती है।
'संदेश और ' जानवर गाड़ी' में भाषा की मारकता ध्यान आकर्षित करती है। उदाहरणार्थ, 'संदेश के ये वाक्य :
-यह एकदम सर्द और बेलौस आवाज थी।
-माहौल में नई ब्लेड की धार जैसा पैनापन था।
इधर 'जानवर गाड़ी' में लेखक पंकज साहा व्यक्ति वैचित्र्य का चित्रण छल्ले के लिए निम्न उपमान गढ़ते हैं :
- जानवर शब्द का उच्चारण करने में जहाँ उनके चेहरे पर जानवर की आकृति बन गई थी वहीं ए. सी. बोलते समय उनका चेहरा फ्लड लाइट-भा चमक उठा था।
-चेहरा लो वोल्टेज के बल्ब के समान निस्तेज एवं पीला पड़ गया था।
यह लघुकथा अभिजात्य वर्गीय अहंकार और पाखंड पर करारा तमाचा है। डॉ. पंकज साहा के इस प्रथम लघुकथा संग्रह का स्वागत है। पाठक इन लघुकथाओं को चाव से पढ़ेंगे और सराहेंगे।
-माधव नागदा
वरिष्ठ कथाकार एवं आलोचक
मोबाइल : 9829588494
अपनी बात
हमारे देश में लघुकथाओं का इतिहास बहुत पुराना है। पंचतंत्र की कहानियों, जातक कथाओं एवं अन्य पौराणिक कथाओं में इसे देखा जा सकता है।
हिंदी साहित्य में लघु आकर की कथाओं को 'लघुकथा' कहने का प्रचलन 1941-42 ई. के आस-पास शुरू हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार डॉ. बुद्धिनाथ झा 'कैरव' के मन में यह नाम देने का विचार सबसे पहले आया था। आज तो लघुकथा हिंदी साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकृत हो गयी है और हिंदी की लगभग सभी पत्रिकाएँ अत्यंत आग्रह से लघुकथाएँ छाप रही हैं।
लघुकथा की अनेक परिभाषाएँ दी गयी हैं, पर मेरा मानना है कि यह न चुटकुला है और न कहानी का छोटा रूप लघुता इसका शरीर है और तो कथात्मकता इसका प्राण। संवेदना और संप्रेषणीयता जहाँ इसे पूर्णत्व प्रदान करती है, वहीं मारक क्षमता इसकी शक्ति है।
लघुकथा की काया को लेकर इधर खूब बहस हो रही है। ग़ज़ल और व्यंग्य के समान लघुकथा के भी अनेक मठ हैं। कुछ मठों से तो यह फतवा जारी कर दिया गया है कि इसका आकार तीन सौ शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिए।
कहानी की परिभाषा देते हुए किसी विद्वान ने कहा है कि "अगर उपन्यास एक भरी-पूरी फुलवारी है, तो कहानी एक छोटा सा गुलदस्ता । " गुलदस्ते में विभिन्न प्रकार के या एक ही प्रकार के अनेक फूल अपने सौंदर्य एवं ताजगी के साथ मौजूद रहते हैं। उपर्युक्त परिभाषा के तर्ज पर मैं कह सकता हूँ कि “कहानी एक छोटा-सा गुलदस्ता है, तो लघुकथा एक फूल है ।" अब फूल का कोई आकार तो निश्चित नहीं किया जा सकता। कमल, गुलदाउदी, डहेलिया, सूरजमुखी के फूल बड़े होते हैं। बेली, जूही, रात की रानी, हरसिंगार के छोटे होते हैं। गुलाब, गेंदा के फूल विभिन्न आकारों के होते हैं, परंतु सभी फूल फूल कहलाते हैं। अस्तु, लघुकथा के आकार को लेकर बखेड़ा खड़ा करना उचित नहीं लगता है। हाँ, शर्त है कि अपने रूप-रंग में उसे फूल ही दिखना चाहिए न कि गुलदस्ता ।
यह मेरा पहला लघुकथा-संग्रह है। इसमें भाँति-भाँति के फूल हैं, जो विभिन्न समयों में खिले हैं। अगर ये फूल आपका मनोरंजन करने एवं कुछ संदेश देने में समर्थ हों, तो मैं अपना लेखन सार्थक मानूँगा।
- पंकज साहा
बुद्ध पूर्णिमा, 2022
अनुक्रम
भूमिका
संभावनाओं के द्वार खोलती हैं पंकज साहा की लघुकथाएँ अपनी बात
संभावना
उनकी बहन आज भी क्वाँरी है
कन्फेशन
तरकीब
जिंदा मछली
श्राद्ध
कुली
उतर गया पानी
कातर आँखें
सहिष्णुता
चिंता - 1
चिंता - 2
विकास
स्मार्ट फोन
युगधर्म
देशभक्त
अन्न ब्रह्म
आकांक्षा
विवशता
असर
जवाबदेही
सनसनी बनाम संवेदना
सरदार का न्याय
घटना
चोर-सिपाही
निश्चय
हीरो
समस्या का हल
राहत
अपना-अपना अतिक्रमण
शोक बनाम शौक
अपनापन
सामाजिक न्याय
मूल्यवृद्धि
हलदी और नीम
आस्था
लक्ष्मी बनाम सरस्वती
जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स
कविता की समझ
प्रश्न
विरासत
कवर सम्मान
इलाज
अपना-अपना लोकतंत्र
प्रेशर
सृजन-कर्म
तेज़ रफ्तार
यूज
खेती
आयकर
जानवर गाड़ी
नाग पंचमी
अच्छा प्लान
दोमुँहापन
भीड़ छँटने लगी
जन्म तिथि: 02 जनवरी 1959
जन्म स्थान :
राजमहल (झारखंड)
शिक्षा : एम. ए. (हिंदी), पी-एच.डी.
अध्यापन : बी.एल.एन.एल. बोहरा कॉलेज, राजमहल (झारखंड) मई 1983 से जून 1992 खड़गपुर कॉलेज, खड़गपुर (प.बं.) जुलाई, 1992 से जारी । अतिथि प्राध्यापक के रूप में अध्यापन रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता ।
विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर ।
प्रकाशन : 1. साठोत्तरी हिंदी कहानी में जनवादी चेतना (आलोचना) 2. समाज और संस्कृति की एकताः हिंदी एवं हिंदीतर भाषाओं की भूमिका ( लेख संग्रह), 3. हिंदी उपन्यास में किसान ( लेख संग्रह), 4. हा! वसंत ( व्यंग्य संग्रह), 5. अपनी गठरी ( कविता संग्रह ) 6. जन्नत एवं अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह), 7. हिंदी समीक्षा का प्रपात ( लेख संग्रह), 8. समीक्षा, संस्मरण एवं यात्रा (विविध), 9. चम्मच महिमा ( व्यंग्य संग्रह ) ।
संपादन :
1. पश्चिम बंगाल की लोकथाएँ
2. राष्ट्रभाषा हिंदी संग्रह (पाठ्य पुस्तक, सह संपादक),
3. जन जागृति (पाक्षिक),
4. मुक्तांचल ( व्यंग्य विशेषांक) अतिथि संपादक।
अन्य : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, शोध पत्रों में अनेक रचनाएँ प्रकाशित । संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, खड़गपुर कॉलेज, खड़गपुर (प.बं. )
मोबाइल : 9434894190
ई-मेल : dr.pankajsaha@gmail.com
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