हिन्दी लघुकथा का इतिहास /डॉ. सत्यवीर मानव

लघुकथा आलोचना कृति : हिन्दी लघुकथा का

                                     इतिहास 


लेखक : डॉ. सत्यवीर मानव

ISBN : 978-93-84569-99-0

प्रथम संस्करण : जून, 2020

प्रकाशक :

समन्वय प्रकाशन

के. बी. 97, (प्रथम-तल), कविनगर, गाज़ियाबाद-201002 

मो. : 09911669722

हिन्दी - लघुकथा का इतिहास/डॉ. सत्यवीर 'मानव'

मूल्य : पाँच सौ रुपये

email: samanvya.prakashan@gmail.com Website : www.samanvayprakashan.com

कम्प्यूटरीकृत : लक्की कम्प्यूटर, गाज़ियाबाद

मुद्रक : शर्मा ऑफसेट प्रोसेस, गाज़ियाबाद

आवरण : शशि

© डॉ. सत्यवीर 'मानव'


प्राक्कथन

लघुकथा का प्रारंभ तभी से माना जाना चाहिए, जब से इस विधा के लिए लघुकथा' अभिधान का प्रयोग प्रारंभ हुआ। इस दृष्टि से सन् 1998 में प्रकाशित हृदधनुष के नीचे' को हिन्दी की प्रथम लघुकथा तथा इसके लेखक नित्यानंद को हिन्दी का प्रथम लघुकथाकार माना जा सकता है। नित्यानंद द्वारा रचित 'हृदधनुष के नीचे' शीर्षक रचना इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होने बाले मासिक पत्र विशाल भारत' के सितंबर, सन् 1998 अंक में फिलर के रूप में प्रकाशित हुई थी। संयोग से, बनारस (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होने बाली 'हंस' पत्रिका ने, अगले ही महीने यानी अक्टूबर में इसे 'विशाल भारत' से साभार प्रकाशित करते हुए, इस नन्हीं कथा-विधा को 'लघुकथा' नाम भी दे दिया। अतः लघुकथा का प्रारंभ अक्टूबर, सन् 1988 से 'हंस' पत्रिका द्वारा माना जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि वर्तमान लघुकथा, अपनी युवावस्था को पूर्ण कर, प्रौढ़ावस्था में पहुँच चुकी है। अपने आठ दशक के जीवन-काल में लघुकथा ने, विभिन्न चरणों को पार करते हुए, अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। समकालीन दौर में, गद्य की लघु विधाओं में, सर्वाधिक लोकप्रिय है लघुकथा । वर्तमान भाग-दौड़ और आपा-धापी का युग है। आज लोग व्यस्त ही नहीं, अस्त-व्यस्त भी हैं। युवा नौकरी, व्यापार या खेल-कूद में व्यस्त हैं, सो प्रौढ़ शेयर या सट्टा बाजार में, और कुछ नहीं, तो ताश खेलने में ही व्यस्त हैं। युवा हो या प्रौढ़, किसी के पास समय नहीं है। इसीलिए सभी को सब-कुछ फास्ट चाहिए जैसे फूड नहीं, फास्ट फूड; ट्रेन नहीं, फास्ट ट्रेन। लोगों की इसी मनोवृत्ति के कारण क्रिकेट का टेस्ट मैच से वनडे और फिर वनडे से टी-20 मैच के रूप में विकास हुआ। यही स्थिति कथा की है। कभी, कथा की तुलना क्रिकेट से करते हुए, मैंने लिखा था कि उपन्यास की तुलना टेस्ट मैच से, कहानी की तुलना वनडे मैच से, तो लघुकथा की तुलना टी-20 मैच से की जा सकती है। खेल समीक्षक अक्सर कहते हैं कि क्रिकेट खिलाड़ी की वास्तविक परीक्षा टेस्ट मैच में ही होती है, लेकिन असली रोमांच वनडे मैच में, बल्कि उससे भी अधिक टी-20 मैच में होता है। सब-कुछ फटाफट, चौके-छक्के और फिर परिणाम भी उसी दिन, कुछ ही घंटों में। इसी कारण जहां टेस्ट मैच के दौरान स्टेडियम अक्सर खाली पड़े रहते हैं, वहीं वनडे या टी-20 मैच के दौरान उनमें पैर रखने को भी जगह नहीं मिलती। यही स्थिति कथा की है।

मेरे विचार से कथाकार की लेखन कला की वास्तविक परीक्षा उपन्यास या कहानी लेखन द्वारा ही होती है। लेकिन लघुकथा का रोमांच उसे अत्यंत लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण बना देता है । लघुकथा का प्रभाव गहरा और मारक क्षमता अचूक है। यह कमान से छूटे तीर अथवा बंदूक से निकली गोली की भांति, लक्ष्य पर सीधा प्रहार करती है। इसी का परिणाम है कि जब पाठक पत्रिका पढ़ता है, तो सबसे पहले लघुकथा पढ़ता है, फिर कहानी और अंत में उपन्यास अंश अथवा कुछ और। फिलर के रूप में प्रारंभ हुई लघुकथा, आज प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में, अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवा रही है। नए-पुराने लघुकथाकारों के साथ विष्णु प्रभाकर, रामप्रसाद रावी, अवधनारायण मुद्गल, चित्रा मुद्गल, सूर्यकांत नागर जैसे वरिष्ठ कथाकार भी इसकी ओर आकर्षित हुए और हो रहे हैं। आज भी नई-पुरानी पीढ़ी के सतीशराज पुष्करणा, रूप देवगुण, राजकुमार निजात, अशोक जैन, अनूप मध् कान्त, विकेश निझावन, कमल चोपड़ा, बलराम अग्रवाल, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, गोविन्द शर्मा, गोविन्द भारद्वाज, अंजीव अंजुम, चितरंजन मित्तल, योगराज प्रभाकर, विभा रश्मि, मिथिलेश दीक्षित, शील कौशिक, कमल कपूर, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, संध्या तिवारी और लता अग्रवाल सहित सैकड़ों लेखक लघुकथा-लेखन में सक्रिय हैं । लघुकथा - केंद्रित 'दृष्टि', 'संरचना' और कलश' जैसी पत्रिकाएँ भले ही कम हों, लेकिन 'वीणा', 'कथा-बिंब', 'शुभ-तारिका', 'प्राची', 'अक्षरा', 'हरिगंधा', 'पंजाब सौरभ', 'शीराजा', 'सोच-विचार", 'भाषा-किरण' आदि पत्रिकाएँ लघुकथा को पाठकों तक पहुँचाने हेतु निरंतर प्रयासरत हैं। पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक विद्रूपताओं, सांप्रदायिक वैमनस्य, धार्मिक पाखंड और व्यवस्था-जनित अन्यान्य विकृतियों को न केवल परत-दर-परत उघाड़ रही है, बल्कि दबे-कुचले, डरे-सहमे और वंचित-शोषित जन की घुटन, वेदना, हताशा और निराशा को मुखरित भी कर रही है लघुकथा। कहा जा सकता है कि समकालीन जीवन-यथार्थ को आईना दिखा रही है, आज की लघुकथा । अतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लघुकथा की प्रासंगिकता एवं उपादेयता स्वतः ही सिद्ध है। अब तक शताधिक पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा - विशेषांक और हजारों लघुकथा-संकलन तथा लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं; लघुकथा के स्वरूप और विकास तथा रचना-प्रक्रिया पर भी दर्जनों ग्रंथों की रचना हो चुकी है: अनेक विश्वविद्यालयों से एम. फिल्. और पी-एच. डी. हेतु शोधकार्य भी सम्पन्न हो चुका है; किंतु लघुकथा का इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया था। अब, हिन्दी - लघुकथा का इतिहास लिखने का विशिष्ट गौरव प्राप्त किया है, डॉ. सत्यवीर 'मानव' ने। डॉ. सत्यवीर के खाते में संपादक, लेखक तथा शोधार्थी के रूप में, लघुकथा-संबंधी अनेक उपलब्धियाँ दर्ज हैं। लगभग अड़तीस वर्ष पूर्व, अंबाला (हरि.) के साप्ताहिक 'पवनवेग' का 'लघुकथाकार रामनिवास 'मानव' विशेषांक, इन्हीं के संपादन में प्रकाशित हुआ था। यह किसी भी हिन्दी - लघुकथाकार पर प्रकाशित होने वाला प्रथम विशेषांक था, जिसका निश्चय ही, ऐतिहासिक महत्त्व है। इनके 'कैक्टस की छांव तले' और 'आवरण के आर-पार' शीर्षक दो लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से 'कैक्टस की छांव तले' ब्रजभाषा में भी अनूदित होकर प्रकाशित हो चुका है। इन्होंने 'हिन्दी - लघुकथा: संवेदना और शिल्प' विषय पर शोध-प्रबंध लिखकर आगरा विश्वविद्यालय, आगरा (उत्तर प्रदेश) से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की थी। इस शोध-प्रबंध के भी दो संस्करण छप चुके हैं। अब, 'हिन्दी - लघुकथा का इतिहास' लिखकर डॉ. सत्यवीर ने जो कार्य किया है, वह ऐतिहासिक ही नहीं, अत्यंत महत्त्वपूर्ण भी है।

'हिन्दी - लघुकथा का इतिहास' को तीन अध्यायों में विभक्त किया गया है । 'हिन्दी-लघुकथा : परिचय और प्रारंभ' शीर्षक प्रथम अध्याय को पुनः 'सामान्य परिचय', 'हिन्दी की प्रथम लघुकथा' तथा 'काल विभाजन' उप- शीर्षकों में विभाजित कर, हिन्दी-लघुकथा का सामान्य परिचय प्रस्तुत करने के उपरांत, हिन्दी की प्रथम लघुकथा के प्रश्न को गंभीरता पूर्वक तथा तथ्यपरक ढंग से सुलझाने का प्रयास किया गया है। इसके पश्चात हिन्दी - लघुकथा के इतिहास को अग्रलिखित तीन कालखंडों में विभाजित किया गया है--1. उद्भव काल (1988-1970), 2. विकास - काल ( 1971-2000) और 3. आधुनिक काल (2000- अद्यतन)। काल विभाजन बड़ा सटीक है तथा विकास-क्रम और प्रवृत्तियों के आधार पर किया गया है। अतः तीनों काल-खंडों का यह नामकरण पूर्णतया निरापद माना जा सकता है। 'हिन्दी लघुकथाकार' शीर्षक द्वितीय अध्याय में, हिन्दी - लघुकथाकारों को प्रमुख, विशिष्ट तथा अन्य श्रेणियों में वर्गीकृत कर उनका परिचय प्रस्तुत किया गया है। लघुकथाकारों की विपुल संख्या और लघुकथा विधा के विकास में उनके योगदान के दृष्टिगत, उन सबके परिचय को समेटने की, यही उचित पद्धति हो सकती है। 'हिन्दी-लघुकथा की प्रवृत्तियां' नामक तृतीय अध्याय में, इसके शीर्षक के अनुरूप, हिन्दी के संपूर्ण लघुकथा - साहित्य का प्रवृत्त्यात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। स्पष्ट है कि डॉ. सत्यवीर ने, इतिहास-लेखन के सभी मानकों का पूर्णतया पालन करते हुए, विषय को सम्यक् और सार्थक प्रस्तुति दी है। विवरण की प्रामाणिकता, भाषा की संश्लिष्टता तथा विवेचन की गंभीरता के कारण, इतिहास-लेखन जैसे कठिन कार्य को भी संपन्न करने में, लेखक पूर्णतया सफल रहा है। आशा है, हिन्दी- लघुकथा के इस प्रथम इतिहास का साहित्य-संसार में स्वागत किया जाएगा। बहरहाल, लेखक तथा अनुज डॉ. सत्यवीर 'मानव' को, इस महनीय कार्य हेतु, हार्दिक बधाई ।

- डॉ. रामनिवास 'मानव' 

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, 

सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राज.) मोबाइल : 8053545632


मेरी ओर से

हिन्दी-लघुकथ न्दी लघुकथा का एक अलग विधा के रूप में नामकरण सन् 1938 में हो गया था । सन् 2018 में इसने अपने जीवन के अस्सी वर्ष पूरे कर लिए थे। लेकिन इतने लम्बे अन्तराल में भी न तो आलोचना-समालोचना के क्षेत्र में यथेष्ट कार्य हुआ और न ही इसका कोई व्यवस्थित इतिहास लिखा जा सका। वर्ष 2013 में लघुकथा के पिचहत्तर वर्ष पूरे कर लेने पर अग्रज डॉ. रामनिवास 'मानव' ने 'हिन्दी-लघुकथा का इतिहास' के लेखन का निर्णय लिया, परन्तु 28 अगस्त, 2014 को युवा सुपुत्र डॉ. मनुमुक्त 'मानव' (आइ.पी.एस.) के असामयिक निधन के वज्राघात के कारण यह संभव नहीं हो पाया। तब उन्होंने यह कार्य सम्पन्न करने का दायित्व मुझे सौंपा और अपनी षष्ठीपूर्ति के दिन 9 जून, 2018 को मैंने लेखन की शुरुआत की तथा कुछ प्रारंभिक पैरा 'फेसबुक' पर पोस्ट किए। मेरा विचार जून, 2019 तक यह कार्य पूर्ण कर लेने का था, किन्तु अपरिहार्य व्यक्तिगत कारणों से तय समय पर यह संभव नहीं हो सका ।

मैंने 'फेसबुक', 'वाट्सएप और मोबाइल द्वारा लघुकथाकारों से इस कार्य में सहयोग करने का कई बार अनुरोध किया, लेकिन अधिकांश ने उदासीनता दिखाई। अग्रज डॉ. रामनिवास 'मानव' के मार्गदर्शन के अतिरिक्त डॉ. रामकुमार घोटड़, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. शकुन्तला किरण, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, अशोक जैन, मधुदीप, डॉ. रूप देवगुण, आशा खत्री 'लता', डॉ. शील कौशिक, भगवती प्रसाद द्विवेदी, सुकेश साहनी, अनिल शूर आजाद, डॉ. कमल चोपड़ा, हरीशंकर शर्मा, कल्पना भट्ट, संतोष सुपेकर, मृणाल आशुतोष, ज्ञानप्रकाश 'पीयूष' जैसे गिने-चुने विद्वानों और लघुकथाकारों ने ही इसमें रुचि दिखाई एवं यथासंभव सहयोग भी किया। ऐसे में आवश्यक जानकारियाँ जुटाने में दिक्कतें तो आई ही, इसे यथेष्ट सम्पूर्णता दे पाना भी संभव नहीं हो पाया। चूँकि हिन्दी-लघुकथा के इतिहास के लेखन का यह प्रथम प्रयास था, इसलिए भविष्य में परिवर्तित परिवर्धित रूप में द्वितीय संस्करण निकालने के विचार के साथ इसे आपके हाथों में सौंप रहा हूँ। कैसा बन पड़ा है, यह निर्णय आपके हाथ है।

उपर्युक्त विद्वानों के अतिरिक्त जिन अन्य विद्वानों के ग्रंथों से सहयोग लिया गया है, उन सभी का मैं हृदय से आभारी हूँ और अपेक्षा करता हूँ कि भविष्य में भी उनका सहयोग मुझे ऐसे ही प्राप्त होता रहेगा। मैं अपने प्रकाशक श्री रवीन्द्र शर्मा का भी आभारी हूँ, क्योंकि इसे मूर्तरूप देना उनके सहयोग के बिना संभव ही नहीं हो सकता था ।

अन्त में, सभी लघुकथाकारों एवं लघुकथा से जुड़े विद्वानों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे अपने अमूल्य सुझावों एवं उनके पास जो भी जानकारी हो, वह उपलब्ध करवाकर, आगामी संस्करण को और अधिक पूर्ण करने में अपना सहयोग देकर कृतार्थ करें।

हिन्दी-लघुकथा को वर्तमान तेवर और कलेवर सन् 1971 से ही मिला था और वर्ष 2020 में इसे पचास वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। अतः समकालीन लघुकथा के पचासवें वर्ष में इसके प्रकाशन पर मुझे अतिरिक्त प्रसन्नता हो रही है ।

- डॉ. सत्यवीर 'मानव'

नारनौल (हरियाणा), 9 जून, सन् 2020


अनुक्रम

प्राक्कथन

मेरी ओर से

1. हिन्दी लघुकथा परिचय और प्रारम्भ

(क) सामान्य परिचय

(ख) काल विभाजन

(ग) हिन्दी की प्रथम लघुकथा

2. प्रमुख हिन्दी-लघुकथाकार

(क) प्रतिमानक हिन्दी-लघुकथाकार 

(ख) विशिष्ट हिन्दी-लघुकथाकार

(ग) अन्य हिन्दी-लघुकथाकार

3. हिन्दी-लघुकथा की प्रवृत्तियाँ 

(क) हिन्दी-लघुकथा की विषयगत प्रवृत्तियाँ 

(ख) हिन्दी-लघुकथा की शैल्पिक प्रवृत्तियाँ


डॉ. सत्यवीर मानव 

जन्म : 9 जून, 1958 को तिगरा, जिला महेन्द्र गढ़ (हरियाणा) के प्रतिष्ठित स्वतन्त्रता सेनानी परिवार में श्री मातादीन एवं श्रीमती मूर्ती देवी के घर।

शिक्षा : बी.ए. ऑनर्स (संस्कृत), एम.ए. (हिन्दी और समाजशास्त्र), पीएच. डी. (हिन्दी) तक।

कृतियां : 'सबसे प्यारा हिन्द हमारा', 'आओ बच्चों खेलें खेल', 'हिन्द के सपूत चल', नानी ऐसी कही कहानी' (बालगीत-संग्रह), 'केक्टस की छांव तले' और 'आवरण के आर-पार' (लघुकथा-संग्रह), ' सलीब पर टंगा सूरज', 'अक्षर-अक्षर पीर', 'सुनो, कहूँ मैं', 'सागर में सीप' और 'जीवन धूप-छांव' (काव्य-संग्रह), 'दक्षिणी हरियाणा के लौकिक कवि और उनका काव्य', 'हिन्दी - लघुकथा : संवेदना और शिल्प' (शोध प्रबंध) प्रकाशित 'कुछ कांटे, कुछ फूल' (दोहा-संग्रह), 'शीश झुकाये द्रोण' (द्विपदी-संग्रह), 'शेष रही कब रात' (त्रिपदी- संग्रह), 'पंडित सुखीराम : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' (समीक्षा-ग्रंथ) आदि एक दर्जन कृतियाँ प्रकाश्य ।

विशेष : दर्जनों संस्थाओं द्वारा सम्मानित मंडी अटेली और नारनौल में सार्वजनिक अभिनन्दन • विद्यासागर (डी. लिट्) की मानद उपाधि प्राप्त • 'कैक्टस की छांव तले' लघुकथा-संग्रह ब्रजभाषा में अनूदित तथा प्रकाशित । • कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र द्वारा एम. फिल. हेतु दो बार एवं विनायक मिशन्स विश्वविद्यालय, सेलम (तमिलनाडु) से एक बार साहित्य पर शोध कार्य संपन्न एवं दो विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. हेतु पंजीकरण। पीएच.डी. एवं एम. फिल. हेतु हुए एक दर्जन से अधिक शोध कार्यों में आधार ग्रंथों के रूप में कृतियाँ सम्मिलित । संप्रति : सर्व हरियाणा ग्रामीण बैंक से वरिष्ठ प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद

फाइनेंशियल एडवाइजर के रूप में स्वतंत्र रूप में कार्यरत ।

संपर्क : 642, सैक्टर-1, नारनौल- 123001

मोबाइल : 09416238131, 07082406131

ई-मेल: svmanav@gmail.com

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