ये आप ही के किस्से हैं / कुमारसंभव जोशी

कुमारसम्भव जोशी का यह लघुकथा-संग्रह मधुदीप की अनेक अति विशिष्ट योजनाओं  में से एक है। इसी तरह की एक अन्य योजना के अंतर्गत महिला कथाकारों में उन्होंने सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथाओं का संग्रह भी प्रकाशित किया था। मधुदीप के चले जाने से सक्षम नवोदितों को प्रकाश में लाने की उक्त योजना को निश्चित रूप से धक्का लगा है। 

लेकिन मनुष्य, उनमें भी साहित्य और कला की संवेदनशील दुनिया के लोग रुद्ध धारा को खोलना तथा नयी दिशा देना जानते हैं।  

इसलिए, मधुदीप ने मील के जिस पत्थर को स्थापित किया है, वह अन्तिम नहीं है, विश्वास रखना चाहिए और आशान्वित भी रहना चाहिए। --बलराम अग्रवाल 

लघुकथा-संग्रह  : ये आप ही के किस्से हैं

कथाकार  : कुमारसंभव जोशी

प्रकाशन वर्ष  : 2021

ISBN : 978-93-84713-60-7

मूल्य : चार सौ पचास रुपये (सजिल्द) 

           दो सौ पचास रुपये (पेपरबैक )

© : कुमारसम्भव जोशी

प्रथम संस्करण : 2021

प्रकाशक : दिशा प्रकाशन, 138 / 16, त्रिनगर, दिल्ली- 110035

आवरण : डॉ. सुरेश सारस्वत

मुद्रक : विकास कम्प्यूटर एण्ड प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

इस विशेष लघुकथा-संग्रह के फ्लैप-1 पर मधुदीप द्वारा लिखित टिप्पणी : 

ये आप ही के किस्से हैं

20 जनवरी, 2021 की सुबह 3 बजे दिशा प्रकाशन की संचालिका शकुन्तदीप अपनी इहलीला समाप्त कर प्रभु चरणों में विलीन हो गईं। उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कुछ कार्य करने के निर्णय लिए गए। इनमें से एक था - प्रतिवर्ष एक नवोदित लघुकथाकार के प्रथम संग्रह को ससम्मान प्रकाशित करना। इसके लिए 5 नवोदितों की पाण्डुलिपियाँ आमन्त्रित की गई।

मुझे यह देखकर आश्चर्यमिश्रित हर्ष हुआ कि ये सभी पाण्डुलिपियाँ सशक्त लेखन का उत्कृष्ट उदाहरण थीं। मगर चुनाव एक का ही होना था और अन्त में युवा लघुकथाकार कुमारसम्भव जोशी विजेता रहे इनकी लघुकथाओं में ताजी हवा का झोंका है। ये जितनी सहज और सरल हैं उतनी ही तीखी भी हैं। ये बड़ी से बड़ी बात को सटीक बिम्बों के माध्यम से इतनी आसानी से व्यक्त कर देते हैं कि पाठक को लगता है कि ये तो उसके ही किस्से हैं जिन्हें चुराकर लेखक ने अपने शब्दों में व्यक्त कर दिया है।

जी हाँ, 'ये आप ही के किस्से हैं' जो मैं 'शकुन्तदीप स्मृति' के अन्तर्गत आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरा यह मानना है कि यह लघुकथा-संग्रह इस विधा में निश्चित तौर पर अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाएगा।

मैं लेखक के उज्ज्वल भविष्य के प्रति अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करता हूँ ।

138/16, ओंकारनगर-बी, त्रिनगर,

दिल्ली-110035

मोबाइल : 8130070928, 9312400709 

E-mail : madhudeep01@gmail.com

- मधुदीप

(मधुदीप जी के निधन के पश्चात् उनकी ओर से कौन परिचित/परिजन जवाब देगा, निश्चयपूर्वक इस समय नहीं मालूम है।)

क्रम

आपका ही मैं...

1. रक्षासूत्र

2. सदुपयोग

3. 'वाई' क्रोमोसोम

4. अब बुद्ध मुस्कुराते नहीं

5. कर्मप्रारब्ध

6. गुलामवंश का राजा

7. दोराहे पर खड़ा आदमी

8. असतो मा 

9. जौहर

10. 11.2 (इलेवन पॉईंट टू)

11. अवचेतन

12. नास्त्रेदमस

13. बोझ 

14. मर्दाना कमजोरी

15. मेमसाब

16. जेण्डर

17. स्लीपर सेल

18. श्राद्ध

19. पिता

20. बाजार

21. नाप

22. प्रार्थनाएँ

23. भेड़िया आया

24. भ्रम

25. शब्द ब्रह्म

26. तृप्ति

27. रिश्ता पक्का

28. वह बड़ा हो चुका है

29. शयनेषु रम्भा

30. सनक

31. आखिरी उम्मीद

32. आस्था

33. उकूबत ( सजा)

34. परियों की नगरी से एक दिन

35. करवाचौथ

36. तमाशा

37. तेरे नाम अनेक

38. माँ की माँ

39. हमरी बहुरिया

40. अप्रासंगिक 

41. हाइड एण्ड सीक / सिस्टम एरर

42. अन्तर्द्वन्द्व

43. हारा हुआ मैच

44. सखा त्वमेव

45. अछूत

46. योगदान

47. एक्स्ट्रा क्लासेज

48. गुब्बारे

49. क्योंकि वह भारतीय सैनिक था

50. खाली हाथ

51. चौराहा

52. निहितार्थ

53. न्यूटन का नियम

54. दिल तो है दिल

55. पापा

56. प्रीकॉशन 

57. फिरदौस

58. भरोसा

59. भीम चौक - 1 

60. भीम चौक - 2

61. भीम चौक - 3

62. भीम चौक - 4

63. ये अच्छी चीज नहीं है भाईसाहब

64. सफेद

65. सजा

66. विलुप्त

67. मंजिलें अपनी जगह, रास्ते अपनी जगह

68. फिर भी

69. पुनर्मिलन

70. निर्वाण

71. कोल्हू 

72. क्लोज्ड फाईल

73. चाबियाँ 

74. खौफ

75. ढाई आखर

76. गाजी

77. मेरी जान है तू

78. मन्नत

79. छेदवाली बनियान

80. कायर

81. कु-पिता

82. शुभ दिन

83. वो नहीं लौटेगी

84. फिर वही कहानी

85. नियन्त्रण

86. अहिंसा

87. कन्याधन

88. अनुकम्पा

89. बँटवारा

90. रिश्ता

91. हर दिल जो प्यार करेगा

92. सावित्री

93. सन्तुलन

94. बेटे का बाप

95. लैदर जैकेट

96. मछली

97. बन्दे हैं हम उसके

98. पवित्रा

99. तेरा चाँद मेरा चाँद

100. जंग

101. गन्ध

102. किरचें

103. इन्तजार

आपका ही मैं...

पठन-पाठन का माहौल बचपन से ही मिला था। उच्चशिक्षित परिवार में प्रतिमाह अनेक पारिवारिक पत्रिकाएँ आती रहती थीं। बच्चों के लिए भी ढेरों बाल-पत्रिकाएँ मँगवाई जाती थीं। वहीं से साहित्य के प्रति रुचि के बीज पड़ गए। मेरा तो नाम श्री महाकवि कालिदास के 'कुमारसम्भवम्' के आधार पर रखा गया था। मेरे पिता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा, जिलाधिकारी आयुर्वेद (सेवानिवृत्त) भी युवावस्था में राजेन्द्र शर्मा 'पीयूष' उपनाम से कविताएँ लिखा करते थे।

शनैः-शनै: मेरी भी पद्य लेखन में रुचि जाग्रत हुई। मैंने कुछ कच्ची-पक्की-सी कविताएँ, ग़ज़ल आदि लिखीं। लेकिन मन को सन्तुष्टि नहीं मिली। मुझे हमेशा लगता रहा कि यह वह नहीं है जो मैं लिखना चाहता हूँ। एक समय में उच्च शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, परिवार आदि में उलझकर लेखन छूटने भी लगा था।

फिर फेसबुक पर एक लघुकथा आधारित समूह से जुड़ाव हुआ। उस समूह में साप्ताहिक चुनिन्दा लघुकथा का आयोजन हुआ करता था । सप्ताह में स्वतन्त्र रूप से प्रेषित लघुकथाओं पर एक समीक्षक द्वारा समीक्षा-समालोचना की जाकर एक चुनिन्दा लघुकथा को सप्ताह की लघुकथा घोषित किया जाता था।

लघुकथा विधा और इसके तेवर ने मुझे गहरा प्रभावित किया। मैंने समीक्षकों द्वारा कृत समीक्षाओं का अध्ययन किया। लघुकथा की आधारभूत संरचना कुछ-कुछ समझ आने लगी। मैंने भी एक लघुकथा लिखकर उक्त समूह में प्रेषित कर दी । समूह के तात्कालीन समीक्षक श्री राजेश उत्साही ने उस लघुकथा और मेरी लघुकथा लेखनशैली की सराहना करते हुए उस लघुकथा 'ध्वजारोहण' को सप्ताह की चुनिन्दा लघुकथा में रखा। इससे मेरा उत्साह बढ़ा और मैं नियमित लघुकथा लेखन करने लगा। कुछ अन्य लघुकथाएँ भी समय-समय पर चुनिन्दा लघुकथाओं में शामिल हुईं।

मुझे समझ आ गया कि लघुकथा ही वह विधा है जो मेरी रुचि और लेखनतृष्णा को सन्तुष्ट कर सकती है। मैं कुछ अन्य लघुकथा-विषयक फेसबुक समूहों से जुड़ा और निरन्तर लिखने लगा। अपनी लघुकथा पर आए कमेण्ट और विधा-विशेषज्ञों की टिप्पणियों से मैंने लघुकथा को समझना प्रारम्भ किया।

फेसबुक पर कुछ मित्र और मार्गदर्शक मिले जो एक-दूसरे की अच्छी लघुकथाओं पर सराहना तो करते ही थे वहीं कमियों पर भी ध्यान आकृष्ट किया करते थे। इनमें चित्रा राणा राघव, मृणाल आशुतोष, अनघा जोगलेकर, उषा भदौरिया, रचना अग्रवाल, राजेश शॉ, कुमार गौरव, कपिल शास्त्री, शेख शहजाद उस्मानी, कल्पना भट्ट, वीरेन्दर वीर मेहता, कान्ता राय, चन्द्रेश छतलानी, संध्या तिवारी, कनक हरलालका आदि कई मित्र थे। सबका नामोल्लेख तो सम्भव नहीं, लेकिन जिनका नामोल्लेख न कर पाया हूँ वे भी जानते हैं कि मैं उनसे बहुत प्रेम व सम्मान करता हूँ। फेसबुक लाइक्स मुझे हमेशा से भ्रमित करने और आत्ममुग्धता की ओर ले जानेवाले लगते थे, लेकिन इन मित्रों की निष्पक्ष टिप्पणियों से मैं अपने लेखन में सुधार करने की ओर प्रेरित होता रहा। 

ऐसे ही लिखते हुए एक दिन 'अयन प्रकाशन' ने अपने लघुकथा संकलन के लिए मेरी एक लघुकथा 'शयनेषु रम्भा' को प्रकाशनार्थ प्रेषित करने का आग्रह किया। बिल्कुल उसी समय 'दिशा प्रकाशन' ने भी नवोदितों की लघुकथाओं के लघुकथा संकलन 'नई सदी की धमक' के लिए लघुकथाएँ प्रेषित किए जाने की विज्ञप्ति जारी की। मैंने उन्हें भी अपनी प्रयोगात्मक पत्र शैली लघुकथा 'पवित्रा' प्रेषित की। दोनों ही जगह सम्पादकों को मेरी लघुकथा से प्रभावित किया और लगभग साथ-साथ ही दोनों संकलन प्रकाशित हुए। मुझे पहली बार पुस्तकबद्ध प्रकाशित होने का आनन्द मिला। इसके बाद लगातार कई संकलनों में तथा पत्र-पत्रिकाओं में मेरी लघुकथाएँ छपती रहीं। इसी दौरान कई प्रतियोगिताओं व आयोजनों में मेरी लघुकथाएँ प्रशंसित व पुरस्कृत भी हुई। एक पहचान बनना शुरू हुई।

एक दिन ख्यातनाम सम्पादक श्री मधुदीपजी का मेरे पास फोन आया। उन्होंने मुझे अपनी कुछ लघुकथाएँ बहुचर्चित 'पड़ाव और पड़ताल' श्रृंखला हेतु भेजने को कहा। मेरा उनसे कोई गहरा परिचय नहीं था, न ही मैंने उनके प्रकाशन की कोई पुस्तक क्रय की थी। इतना जानता था कि मधुदीपजी एक कड़े सम्पादक के रूप में ख्यात हैं। यह भी सर्वविदित है कि उनकी समीक्षकीय छलनी के छेद बड़े महीन हैं। मैंने डरते-डरते अपनी लघुकथाएँ उन्हें प्रेषित कीं। मेरा सौभाग्य रहा कि कुछ ही दिन बाद उनका पुनः फोन आया। मेरी लघुकथाओं ने उन्हें खासा प्रभावित किया और उन्होंने 'पड़ाव और पड़ताल, खण्ड 29' के लिए मेरी । लघुकथाएँ चयनित कर प्रकाशित कीं। 'पड़ाव...' में शामिल होना मेरे लिए गौरव का क्षण था और उससे भी बड़ी खुशी मिली जब इस खण्ड के समीक्षकों ने भी मेरी लघुकथाओं की सराहना की।

कहते हैं कि फेसबुक की दुनिया एक आभासी जगत है, फेसबुक रिश्ते आभासी ही होते हैं। मगर मुझे खुशी है कि फेसबुक ने मुझे सच्चे रिश्ते दिए हैं।

फेसबुक के जरिए ही मेरा परिचय श्री योगराज प्रभाकरजी से हुआ। उन्होंने सदैव मेरा उत्साहवर्धन किया। उनके सम्पादन में प्रकाशित हो रहे 'लघुकथा कलश' के प्रत्येक महाविशेषांक में उन्होंने मुझे स्थान दिया है। मैंने एक बार उन्हें 'लघुकथा में पात्र नाम चयन' विषय पर एक आलेख भेजकर उनकी राय चाही । लेख साधारण था, लेकिन उन्होंने स्नेहासिक्त शब्दों में मेरी क्षमता पर विश्वास जाहिर करते हुए और बेहतर प्रयास करने को कहा। परिणामस्वरूप आगे चलकर उन्हीं के सम्पादन में 'लघुकथा कलश' के आलेख महाविशेषांक में मेरा एक विस्तृत आलेख चयनित हुआ।

मैं फेसबुक समूहों में अन्य लेखकों की लघुकथाओं पर समीक्षकीय टिप्पणी भी करने का दुस्साहस करने लगा था। एक बार फिर श्री मधुदीपजी के द्वारा ही पड़ाव और पड़ताल' के अब तक प्रकाशित खण्डों पर समीक्षा की योजना सामने आई। मैंने भी खण्ड-11 पर अपना समीक्षकीय आलेख उन्हें प्रेषित किया। मेरा सौभाग्य रहा कि उन्हें यह भी ठीक लगा।

मैंने कुछ लघुकथा विषयक पुस्तकों, संग्रह - संकलनों पर भी समीक्षकीय किंवा विस्तृत पाठकीय प्रतिक्रिया का प्रयास किया। इस पर मुझे श्री सुकेश साहनी, श्री उमेश महादोषी, श्री भगीरथ परिहार, श्री अशोक भाटिया, श्री बलराम अग्रवाल, श्री पुरुषोत्तम दुबे जैसे लघुकथा विशेषज्ञों से शुभकामना व सराहना सन्देश रूपी आशीर्वचन प्राप्त होते रहे।

बस ऐसे ही लघुकथा ने मेरी ऊँगली थाम ली, और मैं चलता चला गया।

इस सफर ने फिर एक सुखद मोड़ लिया, जब 'शकुन्तदीप स्मृति लघुकथा संग्रह प्रकाशन योजना' के माध्यम से मेरा अपना लघुकथा संग्रह प्रकाशित किए जाने की स्वीकृति प्राप्त हुई ।

लेखन शुरू करने और अच्छे साहित्यकारों के सम्पर्क में आने के साथ मैंने महसूस किया कि विधा चाहे कोई भी हो साहित्य सदैव सोद्देश्य होना चाहिए। निरुद्देश्य या अप-उद्देश्य को लेकर लिखा गया शब्दभण्डार साहित्य की श्रेणी में नहीं आ सकता।

लेखनकर्म मात्र कर्तव्य निर्वहन या कलमकारी नहीं है। सिर्फ दिल का बोझ हल्का करने के लिए नाजूक पन्नों पर बोझ डाल देना भी लेखन नहीं है। यह एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है जो लेखक को अपने समाज और अपनी आत्मा के प्रति पूरी वफा से निभानी होती है। उसे स्मरण रखना चाहिए कि 'समय बहरा है. सुनता किसी की नहीं। लेकिन अन्धा नहीं है, देखता सब कुछ है।'

हमारे आसपास के समाज में ढेरों विसंगतियाँ विडम्बनाएँ और विद्रुपताएँ हैं। लेखक का भावुक मन इन विसंगतियों की पीड़ा से अछूता नहीं रह सकता। इस पीड़ा को उजागर करने तथा समस्या से उबरने के लिए वह अपनी कलम के माध्यम से प्रयास अवश्य ही करता है।

साहित्य की लगभग सभी विधाओं में इस सम्बन्ध में प्रयास किया जाता रहा है। विशेषकर लघुकथा का तेवर और कलेवर इस हेतु सर्वथा अनुकूल प्रतीत होता है। लघुकथा किसी विसंगति को मात्र छूकर या सहलाकर ही नहीं छोड़ देती। न ही चीर-फाड़कर बखिया उधेड़ती है । लघुकथा का उद्देश्य समाज का ध्वंस करना नहीं है, बल्कि सामाजिक विसंगतियों को उजागर करना और उन्हें दूर कर एक आदर्श समाज की स्थापना करना है। अत: वह एक कुशल सर्जन की भाँति चतुराई से उसे खोलकर सामने ले आती है। साथ ह अक्सर समस्या के कारण व समाधान की तरफ एक इशारा भी कर देती है।

लघुकथा का मूल स्वरूप समस्या प्रत्यक्षीकरण व निवारण होते हुए भी यह उपदेशात्मक नहीं है। यह किसी विसंगति-विडम्बना की पीड़ा को इस तरह से पाठक के हृदय पर उत्कीर्ण करती है कि उससे मुक्त होने की भावना स्वतः ही मन में प्रेरित हो सके। संक्षेप में, लघुकथा उजले कागज पर समाज की विसंगतियों के कुछ काले हर्फ इस खूबी से उभार देती है कि पाठक उस रंगत को अपने चेहरे पर महसूस करते हुए उसे अपने चेहरे से पोंछने के लिए रूमाल निकालने पर विवश हो जाए ।

एक लघुकथा असरदार तब बनती है जब उसमें कथ्य, कथानक, शिल्प, शैली, भाषा, पंचलाइन, अन्त, निसृत सन्देश, उद्देश्य, सहजता, बोधगम्यता, संवेदना, अन्तिम प्रभाव, शीर्षक आदि भाव समग्र रूप से विद्यमान हों। मेरा यह प्रथम ही लघुकथा-संग्रह है, अतः मैं यह तो नहीं कह सकता कि मैं लघुकथा विधा को पूरी तरह से समझ सका हूँ और इस संग्रह की सभी लघुकथाएँ उक्त मानकों पर पूरी उतरती हैं, लेकिन मैंने इस संग्रह में वर्णनात्मक, संवादात्मक, संस्मरण, पत्र, द्वन्द्वात्मक, प्रतीकात्मक बिम्बात्मक, संकेत, किस्सागोई, लोककथात्मक, टेलीफोन एकालाप, विज्ञान गल्प, भविष्य कथात्मक, इत्यादि कई शैलियों का प्रयोग करते हुए मानकों पर या उनके इर्द-गिर्द रहते हुए मानवेतर विविधता का पूरा प्रयास किया है।

आप मैं और हम सब इस समाज का हिस्सा हैं। अपने समाज में हमने अनेक विसंगतियाँ देखी-सुनी होंगी, शायद किसी ने भोगी भी हों। इसी समाज के मध्य से उठाई गई विसंगतियों और समस्याओं को लघुकथा के रूप में इस संग्रह में संग्रहित करने का प्रयास किया है।

मैं पुनः कहना चाहूँगा कि ये लघुकथाएँ कलमबद्ध अवश्य मैंने की हैं, लेकिन ये अपने आस-पास से निकले हमारे और आपके ही किस्से हैं।

मेरे पिताजी अक्सर कहा करते हैं कि "पिता के नाम से तो सन्तान को जाना जाता ही है, मगर एक पिता के लिए गौरव का क्षण वह होता है जब सन्तान के नाम से पिता को जाना जाए। "

मेरे माता-पिता श्रीमती संगीता-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा (जोशी) के आशीर्वाद एवं मेरी पत्नी श्रीमती सुरुचि के सहयोगी भाव का परिणाम यह लघुकथा संग्रह आप सभी पाठकों को पसन्द आए, इसी आशा के साथ आपके हाथों में 'ये आप ही के किस्से हैं'

आप सभी के स्नेह की अपेक्षा है।

आपका,








  कुमारसम्भव जोशी (डॉ.)

जन्म  : 25 नवम्बर, 1980 को सीकर (राज.) में। 

आपके पिता सेवानिवृत्त जिला अधिकारी आयुर्वेद और माता धर्मपरायण गृहिणी हैं। आप आयुर्वेद विभाग राजस्थान सरकार में चिकित्साधिकारी के पद पर सेवारत हैं।

लघुकथा विधा में वर्ष 2016 से सक्रिय रूप से लेखन करते हुए आपने दो सौ से अधिक लघुकथाओं का लेखन किया है। कई लघुकथा संकलनों- पुस्तकों व राष्ट्रीय / अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आपकी लघुकथाएँ, समीक्षाएँ व आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी कुछ लघुकथाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है। आपने दो चिकित्सा विषयक पुस्तकों 'चिकित्सा सम्भव' एवं 'निदान सम्भव' का लेखन भी किया है।

आप अब तक राष्ट्रीय स्तर की कई लघुकथा प्रतियोगिताओं व लघुकथा समीक्षा प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत हो चुके हैं।

आपकी लघुकथा पर बनी शॉर्ट फिल्म इण्टरनेशनल शॉर्ट फिल्म फैस्टिवल-2018 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म कैटेगरी में प्रथम विजेता रही है। इसी वर्ष इन्हें प्रथम 'शिवदरश स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया है।

पत्र व्यवहार हेतु पता :

डॉ. कुमारसम्भव जोशी, सुपुत्र डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा (जोशी)

विनायक हॉस्पिटल के पास, वार्ड नं.-47, बसन्त विहार सीकर (राजस्थान), पिन 332001 मोबाइल नं. 75689 29277  

ई-मेल drksjoshi@gmail.com

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