सफर : एक यात्रा / सुरेंद्र कुमार अरोड़ा

लघुकथा-संग्रह--सफर : एक यात्रा

कथाकार  : सुरेंद्र कुमार अरोड़ा

ISBN No.: 978-93-85325-0-25-0

© सुरेंद्र कुमार अरोड़ा

प्रकाशक : राज पब्लिशिंग हाउस 9/5123, पुराना सीलमपुर (पूर्व), दिल्ली-110031

मो. 9136184246 

e-mail : houserajpublishing@gmail.com

प्रथम संस्करण : 2019 ई.

मूल्य : तीन सौ पचास रुपये मात्र

मेरी बात - 1 

बेचैनी को चैन देती है लघुकथा !

बेचैनी, जीव की प्रकृति न होती तो शायद कोई भी सृजन धरती पर आकार न लेता । सृजन एक सभ्य समाज का सृजन एक समतामूलक ऐसी व्यवस्था का, जहाँ कोई किसी पर किसी भी प्रकार का अन्याय न करे। दूसरे, किसी भी व्यक्ति के जायज़ अधिकारों का हनन न करे, न्याय के विरुद्ध कोई काम न हो, शिक्षा और संस्कार से कोई वंचित न रहे, सभी को अपने बौद्धिक स्तर, साधना और समर्पित श्रम के अनुरूप वह सब कुछ करने का अवसर और अधिकार मिले, जो वह करना चाहता या चाहती है। किसी और से न केवल कुछ ले, बल्कि आवश्यक हो तो उसे सहयोग भी दे और व्यक्ति के इस अधिकार में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव न हो। दूसरे शब्दों में न कोई शोषक हो और न ही कोई शोषित ।

सृजन का यह स्वरूप जब भी किसी कारण से या किसी के स्वार्थी दृष्टिकोण से अवरोधित होता है तो संवेदना से अभिभूत सृजनशील व्यक्ति बैचैन जाता वह शोषण और शोषित की संज्ञाओं को नकारना चाहता है, उन्हें पराजित करना चाहता है। तब एक ऐसे पराक्रम की आवश्यकता उसकी मजबूरी बन जाती है कि वह कुछ ऐसा करे कि कुव्यवस्था को हटाने में उसका भी कुछ न कुछ योगदान आवश्य हो ।

इन परिस्थियों में कुछ लोग 'कलम' को अपने द्वारा किये जाने वाले पराक्रम के लिए एक औजार के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। उनके लिए कलम, शोषण और कुव्यवस्था के खिलाफ़ एक हथियार होती हैं । कलम विचारों को शब्द देती है और शब्द जन-जन तक विचार पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम होते हैं ।

शब्द को वक्तव्यों में परिवर्तित करने की विधा कोई भी हो, धार्मिक पुस्तकों से होते हुए पत्र लेखन से लेकर उपन्यास तक सभी प्रकार की रचनाओं के माध्यम से लेखक की मंशा समाजिक सरोकारों को उकेरना ही होता है। जिससे लोगों की सोच परिष्कृत हो ।

लघुकथा भी उनमें से एक है। साहित्यिक विधा के रूप में इसका जन्म कब हुआ, किस तरह यह विकसित और स्वीकृत हुई, यह शोध का विषय हो सकता है। परन्तु लघुकथा से मेरा जुड़ाव तब से ही हो गया था, जब मेरी लेखनी अपने शैशव काल में थी और मैं इसकी ओर इसलिए आकर्षित हुआ कि किसी भी साहित्यिक पत्रिका में कोई भी लघुकथा देखते ही मैं उसे पढ़ने को उत्सुक हो जाया करता था क्योंकि इसे पढ़ कर इसका सार और संदेश ग्रहण करने में मुझे बहुत कम समय लगता था। मन को अत्यधिक केंद्रित कर मुझे कोई अतिरिक्त समय नहीं निकालना पड़ता था। लघुकथा, दृष्टि में आते ही ठीक उसी तरह आकर्षित करती थी जैसे बगिया में फूलों के झुरमुट पर अपने पंख फैलाती कोई तितली । सबसे अधिक संतोष की बात यह होती थी कि पढ़ चुकने के बाद कुछ देर तक मैं स्तब्ध हो जाता था कि लेखक ने कितनी खामोशी से इतने कम शब्दों में शोषक की मार या शोषित की व्यथा को इतने प्रभावी ढंग से शब्दों में ढाल दिया है कि मैं कुछ करने को मजबूर हूँ, चिंतन को मजबूर हूँ ।

बाद में लघुकथा का फलक विस्तृत होता चला गया। हर दिन छोटे से छोटे लगने वाले परन्तु जीवन और उसकी दिनचर्या की दिशा और दशा को तय करने वाले सरोकार जैसे शृंगार, आत्मीय जनों के ईर्ष्या-द्वेष या बदलते परिवेश में बदलते सरोकारों की समस्याएं, स्वभावगत चारित्रिक दृष्टिकोण, राजनेताओं की मक्कारी या फिर प्रेम की सफलता असफलता के सलोने या टीस भरे पल जैसा सबकुछ लघुकथा के संस्कार बन गए। तुरंत पठनीयता के सुविधाजनक गुण के साथ घटनाओं के विस्तृत आयामों ने साहित्य की इस विधा को सभी प्रकार के पाठकों और लेखकों की नायिका बना दिया।

लघुकथा को शब्दों की सीमाओं में बांधना, सुधीजनों द्वारा शोधित व अन्वेषित व्याकरण को समझना मेरे लिए हमेशा असुविधाजनक रहा है। एक विचार, एक भाव, एक समस्या, एक सुझाव, एक प्रश्न, एक निराकरण, एक व्यवधान रहित पठनीयता यदि कोई लघुकथा स्थापित कर दे और कथ्य में वर्णित घटना का तारतम्य उबाऊ और विषय से हटकर न हो तो मेरी समझ में लघुकथा अपने उद्देश्य में सफल मानी जानी चाहिए।

रचना पढ़ते समय पाठक अपने परिवेश को विस्मृत कर दे, कुछ पल के लिए रचना के पात्रों में खो जाये, रचना पढ़ लेने के बाद उसके कथ्य से उपजे प्रश्नो को हल करने की मनःस्थिति में स्वयं को पाने लगे, लघुकथा की सफलता का यही मापदंड मुझे आकर्षित करता है।

अमुक लघुकथा किसी कहानी का संछिप्त प्रारूप है या नहीं है, इसका निर्णय पाठक स्वयं करे। मेरी समझ में इसके लिए किसी विधान की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि लघुकथा लेखक के रूप में पाठकीय प्रतिक्रियाओं के पश्चात, मेरा अनुभव यह है कि बहुत बार एक ही रचना को एक पाठक ने उसे लघुकथा के रूप में स्वीकार किया तो दूसरे ने उसे कहानी कह दिया। जब तक रचना का कथ्य और उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता, उसकी किसी पंक्ति या वाक्य को अंतिम नहीं कहा जाना चाहिए। हो सकता है लघुकथा के बहुत से शोध छात्र या पारखी मेरी बात से सहमत न हों परन्तु मेरा यह मानना है कि यह लेखक की क्षमता तथा लेखन कौशल तय करेगा कि अपनी बात पाठक तक पहुँचाने के लिए उसकी रचना को कितना विस्तार चाहिए। इसका कोई व्याकरण सम्भव नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ ।

इस संग्रह की सभी लघुकथाएँ आज के समाज में फैली उन विकृतिओं की देन हैं जिनका सामना हम-आप अपनी दिनचर्या में प्रायः हर दिन करते हैं। इसलिए इनके सरोकार पूर्णतः सामाजिक हैं। इनका उद्भव सामाजिक कुव्यवस्थाओं और कहीं-कहीं व्यवस्थाओं में से भी हुआ है। अतः मेरा विश्वास है कि इन्हें पढ़ते हुए बहुत बार किसी-किसी पात्र में आपको अपनी या अपने आस-पास के किसी व्यक्ति की परछाई दिखाई दे। जब आप स्वयं को उसमे समाहित करने की स्थिति में होंगे तो इन्हें पढ़ने और उस पर विचार करने की आपकी मंशा ही इन लघुकथाओं को आपका आशर्वाद होगा और मैं स्वयं को धन्यवाद देने की स्थिति में पाऊँगा। तभी शायद अपने लेखन का उद्देश्य भी सफल मानूंगा, भले ही इन्हें मैंने स्वयं को संतुष्ट करने के लिए ही लिखा है । इस दृष्टि से कुछ लघुकथाएँ बहुत अच्छी हैं तो हो सकता है कुछ सामान्य भी हों। परन्तु मेरे लिए रचना विशेष का उल्लेख करना इसलिए उचित नहीं होगा कि यह कार्य पाठको का है। मुझे तो सभी प्रिय हैं। कोई पाठक किसी रचना में अपनी उपस्थिति पाता या महसूस करता है तो कोई अन्य पाठक किसी और रचना का मुरीद हो सकता है। इसलिए रचना की स्वीकार्यता का निर्णय आप पर छोड़ना, मेरी बाध्यता है।

धन्यवाद! जय हिन्द!   दिनांक 15 अगस्त 2019    

मेरी बात - 2

पहले ही कह चुका हूँ कि सामाजिक विकृतियाँ एक संवेदनशील मन को हमेशा बैचैन करती हैं।

माँ-पिता स्वाभाविक रूप से अपनी संतान के प्रति ममता और वात्सल्य भाव से सराबोर होते हैं। यह भाव केवल मानव का ही सत्य नहीं है, पृथ्वी पर पाए जाने वाले हर जंतु की यही स्वाभाविक प्रवृति होती है। साथ ही संतान भी अपने माता-पिता के प्रति उनके वात्सल्य और ममता की भावना के प्रति उतनी ही कृतज्ञ हो, यह उनका सर्व स्वीकार्य कर्त्यव होता है और यदि कोई संतान अपने इस कर्तव्य से विमुख होती. है तो ऐसी संतान को कृतघ्न कहा जाता है। आध्यत्मिक रूप से इसे पाप भी कहते हैं।

मनोभावों की ऐसी ही मिलती-जुलती व्यवस्था और भावनाएँ प्रकृति और प्रवृति ने कुछ अन्य संबंधों के मामलों में भी स्वीकार की हैं। भाई से भाई का रिश्ता या भाई से बहन का रिश्ता भी इन्हीं पवित्र भावनाओं के अधीन आता है।

इस सत्य को इंगित करने का उदेश्य मात्र यह हैं कि एक पुत्र की भूमिका में अपने उन माँ-पिता के प्रति, जिन्होंने अपने अत्यंत सीमित संसाधनों की मजबूरी में, अपने सभी सुखों को दरकिनार कर अपनी संतान का लालन-पालन ही नहीं किया, उसे उसकी पढ़ाई-लिखाई के किसी भी अवसर से वंचित भी नहीं होने दिया, साथ ही जब तक उनकी संतान अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो गयी, उसे हर सम्भव भावनात्मक संबल भी दिया। इसके लिए उन्होंने अपने जीवन की लगभग हर सुविधा को अपने हर मुख को तिलांजली दी ।

पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं अपने माँ-पिता की अधूरी इच्छाओं को भूल नहीं पाया। उनके संघर्ष मुझे याद थे। मेरी माता ने हम बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे जुटाने के लिए पास के गाँव की महिलाओं के कपड़े सिले थे। उन दिनों घरों में बिजली - पंखे की भी व्यवस्था नहीं थी और भरी दोपहरी में पसीने से तर-बतर शरीर के साथ, हाथ सिलाई मशीन का पहिया घुमाते थे तो मेरी छोटी सी समझ जान नहीं पाती थी कि माँ दूसरों के कपड़े क्यों सिलती हैं !

समय के साथ मुझे इस बात का एहसास हो गया था कि माँ-पिता की उत्कट इच्छा हैं कि उनका एक निजी आश्रय स्थल होना चाहिए जिसमें नौकरी से अवकाश प्राप्ति के बाद वे चैन से ही नहीं, गर्व से अपने जीवन के शेष दिन पूरे कर सकें। उनके इसी सपने के साथ मैं बड़ा हुआ था जो वे अपनी संतान के लालन-पालन और पढ़ाई के खर्चों की मजबूरियों के चलते पूरा नहीं कर सके थे। इसी बीच पिता जी, जिन्हें मैं पापा जी कहता था, अपने भाइयों के द्वारा मानसिक प्रताड़ना का शिकार हो गए और साथ ही अवसादग्रस्त मानसिक रोगी भी।

  उनका वेतन, उनके इलाज की भेंट चढ़ने लगा। स्वयं की बचत द्वारा अपने लिए निजी घर की व्यवस्था का दंश एक दिवास्वप्न की तरह उनका पीछा करता रहा। मेरी लगभग अनपढ़ माता जो मेरी बीजी थे, ने कभी स्वयं को इस स्थिति में नहीं पाया कि इस दिशा में वे अपने बूते कोई सार्थक प्रयास कर सकें।

सौभाग्यवश पढ़ाई-लिखाई पूरी करके बड़े होने के बाद मुश्किल से ही सही, पर मुझे सरकारी नौकरी भी मिल गयी और उस नौकरी के प्रारम्भिक दस वर्षों के अन्तराल में ही मैंने स्वयं को इस स्थिति में पा लिया कि एक स्थाई और निजी आवास की व्यवस्था की जा सके।

मैंने इस दिशा में गंभीर प्रयास शुरू कर दिए। अपने पापा जी और बीजी के संघर्ष का एक-एक दिन मेरी स्मृति में पत्थर पर लिखे शिलालेखों की तरह अंकित था। मैंने तय कर लिया कि यदि मैंने अपने लिए किसी निजी घर की व्यवस्था की तो उसकी हर ईंट मेरे जनकों को समर्पित होगी। मैंने इस संकल्प के साये में अपनी बीजी को उस घर का सह-भागीदार घोषित कर दिया, जिसे मैं खरीदने या बनाने की स्थिति में आ चुका था। अब वह नया घर जो अपना आकार ले रहा था, वह मेरे साथ-साथ मेरे पापा जी और बीजी का भी निजी आवास था और सेवानिवृति के पश्चात के दिनों में वे सम्मान पूर्वक उसी आवास में रहने के लिए कानूनी रूप से अधिकृत थे ।

मेरी ओर से अपने जनकों के सम्मानित जीवन के लिए यह एक छोटा सा प्रयास था और ऐसा करके मैं बेहद संतुष्ट भी था। हर पुत्र में इस प्रकार की कर्त्यवपरायणता आवश्यक हैं, यह कोई बहुत बड़ा काम नहीं था, जो मैं उनके लिए कर सका, ऐसा मेरा आज भी मानना हैं।

परन्तु समय बड़ा बलवान ही नहीं, कई बार बड़ा निष्ठुर भी होता है। मानवीय सरोकारों को समर्पित संवेदना से भरपूर मेरी वही कर्त्यवपरायणता, कुछ समय बाद मेरे लिए एक त्रासदी बन गयी। काल चक्र के अनुरूप माता-पिता तो स्वर्ग के यात्री हो गए परन्तु मेरा अनुज मेरा प्रतिद्वन्दी बन कर उभर आया। उसे मेरे प्रयासों से निर्मित घर में अपना हिस्सा चाहिए था। रिश्ते तार-तार हुए और अदालती दांव-पेंच शुरू हो गए। इतिहास एक बार फिर स्वयं को दोहराने लगा | मानसिक तनाव मेरी झोली में आ गिरे। त्रासदियां, बैचेनियाँ बन गयी ।

उन बेचैनियों को रास्ता दिया कलम से निकली उन रचनाओं ने, जिन्हें आम बोल-चाल की भाषा में साहित्य कहते हैं। मेरा साहित्य तो मेरी लघुकथाएँ ही हैं। यही मेरा संबल हैं, मेरी संतुष्टि और शायद शक्ति का भी साधन हैं।

आप इन्हें स्वीकरेंगे, यह मेरा विश्वास हैं ।

दिनांक : 1 मई, 2019      सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

अनुक्रम 

1. भूल 

2. माता

3. गुलनाज़ 

4. जलेबी

5. जी - साब - जी

6. चमक

7. उर्मि

8. गुड-लॅक

9. अनुराधा

10. छोटी सी प्रेम कहानी 

11. मॉम

12. साधना मैडम

13. पत्थर

14. बैरक

15. गज़ल

16. वात्सल्य

17. ट्रेन

18. धोखा

19. सफर

20. शुरुआत 

21. भूमिका

22. इज्जत

23. हिंदी

24. इंसान

25. सिमटन

26. संवेदना

27. विश्वासघात

28. कबाड़

29. कॉफी का एक सिप

30. अम्मा-बाबा का घर

31. अतीत

32. ऊर्जा

33. खिसक गई जमीन

34. गोभी के परांठे

35. कर्तव्य बोध

36. शिकवा 

37. बेचारा

38. दलदल

39. पासवर्ड

40. सौंदर्य

41. पगली

42. किशोरी मंच

43. लीला

44. सहृदयता

45. पहिया

46. हिम्मत

47. जश्न

48. गणित

49. विश्वास

50. पिल्ले

51. बेहूदगी

52. ताज़गी

53. प्लीज़ पापा

54. सुकून

55. पोखर

56. गोष्ठी

57. मीठा वीठा

58. राजबहादुर 

59. अंगुली

60. तबस्सुम रहमान

61. फेवर

62. सहमति 

63. लॅक

64. यात्रा

65. वर्षा ( कवर पृष्ठ 1)

66. पूर्णता ( कवर पृष्ठ 2)

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

जन्म तिथि : 9 नवम्बर, 1951

माता : स्वर्गीय श्रीमती धर्मवन्ती

पिता : स्वर्गीय श्री मोहन लाल 

गुरुदेव : स्वर्गीय श्री सेवक वात्स्यायन (कानपुर विश्वविद्यालय) 

पत्नी : श्रीमती कृष्णा कुमारी

जन्म-स्थान: जगाधरी (यमुना नगर - हरियाणा)

शिक्षा : स्नातकोत्तर (प्राणी - विज्ञान) कानपुर, बी.एड. (हिसार - हरियाणा ) लेखन विधा : लघुकथा, कहानी, बाल-कथा, कविता, बाल-कविता, पत्र-लेखन, डायरी - लेखन

प्रथम प्रकाशित रचना : कहानी 'लाखों रुपये' क्राईस चर्च कॉलेज, पत्रिका - कानपुर (वर्ष 1971)

अन्य प्रकाशन : 1. देश की बहुत सी साहित्यिक पत्रिकाओं में सभी विधाओं में निरन्तर प्रकाशन, 2. आजादी (लघुकथा-संग्रह), वर्ष 1999, 3. 'विष-कन्या' (लघुकथा- संग्रह), वर्ष-2008, 4. 'तीसरा पैग' (लघुकथा-संग्रह), 5. 'उतरन' लघुकथा-संग्रह, वर्ष - 2019, 6. ' बन्धन - मुक्त तथा अन्य कहानियां' (कहानी-संग्रह), वर्ष-2014, 7. 'मेरे देश की बात' (कविता-संग्रह), वर्ष-2014, 8. 'सपने और पेड़ से टूटे पत्ते' (कविता संग्रह ), वर्ष 2019, 9. 'बर्थ डे, नन्हें चाचा का' (बाल-कथा-संग्रह), वर्ष-2014, 10. ‘रुखसाना' (ई- लघुकथा संग्रह) अमेजॉन पर उपलब्ध- वर्जिन स्टुडिओ), वर्ष-2018, 11. 'शंकर की वापसी' (ई-लघुकथा संग्रह) अमेजॉन पर उपलब्ध - वर्जिन स्टुडिओ), वर्ष - 2018, 12. अनेक ई-पत्रिकाओं में लघुकथाओं, कहानियों और कविताओं का निरन्तर प्रकाशन तथा बहुत सी रचनाएं यू-ट्यूब के विभिन्न चैनलों पर उपलब्ध।

सम्पादन : 1. मृग मरीचिका' (लघुकथा एवं काव्य पर आधारित अनियमित पत्रिका), 2. 'तैरते - पत्थर डूबते कागज' (लघुकथा - संगृह), 3. 'दरकते किनारे' (लघुकथा-संग्रह), दीप प्रकाशन, साहिबाबाद, 4. 'अपूर्णा तथा अन्य कहानियां' (कहानी-संग्रह), 5. 'लघुकथा मंजूषा-२' (ई-लघुकथा संग्रह- अमेजॉन पर उपलब्ध - वर्जिन स्टुडिओ), वर्ष-2018

पुरस्कार : 1. हिंदी अकादमी (दिल्ली), दैनिक हिंदुस्तान (दिल्ली) से पुरुस्कृत, 2. भगवती प्रसाद न्यास, गाजियाबाद से कहानी बिटिया पुरुस्कृत, 3. 'अनुराग सेवा संस्थान' लालसोट (दौसा राजस्थान) द्वारा लघुकथा-संग्रह 'विषकन्या' को वर्ष 2009 में स्वर्गीय गोपाल प्रसाद पाखला स्मृति साहित्य सम्मान, 4. लघुकथा 'शंकर की वापसी' दिनांक 11 जनवरी 2019 को पुरुस्कृत (मातृभारती डॉट काॅम द्वारा ) ।

आजीविका : शिक्षा निदेशालय, दिल्ली के अंतर्गत 32 वर्ष तक जीव-विज्ञान के प्रवक्ता पद पर कार्य करने के पश्चात नवम्बर 2011 अवकाश-प्राप्ति। 

सम्पर्क: डी-184, श्याम आर्क एक्सटेंशन साहिबाबाद, उत्तर प्रदेश - 201005

मोबाइल : 9911127277

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