दि अंडरलाइन (लघुकथा-विशेषांक-2022) / उमेश महादोषी (अ.सं.)
लघुकथा-विशेषांक : दि अंडरलाइन (राष्ट्रीय हिन्दी मासिक पत्रिका)
अंक : दिसम्बर 2022 / वर्ष 23 अंक 09
संस्थापक : स्व. डॉ. रामस्वरूप त्रिपाठीसम्पादक : डॉ. प्रेम स्वरूप त्रिपाठी
अतिथि सम्पादक : डॉ. उमेश महादोषी
उप सम्पादक : डॉ. विद्याशंकर दीक्षित
सह सम्पादक : डॉ. कृष्णकान्त
सम्पादकीय सलाहकार
सुनील चन्द्र मिश्र, शैलेन्द्र शर्मा, डॉ. सुधांशु त्रिपाठी, चक्रधर शुक्ल, गिरीश तिवारी, डॉ. राजकुमार सचान, सुरेन्द्र तिवारी
प्रबन्धक
निखिल मिश्रा
मण्डल / जिला प्रभारी
संजय शुक्ला- लखनऊ, पं. ज्ञान प्रकाश शर्मा- कानपुर मण्डल, डॉ. राजेश सिंह भदौरिया कानपुर देहात, संतोष मिश्रा- उन्नाव, कुलदीप अवस्थी - फर्रुखाबाद
डॉ. प्रेम स्वरूप त्रिपाठी (स्वामी, मुद्रक एवं प्रकाशक) रिलायबल प्रिन्टर्स द्वारा मुदित एवं 127 / 122 डब्ल्यू-2 जूही कला कानपुर- 208027 द्वारा प्रकाशित
नोट:- पत्रिका से जुड़े सभी पद अवैतनिक है इस पत्रिका में प्रकाशित विचारों एवं लेखों से प्रकाशक या सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। सभी विवादों का न्याय क्षेत्र केवल कानपुर नगर ही होगा।
अनुक्रमणिका
1. सम्पादकीय
2. अतिथि सम्पादकीय के बहाने... डॉ. उमेश महादोषी
3. विमर्श : हिन्दी लघुकथा कथ्य, शिल्प... डॉ. बलराम अग्रवाल
4. लघुकथा में पात्र और... डॉ. उमेश महादोषी
5. सूर्यांश तुम्हें नमन! आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र, डॉ. सतीश दुबे
6. जगदीश कश्यप विक्रम सोनी, डॉ. शकुन्तला किरण
7. मधुदीप, डॉ. सतीशराज पुष्करणा
8. रवि प्रभाकर, अंकिता भार्गव
9. ।। सृजन अनुष्ठानम्॥ भगीरथ परिहार, डॉ. मिथिलेश दीक्षित
10. डॉ. बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी
11. सूर्यकान्त नागर, डॉ. अशोक भाटिया, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
12. डॉ. कमल चोपड़ा, माधव नागदा
13. प्रताप सिंह सोढी, कौशल पाण्डेय
14. रेणु चन्द्रा माथुर आमा सिंह, सतीश राठी
15. रत्नकुमार सांभरिया, प्रो. बी. एल. आच्छा, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
16. शराफत अली खान, रतन चंद 'रत्नेश'
17. मीरा जैन, सन्तोष सुपेकर, डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
18. डॉ. संध्या तिवारी, कान्ता रॉय
19. डॉ. नीरज सुधांशु, योगराज प्रभाकर
20. डॉ. शील कौशिक, ज्योत्स्ना कपिल, प्रगति गुप्ता
22. डॉ. लता अग्रवाल 'तुलना', मीनू खरे, पंडिय
23. पदम गोवा, पवित्रा अग्रवाल
24. सुधा भार्गव, प्रेरणा गुप्ता
25. डॉ. संगीता गांधी
26. डॉ. ऋचा शर्मा, रजनीश दीक्षित
27. डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', कुसुम पारीक
28. नरेश कुमार उदास, इंजी. आशा शर्मा, राजेश कदम
29. जनकजा कान्त शरण
30. लाजपत राय गर्ग, राजेश 'ललित'
31. डॉ. क्षमा सिसोदिया, सुवेश यादव, चितरंजन गोप 'लुकाटी'
32. मधु जैन, गुडविन मसीह
33. सन्ध्या गोयल सुगम्या, सविता मिश्रा 'अक्षजा'
34. सुषमा सिंह, श्रुतकीर्ति अग्रवाल
35. विष्णु सक्सेना, दीपाली ठाकुर
36. विजयानंद विजय, वर्षा गर्ग
37. नमिता सचान सुंदर, नीना सिन्हा
38. सुनील श्रीवास्तव 'मासूम', पूनम सिंह, सुरेश सौरभ
39. सीताराम गुप्ता, नीना छिब्बर, अर्चना अनुपम
40. मृदुला श्रीवास्तव, मीरा सिंह 'मीरा'
41. डॉ. रंजना जायसवाल, रामनाथ साहू, अंजना बाजपेई
42. डॉ. विजयानन्द, मुकेश कुमार मृदुल
43. रेणुका श्रीवास्तव, शुभा संतोष
44. विनीता मोटलानी, अविना गहलोत, डॉ. उमेश महादोषी
सम्पादकीय
कुछ अपने मन की ....
लघुकथाकार आकस्मिक और अलौकिक घटनाओं के चमत्कार का विश्वासी नहीं होता बल्कि वह मनोवैज्ञानिक विश्लेषक की दृष्टि से चिंतन की सृष्टि का निर्माण करता है। वह कथावस्तु, चरित्र चित्रण कथोपकथन, वातावरण व शैली को अन्तर्निहित कर लघुकथा को विकसित करता है। माना कि लघुकथाकार जिस परिवेश में रहता है उसका प्रभाव उसके लेखन में दृष्टिगोचर हो यह आवश्यक नहीं किन्तु स्वाभाविक रूप से उक्त तत्व उसकी रचना में प्रवेश पा जाएँ, यह सम्भव है। वस्तुतः लघुकथा अनुभूति की वस्तु है। जिस रचनाकार ने सामाजिक जीवन का सूक्ष्मता से अध्ययन किया उसकी दृष्टि स्वाभाविक रूप से परिवर्तन के एक क्षण- विशेष, घटना के एक प्रहार या मेघ में बिजली की द्युति की भांति ग्रहण करने में सक्षम होगी और तब उसकी लेखनी से जो रचना उद्भूत होगी वह पाठक के समक्ष अनुभव और चिंतन का साधारणीकरण प्रस्तुत करने में सक्षम होगी।
आज लघुकथाकार दृष्टि, सोच और अनुभव के साथ यथार्थ, संवेदना और विसंगति का चित्रण करते-करते लघुकथा को जीवन के बहुत निकट ले आये हैं। कुछ विद्वानों का कथन है कि, 'लघुकथा का आर्विभाव विसंगति की कोख से होता है। हर घटना या समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता है। जब किसी विशेष परिस्थिति या घटना को लेखक अपने सृजन में कल्पना का पुट देकर कलमबद्ध करता है तब लघुकथा का खाका तैयार होता है. यद्यपि लघुकथाकार के पास बहुत ज्यादा शब्द गढ़ने की स्वतंत्रता नहीं होती फिर भी बात पूरी कहनी होती है और संदेश भी शीशे की तरह पारदर्शी देना होता है।'
कुल मिलाकर लघुकथा में जो कुछ कहा जाता है वह महत्वपूर्ण होता ही है किन्तु उससे भी महत्वपूर्ण वह होता है जो नहीं कहा जाता। लघुकथाकारों के लिए 'जो नहीं कहा जाता' के निहितार्थ को समझना बहुत आवश्यक है। इसी क्रम में बड़ी विनम्रता के साथ में यह भी कहना चाहता हूँ कि प्रायः लघुकथा लेखन के समय लेखक कथानक, शैली व शिल्प के प्रति पूर्ण सतर्क दिखता है और लघुकथा के समृद्धशाली भविष्य हेतु यह प्रयास जारी भी रहने चाहिए ताकि इस विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके। परन्तु 'शीर्षक' चयन में किंचित उदासीनता उचित नहीं क्योंकि शीर्षक ही लघुकथा की सार्थकता को चरम तक पहुंचाता है और लघुकथा के निहित संदेश का प्रतिनिधित्व करता है। लघुकथा लेखन से जुड़े नवांकुरों को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
अन्त में, 'लघुकथा विशेषांक' का स्वरूप गढ़ने वाले कुशल शिल्पी अतिथि सम्पादक उदारमना डॉ. उमेश महादोषी की विद्वता को बारम्बार प्रणाम करता हूँ जिनके अथक प्रयास व सम्पादकीय कौशल ने 'लघुकथा विशेषांक' को संग्रहणीय अंक बना दिया है इसके लिए 'दि अण्डरलाइन' पत्रिका परिवार सदैव विनत रहेगा। साथ ही लघुकथा विशेषांक के मुख्य पृष्ठ को स्वरूप देने के लिए देश के जाने-माने रेखाचित्र विशेषज्ञ आदरणीय संदीप राशिनकर जी का भी हृदय से आभार प्रकट करता है, जिन्होंने एक निवेदन पर बहुत ही कम समय में भावपूर्ण रेखाचित्र उपलब्ध कराकर विशेषांक को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया। चलते-चलते सम्पादक मण्डल से जुड़े समृद्ध साहित्यकार अग्रज डॉ. विद्याशंकर दीक्षित, चक्रधर शुक्ल, डॉ. सुधांशु त्रिपाठी, गिरीश तिवारी व डॉ. राजकुमार सचान के प्रति आभार ज्ञापित करता हूँ, जिनके सहयोग से यह अंक प्रकाशित हो सका। यह अंक कैसा बन पड़ा इसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए पत्रिका परिवार उत्सुकता से प्रतिक्षा कर रहा है।
शेष शुभ........
प्रेमस्वरूप त्रिपाठी
अतिथि- संपादकीय के बहाने...
सामर्थ्य और सार्थकता की नयी संभावनाओं के प्रति
साहित्यिक पत्रिका का स्वरूप ग्रहण करने के साथ 'दि अण्डरलाइन' ने विधागत विशेषांकों के प्रकाशन में विशेष रुचि दिखाई है। ये विशेषांक एक ओर संबन्धित विधा के रूप स्वरूप के बारे में जानकारी प्रदान करने के साथ उस विधा से जुड़ी चिंताओं पर चर्चा का अवसर मुहैया कराते हैं, वहीं नये रचनाकारों को अपने लेखन को परिमार्जित करने के लिए भी प्रेरित करते हैं। "दि अण्डरलाइन' का प्रस्तुत विशेषांक इस महत्वपूर्ण पत्रिका को लघुकथा के साथ निकटता से जोड़ने और उसके योगदान को रेखांकित करने का काम करेगा। विशेषांक से इतर अंकों में भी पत्रिका ने लघुकथा को जो महत्व प्रदान किया है, वह उल्लेखनीय है। निश्चित रूप से दि अण्डरलाइन' के रूप में लघुकथा को एक प्रभावशाली मंच मिला है।
साहित्य की किसी भी विधा से जुड़ी प्रमुख चिंताएँ शिल्प-सौंदर्य सहित उसके रूपाकार एवं मनुष्य के सामाजिक मानवीय मूल्यों कि प्रति उस विधा की निकटता से जुड़ी होती हैं। नयी विधाओं के सन्दर्भ में इन चिंताओं का सकारात्मक समाधान जितना तीव्र और सहज स्वीकार्य रूप में सामने आता है, विधा उतना ही शीघ्रता से जन-मानस में अपने प्रति स्वीकार्यता का भाव प्राप्त करती है। समकालीन लघुकथा ने विगत पचास वर्षों में संघर्ष और गहन चिंतन-मनन के माध्यम से स्वयं से जुड़ी तमाम चिंताओं और प्रश्नों के न केवल समाधान प्रस्तुत किए, अपनी सृजनात्मकता के प्रति जन-मानस के साथ आलोचकों और विरोधियों से स्वीकार्यता भी प्राप्त की है। आज स्थिति यह है कि साहित्य की लगभग हर विधा में मूलतः सृजनरत अधिकांश रचनाकार लघुकथा में सृजन कर स्वयं को गौरान्वित महसूस कर रहे हैं। यदि किसी माध्यम से अनुमान लगाया जा सके तो मुझे लगता है कि अन्य विधाओं के सापेक्ष लघुकथा लिखने वाले लेखकों की संख्या सर्वाधिक होगी। नयी-नयी दिशाओं से आये इन सुधी लेखकों ने लघुकथा में शौकिया या अपना नाम अंकित कराने वाला लेखन मात्र नहीं किया है, इनमें से अनेक ने लघुकथा के विधागत रूपाकार में कुछ न कुछ जोड़कर उसकी गुणात्मक समृद्धि में योगदान करने का प्रयास भी किया है। इस सबका ही परिणाम है कि आज लघुकथा साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय, साहित्यिक मूल्यों की दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध, मानवीय मूल्यों की उत्प्रेरक और नये-नये लोगों को साहित्य से जोड़ने की सर्वाधिक सामर्थ्य वाली विद्या के रूप में स्थापित होकर स्थापना और स्वीकार्यता से जुड़ी चिंताओं से लगभग मुक्त हो चुकी है। ऐसे में लघुकथा आज अपनी प्रभावशीलता को बढ़ाने के नये-नये प्रयासों के साथ अपनी निहित दृष्टि और उद्देश्य को सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों पर पूरी तरह केन्द्रित कर सकती है। निश्चित रूप से जब आप दबावमुक्त होते हैं तो आपके सामने गुणवत्ता की दृष्टि से करने के लिए बहुत कुछ होता है। लघुकथा में भी वह समय आ चुका है, जब नये प्रयोगों और उपेक्षित रह गये तत्वों और मुद्दों पर सघन रूप में ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है।
जहाँ तक लघुकथा की प्रभावशीलता को बढ़ाने के प्रयासों की बात है, कुछ महत्वपूर्ण कथात्मक यंत्रों के उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जा सकता है। इनमें नेपथ्य का संगत उपयोग उपयुक्त प्रतीकों के चुनाव एवं संगत बिम्बों की निर्मिति, पात्रों के मनोविज्ञान को समझने एवं उनके अन्दर झाँकने की उपयुक्त प्रविधि, प्रेरणा बिन्दु के सन्दर्भ में रचना के आरम्भ तथा पूर्णता बिन्दु के सन्दर्भ में रचना के समापन के निर्धारण इत्यादि जैसी चीजों पर विशेष ध्यान दिया जा सकता है। दृष्टि एवं उद्देश्य के सन्दर्भ में सामाजिक मानवीय चिंतन में नये कोणों से विचार किया जा सकता है। लघुकथा में विभिन्न मुद्दों पर विमर्श में अपेक्षित गहराई और निष्कर्षो में तार्किकता और संतुलन को लेकर बहुत कुछ किया जा सकता है। सही और सार्थक सन्देशों के संदर्भ में विचारों के समुचित परीक्षण पर ध्यान दिया जा सकता है। कई अवधारणाओं की परिपक्व समझ का अभाव लघुकथा में आज भी दिखाई देता है। कई विश्लेषण अपेक्षानुरूप परिपक्व और सन्तुलित नहीं होते। इस दिशा में पर्याप्त काम करने की गुंजाइश है। निश्चित रूप से आज का समय लघुकथा का एक ऐसा पड़ाव है, जहाँ से आगे उसकी सामर्थ्य और सार्थकता की नयी संभावनाएँ प्रतीक्षारत दिखाई देती हैं।
इस अंक का संपादन करते हुए कई सीमाओं के बावजूद कुछ अच्छी लघुकथाएँ प्रस्तुत करने का अवसर हमें मिला है। नये रचनाकारों को साथ लेकर चलना सदैव समय की आवश्यकता रही है। इस अंक में भी कुछ ऐसे मित्र हैं, जिनसे मेरा परिचय पहली बार हुआ है। आशा है कि ये मित्र लघुकथा के भविष्य को अपने हाथों से संवारने का काम करेंगे।
इस विशेषांक के संपादन का दायित्व आदरणीय डॉ. प्रेम स्वरूप त्रिपाठी जी और उनकी टीम के साथियों ने जिस विश्वास के साथ मुझे सौंपा था, उसे कितना कायम रख पाया हूँ, में नहीं जानता। हाँ, लघुकथा के प्रति उनके अनुराग और समर्पण के लिए तमाम लघुकथाकार मित्रों की ओर से मैं उनका आभारी हूँ। इस कार्य में सहयोग के लिए स्नेहिल भाई चक्रधर शुक्ल जी और मार्गदर्शन के लिए अग्रज डॉ. बलराम अग्रवाल जी एवं दादा श्यामसुन्दर निगम जी को प्रणाम करता हूँ। पत्रिका के संस्थापक स्मृति शेष डॉ. रामस्वरूप त्रिपाठी जी, जिनके आशीर्वाद से ही आज लघुकथा को एक प्रभावशाली मंच मिल रहा है, को हृदय से श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।
डॉ. उमेश महादोषी
121, इन्द्रापुरम, निकट बी. डी. ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ. प्र. मो. 9458929004
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