बेरंग चेहरे (लघुनाटक और लघुकथाएँ) /सुरेश वशिष्ठ (डाॅ.)

पुस्तक  : बेरंग चेहरे (लघुनाटक और लघुकथाएँ)

कथाकार  : डाॅ. सुरेश वशिष्ठ 

ISBN : 978-81-925740-8-9

© : Dr. Suresh Vashisht

प्रकाशक : गणपति बुक सैंटर

241/2, न्यू विकास नगर लोनी, 

गाजियाबाद - 201102

प्रथम संस्करण : 2023

मूल्य : 175.00

मुद्रक : पूजा प्रिंटर्स, जगतपुरी, दिल्ली-110093

प्रूफ संशोधन : रवीन्द्र सिंह यादव

बशर्ते, आप जागते रहें

मेरे ये लघु नाटक ठोस और कठिन वैचारिक प्रक्रिया से गुजरते हुए शब्दों में बंध पाए हैं। इनकी मारक क्षमता अत्यधिक तीव्र है। इन्हें सहज मंच पर अभिनीत किया जा सकता है। कम अभिनेता और सहज साजो-सामान के साथ ये मुखर होकर यादों में वास करेंगे। इन्हें लिखते समय विचार प्रभावी रहा और यथार्थ की बेचैनी बाहर आती गई। स्वत: ही भीतर की अकुलाहट बाहर निकलती गई और मैंने इन्हें लिखकर पूरा किया।

दरअसल मेरा लेखन मेरे अंतस में जन्म लेता है। नाटक के चरित्र भीतर में वार्तालाप करते हैं। ये वही पात्र हैं जो मेरे इर्द-गिर्द हर वक्त मंडराते रहते हैं। जिन्हें मैं हर दिन देखता हूँ। हर समय जिनके वाक्य मेरे कानों में गूँजते हैं। ऐसे वह दृश्य मेरी आँखों के सामने होते हैं, जिन्हें देखने पर हृदय छीजने लगता है। अनेक अंतर्विरोध भी हैं, बावजूद उसके कि हम आँखें खोलकर देखने लगे। समझने और परखने लगे। मेरे चरित्र और मेरे पात्र इसी जमीन की सतह पर अपने करतब पसार रहे हैं या हकीकत के बोझ को ढो रहे हैं।

मेरे इन लघु नाटकों में- मैं हूँ, आप हैं, और हमारे इर्द-गिर्द की दुनिया है। हर शाम सुबह का इंतजार करती है और हर सुबह साँझ की बाट जोहती है। अंधेरा छँट नहीं पाता रोशनी की आरजू में! खैर, लिखना सार्थक तभी होगा जब आपकी कोई प्रतिक्रिया आती रहेगी। मेरी इन रचनाओं से सच परोसा जाता रहेगा, बशर्ते आप जागते रहें।

मेरी इस पुस्तक में लघुनाटकों से अलग कुछ लघुकथाएँ भी है। ये लघुकथाएँ इसी दौर में लिखी गई हैं। मैंने इन्हें यथार्थ की जमीन से उकेरा है। मैं उक्त पुस्तक में लघुनाटकों को ही स्थान देना चाहता था लेकिन सोच की डोर एक बार टूटी तो फिर उसे बाँधा नहीं जा सका। अंतः इन लघुकथाओं को यहाँ स्थान मिल सका।

मुखोटे लगाकर लोग सड़कों पर हैं। भीतर में खौलते लावे की खुदकन है और राक्षसी चेहरे ढके हुए हैं। क्रूर ठहाके और आँखों में उगती यह नफरत कहाँ जाकर ठहरेगी, समझ से परे है। संस्कार मर चुके हैं और आदमी शैतान होने लगा है। उसकी नस नस में दानव वृत्ति झलक रही है। ये लघुकथाएँ आदमी के शैतान हो उठने की तस्वीरें हैं। अंतस का द्वंद्व और विचार हैं। आप कहाँ तक मेरी बातों से सहमत रहेंगे. मैं नहीं जानता। इतना जरूर जान


पाया हूँ कि आपकी सहमति अस्थिर करने में है। संस्कारों को होम करने में है। आगे का समय आपकी सोच और आपकी दृष्टि से बाहर होता जा रहा है। इंसान मर रहा है और सरकारें अपने में मस्त मगन हैं। आप किसी भ्रम में आगे बढ़ रहे हैं और सहज झाँसे में फँसते जा रहे हैं। जागने के वक्त आप नींद के आगोश में हैं। मेरे ये लघुनाटक और मेरी ये लघुकथाएँ आपको नींद से झकझोरने का काम अवश्य करेंगे। इसी उम्मीद के साथ मेरी यह पुस्तक आप सभी को समर्पित


हमने बहुत ज्ञान अर्जित कर लिया। लिखना और पढ़ना सीख लिया लेकिन व्यवहार और प्रीत आज भी नदारद है। अंतस में खासा अंधेरा है। अर्ज है आप-से कि अंधेरे की परतों को चीरकर बाहर आ जाओ और राहें निर्मित करो! रोशनी लेकर आगे बढ़ो और उजाला महका दो! मुट्ठीभर यह रोशनी सम्पूर्ण इस जहान को रोशन कर डालेगी

दिनांक : 14 मार्च, 2023.           - सुरेश वशिष्ठ

                                        गुरुग्राम, हरियाणा

अनुक्रम

लघुनाटक

बशर्ते, आप जागते रहें

सवेरे की दस्तक 

बरसात की वह रात

बेरंग चेहरे

स्वाभिमान

बहस जारी है

रूह की तड़प

दाग और प्रीत 

रुलाई फूट पड़ी 

यह देस भयो बिदेस 

रूहों की चीत्कार

बूढ़ी नजरें

कदमों की आहट 

इस मिट्टी से प्यार करो

परदे के पीछे

बेबस सत्यकाम

उजाला बहने दो! 

जलें इसी के साथ

अंधेर

परिदृश्य बदल रहा है

लघुकथाएँ 

यशोगान

खोखले तर्क

दाँव

अग्निवीर 

एक प्रसंग

बुद्धि की कसरत 

नींद में सो रहे हैं 

इंतजार 

बढ़े दरख्त पर लटकी रूहें 

राधिका की दास्तान 

बाजीगर और जमूरा संवाद 

घर-घर की कहानी 

अंधेरा घिर आया 

अंकुरित होता विद्रोह 

मामी की रूह 

झमेला

रमुआ और बचुआ संवाद 

भीखू और रमुआ संवाद 


हमें क्या लिखना चाहिए

दर्पण जो देखता है, वही दिखाता भी है। लेखक को भी, जो वह देखे, उसे दिखाना चाहिए। प्रत्यक्ष में आँखों और कानों के जरिए जो दिखाई या सुनाई दे, उसे जरूर लिखना चाहिए। एक लेखक इतनी जल्दी नहीं लिख सकता, जितनी जल्दी सरकारें बदल जाती हैं. हालात बदल जाते हैं और चरित्र बदल जाते हैं। लेखक अगर सचेत न रहे तो सच छुपा ही रह जाता है। लेखन ठोस और कठिन वैचारिक प्रक्रिया है। आज के इस यथार्थ में चरित्र जितनी जल्दी पोशाक बदल लेते हैं, उतनी जल्दी लेखक रचना का निर्माण नहीं कर सकता। अतः लेखक के लिए आँखें खोलकर यथार्थ को देखना, परखना और विचार करना अहम हो जाता है।

आज के इस दौर में लेखक उसे नहीं लिख रहे जिसे लिखना जरूरी है। रचनात्मक परिवेश में आपसी झगड़े और घर-घर की कहानियों को हवा दी जा रही है। रचनाकार का लेखन देहरी से बाहर नहीं जा रहा। वे भीतर के संताप को परोसने में लगे हैं। यह सब कहकर मैं किसी विवाद को संकेत नहीं दे रहा हूँ। ना ही दुंदुभी बजाकर लोगों को इकट्ठा करने का शौक है और ना हीं प्रसिद्धि प्राप्त करने की लालसा है। मैं धैर्य और अनुशासन में सच को परोसने का काम करते रहने का हामी हूँ।

तुम्हारे घर में आग लगी है और तुम आग लगाने वालों पर कुछ नहीं लिख रहे हो। शैतानों की चालाकियाँ देख तो रहे हो लेकिन उनके कृत्य को उजागर करने से पीछे हट रहे हो। तुम्हारी भावनाएँ आहत की जा रही है और तुम बुत बनकर खड़े हो । अगर उनके कहर से डर लगता है तो लिखना छोड़ दो। प्यार की जीत और हीर राँझे के किस्से बहुत लिखे जा चुके हैं, आज के दिन जो घट रहा है, उसे लिखो। आज लिखने से ज्यादा सम्मान पाने की उत्सुकता प्रभावी हो रही है। लेखक उस छौर तक नहीं जाना चाहता, जिसे दिखाने की जरूरत है. लेखन में लेकर आने की जरूरत है। सरकारें अपनी सीमाएँ तय कर चुकी हैं और उस सीमा रेखा के भीतर लिखते रहने को बाध्य भी किया जा रहा है। लेखक को उन सीमाओं को लाँघकर लिखना होगा।

आँखों के सामने लोगों को मारा जा रहा है। आस्तिनों में सर्प फुंकार रहे हैं। हवस और भोग की आँधी में घेरी जा रही किशोरियों और बच्चियों की घटनाओं से अखबार भरे पड़े हैं और तुम आपस की जिरह लिख रहे हो? कोई भी रचनाकार समाज, सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखने का पक्षधर पहले है। तुम यथार्थ के कृत्य को नहीं दिखाओगे तो यथार्थ उजागर कैसे होगा । लेखक को लेखक बने रहना चाहिए, भड़वा या चारण नहीं।

मैं औरत की पूर्ण आजादी का हिमायती हूँ परन्तु औरत किस सीमा तक आजाद होना चाहती यह भी स्पष्ट होना चाहिए। लेखक धर्म और संस्कृति का रक्षक है, जो देखता और सोचता है, उसे लिखता है। मैं क्षोभ और कड़वाहट का पक्षधर नहीं हूँ, लेकिन परिवेश से आँखें मूँद लेना भी मुझे नहीं सुहाता । किताबें बिकती हैं या नहीं बिकती हैं, परवाह नहीं है, फिर जिसे देखोगे, उसे लिखोगे कैसे नहीं ।

इन्दौर में 'क्षितिज' सम्मान समारोह हुआ। वहाँ मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक डॉक्टर विकास दवे की चिंता प्रकट हुई। उनका स्वर चिंताओं से भरा था। उनका कहना था- 'लघुकथा विडंबना पर चोट का पर्याय है, किन्तु विडंबना और विकृतियाँ एक पक्ष को लेकर ही उजागर की जा रही हैं। उस पर हर किसी की लेखनी चल रही है। उस पक्ष पर कटाक्ष किए जा रहे हैं। हर कोई उसी पर लिखे जा रहा है। मेरी राय में लेखक को निष्पक्ष होना चाहिए। आज क्यों अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए घाव गिने जा रहे हैं। किताबों की गिनती बढ़ाई जा रही है और आप खुश हो रहे हैं।

लिखो और ठोस लिखो। आपसी खटास में लिप्त होकर मत लिखो। मैं नहीं कहता कि तुम किसी की आस्था पर चोट करो लेकिन जिन घावों से पीप बह रही है, उसे तो उकेरा जाना तुम्हारी जिम्मेदारी है। देश विभाजन 1984 के दंगे, अफगानिस्तान का कहर, दिल्ली दंगे, जाट आरक्षण और राष्ट्र को गिराने की साजिश पर भी लिखना फर्ज बनता है।

मैं लोगों की लाशें गिनने को नहीं कह रहा हूँ। परिवेश में जिस कदर हैवानियत हुई है, उस हैवानियत में कृत्यों को शब्दों में बाँधने की हिमायत कर रहा हूँ। ऐसी दास्तानें लिखना इतिहास होगा और उसे तुम्हें जरूर लिखना चाहिए। हथोड़े-सी चोट दी जा रही है और तुम मौन हो। पति-पत्नी के प्यार भरे किस्से, विद्वेष के बीज को अंकुरित करने वाले तर्क परोसकर क्या हासिल करना चाहते हो ?

आज के इस परिवेश में इंसान खोखला होता जा रहा है और तुम रंध्र को रोमांस देने की कला में प्रवीण होते गए हो। धार्मिक अस्थिरता में अंधेरा है, उस अंधेरे में जो बुना जा रहा है, उसे अपने लेखन में लेकर आना चाहिए। तुम्हें लोगों को जगाने का फरमान लिखना चाहिए। यथार्थ की घटनाओं को परोकर मुनासिब बहस को भी स्थान मिलना जरूरी है। पाठक को बच्चे की तरह बहला-फुसलाकर अपने लेखक होने की डौंडी पीटते रहना सही नहीं है। एक सहृदय रचनाकार को इससे बचना चाहिए।

अतः हमें सोचना होगा कि हम जो लिख रहे हैं, वह हमारी आस्थाओं या परंपराओं पर चोट तो नहीं दे रहा, और अगर हमारी आस्थाएँ और परम्पराएँ हमारे उस लेखन से बोझिल हो रही हैं, तो हमें वैसा लिखने से बचना भी चाहिए।


- डॉ. सुरेश वशिष्ठ

14 मार्च 1956 को दिल्ली के एक गाँव में जन्म। 1981 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद, जामिआ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पी-एच.डी की उपाधि। सर्वप्रथम, दिल्ली सरकार के अधीन विद्यालयों में प्रवक्ता (हिंदी) के पद पर कार्य किया। 2006 में 'संघ लोक सेवा आयोग, दिल्ली' द्वारा प्रिंसिपल पद पर नियुक्ति हुई । 31 मार्च-2018 को सेवा से निवृति ।

कला एवं साहित्य की अखिल भारतीय संस्था 'संस्कार भारती' में पिछले चौबीस वर्षों से विभिन्न दायित्व पर कार्यरत रहे। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार) में सदस्य । कला, रंग-कर्म और लेखन से संबंधित अनेक कार्यक्रमों में सक्रिय हिस्सेदारी ।

लगभग एक दर्जन नाटक, चार सौ के लगभग कहानियाँ, दो दर्जन बाल पुस्तकें, चार उपन्यास और कविताएँ। प्रमुख पुस्तकें पर्दा उठने दो, बेला की पुकार, सैलाबगंज का : नुक्कड़, रेत के ढेर पर, गलत फैसला, अंधे शहर में, खुदा का घर, सुनो दास्तान-1919, नी हिन्द तेरी शान बदले और एक अजेय योद्धा (नाटक) हुकूमत उनकी और अष्टरंग (नाटक संग्रह) खुरदरी जमीन, चली पिया के देश, सिपाही की रस्म, घेरती दीवारें, नीर बहे, बहती धारा, प्रवाह पथ, श्रंगारण, लोकताल, रक्तचरित्र, भुला नहीं सका हूँ, अधूरी दास्तान, निर्झर नीर, सरवर ताल, सफर कभी रुका नहीं, मुझे बोलने दो, अंधा सगीतज्ञ, रक्तबीज, हिन्दुत्व स्वाह ! और ताल मधुरम् (कहानी संग्रह) लावा, मेवदंश, अलख और नन्हीं चिरैया का खेल तमाशा (उपन्यास) हिन्दी नाटक और रंगमंच : ब्रेख्त का प्रभाव, हिन्दी के लोकनाट्य (समीक्षा) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित साक्षात्कार और लेख । विभिन्न संस्थाओं द्वारा देशभर में नाटकों के हजारों सफल प्रदर्शन ।

सम्पर्क: एफ 189, फेस-2, न्यु पालम विहार, सेक्टर-112, गुरुग्राम- 122017 

दूरभाष: 09654404416

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तपती पगडंडियों के पथिक/कमल कपूर (सं.)

आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र रचनावली,भाग-1/डाॅ. ऋचा शर्मा (सं.)

पीठ पर टिका घर (लघुकथा संग्रह) / सुधा गोयल (कथाकार)