काले दिन / बलराम अग्रवाल

समीक्षा-1 / डाॅ. संध्या तिवारी 

समीक्षा-2 / धर्मपाल साहिल

लघुकथा-संग्रह  : काले दिन 

कथाकार  : बलराम अग्रवाल 

प्रथम संस्करण  : 2021

द्वितीय संस्करण  : 2023

प्रकाशक :

मेधा बुक्स

एक्स 11, नवीन शाहदरा

दिल्ली-110 032

मोबाइल  : 98910 22477 

ई-मेल : medhabooks@gmail.com

मूल्य : ₹ 100.00 $ 10.00 £5.00

© बलराम अग्रवाल

द्वितीय संस्करण

सन् 2023

आवरण : के. रवीन्द्र

KAALE DIN

Laghukathas (short short stories) by Balram Agarwal

ISBN 978-81-8166-21-5

बतौर भूमिका (पहले संस्करण से )

काले और डरावने दिन

इस संग्रह में यों तो 2018-19 में लिखित भी कुछ रचनाएँ हैं; लेकिन अधिकतर लेखन जनवरी 2020 से अक्टूबर 2020 के मध्य का है। 19 मार्च 2020 के बाद पहली बार मैं जुलाई में घर से निकला । 90-95 वर्ष के बुजुर्गों के मुँह से बार-बार सुनने को मिला कि भय का ऐसा तांडव अपनी जिन्दगी में इससे पहले उन्होंने कभी नहीं देखा। अस्पताल में मृत व्यक्ति का शव परिवार को न सौंपा जाना पहली बार हुआ। शव को आपादमस्तक पोलिथीन में इस कदर लपेटकर श्मशान पहुँचाया और जलाया / दफनाया गया कि उसका चेहरा तक देखने की अनुमति किसी को नहीं थी। ऐसे में ये अफवाहें भी सुनने में आईं कि गलत टैगिंग के चलते अग्निदाह के अधिकारी शव को दफन और दफन के अधिकारी शव को अग्निदाह मिल गया। अब मुर्दा क्योंकि बोल नहीं सकता. इसलिए परदा पड़ा रहा। इस सब की आड़ में कुछेक मामले मानव अंग तस्करी के भी सुनने आए। निजी अस्पतालों ने किस कदर खुलकर लूटा किसी से छिपा नहीं है। यह भी सुनने में आया कि अस्पतालों के अधिकतर वार्ड और कोई-कोई तो पूरा अस्पताल ही 'कोरोना स्पेशल' में तब्दील कर दिया गया। कोरोना से इतर सामान्य से लेकर घातक रोग वाले अधिकतर रोगियों को बिना इलाज के ही जीना / मरना पड़ा। कार्पोरेट घरानों ने आमजन को लूटने में कोई कसर छोड़ी, ऐसा सुनने में नहीं आया। भू-माफियाओं ने मजदूर वर्ग को खोलियों से और राजनीतिज्ञों ने अपने प्रांत से बेदखल करने का घिनौना खेल खेला। चिलचिलाती धूप में लोग पैदल ही तपती सड़क पर निकल पड़े। उम्रदराज बूढ़े और कम उम्र बच्चे कैसे चले होंगे ? कहाँ दिन बिताया होगा, किस हाल में रात गुजारी होगी ? युवतियाँ कैसे लुटेरों की नजर से बची होंगी ? कितने गिद्धों, कितने भेड़ियों ने इन पैदल निरीहों को नोचा-खसोटा होगा ? इसका लेखा किसी के पास नहीं है । बादलों ने भी अति करने में कसर नहीं छोड़ी। रह-रहकर बरसे। आँधियाँ आईं और भूकम्प भी । पैदल यात्रियों को कहाँ पनाह मिली होगी ? इन असहायों के लिए मन रोता रहा ।

ऐसे में राजनीतिक दलों के बीच आमजन की चिन्ता कभी भी नजर नहीं आई। हर ओर कुर्सी पाने / हड़पने और कुर्सी बचाने की घृणित चालें, निहायत गिरी हुई हरकतें । अनेक अपीलों के बावजूद शाहीन बाग के धरने को जारी रखने के फैसले ने मन को कसैला किए रखा और मन में इस ग्रन्थि ने जड़ जमा गया ली कि मानवाधिकार की आड़ में अनेक राष्ट्र-विरोधी एजेंसियाँ भी इस देश में संघर्षरत (!) हैं। वो दिन हवा हुए जब बीबीसी विश्वसनीय हुआ करता था। जनाभिमुख मानी जाने वाली विचारधारा का बड़ा हिस्सा दायित्वहीन लगता है । सम्प्रति, वह गरीब और मजदूर वर्ग के प्रति संवेदनशील न रहकर अंध राजनीतिक विरोध पर केन्द्रित है। 'बुद्धिजीवियों' के एक बड़े तबके के लिए सच वह है, जो 'रायटर' से आए ! राष्ट्र के सूचना स्रोत सिरे से अविश्वसनीय और संदेहास्पद क्यों हैं ? विश्वसनीय सूचनाओं का संदेहास्पद में और संदेहास्पदों का विश्वसनीय सूचनाओं में बदल जाना चिन्ता का विषय है। इसी का लाभ उठाकर विघटनकारी ताकतें एकजुट हैं। डर का माहौल तैयार कर एक ओर वे समुदाय विशेष के ध्रुवीकरण का घिनौना खेल खेल रही हैं तो दूसरी ओर अन्य समुदायों को गंगा-जमुनी तहजीब सिखाने, सहिष्णु बने र का पाठ पढ़ाकर भावनात्मक स्तर पर कमजोर कर रही हैं। यह विघटित हो रहे हमारे सामाजिक चरित्र का, आज के समय का आईना है।

विघटन के गत दौर में बेशक, बहुत लोगों ने अनगिनत लोगों की अनेक तरह से सहायता की, मानव मूल्यों को जीवित रखा; लेकिन इस कालखण्ड का बड़ा हिस्सा कपटपूर्ण, काला और भयावह ही रहा, इसलिए इस किताब का नाम 'काले दिन' रखने का मुझे अफसोस नहीं है । 'सरसों के फूल', 'जुबैदा', 'पीले पंखोंवाली तितलियाँ' और 'तैरती हैं पत्तियाँ' के बाद 'काले दिन' भी समय और समाज का एक यथार्थ ही है। बुद्धिजीविता के इस विवेकहीन दौर में कोई अन्य नाम न तो मुझे उपयुक्त लगा, न न्यायसंगत ।

भाई मधुदीप और भाभी शकुन्त दीप का आभारी हूँ जिन्होंने अपने बिगड़े स्वास्थ्य के बावजूद इस संग्रह को अधिकारपूर्वक 'दिशा प्रकाशन' का सम्मानित मंच प्रदान किया ।

एम- 70. नवीन शाहदरा,    - बलराम अग्रवाल

दिल्ली-110032।        मो. : 8826499115

ई-मेल : balram.agarwal1152@gmail.com

अनुक्रम 

दरख्त

काली रेत

थोड़ा-सा नमक

पंचरवाला

पूँछनामा

साथ इज्जत का

खैरियत की खातिर 

शाहीन से मुलाकात.... 

आधी-अधूरी पूरी दास्तान

घेराबंदी

आँधी

बुलबुले 

मजबूरियाँ

कोरोना - महानायक संवाद

अनचीन्हे लोग

रामलला

मुश्किल हालात

शेर की कहानी

कबूतर

मुल्क और हम

मोर और मिल्कीयत

आखिरी बयान 

फसाद के बाद

ढाल

दरक

मुक्ति-संघर्ष 

कारोबारी

पाँचवीं ताली

श्वान-युग

बैल से बातचीत - 1 

बैल से बातचीत - 2

बैल से बातचीत - 3

अकाल में आक्रोश

जादूगर की मौत

परछाइयाँ

नये रेट

फलसफा

छोटी अदालत बड़ी अदालत 

गंगा में गंदगी

सोच

दाँव, पेंच और पैंतरा

फासीवाद

आतंकी

भारत-पाक संवाद

पोरोना

साँप और साँप

बला का सफर

बँटवारा

मल्टी-लाइनर

भीख, भण्डारा और ठेका

फिर फिर महाभारत 

बिल और बिलबिलाहट

स्पर्द्धा

दरकार प्यार की 

पार्टी-लाइन 

रुका हुआ हाथ 

बिके हुए लोग 

तुष्टीकरण 

फाँस

एक्शन, सिर्फ एक्शन 

चैट: सानिया विद शमीम

गधों की घर वापसी 

जागते हुए नींद में

दीवार से पीठ टिकाए बैठा..... 

अकेला आदमी

चौराहे पर राजाराम 

तितलियाँ मरा नहीं करतीं

समीक्षा-1 / डाॅ. संध्या तिवारी

काले दिनों की अनुभूति

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डाॅ. संध्या तिवारी
गत दिनों या यूंँ कहा जाए इसी वर्ष जो दुनिया की एकोनोमी को लील जाने की लीला रची गई या कि कुपित अस्तित्व ने अपनी सबसे प्यारी रचना से असंतुष्ट होकर जिस सजा का प्रावधान किया उसका असर संवेदनशील मन पर पड़ना स्वाभाविक ही है।

कहते हैं कि दुःख की सरजना सुख से कहीं अधिक बेहतरीन होती है, दुःख अपनी रिसती आर्द्रता से चट्टानों के बीच भी लश्-लश् करती हरियाली को उमगा देता है। इसी तरह ऋतुयें जब काली होने लगती हैं तो सम्वेदनशील मनों की सृजनात्मकता अपने चरम पर जाकर अपने अपने आत्मदीप्त सूरज फलक़ पर सजा कर उजास फैला देते हैं ।

डॉ बलराम अग्रवाल लघुकथा के साधारण सितारा न होकर पुच्छल तारा हैं। उन्होंने अपने समय में न जाने कितने तारे टूट कर धरती पर बिखरते देखे होंगे, फिर तो यह स्वाभाविक सी बात ही है कि उनकी रचनाओं में सभी के उत्सर्जित भावों का आ जाना।

इस संक्रमण काल के दौरान उनके संवेदनशील मन ने जो देखा उसका गहरा आघात उनकी लघुकथाओं में दिख रहा है।

उनका नया लघुकथा संग्रह आया है 'काले दिन'। 'काले दिन' संग्रह में लिखी रचनाओं में उन्होंने कोविड नाइन्टीन के दिनों की उथल-पुथल को बखूबी उकेरा है। इस संग्रह की भूमिका में उन्होंने कहा भी है कि ऐसा काला समय अस्सी नब्बे साल के बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में नहीं देखा।

काले समय के कुछ उजले पक्ष तो हैं जब कि लगा कहीं न कहीं इंसानियत जिंदा है लेकिन इसके स्याह पहलू बहुत अधिक है और उन्हीं स्याह पक्षों को अपने लघुकथा संग्रह काले दिन में लेकर आये हैं डॉ बलराम अग्रवाल। उनकी लघुकथा दरख़्त में इस बात की बयानगी देखी जा सकती है।

दरख़्त के माध्यम से कही गई मार्मिक बात जो सीधे समाज के उस हिस्से को बींधती है जिसमें घर के बुजुर्गो की उपेक्षा होने पर भी घर वाले उनका काम, सम्मान आदि की तथाकथित देखभाल जिम्मेदारी वगैरह सब निभाने का विडम्बना बोध गढ़ा रहे है। परन्तु घर के बुजुर्ग इस क़दर उपेक्षित हैं कि वह इस दुख को किसी को बता भी नहीं सकते।

चूंकि यह मेरा है इसलिए इस पर मेरा अधिकार है फिर चाहे उसकी कितनी ही उपेक्षा निरादर या कि तंगहाली में ही जीवन बसर क्यों न करना पड़े। इस अहं की लड़ाई में पिसते घर के बड़े बूढ़ों का दर्द और एकाधिकार की भावना से लघुकथा का पोर पोर सिक्त है। 

मानव-मन की महीन सींवन को उधेड़ती रचना है दरख़्त।

'थोड़ा-सा नमक' लघुकथा में मानव मन की और समाज की संरचना में रची-बसी परम्परा और आधुनिकता के बीच का द्वंद्व उभर कर आया है ।

लघुकथा 'थोड़ा-सा नमक' में मांँ बेटी के बीच संवाद से इतना तो स्पष्ट है कि उनके बीच घनिष्ठ विश्वास और संवाद की पारदर्शिता है लेकिन जहांँ मांँ के अपने समय के संस्कार हैं वहीं बेटी के अपने समय के ।

पचास साठ क्या सत्तर तक के दशक में जब कि नायक नायिका की अंँगुली छू जाने भर से पवित्रता भंग हो जाने का चिरपरिचित संस्कार बना रहता था वहीं आज लिव इन का ज़माना आ चुका है ऐसे में मांँ का बेटी को सत्तर के दशक की प्रथा को मनवाना कुछ ज्यादा हो गया और इसी उद्देश्य से रची गई इस रचना में परम्परा को तोड़ने की उन्मुक्त घोषणा न करते हुए बहुत प्यार से धीरे से कहा गया कि इतना अलोना न खिलाओ अम्मा कि फलाहारी व्रत जैसा शुष्क और नीरस हो जाय जीवन।

चुटकी-भर नमक से सौंदर्य खिल उठता है इसलिए तो उसे लावण्य कहते हैं।

जीवनरस में नमक के अनिवार्य तत्त्व की तरह इस लघुकथा में भी चुटकी भर नमक से कथा खिल उठी है । 

शाहीन बाग कट्टरपंथियों के आन्दोलन से उपजी यह लघुकथा अपने में बेमिसाल है। मुझे याद आता है कि काल के संदर्भ में जब वीरगाथा काल का नाम लिया जाता है तो उसके लक्षणों में वीरता, आक्रामकता, श्रृंगारिकता आदि सब मिलता है नहीं मिलता है तो वह है राष्ट्रीयता या देशप्रेम की भावना, क्योंकि सभी अपने-अपने राज्यों की सीमाओं को सुरक्षित रखने या उसे बढ़ाने में लगे रहते थे वही सब भारत में आज भी मिलता है; नहीं मिलती है तो बस देशभक्ति नहीं मिलती ।

यदा कदा इक्का दुक्का अपवाद स्वरूप मिल जाए तो इसे मिसाल की तरह पेश नहीं किया जा सकता।

कुछ ऐसी ही अहसासफरोशी और आत्मकेंद्रिय भाव को रखकर 'शाहीन से मुलाकात' लघुकथा को स्फीति दी गई है।

जब संकुचित समाज का निर्माण होता है तो ऐसे ही उत्तर बाहर निकलकर शेष कट्टरपंथी सोच का निर्माण करते हैं। 

शाहीन से मुलाकात : शुरुआती तीन सवाल

पहला सवाल...

—आप देश के साथ हैं या कौम के?

—कौम के।

—देश के साथ क्यों नहीं?

—जहाँ कौम होगी, देश वहीं बन जाएगा।

दूसरा सवाल...

—अच्छा, अगर यह पूछा जाए कि आप कौम के साथ हैं या मजहब के, तब?

—मजहब के।

—क्यों?

—मजहब ही से तो कौम बची हुई है।

तीसरा सवाल...

—आपकी नजर में कौम बड़ी शय है या अवाम?

—कौम।

—कैसे?

—कौमौं के इकट्ठ का नाम अवाम है, अवाम अपने-आप में कोई कौम नहीं है।                        'बुलबुले' लघुकथा को पढ़कर मुझे अपने अतीत में मेरे पापा के द्वारा कही एक बात याद आ गई ,जब बारिश होती थी, तो थोड़ी बारिस होकर जब वर्षा कम हो जाती तो हम कहते अब पानी नहीं बरसेगा

अगर वर्षा के पानी में बतास पड़ते तो पापा कहते; "नहीं,  अभी पानी और बरसेगा; देखो, कैसे बुलबुले उठ रहे हैं।"

इस लघुकथा का शीर्षक भी है 'बुलबुले' अर्थात पानी अभी और पड़ेगा मने मकान मालिक के मन का स्पेस हवा की तरंगों से और बुलबुज्जे बनाये उससे पहले ही कामिनी की तीखी बातों ने उन्हें फोड़ दिया। अन्यथा मकान मालिक की कामुकता का पानी पड़ता ही रहता।

लघुकथा, आधी आबादी की आधी आबादी के प्रति कुत्सित मानसिकता की है। समाज का अधिकतर पुरुष वर्ग देह से नहीं बल्कि मन से व्यभिचार करने से चूकता नहीं, क्योंकि व्यभिचार का न कोई साक्ष्य है और कोई सज़ा।ये तो वही जानता है जिस पर होता है और जो करता है। 

कथा का ताना-बाना बेहद कसा हुआ और शिल्प खासा असाधारण है एक साधारण सी बात को बुलबुले या बताशे का बिम्ब लेकर कहना लघुकथा की बड़ी व्यापकता का चिह्न है। बेहद खूबसूरती से इस रचना को गति दी गई है।

लघुकथा आधी अधूरी दास्तान में कथाकार ने जैसे एक पूरे हिन्दोस्तान को पिरो दिया हो।अपने अपने मज़हब में बंटे हम दूसरे के धर्मों को न देख पाते हैं न समझ पाते हैं और न देखने समझने वाला दिल दिमाग ही रखते हैं। 

इस लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में एक बोध कथा याद आती है ; कि चार अंधों को एक हाथी के पास ले जाकर खड़ा कर दिया जिसके हाथ हाथी का पांँव आया वह हाथी को खम्भे जैसा बताने लगा और जिसके हाथ हाथी का कान आया वह सूप जैसा। 

कहने का तात्पर्य यह है; कि हम भारतवासी अपने अपने धर्मों, मज़हबो, धार्मिक किताबों, स्थलों आदि को ही सर्वोपरि मानते हैं और वह भी स्थूल रूप में। उनके पीछे छुपी तार्किकता से हमारा कोई लेना-देना नहीं ।यह लघुकथा बिम्ब और रूपक का मणिकांचन संयोग सरीखा है।

इसी मज़हब जाति और कौम को लेकर काले दिन में एक और रचना का जिक्र करना मुनासिब होगा और वह लघुकथा है-फ़लसफ़ा। फ़लसफ़ा यानी कि दर्शन याकि सिद्धांत हिंदोस्तान में अलग-अलग धर्मों के लोगों के कारण अलग-अलग फ़लसफ़ो को बोलवाला है लेकिन आज के समय में अपनी कट्टरवादिता के कारण विधर्मियों ने एक ऐसा रुख़ अख़्तियार कर रखा है जिसे पीठ पीछे सब कोई कहता सुनता है और आज का आलम तो यह है कि इस रूढ़िवादी और कट्टरवादी विचारधारा के विरोध में लगभग सारी दुनिया ही एकजुट हो गई है। लेकिन यह असंतुष्ट कौम अपनी ढ़पलीअपना राग अलग अलापती रहती है। साथ ही इसके गढ़े हुए तर्क तथा वामपंथी इनका रक्षा कवच बन कर इन्हें अभय प्रदान करते रहते हैं।

 सवाल जवाब के ताने बाने से बुनी इस लघुकथा में भी कट्टरपंथियों का यह रूप खूब निखरकर सामने आया है। पढ़िए लघुकथा--फलसफा :

“आप एक असन्तुष्ट कौम हैं।”

“कैसे?”

“आप जिस भी मुल्क में हैं, वहीं सामने वाली कौम से खफा हैं।”

“यानी सामने वाली कौम हमारे मजहबी मामलों को नेस्तनाबूद करने की चालें चलती रहे और हम चुप बैठे रहें?”

“जिस मुल्क में सिर्फ आप ही आप हैं, वहाँ अपने ही लोगों से खफा हैं!”

“गरज यह कि हम जाहिलों को काफिरों-जैसी हरकतें करते देखते रहें और चुप रहें?”

“कमाल है यार! बाकी कौमें भी हैं न दुनिया में! अकेले आपको ही चुप रहने से इतना गुरेज क्यों है?”

“वाह मियां! हम कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, आप हमारी हर हरकत पर नजर रखे हुए हैं और उम्मीद करते हैं कि हम चुप रहें?”

'बिके हुए लोग' हों या गुलाम हों इनका अपना कुछ नहीं होता न धर्म,न ईमान, न गैरत, यहांँ तक कि अपनी देह भी अपनी नहीं होती। ऐसे लोग केवल पशुवत अपना उदरपोषण करके पूरा जीवन लोगों के टुकड़ों पर निर्वाह करते हैं।

जैसा कि शीर्षक से ही ज्ञात हो रहा है कि लघुकथा का केन्द्रीय भाव है- धर्म ईमान से डिगे हुए लोग और जो बिक गया है वह तो उसी के गुण गायेगा जो उसके आगे टुकड़े फेंकेगा।

...लेकिन एक बात तो अवश्य है ये बिके हुए लोग अक्सर तस्वीर का ग़लत रुख़ ही समाज के सामने पेश करने में मददगार साबित होते हैं। जैसा कि इस लघुकथा में ध्यातव्य है।

मौकापरस्त या वामपंथी लोग अपने छोटे छोटे स्वार्थों के लिए बड़े बड़े कामों को अपनी विरोधी बातों से ध्वस्त कर कुछेक स्वार्थों के वशीभूत निज का ही फायदा सोचते समझते हैं।

लघुकथा 'बिके हुए लोग' आप सब के लिए- 

मैंने कहना शुरू किया—“गरीब और...!”

बिके हुए लोग बीच में चिल्लाए—“तानाशाही... हाय-हाय!!”

मैंने बोलना शुरू किया—“मेहनतकश... !”

वे पुनः बीच में चिल्लाए—“तानाशाही... हाय-हाय!!”

हताश नहीं हुआ मैं। आगे कहना शुरू किया—“दलित और वंचित इन्सान...!”

वे फिर पूरी ताकत से चिल्लाए—“तानाशाही... हाय-हाय!!”

और उस शाम—

उनके आकाओं ने जब पिला-खिलाकर पेमेंट पकड़ाई, तब, नोट मुट्ठी में दबा, तर गले से वे आपस में फुसफुसाए—

“ऐसे मौके... जिन्दाबाद! जिन्दाबाद!!”

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि डॉ बलराम अग्रवाल का नाम हिंदी लघुकथा में बहुत ख़ास पहचान रखता है तथापि यह उनका बड़प्पन है कि मेरी लिखी टिप्पणी को वह अपने हृदय में स्थान देंगे।

अग्रवाल जी की लघुकथाओं में कमियांँ निकालना तो भूसे के ढ़ेर में सुई ढ़ूंढने जैसा काम है।जो दर्जा हिंदी साहित्य के इतिहास में रामचंद्र शुक्ल महावीर प्रसाद द्विवेदी जी आदि ख्यातिनाम अग्रजों का है वही स्थान आने वाले समय में लघुकथा साहित्य में डाॅ बलराम अग्रवाल जी का होना चाहिए (मेरी समझ के अनुसार)। 

(प्रकाशित : 'बलराम अग्रवाल का लघुकथा साहित्य' लेखिका : डाॅ. चन्द्रेश साहू)

संपर्क: डाॅ. संध्या तिवारी पत्नी श्री राजेश तिवारी, 

ठेका महिला पुलिस चौकी के सामने, निकट सलोनी हाॅस्पिटल, यशवन्तरी रोड, पीलीभीत, 262001, उ.प्र.

मोबाइल- 7017824491, 9410824929

समीक्षा-2 / धर्मपाल साहिल

अंधेरे समय का पोस्टमार्टम करती हैं ‘काले दिन’ लघुकथा संग्रह की लघुकथाएँ

डाॅ. धर्मपाल साहिल 
लघुकथा जगत में बलराम अग्रवाल अति प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। वह अपने संग्रह 'काले दिन' की 67 लघुकथाओं के साथ पाठकों के रुबरु हुए हैं। बलराम की जहां विषय पक्ष पर जबरदस्त पकड़ होती है वहीं वह लघुकथा के रूप विधान के प्रति पूरी तरह सजग रहते हुए रचना को बहुअर्थीय और बहुपर्तीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इन लघुकथाओं में शाहीन बाग के धरने से पहले, दौरान तथा धरना बाद की मानसिक परिस्थतियों को आधार बनाकर सशक्त लघुकथाएँ सृजित की हैं। शाहीन से मुलाकात, घेराबंदी, फसाद के बाद, मुक्ति संघर्ष, कारोबारी, आँधी, मोर और मिल्कीयत, साथ इज्जत का, ढाल, आदि लघुकथाओं में लेखक ने इस धरने के पीछे के कारणों, हिडन एजेंडे, भूमिगत शक्तियों, कथित बुद्धिजीवियों की देशद्रोही मानसिकता, बच्चों-औरतों के मनों को जहर घोलकर उन्हें ढाल के रूप में इस्तेमाल करना, आम जनजीवन पर होने उनके प्रभाव तथा सामाजिक सौहार्द के नुकसान की ओर संकेत भी दिये हैं, तथा ऐसे वातवरण के जनकों के दोहरे चरित्र पर कटाक्ष भी किये हैं। उनके चेहरे भी बेनकाब किये हैं।

इनमें ‘मुक्ति संघर्ष' में शाहीन के बहाने उस समाज की औरतों को सड़क पर लाकर स्त्री मुक्ति संघर्ष के साथ कुशलतापूर्वक जोड़कर लघुकथा को सार्थकता एवं सकारात्मकता प्रदान की है। शाहीन को एक चारित्रिक प्रतीक के तौर पर प्रयोग करके इस एजेंडे की बखिया उधेड़ने का प्रयास किया गया है।

लेखक ने 2018 से 2020 तक के महात्रासद कोरोना काल की भयावहता को कुछ प्रभावशाली लघुकथाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। इस महामारी के जनक देश से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मची हाहाकार तथा बेबसी को इस प्रकार रचनाओं में बांधा है कि इनका पाठ करते हुए पाठक पुन: उसी काल में विचरण करने लगता है, तथा उस भयावहता को महसूस कर सिहर उठता है। उस समय मानवता जिस प्रकार तहस-नहस हुई; आदमी किस प्रकार लूट-खसूट, शोषण, अन्याय के हमाम में नंगा होकर पिशाच रूप में नाचा; प्रवासी मजदूर सृजित वातावरण के चलते अपने परिवारों व माल-असबाब के साथ सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने ठिकानों पर पहुँचे। वे धन-दौलत, अस्मत के लुटेरे गिद्धों द्वारा किस प्रकार शोषण का शिकार हुए, यह दुखद दास्तान इस संग्रह की लघुकथाओं में समाहित होकर पाठकों के रोंगटे खड़े कर देती है।

कोरोना-महानायक संवाद, अनचीन्हे लोग, आधी-अधूरी पूरी दास्तान, अकाल में आक्रोश, मुश्किल हालात, मुल्क और हम, फिर फिर महाभारत जैसी हृदयस्पर्शी लघुकथाओं द्वारा बलराम अग्रवाल ने वैश्विक कूटनीतिक क्रूरता, धर्मान्धता, राष्ट्र से जुड़े राजनीतिक फैसलों के विरुद्ध आक्रोश, राजनीतिक विवशताओं, राष्ट्र के प्रति आमजन की दायित्वशीलता और दायित्वहीन राजनेताओं पर गहरा कटाक्ष प्रस्तुत किया है।

देश में एक बड़ा कथित बुद्धिजीवी वर्ग किस प्रकार एक निर्धारित एजेंडे एवं गढ़े हुए निश्चित तर्कों के आधार पर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर इच्छानुसार ढालकर आम लोगों को गुमराह भी कर रहा है, उनमें डर का माहौल भी पैदा कर रहा है। समाज व देश को विघटित व विखंडित करके अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने का प्रयास कर रहा है। समाजवाद व लोकतंत्र के नाम पर स्वयं ही जाति-पात, धर्म, कौम को भड़काकर मनों में द्वेष व वैमनस्य पैदा करके लोगों का ध्रुवीकरण करने में जुटा है, ऐसे छद्‌मवेषी तथा सूडो-सेक्यूलरों का आवरण ओढ़े समाज के ठेकेदारों को भी बलराम अग्रवाल ने अपनी कुछ लघुकथाओं के माध्यम से आईना दिखाने का साहस किया है। बिके हुए‌ लोग, दरकार प्यार की, पार्टी लाइन, बँटवारा, फासीवाद, आंतकी, सोच, दाँव-पेंच-पैंतरा, गंगा में गंदगी, बैल से बातचीत-1-2-3, साँप और साँप आदि लघुकथाओं को पढ़ते हुए इस मानसिकता का एहसास बाखूबी हो जाता है।

इस संग्रह की दरख्त, शेर की कहानी, जागते हुए नींद में, जादूगर की मौत, दीवार से पीठ टिकाए बैठा वह बूढ़ा, फाँस, मुल्क और हम आदि लघुकथाएँ अपनी कलात्मकता, विषयों को विविधता तथा मनोवैज्ञानिक धरातल से प्रगाढ़ता के कारण विशेष रूप से अन्तर्मन को झिंझोड़‌कर अमिट प्रभाव छोड़ती है। अन्य लघुकथाएँ भी पाठक मन पर वांछित प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं। लेखक की प्रतीकात्मक शैली, सटीक एवं सुदृढ़ संवाद-योजना, गिने-चुने आवश्यक शब्दों का प्रयोग, वाक्य-विन्यास संरचना, मुहावरेदार भाषा, तीक्ष्ण कटाक्ष, स्थितियों का विरोधाभास, नैतिक-सामाजिक विडंबनाओं, विद्रूपताओं पर प्रहार सभी कुछ इन लघुकथाओं की श्रेष्ठता के स्तर पर हो जाता है। कम शब्दों में बड़ी बातें, लघु कलेवर में विराट सत्य प्रकट करती ‘काले दिन’ की लघुकथाएँ पाठक को न केवल उद्वेलित करेंगी, बल्कि उन्हें सोचने-समझने, परखने, खँगालने के साथ-साथ सामाजिक व राजनीतिक धुंध में से बहुत-कुछ स्पष्ट व सही देखने में भी सहायक सिद्ध होंगी। इस उत्कृष्ट कृति हेतु बलराम अग्रवाल जी को हृदय से मुबारकबाद।

(प्रकाशित  : 'द्वीप लहरी', जनवरी-जून 2023)

समीक्षक - डा. धर्मपाल साहिल, पंचवटी, एकता एन्क्लेव, लेन नं॰ 2, साधु आश्रम (बूलांबाड़ी) होशियारपुर-146021 (पंजाब)

मोबाइल : 9876156964 / ई-मेल : dpsahil_panchvati@yahoo.com

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