66 प्रयोगधर्मी लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल / मधुदीप (संपादक)

(इस पुस्तक के संपादक मधुदीप जी दिवंगत हैं और अब उनका संपर्क सूत्र इस पुस्तक के प्रकाशक ही हैं।)

66 प्रयोगधर्मी लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल  

संपादक : मधुदीप 

प्रकाशक

वनिका प्रकाशन (Vanikaa Prakashan ) बी-14, आर्य नगर, नई बस्ती, 

बिजनौर - 246701, उ. प्र

फोन : 9837244343 

Email : sudhanshu.k.sharma@gmail.com,

vanikaaprakashan@gmail.com

Website: www.vanikaapublications.com

संस्करण : प्रथम 2023

मुखावरण : सत्यपाल ग्राफिक्स

मूल्य : चार सौ पचास रुपये $30 (हार्डबाउंड)

कुल पृष्ठ  : 248

मुद्रक : प्रतीक प्रिंटर्स, दिल्ली

क्रम

लघुकथा में प्रयोगधर्मिता (सम्पादकीय) / मधुदीप / 11

पड़ाव

1. अनघा जोगलेकर / हालात / 19

2. अनिल शूर आजाद / जिन्दगी के पन्ने / 20 / 21

3. अनुराग शर्मा / बिग - क्लाउड - 2068 

4. अर्चना राय / दूर क्षितिज पर / 23

5. अशोक यादव / वसीयत / 25

6. अशोक वर्मा / तुम यहीं हो / 26

7. अश्विनीकुमार आलोक / थोड़ा लिखा / 28

8. आशा भाटी / मीठी नीम, कड़वी नीम / 30

9. उपमा शर्मा / विडम्बना / 31

10. उमेश महादोषी / उस दिन के बाद / 32

11. कनक हरलालका / अनकही / 34 

12. कमल चोपड़ा / जर्रे / 35

13. कमलेश भारतीय / सात ताले और चाबी / 37

14. कल्पना भट्ट / श्रोता / 39

15. कुँअर प्रेमिल / आम आदमी उर्फ प्रजातन्त्र का पाँचवाँ पाया / 40 

16. कुमारसम्भव जोशी / सदुपयोग / 41

17. कृष्ण चन्द्र महादेविया / परिचय / 43

18. जगदीश राय कुलरियाँ / नेताजी के साथ एक दिन / 44 

19. जसबीर चावला / दाँत / 46

20. जानकी बिष्ट वाही / सुनहरी मछली से रेशम के कीड़े तक का सफर / 47

21. ज्योत्सना कपिल / अपेक्षाओं के दंश / 49 22. दिव्या राकेश शर्मा / स्त्रैण / 51

23. ध्रुव कुमार / सफलता के बढ़ते कदम / 53

24. पवन शर्मा / डूब की जमीन / 54 

25. पुरुषोत्तम दुबे / लॉकर / 55

26. पुष्पराज चसवाल / ज्ञान के रक्षक / 56 

27. प्रबोधकुमार गोविल / दो तितलियाँ और चुप रहनेवाला लड़का / 58

28. बलराम अग्रवाल / आधी-अधूरी पूरी दास्तान / 59 

29. भगीरथ परिहार / उदासियाँ उड़ती चिड़कलियाँ / 61

30. भारती कुमारी / पाती / 62

31. मधुकान्त / अँगूठे / 64

32. मधुदीप / प्रेमी, पति और बीसवीं सदी का मर्द / 65 

33. माधव नागदा / मुझे जिन्दगी देनेवाले / 67

34. मुकेश शर्मा / मेरे जाने के दौरान / 69

35. मृणाल आशुतोष / अँगूठी / 71 

36. योगराज प्रभाकर / फक्कड़नामा / 73

37. योगेन्द्रनाथ शुक्ल / बापू / 76

38. रजनीश दीक्षित / बहीखाता / 77 

39. रवि प्रभाकर / विसर्जन / 79

40. राधेश्याम भारतीय / खिड़की का दुःख / 82

41. रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' / दूसरा सरोवर / 84

42. रूप देवगुण / तुम क्यों नहीं आए ! / 85

43. लक्ष्मी मित्तल / भूला - बिसरा / 87 

44. लता अग्रवाल / युगों की पीड़ा : दो दृश्य / 89

45. वन्दना गुप्ता / ये तेरा घर, वो मेरा घर / 91

46. वन्दना पाण्डेय / पोटली / 93

47. विभारानी श्रीवास्तव / मोक्ष / 94

48. विरेन्द्र 'वीर' मेहता / शिकस्त / 96

49. शील कौशिक / उत्सवबोध / 98

50. शोभना श्याम / हे प्रभु! / 99

51. श्यामसुन्दर दीप्ति / सुबह का इन्तजार / 100

52. श्रुतकीर्ति अग्रवाल / रीती मुट्ठी / 102 

53. संजीव आहूजा / रिश्ते / 104

54. सतीशराज पुष्करणा / ... जो कभी पोस्ट नहीं हुआ / 106

55. सतीश राठी / अधूरा साक्षात्कार / 107

56. सत्या शर्मा कीर्ति / हैपिनेस ऑफ डेथ / 108

57. सन्तोष सुपेकर / बहुवचन का सुख / 110 58. सन्ध्या तिवारी / सम्मोहित / 111

59. सविता इन्द्र गुप्ता / बेआवाज लाठी / 113

60. सविता मिश्रा ‘अक्षजा' / एक डायरी के कुछ पन्ने / 115 

61. सीमा व्यास / किश्तवार वैवाहिक विज्ञापन / 117

62. सीमा सिंह / मेरा पहला प्यार / 119

63. सुकेश साहनी / चिड़िया / 121 

64. सूर्यकान्त नागर / औकात / 123

65. स्नेह गोस्वामी / तीन तलाक / 124

66. हरनाम शर्मा / काश ! पत्थरों के होंठ होते / 126

पड़ताल

● प्रयोगधर्मी लघुकथा : क्यों, कब और कैसे? / आलेख / 129 - डॉ. पुरुषोत्तम दुबे

● 66 लघुकथाओं की विस्तृत पड़ताल / 135

- डॉ. पुरुषोत्तम दुबे

संपादकीय

लघुकथा में प्रयोगधर्मिता

किसी भी विधा में यदि नए प्रयोग न हों तो वह जड़ होकर रह जाती है। विधा में प्रयोग ही उसे गतिमान बनाते हैं और वह उन प्रयोगों के कारण ही पाठकों में लोकप्रियता भी प्राप्त करती है। प्रयोग साहित्य की हर विधा में निरन्तर होते रहते हैं। आज उपन्यास, कहानी, नाटक कविता या अन्य कोई भी विधा अपने प्रारम्भिक रूप में नहीं है। हर विधा ने नया रूप धारण किया है जिससे वह लोकप्रिय भी हुई है। जैसे रुके हुए पानी की अपेक्षा बहता पानी अधिक निर्मल और आकर्षक होता है, उसी तरह नित नए प्रयोगों से प्रवहमान साहित्य अधिक आकर्षक होता है और उसमें पाठकों की रुचि बनी रहती है। ये प्रयोग कथ्य-कथानक, शिल्प- शैली या भाषा किसी भी स्तर पर हो सकते हैं। मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि साहित्य की किसी भी विधा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ा जाए क्योंकि इससे उस विधा में एकरूपता - सी आकर वह नीरस हो जाती है। कुछ लघुकथाकार और समीक्षक लघुकथा के स्वरूप को निर्धारित करने की बहुत जल्दी में हैं और आश्चर्य तब अधिक होता जब इसमें भी 'अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग' वाला किस्सा आ जाता है। लघुकथा के अनेक विद्यालय हैं, उनके प्राचार्य हैं और उन प्राचार्यों के लघुकथा के अलग-अलग नियम और विधान हैं। जितने अधिक मत और विवाद इस विधा को लेकर प्रस्तुत किए जाते हैं, उतने शायद ही किसी अन्य विधा में देखने को मिलें! इन विवादों से मुक्ति और लघुकथा की समीक्षा के कुछ बिन्दु तय करने के लिए मैंने 11 समीक्षकों और वरिष्ठ लघुकथाकारों से विस्तृत आलेख एकत्रित करके 'लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु' पुस्तक का सम्पादन किया था ताकि कुछ शंकाओं का समाधान हो सके। अब आपसे अपने मन की बात करने का समय है। बात लघुकथा में प्रयोगधर्मिता की हो रही है। पिछले दिनों ही भाई उमेश महादोषी के सम्पादन में मेरी लघुकथाओं पर 700 पृष्ठों से अधिक की एक पुस्तक 'मधुदीप : लघुकथा-सृजन के विविध आयाम' आई है जिसमें 50 से अधिक लघुकथाकारों और समीक्षकों ने मेरी लघुकथाओं पर विस्तृत आलेख लिखे हैं। हर समीक्षक या लघुकथाकार की कि मैं मेरी लघुकथाओं पर अलग अलग राय है लेकिन उन सभी का एक स्वर में ह कहना है कि मधुदीप प्रयोगधर्मी लघुकथाकार हैं और उनकी प्रयोगधर्मिता उनकी लघुकथाओं का विशिष्ट सौन्दर्य है। मैं यह खुले मन से स्वीकारता  हूँ। लघुकथा में प्रयोगधर्मिता का बेहद पक्षधर हूँ लेकिन मेरा यह भी मानना कि प्रयोगधर्मिता विधा की मूल अवधारणा को आहत न करे। मैं जड़ता की अपेक्षा गतिशीलता का पक्षधर अवश्य हूँ लेकिन उसमें अन्धी दौड़ का पक्षधर कतई नहीं हूँ। अन्धी दौड़ हमें कहीं नहीं पहुँचाती अपितु उसमें हमारे गिरने और चोटिल होने का खतरा अधिक रहता है। इसमें किसी भी लेखक को अपने विवेक से ही काम लेना होता है ताकि गतिशीलता सही मानकों के अनुसार रहे और हम सही रचना का सृजन कर सकें। प्रयोगधर्मिता आपके जीवन का एक हिस्सा हो तो बेहतर है, अन्यथा तो वह बात हो जाएगी कि 'बगुला चला हंस की चाल, अपनी चाल भी भूला'। इस खण्ड के लिए लघुकथाओं का चयन करते हुए और उनका सम्पादन करते हुए मैंने कई बार यह महसूस किया कि यदि कोई सिर्फ प्रयोग करने के लिए लघुकथा में प्रयोग करता है तो वह रचना न इधर की रहती है, न उधर की। लघुकथा में प्रयोग इतने स्वाभाविक रूप में होना चाहिए कि उससे उस रचना के सौन्दर्य में वृद्धि हो न कि वह भोण्डी लगने लगे। मैं कभी एक लकीर पर चलकर लघुकथा-लेखन नहीं कर सकता। लघुकथा कहने का मेरा अपना ढंग है। आवश्यक नहीं है कि कोई अन्य भी उसी ढंग से लघुकथा लिखे। हर लघुकथाकार को अपने स्वभाव के अनुसार लेखन करना चाहिए न कि किसी अन्य के अनुसार लेकिन उसमें विधा के प्रति जागरूकता अवश्य होनी चाहिए और उस विधा को विकसित करने की भावना भी हो। हमें लघुकथा को जन-सामान्य के पढ़ने की आकांक्षा की पूर्ति का साधन बनाना है और उसके लिए हमें घिसी घिसाई लकीर से हटकर उसे कुछ नया और नए तरीके से देना होगा ताकि उसका झुकाव साहित्य की इस विधा की तरफ बना रहे। लघुकथाओं में दोहराव को लेकर पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी बहुत शिकायत रही है। हम लघुकथाकारों को यह भ्रम हो गया है कि लघुकथा के पाठक बहुत बढ़ते जा रहे हैं। हाँ, यह हमारा भ्रम ही है कि लघुकथा के पाठक बढ़ते जा रहे हैं, अपितु सत्य यह है कि लघुकथा के पाठक नहीं, लघुकथा के लेखक बढ़ते जा रहे हैं और मजे की बात यह है कि वे लघुकथा - लेखक भी लघुकथा के पाठक नहीं हैं। सारा शोर फेसबुक पर ही है. वास्तव में पाठक होते तो लघुकथा की पुस्तकें हजारों में बिकतीं और प्रकाशक धड़ाधड़ लघुकथा की पुस्तकें प्रकाशित करते। लेकिन वास्तविक स्थिति से आप और हम सभी परिचित हैं। लघुकथा की जितनी भी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं उनमें से 90 प्रतिशत लेखकों के आर्थिक सहयोग से ही प्रकाशित हो रही हैं। इसलिए मेरा आप सबसे आग्रह है कि हम इस भ्रमजाल से बाहर निकलकर इस सच को स्वीकार करें कि लघुकथा का पाठक बढ़ नहीं रहा बल्कि घट रहा है। क्यों घट रहा है? उसका कारण भी हमें ही खोजना होगा। यह कोई मुश्किल काम भी नहीं है। आप एक पूरा दिन फेसबुक की लघुकथाओं को पढ़ने में लगा दें. मैं सच कहता हूँ कि आपका भ्रम अपने-आप भंग हो जाएगा। लघुकथाओं में न विषयों की नवीनता है और न ही उनकी प्रस्तुति का कोई सलीका। और उस पर विषयगत शीर्षकगत या चरित्रगत लघुकथा लेखन। आप स्वयं सोचिए कि उस तरह की लघुकथाओं में या उनके विषयों में कोई नयापन या सौन्दर्यबोध होगा जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर सके। फेसबुक की लघुकथाओं के बारे में कहा जाता है कि ये अभ्यासी रचनाएँ हैं. इसलिए कमजोर हो सकती हैं लेकिन आप तनिक यह भी तो सोचिए कि उन अभ्यासी रचनाओं को पढ़कर पाठक पर क्या प्रभाव पड़ता है और वह विधा से कैसे और क्यों विमुख हो रहा है! चलो, पाठक की बात छोड़ते हैं. हम और वे जो स्वयं को लघुकथाकार कहते हैं और जिनके लघुकथा संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं, वे कितनी और कैसी लघुकथाएँ पद्धत है। लघुकथा श्रृंखला 'पड़ाव और पड़ताल' के 31 खण्डों में अवश्य ही कुछ श्रेष्ठ लघुकथाएँ और इस विधा पर कुछ विचारपूर्ण आलेख होंगे। इस श्रृंखला को भी पाठक नहीं मिले. शायद 100-150 से अधिक तो कतई नहीं। कुछ का प्रायः यह कहना होता कि पुस्तकें महँगी हैं इसलिए नहीं पढ़ पाते। अब उनकी यह शिकायत दूर करते हुए सभी खण्ड नेट पर मुफ्त में उपलब्ध करवा दिए गए हैं. जिसकी सूचना फेसबुक पर निरन्तर दी जा रही है/ दी जाती रहेगी। शायद इस प्रयास से श्रृंखला को अब कुछ पाठक मिल सकें तो मैं समझँगा कि मेरा श्रम सार्थक हुआ। नहीं तो फिर हमें यह मानना ही होगा कि हम एक भ्रम में ही जी रह हैं। हे प्रभु, यह सिर्फ मेरा भ्रम ही हो और यदि यही सच्चाई है तो फिर लघुकथाकारों का सही राह सुझा।


अब फिर से लघुकथा में प्रयोगधर्मिता और इस खण्ड की ओर लौटते हैं। यह तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि लघुकथा को पाठकों के मध्य बने रहने के लिए स्वयं को समय के अनुरूप बदलना होगा। 1876 की बिना लघुकथा शीर्षक की लघुकथा की बात हो या फिर आधुनिक लघुकथा के उत्थानकाल 1970 से बाद की लघुकथा, आज की लघुकथा उससे काफी बदल चुकी है और यह स्वाभाविक भी है। उस समय की और आज की समस्याओं और मानवीय आकाक्षाओं में बहुत अन्तर आ चुका है और साहित्य की वही विधा जीवित रहती है जो समय के साथ स्वयं को बदलती है। विधा में सामयिकता बनाए रखने के लिए उसमें प्रयोगधर्मिता का बहुत महत्त्व होता है। आज की समस्याओं को पाठकों के समक्ष यदि सही रूप में प्रस्तुत करना है तो उसे आज के कथ्य को उसके अनुसार शिल्प और शैली में प्रस्तुत करना होगा। 'लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु' के अपने आलेख में डॉ. उमेश महादोषी ने लघुकथा में प्रयोगधर्मिता पर विस्तृत रूप से चर्चा की है। उसको यहाँ और दोहराना बेमानी है क्योंकि पाठक उस आलेख को उस पुस्तक में पढ़ सकते हैं। मेरी लघुकथा 'नमिता सिंह' के चरित्र पर लिखते हुए भी उमेशजी ने इस लघुकथा के सन्दर्भ में लघुकथा की प्रयोगधर्मिता पर विस्तार से लिखा है जिसे पाठक 'मधुदीप की नमिता सिंह' (सम्पादक : मधुकान्त) में देख सकते हैं। लघुकथा में प्रयोगधर्मिता कोई नया अध्याय नहीं है। हाँ, प्रयोगधर्मी लघुकथाओं को लेकर अभी तक कोई लघुकथा-संग्रह या संकलन शायद प्रकाशित नहीं हुआ है। इस हिसाब से इसे इस क्षेत्र में पहला कदम कहा जा सकता है। 'पड़ाव और पड़ताल' के प्रस्तुत खण्ड-33 में इस श्रृंखला की परम्परा के अनुसार 66 लघुकथाएँ ही इस खण्ड में भी प्रस्तुत की जा रही हैं। ये सभी लघुकथाएँ लघुकथाकारों ने नए कथ्य कथानक, नए शिल्प-शैली में प्रस्तुत की हैं। इन लघुकथाकारों में वे भी हैं जो 1970 के दशक से इस क्षेत्र में हैं और वे भी हैं जिन्होंने इस शताब्दी में लघुकथा लिखनी शुरू की है। इस संकलन में सम्मिलित लघुकथाओं को देखकर मेरा यह मत बना है कि वरिष्ठों की अपेक्षा इस शताब्दी के समर्थ लघुकथाकार इस क्षेत्र में अधिक साहस के साथ प्रयोग कर रहे हैं और सफल प्रयोग कर रहे हैं। कई बार मुझे लगता है कि मेरी पीढ़ी के लघुकथाकारों को भी लघुकथा के क्षेत्र में कदमताल छोड़कर पाँव आगे बढ़ाने होंगे और मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई है कि उनमें से बहुतों ने इस खण्ड में जो लघुकथाएँ मुझे भेजी हैं उनमें गतिशीलता है। प्रयोगधर्मी लघुकथाओं को लेकर संकलन तैयार करने का यह प्रथम प्रयास है इसलिए कुछ कमियाँ भी इनमें आपको मिलेंगी लेकिन इतना अवश्य है कि इस संकलन से इस क्षेत्र में नई राहें खुलेंगी। प्रयोगधर्मिता लघुकथा - विधा को समकाल के साथ लेकर आएगी और पाठक इस विधा से और अधिक गहराई से जुड़ सकेगा। मेरा आपसे निवेदन है कि कमियों को नजर अन्दाज करके इस कार्य को आप सब आगे बढ़ाएँ। इन सभी लघुकथाओं की पड़ताल पूरी गहराई के साथ डॉ. पुरुषोत्तम दुबे ने की है। यह बहुत कठिन कार्य था और मुझे प्रसन्नता है कि उन्होंने पूरी मेहनत और ईमानदारी से इस कार्य को सम्पन्न किया है। वे स्वयं लघुकथा में प्रयोगधर्मिता के पक्षधर हैं और उनकी लघुकथाओं में हमें वह सब देखने को मिलता है जो आज की लघुकथा की आवश्यकता है। उन्होंने प्रयोगधर्मी शब्द की सही व्याख्या करते हुए इसे कविता में प्रयोगवाद की परम्परा से जोड़ा है। उनका भी मानना है कि किसी भी विधा में किए जाने वाले प्रयोग उस विधा को वर्तमान से तो जोड़ते ही हैं, उस विधा को आगे भी बढ़ाते हैं। उन्होंने अपने आलेख में प्रयोगधर्मी लघुकथा : नामकरण की सार्थकता के साथ ही प्रयोगधर्मी लघुकथा के सजातीय तत्त्वों के बारे में भी चर्चा की है।

आदरणीय दुबेजी ने सभी 66 लघुकथाओं के बारे में अलग-अलग और विस्तार से चर्चा की है। वह सब कुछ पाठक इस आलेख को पढ़कर खुद महसूस कर सकते हैं। मेरा उसके बारे में कुछ भी लिखना एक दोहराव के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। मेरा यह मानना है कि यह एक बहुत ही कठिन कार्य था जिसे उन्होंने बड़ी कुशलता से पूरा किया है। खण्ड-32 का सम्पादकीय लिखते समय मैंने यह महसूस किया था कि 'पड़ाव और पड़ताल' श्रृंखला में जिन साथियों का श्रम जुड़ा हुआ है, मुझे उनका तहेदिल से आभार करना चाहिए। जिस तरह सेना युद्ध लड़ती है और नाम उस सेना के कमाण्डर का होता है, उसी तरह इस श्रृंखला में 250 साथियों का श्रम जुड़ा हुआ है जिसे कि मधुदीप की श्रृंखला कहा जाता है। मैं इस खण्ड की पड़ताल के लिए भाई पुरुषोत्तम दुबे का आभार व्यक्त करते हुए एकबार फिर उन सभी साथियों को नमस्कार करता हूँ जो इसमें मेरे साथ जुड़े रहे हैं।

एकबार मैं फिर आप सबको यह बता देना चाहता हूँ कि इस श्रृंखला के सभी खण्ड नेट पर निःशुल्क उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। उन्हें पढ़ने और डाउनलोड करने का लिंक है : https://booksdisha.blogspost.com

शायद यह इस श्रृंखला का अन्तिम खण्ड हो, आगे तो सब प्रभु की इच्छा पर निर्भर करता लघुकथा-विषयक अन्य योजनाओं के माध्यम से आप सभी से लगातार भेंट तो होती ही रहेगी। आप सबके प्यार से मेरा मन अभिभूत है, यह प्यार बना रहे, प्रभु से यही कामना करता हूँ। आपकी सलाह और सुझाव हमेशा ही मेरे लिए महत्त्वपूर्ण रहे हैं, यह कहना भी अपनी बात को दोहराना ही होगा । अब आगे फिर किसी योजना के अन्तर्गत आपसे भेंट होगी, इसी आशा के साथ विदा लेता हूँ। प्रभु सब पर अपनी कृपा बनाए रखें।

मधुदीप 

138/16, ओंकारनगर-बी, त्रिनगर, दिल्ली-110035 

चल दूरभाष : 8130070928, 9312400709 E-mail : madhudeep01@gmail.com

(मधुदीप जी दिवंगत हैं और अब उनका संपर्क सूत्र इस पुस्तक के प्रकाशक ही हैं।)

प्रयोगधर्मी लघुकथा : क्यों, कब और कैसे?

इक्कीसवीं सदी अपनी शुरुआत से ही एक प्रकार से इक्कीसवीं सदी के रूप में जानी जाने लगी है। रेल यात्राओं के तारतम्य में यदि इस सदी का चेहरा देखें तो प्रायः रेलों से 'जनरल बोगिया' लुप्त हो गईं हैं। दूसरी तरफ हवाई यात्रा करनेवाले यात्रियों की संख्या बढ़ गई है। सिनेमा घर टूटकर मल्टीप्लैक्सों में तब्दील हो गए हैं। हर युवा की गोद में लेपटॉप आ चुका है। मैगी और पिज्जा जुबान का स्वर्गिक स्वाद बन चुके हैं। फैशन का फुगावा यहाँ तक बढ़ गया है कि अब फटी हुई जीन्स पहनने की अपसंस्कृति आज के पहरावे का कायदा बन चुकी है। एटीएम और पेटीएम की खिड़कियों से लेन-देन होने लगा है। ऑफलाइन सेमिनारों के स्थान पर ऑनलाइन वेबीनार आयोजन बढ़ गए हैं। इसके साथ ही वैश्विक बाजार ऑनलाइन के मुहाने पर खड़ा हो गया है। टेलीविजन पर वेब सीरीज का चलन निकल पड़ा है और होम थिएटरों का दौर चल रहा है।

अब सब कुछ वैश्विक हो गया है तो फिर कोरोना सरीखी वैश्विक बीमारी श्री अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों में बसे लोगों को जिन्दा निगल रही है। इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य भी दिन-ब-दिन बदलते जा रहे हैं। आम लोगों की धारणा से कर्तव्य - निर्वहन की बातें गायब होती जा रही हैं। बरअक्स इसके अधिकारों का व्यापक व्यापार चल निकला है। लोगों का मस्तिष्क हाईटेन्शन पॉवर की तरह काम कर रहा है। लोगों के बीच पारस्परिक संवादों के लहजे बदलने लगे हैं। अभिव्यंजना नयापन देखा जाने लगा है।

यन्त्रगत सुविधाओं के बढ़ने से साहित्य रचने की पैदावार भी खूब बढ़ रही है। कहीं से कविता खो रही है तो कहीं से उपन्यासों की आकारगत बृहत् सड़कें पतली गली होती जा रही हैं। अखबारी कागज पर फुलस्कैप कहानियों का अतिक्रमण खारिज हो रहा है। व्यंग्य लेखन की आत्माएँ पुनर्जन्म लेने की कतार में खड़ी मिल रही हैं। निबन्ध लेखन मैदान छोड़ चुका है। ओव्हर ऑल लघुकथा लेखन का रकबा हिन्दी और हिन्दीतर प्रान्तों की दूरियाँ पाट चुका है।

चलिए, यदि लघुकथा पर उसकी उत्पत्ति के संक्रमण बिन्दु से चर्चा न क समकालीन लघुकथा, जिसका कार्यक्रम 1970 से लेकर अद्यतन है, इन फ्लाम वर्षीय लघुकथा लेखन पर बात करें तो इन पचास वर्षों की समयावधि में स लेखन में शनैः-शनैः विकास की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर आता चला गया है। यह (लघुकथा अन्तर सृजनात्मक रूप से अधिक है।

यान्त्रिक सभ्यता के अभ्युदय से जहाँ औद्योगिक विकास का रूप मु हुआ, वहीं दुनियाभर के देशों में सामाजिक परिवर्तनों के चित्र उभरे। इन दो कारणों के चलते हुए मनुष्यों की जीवन शैलियों में एकरूपता के स्थान पर बहुरूपता दृष्टिगोचर होने लगी। इससे मानव समुदाय वैचारिक ऐक्य की तुलना में वैचारिक विभेद के रूप में विभाजित हो चुका है। जब मानवीय प्रवृत्तियाँ बदली तो उसके अभिलेखन में रचनाओं के स्वरूपों में भी अन्तर देखने में आने लगा। लघुकथा की रचनावस्था में भी एक अलग तरह का बदलाव उपस्थित हुआ। फलस्वरूप लघुकथा की रचनात्मकता में नए भाव बोधों, संवेदनाओं और उन्हें प्रेषित करनेवाले शिल्पगत चमत्कारों के नए रूप उभरकर आए, जिससे लघुकथा अपने रचनात्मक कलेवर से प्रयोगधर्मी कहलाने लगी।

प्रयोगधर्मी लघुकथा : नामकरण की सार्थकता 

साहित्य में दो विभिन्न विधा कभी भी एक नाम से जानी नहीं गई। सन्

1943 से कविताओं के लिए 'प्रयोगवाद' शब्द रूढ़ होकर सामने आ चुका अतएव लघुकथा को प्रयोगवादी लघुकथा कहना प्रयोगवादी काव्यधारा के अस्तित्व पर अतिक्रमण करने जैसा अनुकरणात्मक कार्य होगा। जहाँ तक प्रयोग के सवाल हैं, प्रयोग हर युग में होते आए हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं के रचनात्मक विकास के पीछे समय-समय पर उन विधाओं में नए बोधों, संवेदनाओं और उनको प्रेषित करनेवाले शिल्पगत चमत्कारों ने ही विधाओं के विकासात्मक अभिलेखन के लिए नई जमीन तोड़ी है। नए-नए कलात्मक प्रयोगों के कारण ही कविता को प्रयोगवादी कविता कहा गया है। प्रयोग का सीधा अर्थ है 'नई दिशा में अनुसन्धान का प्रयास।' यदि साहित्य में ऐसा कुछ चल रहा है अथवा घट रहा है जिसमें युग सापेक्ष चेतना को अभिलिखित नहीं किया जा रहा है, तो ऐसे साहित्य के विरोध में प्रतिक्रियास्वरूप जो भी सम्प्रेषण सामने आएगा वह प्रयोग होगा।

इसी प्रकार लघुकथा के पारम्परिक लेखन की प्रतिक्रियास्वरूप लघुकथा क्षेत्र में सृजनरत लघुकथाकारों में वस्तुगत, मूर्त और ऐन्द्रिय चेतना का विकास हुआ के जिस कारण लघुकथा के पारम्परिक लेखन का उत्खनन हुआ जिससे लघुकथा की कोख में विधा के विकास के जो शक्तिकण छुपे हुए थे उन्हीं को आधार बनाकर समाज में नई चेतना के परिपोषण में लघुकथा की जमीन पर भी प्रयोग के परिशिष्ट घुलने लगे। प्रवृत्तियों के आधार पर ऐसी नवीन चेतना सम्पन्न लघुकथाओं को नाम समाज मिला, 'प्रयोगधर्मी लघुकथा ।' ज्ञान की सार्थकता उसके प्रयोग से है। लघुकथाकार जितना प्रयोगधर्मी होगा उतने ही नए निष्कर्ष प्रस्तुत करेगा जो समाज, राष्ट्र और विश्व के व्यापक हित में सहायक सिद्ध होंगे।

प्रयोगधर्मी लघुकथा के सजातीय तत्त्व

●बौद्धिकता के आग्रह पर अनुभूति और वास्तविकता के तालमेल का अभिव्यंजन।

● अभिमतों एवं विचारधाराओं का खण्ड । 

● अनवरत रूप में प्रयोगशील अभिलेख ।

● अन्वेषी रूप में नए-नए पदों का अन्वेषण।

● अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का साहस । 

● भाषा एवं शिल्पगत प्रयोगों की जिज्ञासा। 

प्रयोगवादी कवियों की तरह प्रयोगधर्मी लघुकथाकारों के लिए भी प्रयोग उनका साध्य अथवा इष्ट नहीं होना चाहिए वरन् प्रयोगधर्मी लघुकथा के माध्यम से लघुकथाकार को जो भी नवीन सत्य की उपलब्धि होती है, उस उपलब्धि को समष्टि तक पहुँचाने का लक्ष्य प्रयोगधर्मी लघुकथाकारों का होना चाहिए।

प्रयोगधर्मी लघुकथा के अन्वेषी लघुकथाकार 

काव्य-रचना के क्षेत्र में प्रयोगवाद का आगमन हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि अज्ञेय की झण्डाबरदारी में हुआ, जबकि प्रयोगधर्मी लघुकथा किसी एक के नेतृत्व में न लिखी जाकर विभिन्न लघुकथाकारों की स्वानुभूतियों के परिणामस्वरूप पटल पर अवतरित हुई है। हम कह सकते हैं कि परम्परागत लघुकथाओं की कोख से प्रयोगधर्मी लघुकथा का जन्म हुआ है। वस्तुतः प्रयोगधर्मी लघुकथाओं की सृजन-प्रवृत्तियाँ बदलते हुए सामाजिक मूल्यों, आम मनुष्यों की धारणाओं में उत्पन्न वैचारिक मूल्यों और वैश्विक सभ्यता से प्रभावित सांस्कृतिक मूल्यों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई हैं। यानी प्रयोगधर्मी लघुकथा का आन्दोलन लघुकथाकारों द्वारा लघुकथा के विका के हित में चलाया हुआ आन्दोलन है। देश के अनेक प्रान्त जिनमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त अमेरिका के लघुकथाकार अनुराग शर्मा सहित छियासठ लघुकथाकार प्रयोगधर्मी लघुकथा के लेखन पटल पर अवतरित हुए, जिनके नाम निम्नानुसार हैं-

अनघा जोगलेकर, अनिल शूर आजाद, अनुराग शर्मा, अर्चना राय, अशोक यादव,  अशोक वर्मा, अश्विनी कुमार, अलोक, आशा भाटी, उपमा शर्मा, उमेश महादोषी, कनक हरलालका, कमल चोपड़ा कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कुँवर प्रेमिल, कुमारसम्भव जोशी, कृष्णचन्द्र महादेविया, जगदीश राय कुलरियाँ, जसवीर चावला, जानकी बिष्ट वाही, ज्योत्स्ना कपिल, दिव्या राकेश शर्मा, ध्रुव कुमार, पवन शर्मा, पुरुषोत्तम दुबे, पुष्पराज चसवाल, प्रबोध कुमार गोविल, बलराम अग्रवाल भगीरथ परिहार, भारती कुमारी, मधुकान्त, मधुदीप, माधव नागदा, मुकेश शर्मा मृणाल आशुतोष, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रजनीश दीक्षित, रवि प्रभाकर राधेश्याम भारतीय, रामेश्वर काम्बोज, हिमांशु, रूप देवगुण, लक्ष्मी मित्तल, अग्रवाल, वन्दना गुप्ता, वन्दना पाण्डेय, विभारानी श्रीवास्तव, वीरेन्द्र वीर महत शील कौशिक, शोभना श्याम, श्यामसुन्दर दीप्ति, श्रुतकीर्ति अग्रवाल, संजीव आहूजा, सतीशराज पुष्करणा, सतीश राठी, सत्या शर्मा कीर्ति, सन्तोष सुपेकर, सन्ध्या तिवारी, सविता इन्द्र गुप्ता, सविता मिश्रा, सीमा व्यास, सीमा सिंह, सुके साहनी, सूर्यकान्त नागर, स्नेह गोस्वामी और हरनाम शर्मा ।

सुगन्ध को पाकर जैसे बागीचे के समीप से निकलनेवाला राहगीर समझ जाता है कि बागीचे में फूल खिल रहे हैं, ठीक इसी प्रकार लघुकथा-लेखन कार्य में सदा-सर्वदा बने रहनेवाला लघुकथाकार समय-समय पर लघुकथा-लेखन में आनेवाले हर परिवर्तन से जुड़कर उसका स्वागत करते हुए, परिवर्तन की दस्तक पाकर स्वयं भी उसी आवाज की लघुकथा लिखने में तत्पर हो उठता है। इसी सन्दर्भ को लेकर भारत के हिन्दी और हिन्दीतर प्रान्तों के दृष्टिसम्पन्न लघुकथाकारों ने अपने आस-पास के सृजन-परिवेश से प्रयोगधर्मी लघुकथा के प्रचलन में आन की अनुगूँज सुनी और आगे होकर वे प्रयोगधर्मी लघुकथा लिखने में उद्यत हुए।

बड़ी बात यह नहीं, इससे भी बड़ी बात यह है कि देश में बिखरे हुए इन तमाम प्रयोगधर्मी लघुकथाकारों को एक प्लेटफॉर्म प्रदान करना। जब तक प्रयोगधर्मा लघुकथाकारों का जमावड़ा एक जिल्द में नहीं होगा, तब तक प्रयोगधर्मी लघुकथा की स्थायी पहचान न बन सकेगी। इस दिशा में दिशा प्रकाशन दिल्ली के संस्थापक-प्रकाशक मधुदीप सामने आए और उन्होंने प्रयोगधर्मी लघुकथाकारों को एकजुट में प्रस्तुत करने का दुष्कर बीड़ा उठाना मंजूर किया और 'पड़ाव और पड़ताल' खण्ड-33 के रूप में प्रयोगधर्मी लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित करने का लक्ष्य बनाया। 

प्रयोगधर्मी लघुकथा का अवदान अर्थात् शक्तिबल 

मधुदीप द्वारा सम्पादित प्रयोगधर्मी लघुकथाओं का यह संग्रह हिन्दी लघुकथा के विकास में ऐतिहासिक महत्त्व तथा योगदान के रूप में बहुमूल्य संग्रह सिद्ध होगा। इसके अलावा वर्तमान में निरर्थक लघुकथाओं की जो अविचारणीय आमद बहुसंख्यक रूप में हो रही है इस दिशा में भी प्रस्तुत लघुकथा-संग्रह, संग्रहीत लघुकथाओं के आधार से उम्दा, बेहतर, अर्थवान लघुकथा-लेखन के तारतम्य में अपनी जरूरी भूमिका का निर्वहन भी करेगा।

प्रस्तुत संग्रह में प्रकाशित प्रयोगधर्मी लघुकथाओं की पड़ताल के अर्थ में समीक्षा का औचित्य न केवल प्रयोगधर्मी लघुकथाओं का मापदण्ड तय करेगा प्रत्युत उन बिन्दुओं पर अधिकतम प्रकाश भी डालेगा जिनका आधार ग्रहण कर लघुकथा के जिज्ञासु सृजक अपनी लघुकथाओं को प्रयोग की भट्ठी में तपाकर दोषरहित रूप में प्रस्तुत कर सकेंगे। •

                                        डॉ. पुरुषोत्तम दुबे 

                                          94071 86940

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