रोटी का सफर (2023) / श्याम सुन्दर दीप्ति (डाॅ.)

लघुकथा-संग्रह  : रोटी का सफर 

कथाकार  :  श्याम सुन्दर  दीप्ति (डाॅ.)

© लेखक

पहली बार : 2023

सहयोग राशि : ₹100/-

प्रकाशक : प्रेरणा प्रकाशन, अमृतसर। 

फोन : 98159 26489

मुद्रक : मंज़िला प्रिट पैक, अमृतसर 

अनुक्रम

मैं लघुकथा पर काम करता हूँ / श्याम सुन्दर  दीप्ति

तेवर की तस्वीर

(लघुकथा की प्रयोगात्मक प्रस्तुति)

1. सुबह का इन्तजार

2. चौराहे पर

3. मील पत्थर

4. मौन का एक वार्तालाप

5. तलाश

6. नर्सिंग होम का दर्द

7. असली दुश्मन

8. बहती सड़क 

9. बार्डर अन्दर बार्डर

10. अचानक

11. धन्यवाद

12. प्रशंसा

13. कविता का चेहरा

14. खुशगवार मौसम

15. बड़ा दिन

16. 'अ' और 'इ' की दास्तान

17. स्वागत

18. सपने की तस्वीर

19. सिर पर चेहरा

20. आपने आप से परे

21. ऐलान

22. शवगृह से

तस्वीर के तेवर

(लघुकथा के नए प्रसंग)

1. सामना

2. सलीका

3. खेल

4. पहली बार

5. रोटी का सफर

6. स्वर्ग का बोझ

7. मां और कोयल

8. राहत

9. पार्क

10. बिखरी गठरी

11. बिजूका

12. तमन्ना

13. शीशा

14. रिश्तों की महक

15. दीक्षा

16. एक जैसे दो कप

17. शार्पनर

18. जवाब

19. नाइटी

20. दर्द काल

मैं लघुकथा पर काम करता हूँ!

डाॅ. श्याम सुन्दर दीप्ति

मैं क्या लिखता हूँ या कैसे लिखता हूँ, इससे अधिक जरूरी है कि मैं इस पर बात करूँ कि मैं क्यों लिखता हूँ? मैं लिखने के लिए प्लाट (कथानक) या साधारण शब्दों में कहूँ कि सामग्री या लिखने योग्य घटना कहाँ से लेता हूँ, कैसे चुनाव करता हूँ। प्रत्येक व्यक्ति जो समाज में रहता है, देखता है तो उसके लिए प्लाट हर तरफ ही हैं। यह बात अलग है कि कोई मौखिक रूप में, आपसी बातचीत के जरिये, उसे सुनाते हैं और कुछ कलमबद्ध करके शब्दों में ढाल कर। वह फिर कविता बने अथवा लघुकथा या कोई आलेख आदि।

पर यहाँ भी एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि क्या प्रत्येक घटना ध्यान देने के काबिल है? मान लिया, घटना मिली, सुनी, देखी। उसने दिल को द्रवित किया, झंझोड़ा। पर उस पर काम करने या शाब्दिक रूप देने से पहले मैं सोचता हूँ कि क्या इसे ब्यान करना जरूरी है? अगर है तो क्यों? फिर यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि क्या इससे सचमुच किसी को फायदा होगा? या दूसरों शब्दों में कहूँ कि अगर यह सत्य, बातचीत, घटना को सांझा न किया तो यह एक कोताही होगी। दूसरा प्रश्न उठता है कि , क्या किसी द्वारा इस विषय/घटना को सांझा पहले भी किया गया है, तो मेरा मन फिर भी क्यों करता है कि मैं लिखूं। क्या वह वक्त अलग था, क्या वह बहुत पहले की बात थी? क्या कुछ नए तथ्य सामने आ गए हैं या इस बात को बार-बार दोहराया जाना जरूरी है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि वे सारे पक्ष अचेत-सचेत मेरे मन में आते हैं, जब कोई घटना मुझे झिंझोड़ती है और मेरी कलम को झुंझलाहट होती है कि लिखो इस को।

यहाँ लघुकथा को लेकर, रचना प्रक्रिया की बात करते हैं। वैसे मुझे अन्य विधा के लेखकों को यह बताते या कहते हुए अजीब लगता है कि मैं आजकल लघुकथा पर काम कर रहा हूँ, मजाक-सा लगता है। जैसा कि एक प्रभाव है कि कोई बात सुनी, केाई ख्याल आया और लिख दिया।

कहने का भाव है कि लघुकथा लेखन पर कोई मेहनत नहीं होती। यह सच है कि लघुकथा लेखक की किसी रचना को लेकर टिपण्णी करो तो बड़े गर्व से कहेंगे कि यह मेरे सामने घटी, मुझे हूबहू किसी ने सुनाई मतलब मैंने इस में कुछ नहीं जोड़ा- घटाया।

यह बात सही भी है कि लघुकथा विधा के आरम्भिक दौर में, लगभग सौ साल, हिन्दी में और 50 वर्ष पंजाबी मिन्नी कहानी में, ऐसी ही हल्की फुल्की रचनाएँ लिखी गईं, जिन्हें पढ़कर लगता था कि ऐसा कुछ तो मैं भी लिख सकता हूँ और लिखा भी गया। मैंने कविता लिखने से शुरुआत की और फिर कहानी की तरफ आ गया। कहानी लिखते-लिखते लघुकथा (मिन्नी कहानी) की तरफ मुड़ा, जब कि कई लेखक लघुकथा से कहानी लिखने की तरफ हुए और फिर लघुकथा से मुँह मोड़ लिया और कभी भी अपने लघुकथा से सम्बन्धों का जिक्र नहीं किया।

साहित्य के साथ जुड़ना, एक लगाव व जीवन का एक अहम अंग बना लेना एक प्रक्रिया है, जो चढ़ती जवानी में शुरू हुई और फिर धीरे-धीरे  साहित्य को सामाजिक सरोकार समझ आगे बढ़ती जा रही है। यह बात मैंने अनुभव की है कि मैंने जब भी, जिस किसी विधा की किताब पढ़ी, जिस भी विधा के लेखकों की महफिल में बैठा, मैं उस विधा में लिखने को उकसाया जाता हूँ। आज भी कविता की किताब पढ़ते मन में चल रहे किसी विचार को काव्य रूप मिल ही जाता है। स्कूल के शुरूआती दिनों में जब गर्मी-सर्दी की छुट्टियाँ मिलतीं तो किताबों से जुड़ना शुरू होने पर बाजार से किराये की पुस्तकें लेकर पढ़ता। याद है, गुलशन नंदा के उपन्यास। एक दिन में एक उपन्यास पढ़ जाता। पर वह बाजारू-किस्म का साहित्य था। उन उपन्यासों को पढ़ते जब काॅलेज में दाखिल हुआ, मन में एक उपन्यास लिखने की योजना भी बनी।

इस तरह की साहित्य के प्रति प्रवृत्ति के तहत कहानी, लघुकथा, कविता, नाटक भी लिखे, चाहे आलेख लिखने का सिलसिला हमेशा जारी रहा। लिखा चाहे जो भी है, परन्तु नज़रिया हमेशा सामाजिक सरोकार ही रहा है। मैं खुद को एक विधा के दायरे तक सीमित नहीं रख सका। मुझे एक शायर मिला, बातों बातों में उसने कहा कि वह सिर्फ गजलें लिखता है व गजलों से सम्बन्धित किताबें/साहित्य पढ़ता है। कविता भी नहीं छूता, खुली कविता। यह हिदायत उसे उसके गुरु से मिली है। खैर! मुझे ऐसा गुरु/मैंटर नहीं मिला।

बात कर रहे थे, लघुकथा की रचना प्रक्रिया की। पहली लघुकथा, मुझे उस की दिशा कहानी से ही मिली। मुझे किसी ने एक घटना सुनाई। मैं तब तक दो-तीन कहानियाँ लिख चुका था। मैंने उस घटना से कहानी लिखने की योजना बनाई। स्कूल के बच्चों का टूर था। थर्मल प्लांट देखने जाना था। वहाँ झील भी है। मैं बना रहा था, बस चलेगी, बच्चे बस में अंताक्षरी खेलेंगे, गाएँगे, शोर करेंगे। अध्यापक कुछ बोलेगा आदि।

वहाँ बोटिंग का दृश्य होगा। वहाँ एक बच्चे की घड़ी रह जाएगी। वह बच्चा स्कूल के प्राध्यापक का बेटा है। उसे ढूंढने की प्रक्रिया शुरू होगी। घड़ी ढूंढते-ढूंढते वह बोटिंग वाले भइया के पास जाएँगे। उसकी कलाई पर घड़ी है। अध्यापक रौब डालेगा। कहेगा, हमारे पास समय कम है, वर्ना तुझे पुलिस के हवाले किया होता। तुम्हारी किस्मत अच्छी है।

किश्ती वाले ने सहज ही जवाब दिया, ‘किस्मत कहाँ अच्छी है सा’ब। किस्मत अच्छी होती तो यह घड़ी मेरी कलाई पर ही रहती।‘

मेरे मन में कहानी बन रही थी तो उन्हीं दिनों पटियाले के कुछ दोस्तों से मिलकर एक पत्रिका का लघुकथा विशेषांक निकालने की सोची। एक हजार रचनाओं में से गुजरने के बाद सौ रचनाओं की पत्रिका छापी। पर एक बार जो उस कहानी बन रही घटना को देखा तो अहसास हुआ कि कहानी तो दो अन्तिम पंक्तियाँ ही हैं। सारा संदेश, रचना का अभिप्राय तो वहाँ सिमटा है, फिर बेमतलब का विस्तार क्यों?

इसके बाद मेरा झुकाव लघुकथा की तरफ हो गया। इस घटना को लिखने के बारे में जो बात सोच में उभरी, वह अब भी कही जाती है। लघुकथा लेखक मेहनत करने से कतराते हैं। रचना पर काम नहीं करना चाहते। एकदम लिखकर नाम बनाने, लेखकों की सूची में नाम दर्ज करवाना चाहते हैं! मैं अपने लेखन को लेकर कह सकता हूँ कि मैंने अपनी सभी रचनाओं को एक ही बार में लिखकर छपने का मोह नहीं किया है, लखा है, शोध भी किया है, पढ़ा है, बार-बार पढ़ाया भी है, उसे अंतिम रूप देने से पहले।

लघुकथा लिखने की प्रक्रिया के इस सफर में, इस प्रक्रिया का एक अन्य उदाहरण देता हूँ। शुरूआती दिनों में मेरी एक लघुकथा काफी सराही गई और बार-बार छपी, अनुवाद भी हुई। सबसे छोटी व प्रभावी लघुकथा के हिन्दी लघुकथा साहित्य में स्थान पाया। पचास शब्दों से भी कम।

सीमा

एक अदालत में मुकदमा आया।

‘‘यह पाकिस्तानी है, साहब। अपने देश की सीमा पार करता हुआ पकड़ा गया है।’’

‘‘तुम्हें इस आरोप के बारे में कुछ कहना है?’’ मजिस्ट्रेट ने पूछा।

‘‘मुझे क्या कहना है जनाब? मैं खेत में पानी लगाकर बैठा था। मुझे किसी की सुरीली आवाज में ‘हीर’ के बोल सुनाई दिए। मैं उस आवाज को सुनता चला आया। मुझे तो कोई सीमा नज़र नहीं आई।’’


आपसी चर्चाओं में हिन्दी की लघुकथाएँ पढ़ते, सेमिनारों का हिस्सा बनते, लगातार जुड़े रहने के कारण लघुकथा के लघुतम रूप से गुजरते, गवाह बनते, अपनी लघुकथाओं के रूपक पक्ष में बदलाव को देखा। जब लघुकथा के प्रति समझ कुछ अधिक स्पष्ट हुई और एक आलोचक ने भी कहा कि यह लघुकथा कथारस से भरपूर नहीं है, इसे कुछ विस्तार दें? विस्तार के बाद इसका जो रूप बना।

सीमा

लियाकत अली भट्टी को अदालत में पेश होने के लिए ले जाया जा रहा था। कुछ दिन पहले ही इसे सरहद लांघते हुए हिरासत में लिया गया था। लियाकत अली सोचता जा रहा था कि आखिर उसे क्यों पकड़ा है? उसका दोष क्या है? मैंने क्या गुनाह किया है? दो दिन से कोई उसकी बात ही नहीं सुन रहा था। खुसर-फुसर से लगता था कि उसको पाकिस्तान का जासूस समझा जा रहा है या तस्करी करने वाला।

यह अदालत क्या मेरी बात सुनेगी? क्या यह मेरी बात पर यकीन करेंगे? इन विचारों की कशमकश में ही उसने अपने आपको मजिस्ट्रेट के सामने खड़ा पाया।

मुकदमा शुरू हुआ। वकील कह रहा था, ‘‘साहब, यह पाकिस्तानी है, हमारे देश की हद के अन्दर पकड़ा गया है।’’ लियाकत अली भट्टी को समझ नहीं आई, जब उसने वकील को यह कहते हुए सुना कि इस कौम पर विश्वास करना मुश्किल है। इसके लिए किसी भी तरह की ढील देश के लिए खतरे से खाली नहीं है....’’

.... कौम! मैं खुद पंजाबी, मेरी कौमियत पंजाबी, पंजाब ही है।’’ 

जब लियाकत अली मुंह में धीरे-धीरे बुदबुदाया तो मजिस्ट्रेट ने कहा, ”हाँ बोल, तूने क्या कहना है? है कोई जबाब तेरे पास?’’

”मैंने क्या कहना है जनाब। मैं तो कह रहा था कि मैं तो खुद पंजाबी हूँ। आपकी तरह पंजाबी बोलता हूँ। बाबा बुलेशाह वारिस और ... और मैं कोई, मैं कोई जासूस नहीं, कोई स्मगलर नहीं, मेरा यकीन करो। मेरे पर भरोसा करो।’’ लियाकत सहमा-सा डर-डर कर बोला।

‘‘पर यह भी तो सच है ना, तू मुल्क की सरहद पार कर इधर पकड़ा गया है।’’ मजिस्ट्रेट ने अपना पक्ष रखा।

‘‘सरकार! मैं तो अपने खेतों में पानी लगा रहा था। ‘हीर’ गाने के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नज़र नहीं आई। सचमुच में कोई हद नज़र नहीं आई।’’ कहते हुए उसका गला भर आया।  

कहा जाता है कि कोई भी घटना अपना रूप साथ लेकर आती है। मैं समझता हूँ कि रूप के बारे में ज्ञान हो, उस रूप को लेकर तजुर्बे करने की हिम्मत हो तो फिर घटना भी उसी तरह की मिल जाती है या ढूंढ ली जाती है।

मैंने एक रचना ‘डायरी‘ के लहजे में लिखी। जून की 7 तारीख और फिर अन्य दिन व 23 अक्तूबर को खत्म होती है। ‘खुशगवार मौसम’- यह कुछ हट कर इसलिए बनी कि लघुकथा को जब एक पल की रचना कह कर प्रचार किया जाता है तो रचनाओं में कालदोष का पहलू उभरा। जन्म से जवानी, विवाह, बच्चे, बुढापा। बच्चों ने संभाला नहीं तो मौत। यह एक लम्बी कहानी या उपन्यास का संक्षिप्त लगी। कालदोष कह कर ऐसी रचना को नकारा गया। इस रचना में अलग-अलग तारीखें हैं, कालदोष नज़र आता है, पर घटना इकहरी है। एक ही धरातल पर, एक ही घटना को आगे लेकर चलती है। 

लघुकथा, कहानी, कथा-विधा उपन्यास के बारे में जब बात होती है तो लघुकथा को एक भी शब्द अधिक न बर्दाश्त करने वाली कहा जाता है। सोचता था कि कहानी को भी कहाँ छूट है या उपन्यास को भी। क्या यह सम्भव है कि आप उपन्यास के पन्द्रह बीस पन्ने छोड़ कर पढ़ो और कथा का फर्क ही महसूस ना हो। इस का अर्थ स्पष्ट है कि वह रचना कमज़ोर है। सवाल है विधा के अपने गुणों का, बनावट का ना कि फालतू जो मर्जी ब्यान कर देने का। 

‘सीमा’ को पुनः लिख कर महसूस किया कि लघुकथा आकार में लघु भी हो और उसमें कथारस भी हो। कहने का भाव, बात को स्पष्टता से पेश करने के लिए जरूरी विस्तार चाहिए। इस तरह रचना प्रक्रिया को संजीदगी से पढ़ते-समझते महीना दर महीना, साल दर साल, जहाँ हर विधा को पढ़ा, वहीं साथ में विज्ञान का दामन थामा व मनोविज्ञान का भी।

एक लघुकथा की रचना प्रक्रिया के माध्यम से समझते है। ‘एक रचना मुझे हूबहू या कहें, इस का गठित घटना क्रम भी नहीं मिला।

बात करते है रचना के नाम से, नाम है ‘पहली बार‘- रचना की शुरूआत भी इस तरह हुई कि हमारे घर मेड है, बीस-एक वर्ष की होगी। उस के घर वाले उसके विवाह की चिन्ता में हैं, निश्चित ही उम्र की मांग है, घरवालों की जिम्मेवारी भी है। वह कई वर्षाें से काम कर रही है। पहले उस की माँ आती थी। एक दिन मिसेज ने बताया कि उसे माहवारी के दिनों में इतना अधिक दर्द होता है कि उसे चारपाई पर ही रहना पड़ता है, उठ ही नहीं सकती।

मेरे दिमाग में एकदम ख्याल आया कि अगर उसी दिन उस का विवाह हो तो? इस सवाल से जुड़ा एक सच यह भी दिमाग में था कि कई मर्द इन दिनों में भी अपनी पत्नी को सम्भोग के लिए कहते हैं, जो कि मुझे पता था जब मैं गायनी में काम कर रहा था। औरत मानसिकता को बहुत मर्द लापरवाही से लेते हैं। यह भी सच है कि औरतों को अपनी माहवारी के चक्र का अंदाजा होता है। पर हमारे समाज में विवाह की तारीख पंडित आदि तय करते हैं और नारी आवाज पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस सभी पक्षों को विचारते हुए, रचना लिखी गई।

पहली बार...

आज उसकी पीठ में दर्द था। विवाह की रस्में भी उसने दो गोलियां खा कर पूरी की थी। यह उसकी रूटीन थी, महीनावार समस्या, जब वह दो-तीन दिन के लिए निढ़ाल हो जाती। एक डेढ़ दिन तो बिस्तर ही पकड़ती।

उसने विवाह की तारीख तय होने पर, अनुमान लगा लिया था कि यह दिन ठीक नहीं हैं। उसने मां से तारीख बदलने को कहा भी था।

मां उसके दर्द को जानती थी। पर रिम्पी के पिता को समझाना मुश्किल था। दूसरी बात, तारीख तो पंडित जी ने निकाली थी। यूं दो तारीखें सुझाई गई थी। रिम्पी ने दूसरी तारीख की बात की तो वह लड़के वालों को सूट न की। अब लड़के वालों को क्या बताएं।

रिम्पी का डर बढ़ रहा था व दर्द भी। उसका मन कर रहा था कि कोई दर्द की एक गोली ला दे। पर यहां ऐसा कौन करेगा? वह तो सुबह से घिरी हुई है और अब अकेली कमरे में रमेश का इन्तजार कर रही थी। 

रमेश अन्दर आ गया था और वह दर्द से सिमटी जा रही थी। रमेश बेड पर आ, उसके नजदीक होने लगा।

रिम्पी ने हिम्मत जुटाते हुए कहा ‘‘आज मेरे करीब मत आना, मैं आज ठीक नहीं हूं।’’

‘‘क्या बात! इस दिन के लिए तो....’’ रमेश ने उसके इकट्ठे  हुए घुटनों पर हाथ रखते कहा।

‘‘नहीं । आज मैं छूने लायक नहीं हूँ।’’ रिम्पी दर्द से इतना ही कह सकी।

रमेश को इस का भाव समझ में आ गया। रमेश ने उसके चेहरे को ठोड़ी से सीधा करते हुए कहा, ‘‘तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो।’’

फर उसके चेहरे पर नज़र टिकाए कहने लगा, ‘‘दरअसल, रिम्पी मैं भी यही सोच कर आया था। तुम्हें बताऊं, दोस्तों ने दो पेग लगवा दिए। मैंने मना भी की कि आज नहीं। पता है आगे क्या कहते। हंसने लगे और मज़ाक करते, आज ही तो जरूरत...।’’

रिम्पी को थोड़ा आराम महसूस हुआ और रमेश जूते कपड़े उतारते रुक गया और कहने लगा, ‘‘चल बाहर छत पर चलते हैं। वहां चांद तारों की छाँव में बातें करेंगे।’’

बाहर चांद पूरे यौवन पर था। रमेश बोला, ‘‘मैंने बहुत दिनों के बाद पूरा चांद देखा है।’’

रिम्पी रमेश के चेहरे की तरफ देखती बोली, ‘‘मैंने तो पहली बार देखा है।’’

औरत-मर्द के सम्बन्धों को लेकर कई तरह की रचनाएँ मिलती हैं। सेक्स या शारीरिक प्रणाली की, आपसी मेल-मिलाप की जरूरत आदि की प्रकृति को सभी जानते हैं। फिर हम रिश्तों को सामाजिक और पारिवारिक में भी बांटते हैं। हम विवाह के सम्बंधों को बनाते वक्त, रिश्ते तय करते वक्त कई पक्षों का निरीक्षण करते हैं। हमारे समाज में सेक्स वर्जित विषय है। एक लघुकथा है ‘नाईटी’। माँ-बेटी हैं घर में। माँ के किसी दोस्त के साथ सम्बन्ध हैं, पति है नहीं। बेटी कालेज में पढ़ती है। बेटी को उस अंकल का घर आने जाने के बारे में पता है। यह भी पता है कि वह कभी-कभी रात को भी ठहरता है। वह रिश्ते को समझती है, माँ की इच्छाओं का सम्मान करती है, न कि नफरत। वह इस सम्बन्ध में बाधा नहीं बनती, बल्कि एक दोस्त की तरह स्वीकार करती है।

लघुकथा का किसी रचना, घटना और विचार से आपसी तालमेल से सृजन होता है। घटना मिलती है तो उस पर विचार शामिल कर के उसका निर्माण होता है। दूसरा है, कई बार विचार होता है तो फिर घटना ढूंढ ली जाती है, जोकि दिमाग के किसी कोने में पड़ी हुई होती है या घटना घड़ी भी जा सकती है, क्यों कि जो हम समाज को जानते हैं, उस में रहते है। इसी समझ के तहत, एक खबर को आधार बना कर लघुकथा लिखी। खबर थी कि एक सर्वेक्षण में पता चला कि बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों में कामकाजी महिलाओं के साथ सेक्स सम्बन्धों, छेडछाड का प्रचलन बढ़ रहा है। रचना लिखी ‘स्वागत‘।

घटना पहले या विचार। चाहिए दोनों ही। घटना मिली, उसे इस तरह निर्मित किया कि विचार स्पष्ट हो जाए या विचार आया, जैसे कई बार किसी विषय को लेकर रचना लिखने का आग्रह होता है, खुद को कई बार मन करता है। जैसे कन्या भ्रूण हत्या और अब किसान अंदोलन। सवाल है कि कौन सा पक्ष उभारा जाए। जैसे कन्या भ्रूण हत्या में, क्या औरत दोषी है, औरत-औरत की दुश्मन है या मर्द समाज, पितृसत्ता। किसानों को लेकर माहौल, मीडिया, सरकारी पक्ष, किसानों का पक्ष, कानूनों का खाका शब्द-शब्द पढ़े होना, किसानों से जुड़ी जमीनी हकीकत, यह सब जानना महत्त्वपूर्ण है, तभी ही कहा जा सकेगा कि मैं एक लघुकथा पर काम कर रहा हूँ।

जब बात सहजता की करनी है, सम्भव व सम्भावना के पक्ष से विचार करना है तो पात्र की सृजना, विचारों की पेशकश और फिर उनकी तरतीब, घटना क्रम भी महत्त्वपूर्ण है। सम्भावना की बात करें तो यह न लगे कि ऐसा होता नहीं, यह रचना सामाजिक सच से मेल नहीं खा रही। एक दब्बू औरत, किसी एक व्यक्ति के आकर समझाने भर से, उकसाने से शेरनी नहीं बन सकती। रचना में चरित्र निर्माण अैेर बदलाव आने को समय देना जरूरी है, पर असम्भव बदलाव को देखकर पाठक इस तरह नहीं समझता। पाठक को हिम्मत मिले, वह उदास-निराश स्थिति से बाहर निकलने की सोचे, वह एक कदम ही उठाए, एक सार्थक संदेश हो।

एक नए विषय को लेकर मेरी रचना है ‘जवाब’। रचना है कि एक परिवार में बहू गर्भवती है। उसकी सास नहीं है। पति व ससुर। लड़की की माँ, डिलीवरी अपने घर करवाना चाहती है। लगभग महीना भर तो बहू रहेगी। बहू की मां को आग्रह किया जाता है कि बेटी की बजाए वह आ जाए। अब घर में दो बुजुर्ग हैं। रोज मिलते, बातें करते, चाय पीते, खुश रहते। समय बीतने के बाद, लड़की के भाई का फोन आता है कि कोई छोड़ जाएगा या मैं आऊँ। बहू ससुर से कहती है तो वह कहता है कि यह रहे, इसकी बेटी का घर है। सारा विचार विमर्श होने के बाद, बेटे को माँ फोन पर कहती है, मैं अभी कुछ दिन नहीं आ सकती। वैसे दोनों ही वृद्ध हैं, चाहते हैं, यथास्थिति बनी रहे। यह अपवाद नहीं है। यह एक अलग नज़रिया है। यह विस्फोटक स्थिति भी नहीं, जिसे मैं तो यूँ भी पसंद नहीं करता। एक अलग, परन्तु सहज अन्त है।

रचना में लेखक की मौजूदगी न हो। भाव यूँ ना लगे कि पात्र के मुंह से लेखक बोल रहा है?

वैसे, क्या यह संभव है?

आप रचना प्रक्रिया का सिलसिला, तरतीब देखो। घटना चुननी है, पर कौन सी। घटना से सृजन तक जाना है, कैसे समेटना है, विचारों को घटना में कैसे पिरोना है, उतारना है, इस तरतीब में कहाँ है लेखक की गैर-मौजूदगी।

इस तरह के दावे होते है कि जब मैं लिखता हूँ, कलम मेरे कहने से बाहर हो जाती है, पात्र मेरा कहना नहीं मानते। मैं इसे स्वीकार नहीं करता। मुझे पता होता है, मुझे पात्र, निर्माण के समय निश्चित होता है, पात्र ने किस दिशा में जाना है। किस राह को पकड़ना है। ठीक है, वह एकदम पलटता नहीं, चमत्कारित नहीं करता।

मेरी रचना 'जवाब’ में माँ का बेटे को कहना, ’बेटा मैं अभी नहीं आ सकती।’ इसमें मैं हाजिर हूँ। रचना ‘स्वागत’ में लड़की का अपने मैनेजर को थप्पड़ मारना, मेरी इच्छा थी। यह चमत्कारी या एकदम आई हिम्मत के कारण नहीं है। मैं चाहता तो वह चुप हो जाती, पर वह थप्पड मारती है, मेरे कहने पर मारती है। ’पहली बार’ रचना में नव विवाहित, सुहाग के बिस्तर पर पति की प्रतीक्षा करती, महावारी के दर्द से सिकुडती, उस औरत के साथ प्यार व मर्यादा से पेश आ रहा पति, ना कि जबरदस्ती सुहागरात मना रहा, यह मेरी भावना के अनुकूल है, मैंने इस व अन्य सभी रचनाओं में खुद को मौजूद रखा है।

रचना में दो पक्षों, दो पात्रों, दो विचारधाराओं का टकराव होता है। मैं एक के साथ खड़ा हो सकता हूँ। मुझे चुनना है। मैं नहीं कहता कि मेरा पात्र तय करे कि उसे किस विचारधारा के साथ खड़ा होना है। मेरी कलम आवेग में नहीं आती, मेरे हुक्म में भी नहीं। मेरा पात्र जो कहता है, हो सकता है, आपको लगे, 'ऐसा होता नहीं’। मान लेते है, पर जो कुछ हम देख रहे हैं, क्या हम चाहते है कि ऐसा हो, होता रहे, जारी रहे। हमारी तमन्ना हमेशा रहती है कि यह स्थिति बदले। तो फिर यह नहीं चाहिए कि हमारा पात्र कुछ हिम्मत करे, करता हुए नज़र आए। 'बुजुर्ग रिक्शेवाला’ में मुख्य पात्र पहले दिन बुजुर्ग के रिक्शे पर बैठ, उसे धीरे-धीरे चलता देख खीझता है, काम पर देरी से पहुंचता है। दूसरे दिन फिर उसी रिक्शे पर जानबूझकर बैठता है कि मजबूर रिक्शेवाला गुजारा करने योग्य पैसे जोड़ ले। इस तरह करना, यह मेरा फैसला है, जो मैंने पात्र से लागू करवाया है। यह कोशिश जरूर रहती है कि मेरे फैसले या मेरी इच्छा अपवाद न लगे। सहज लगे। किए जा सकने की सम्भावना के दायरे में रहें।

अगर रचना में, जिस घटना का मैंने चयन किया है, मैं, मतलब लेखक मौजूद नहीं, तो फिर वह रचना सृजित कैसे हुई?

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति

एम.बी.बी.एस.

एम. ए. (समाजविज्ञान, पंजाबी), एम. एस-सी. (मनोविज्ञान)

सम्पर्क  : 

डाकपता : 97, गुरु नानक एवेन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर-143601 (पंजाब)

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