प्रेरणा अंशु (लघुकथा-विशेषांक) / वीरेश कुमार सिंह (सं.)

प्रेरणा- अंशु 

(समग्र चिन्तन का राष्ट्रीय मासिक) 

वर्ष - 37  अंक- 04   जून 2023

संस्थापक:

स्व. प्रताप सिंह

सम्पादक:

वीरेश कुमार सिंह / 08979303333

कार्यकारी सम्पादक:

पलाश विश्वास / 06398418084

संयुक्त सम्पादक :

रूपेश कुमार सिंह / 09412946162

उप सम्पादक:

जे. एम. सहदेव / 09458158500

सम्पादन सहयोग :

समीर चन्द्र राय / 09837443783

राघवेन्द्र कुमार / 09758466255

व्यवस्थापक

गीता सिंह / 08533838765

प्रसार :

अनुज कुमार सिंह / 09639651260

मुद्रण सहयोग : प्रदीप मंडल, ज्योतिष राय, इमरान खान

सम्पादकीय कार्यालय : समाजोत्थान संस्थान, वार्ड नं.3, दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर (उत्तराखण्ड) पिन-263160 

email-prernaanshu@gmail.com

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● स्वामी, प्रकाशक व मुद्रक वीरेश कुमार सिंह द्वारा उपकार प्रिन्टिंग प्रेस, गदरपुर, ऊधम सिंह नगर से मुद्रित एवं समाजोत्थान संस्थान, वार्ड नं 3 दिनेशपुर (ऊधम सिंह नगर) से प्रकाशित ।

● सम्पादन व प्रकाशन पूर्णतः अवैतनिक ।

●आलेखों में व्यक्त विचार लेखकों के अपने हैं जिनसे प्रकाशक/संपादक का सहमत होना जरूरी नहीं है।

● सभी विवादों का न्याय क्षेत्र ऊधम सिंह नगर में होगा। 

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इस अंक में.... 

नए संसद भवन में राष्ट्रपति की अनदेखी -सम्पादकीय

पुस्तक चर्चा भुतहा गाँव की तस्वीरें-डॉ. कुमारी उर्वशी

अपनी बात फूंक डाला मणिपुर तो हम कितने सुरक्षित है?-पलाश विश्वास

आवरण कथा  हिन्दी लघुकथा : अतीत, वर्तमान और विज्ञान-खेमकरण सोमन 

● लघुकथा, उतना आसान भी नहीं है लिखना-डॉ. अशोक भाटिया

● लघुकथा, सच्चाइयों की मुखर अभिव्यक्ति - डॉ. सुधा जगदीश गुप्त

लघुकथाएं- महेश दर्पण, अनिता रश्मि, ऋतु त्यागी, कमलेश भारतीय, नमिता सिंह 'आराधना' मधु जैन, नज्म सुभाष, पंकज कुमार ओमकार, मुकेश पोपली, महावीर रवांल्टा पूजा आहूजा कालरा, डॉ. शील कौशिक, डॉ. कमलेश मलिक, डॉ. अनुज प्रभात शिव अवतार पाल, उदय राज वर्मा, सुरेश सौरभ, रश्मि लहर, शेर सिंह नरेंद्र कौर छाबड़ा, डॉ. वंदना गुप्ता, संतोष सुपेकर, डॉ. रामकुमार बोटड़ डॉ. राजेन्द्र साहिल, प्रेरणा गुप्ता, सविता गुप्ता, पल्लवी गुप्ता, धृति बेडेकर, नमिता सचान सुंदर

● कहानी-डॉ. शक्तिराज 

● नन्हा अंशु-डॉ. मंजुला पांडेय

● ग़ज़लें-आदित्य कमल, विज्ञान व्रत, अवनीश त्रिवेदी, रामस्वरूप मूंदड़ा अमर पंकज, जितेन्द्र सुकुमार

● काव्य संसार : केशव शरण, डॉ. आशा सिंह सिकरवार, सिद्धेश्वर सिंह, सुशांत सुप्रिय निवेदिता मिश्र, सुशील स्वतंत्र, मीरा सिंह, डॉ. जियाउल रहमान जाफरी,राम किशोर मेहता


लघुकथाः कुछ जरूरी बातें 

उतना आसान भी नहीं है लिखना

अशोक भाटिया
लघुकथा के छोटे आकार और सामान्यतः दीखने वाले एक-दो कथा-प्रसंगों के आधार पर इसे लिखना बड़ा आसान मान लिया जाता है। स्थिति इसके विपरीत है। हिंदी लघुकथा-लेखन में कई बड़े लेखकों ने हाथ आजमाए, लेकिन फिर पीछे हट गए। राजेंद्र यादव ने तो स्पष्ट लिखा, 'लघुकथा लिखना बड़ा कठिन है।' इधर लघुकथा लेखन की भरमार हो रही है। लोग पंद्रह दिन में भी लघुकथा संग्रह लिखकर मार्केट में फेंक रहे हैं। आइए, कुछ पक्षों पर विचार करें।

प्रेमचंद ने लिखा है कि 'सच्चा साहित्य वही है, जो हममें बेचैनी और गति उत्पन्न करे।' यह बेचैनी और गति पाठक को तभी महसूस होगी, जब रचनाकार के भीतर होगी और उसकी रचना में छनकर आएगी। प्रेमचंद के साहित्य में राष्ट्रीय धरातल के तत्कालीन सरोकार और समस्याएं शिद्दत के साथ मौजूद हैं। उनके लेखन का लक्ष्य राष्ट्रीय था। अब जरा लघुकथा लेखक अपने बारे में विचार करें। मुख्य लक्ष्य क्या ? बेहतर राष्ट्र का आपका क्या सपना है? उसके मार्ग में कौन-सी बाधाएं हैं? वे कैसे दूर होंगी? क्या उन बाधाओं को लेकर आपकी कलम में वह बेचैनी और गति है, जिसका जिक्र प्रेमचंद ने किया था ?

प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय का एक लेख है- 'यथार्थ यथा स्थिति नहीं यर्थाथ तो निरंतर है और परिवर्तनशील है। यह इतनी तेजी से बदल रहा है कि जब तक इसे समझने के नि८कट पहुँचते हैं, तब तक स्थितियां बदल चुकी होती हैं। बदलते यथार्थ के साथ लघुकथा लेखक अपने को कितना जोड़ पा रहा है ? लेखन एक सामाजिक जिम्मेवारी है, इसलिए लेखक को यश प्राप्ति का झंडा उठाकर चलने के बजाय सामाजिक यथार्थ के आयामों को समझने, उसके सूक्ष्म तंतुओं को पकड़ने और उसके कलात्मक रूपांतरण की प्रक्रिया पर गंभीरतापूर्वक काम करने को प्राथमिकता देनी होगी। सच यह है कि हिंदी लघुकथा में गंभीरता से सृजन करने वाले रचनाकार बहुत कम हैं।

हिंदी लघुकथा की एक संक्षिप्त ही सही, स्वस्थ परंपरा मौजूद है। लघुकथा-लेखन में उतरने से पहले भी, और उसके समांतर भी, लघुकथा की परंपरा का अध्ययन करना बड़ा जरूरी है। यह इसलिए कि पहले लिखी जा चुकी श्रेष्ठ लघुकथाओं को, अनजाने में, फिर से लिखने वाली अप्रिय स्थिति न आने पाए। आज कोई लेखक यशपाल की 'परदा', प्रेमचंद की 'कफन' या फणीश्वर नाथ रेणु की 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम' जैसी कहानी इसलिए नहीं लिखेगा कि वे तो पहले ही लिखी जा चुकी हैं। आज लिखने की शैली भी बदल गई। लेकिन अधिकतर लघुकथा-लेखक एक ही ढर्रे पर लिखे चले जा रहे हैं। पुरस्कार, सम्मान और वाहवाही के ढेर लग गए हैं और लेखक महोदय संतुष्ट हैं, मानो इसीके लिए वे लिख रहे हैं। एक लघुकथा लिखकर उसे दोबारा देखने की जहमत तक नहीं उठाते। जब हम किसी विधा की परंपरा पर दृष्टि डालते हैं तो रचनात्मक लेखन के विविध आयामों से हम रू-ब-रू होते हैं। क्या कहा, क्यों कहा और कैसे कहा ?- मोटे तौर पर तीनों क्षेत्रों के रेशे- रेशे से हमारा परिचय होता है। पाठक और लेखक दोनों रूपों में हम समृद्ध होते है, भीतर एक लेखकीय परिवेश निर्मित होता है। लेखन के पीछे चिंतन (विचार) और संवेदना दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। और भी अनेक आयाम हैं, किंतु यहाँ हम उदाहरणों द्वारा इन दोनों पक्षों पर चर्चा करेंगे। पहले विचार और दृष्टिकोण की चर्चा करें। प्रसिद्ध लेखक हरिशंकर परसाई ने अस्सी से अधिक लघुकथाएं भी लिखी हैं। उनकी एक बहुचर्चित लघुकथा है- 'जाति'। इसमें वे जातिवाद के कोढ़ और उसके सामाजिक दुष्प्रभावों को उभारने की दृष्टि से रचना को बुनते हैं। रचना के मुख्य भाग पर पाठक का ध्यान जाए, इसके लिए वे शुरुआती प्रसंग को अत्यंत संक्षिप्त कर देते हैं। देखिए-

"कारखाना खुला, कर्मचारियों के लिए बस्ती बन गई। ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब और ब्राह्मणपुरा से पंडित जी कारखाने में काम करने लगे और आस-पास के ब्लॉक में रहने लगे।"

इस रचना की शुरुआत देखें- 

"कारखाना खुला।" किस चीज का कारखाना, कहाँ खुला, कितना बड़ा है?- लेखक ऐसा कुछ नहीं बताता। इसलिए, कि लघुकथा के मुख्य प्रसंग से इन तथ्यों का कोई लेना-देना नहीं। इसी तरह बस्ती के बारे भी और कुछ बात नहीं की।

आगे देखें। "ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब..." ऐसा क्यों कहा गया ? उनके नाम भी ले सकते थे, लेकिन 'ठाकुरपुरा' और 'ब्राह्मणपुरा' से लेखक बताना चाहता है जातीय संकीर्णता और अहंकार हमारे समाज में कितने गहरे रच-बस चुके हैं। कोई ठाकुर साहब है, तो कोई पंडित जी है। लेखक की रचना भी इसी विषय पर है। यह है लेखक की सजगता । रचना के अंत तक आते-आते वह हर तरह के पाठक को स्वीकार करने पर विवश कर देता है कि जातिवाद हमारे समाज का एक कलंक है, कोढ़ है। यह रचना की शक्ति है।

संवेदना मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाली तरल धारा है। यह रचना में चाहे दिखाई न पड़े, किंतु संवेदना का पुल बनाने का हितकारी काम करती है। प्रसिद्ध अमेरिकन अंग्रेजी कथाकार कार्ल सैंडबर्ग की लघुकथा 'रंग भेद' में लेखक की संवेदना उपेक्षित पात्र के साथ है, जो समाज में विभिन्न कारणों से घृणा और अपमान झेलता है। किंतु उसके लिए वह घृणा करने वाले पात्र पर प्रहार न कर एक और मार्ग अपनाता है, जो रचना को नई ऊँचाई प्रदान करता है और हर प्रकार का पाठक वर्ग उसे न केवल स्वीकार करता है, बल्कि उसके साथ हो लेता है। आप पहले इस लघुकथा का आस्वाद लें:

रंग-भेद

मियामी के तट पर बैठे उस गोरे आदमी ने रेत पर एक छोटा-सा वृत्त खींचा और सामने बैठे काले आदमी की ओर हिकारत से देखते हुए बोला- "एक काला आदमी इससे अधिक नहीं जानता।"

फिर उसने उस छोटे से वृत्त के इर्द-गिर्द एक बड़ा वृत्त खींचा और कहा, "एक गोरा आदमी इतना अधिक जानता है।"

इस बार काला आदमी उठा। उसने एक पत्थर के टुकड़े से दोनों वृत्तों के गिर्द एक बहुत बड़ा वृत्त खींचा और कहा, “इतना कुछ है, जो न गोरा आदमी जानता है, न काला आदमी।"

इस लघुकथा पर थोड़ी और चर्चा करें। " मियामी के तट पर "- मियामी क्या है? नदी या किसी समुद्र का कोई तट ? इसे जानकर पाठक को क्या करना है, क्योंकि मुख्य प्रसंग तो घृणा का है। दूसरा प्रश्न है कि गोरे आदमी और काले आदमी के नाम क्यों नहीं दिए गए? इसलिए कि नाम देने से रचना की सीमाएं बनने लगतीं, क्योंकि वे नाम किसी देश या क्षेत्र के होते, जबकि गोरा आदमी और काला आदमी सारे संसार में मिलते हैं और लगभग सभी जगह भेदभाव और घृणा के शिकार होते हैं। यह लेखक की सजगता है कि वह अपने इस महान उद्देश्य वाली रचना को तमाम संकीर्णताओं से बचाकर उसे सार्वकालिक और सार्वभौमिक रचना बना देते हैं। हम कितना कम जानते हैं, और फिर उसे ही अपने अहंकार और घृणा के अस्त्र के रूप में लिए घूमते हैं। हम जो नहीं जानते, वह हमारे जानने के क्षेत्र से कितना बड़ा है, फिर भी अहंकार और घृणा के चलते उस क्षेत्र की तरफ देखते तक नहीं, जानने की बात तो उससे आगे का कदम है।


संवेदना की तरलता और भावुकता को स्पर्श करने वाली एक लघुकथा है 'विदाई', जिसके लेखक हैं मोहनलाल पटेल। इस गुजराती रचना में लेखक केवल दो स्थितियों को सजगता से आमने-सामने करता है और रचना को एक नया अर्थ और उत्कर्ष प्रदान कर जाता है। इसमें आई भावुक स्थिति भी मजबूत सरोकारों पर टिकी है। गणपत द्वारा बेची गई भैंस बार-बार रस्सा तुड़ाकर वापिस आ जाती है। तीसरी बार वे उसे फिर रख लेते हैं। लेकिन उसकी पत्नी कुँअर लगातार भैंस की पीठ पर हाथ फिराती रहती है। गणपत के समझाने पर कुँअर जोर से रोते हुए कहती हैं, "एक ढोर की आवभगत कर रहे हैं, उतनी बेटी के लिए नहीं कर सके। आश्रय की मारी वह तीन बार घर छोड़कर आई थी, लेकिन हमने ही उसे डरा-धमका के वापिस भेज दिया था..." अंत तक आते-आते पति-पत्नी स्वयं को बेटी के हत्यारे मानने लगते हैं।

यह लघुकथा पाठक के मन में देर तक हलचल मचाती है और कई सवाल भी उठाती है। आखिर बेटी की 'विदाई' क्या हर स्थिति में सदा के लिए होती है? क्या कन्या कोई वस्तु है, जिसका दान किया जाता है और 'कन्यादान' की रस्म निभाई जाती है? क्या विवाह के बाद बेटी का माता-पिता पर और माता-पिता का बेटी पर कोई अधिकार नहीं रह जाता? यह कितनी क्रूर परंपरा है, स्त्री के एकदम खिलाफ, कि जिगर के टुकड़े के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है? क्या बेटियां भैंस से भी गई बीती हैं, जिनके बारे में समाज अब तक इस तरह नहीं सोचा, जैसा कि लेखक सोचने के लिए प्रेरित करता है। यह विचारणीय प्रश्न है।

रचनात्मक संवेदना कोई हवाई चीज नहीं है। वह सरोकार से जुड़कर व्यक्त होती है। इस प्रक्रिया में कल्पना अपने आप आवश्यकता के अनुसार प्रवेश कर जाती है। 'रंग-भेद' के गोरे और काले आदमी को आप किसी तट पर नहीं देखेंगे- यह रचनात्मक कल्पना के कारण संभव हुआ यही बात 'विदाई' के बारे में कही जा सकती। है। कल्पना रचना के रिक्त स्थान भरती है, उसे पूर्ण समृद्ध और सुंदर बनाती है। 'विदाई' के संवाद लेखकीय अनुभव और कलात्मक अभिव्यक्ति के सुंदर उदाहरण है।


अब इधर लिखी जा रही अधिकतर लघुकथाओं पर आइए। प्रायः ऐसा लगता है, मानो सड़क के किनारे खड़े दो व्यक्ति आपस में बातें कर रहे हों। उनकी बातचीत हू-ब-हू मानो रिकार्ड करके कागज पर उतार दी गई हो और उसे लघुकथा नाम दे दिया गया हो। जरा बताएं, वह रचना कैसे हुई और लेखक का उसमें क्या योगदान है? हू-ब-हू प्रसंग लिख देना भोक्ता - मन की उपज है, जबकि रचयिता मन नया सृजन करेगा, पुनर्निर्माण करेगा, रचना की जरूरत के मुताबिक कल्पना का प्रयोग करेगा, और घटनाओ की गुलामी नहीं करेगाl

लघुकथा की संक्षिप्त परंपरा से अनेक रचनाकारों की बहुत-सी लघुकथाओं का यहाँ उल्लेख किया जा सकता है, जो डूबकर लिखी गई हैं, जिनमें पूर्णता और कलात्मकता का सौंदर्य है, जो पाठक के मन-मस्तिष्क पर दस्तक देती है। कई बार लघुकथा अर्थ की व्यंजना उभारने से ही अधिक प्रभावशाली हो जाती है। जैसे-रवीन्द्र वर्मा की 'पर्वतारोही' का अंति वाक्य है- 'मैं जानता हूँ, दुनिया में गेंदों की कमी नहीं है।' यहाँ ' गेंद' शब्द एक विशेष उपलब्धि का प्रतीक है। रवीन्द्र वर्मा की ही 'चिड़िया' लघुकथा का अंतिम वाक्य है- 'क्या उसके चेहरे पर चिड़िया बची थी?' यहाँ कथावाचक, जो विवाह के बाद अपनी पत्नी को चिड़िया कहा करता था। पर संघर्षो में जीती असंतुष्ट पत्नी के बारे में यह अंतिम वाक्य 'चिड़िया' शब्द से पत्नी की उमंग, खुशी, संतुष्टि आदि अर्थो को सामने लाता है। इस प्रकार कुशल कथाकार अपनी कथाओं में बड़ी सहजता से प्रतीकों का प्रयोग करता है।

लघुकथा के गंभीर लेखकों और पाठकों के लिए श्रेष्ठ लघुकथाएं पढ़ना बहुत जरूरी है। इनकी कथावस्तु, इनमें प्रयुक्त कल्पना, इनका विषय निर्वाह, संवादों का प्रयोग, भाषा और शिल्प मिलकर आपकी सोच, संवेदना और व्यवहार को बेहतर बनाएंगी। ***

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