समकाल (लघुकथा विशेषांक) अगस्त 2023 / अशोक भाटिया (अतिथि संपादक)
समकाल-11 (लघुकथा विशेषांक) अगस्त 2023
साहित्य, कला और संस्कृति की मासिक पत्रिका
मुख्य सम्पादक : देवेन्द्र आर्य
सम्पादक : विवेक मिश्र
प्रबंध सम्पादक : आरिफा एविस
अतिथि सम्पादक : अशोक भाटिया
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, C-515, बुद्ध नगर, इंद्रपुरी, नई दिल्ली- 110012
मोबाइल : 8750688053
ईमेल : newworldpublication14@gmail.com
संस्करण : 2023
मूल्य : 150 रुपये
मुद्रक : सूरज प्रिंटर्स, दिल्ली-(110032)
अनुक्रमणिका
अतिथि संपादकीय / अशोक भाटिया
आलोचना / भगीरथ / वर्तमान समय और लघुकथा
रचना : एक
विशेष आमंत्रित : सूरज प्रकाश
विशेष आमंत्रित : राजनारायण बोहरे
कमल चोपड़ा
हरभगवान चावला
निर्देश निधि
बलराम अग्रवाल
चैतन्य त्रिवेदी
मार्टिन जॉन
श्याम सुन्दर दीप्ति
वीरेंदर भाटिया
आनन्द
सुरेश बरनवाल
अरुण कुमार
रामकरन
शर्मिला चौहान
सूर्यकांत नागर
महेश दर्पण / लघुकथा का शिल्प
अशोक भाटिया / गौरतलब लघुकथा - संग्रह (2011-2022 )
रचना : दो
सुकेश साहनी
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
कमलेश भारतीय
विकास नारायण राय
सूर्यनारायण रणसुभे
सुभाष नीरव
अमृतलाल मदान
राणा प्रताप
आलोक कुमार सातपुते
योगराज प्रभाकर
श्यामबाबू शर्मा
सन्तोष सुपेकर
कनक हरलालका
अवधेश तिवारी
रतन चंद 'रत्नेश'
जाफर मेहदी जाफरी
पवन शर्मा
पूरन सिंह
कमल कपूर
संध्या तिवारी
शोभना श्याम
गोकुल सोनी
अशोक गुजराती
उमेश महादोषी
प्रतापसिंह सोढ़ी
रामकुमार घोटड़
मधु संंधु
पवन जैन
महेंद्र कुमार
सुनील गज्जाणी
अनिता रश्मि
बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'
प्रेरणा गुप्ता
कुसुम पारीक
राधेश्याम भारतीय
अनिल मकरिया
पवित्रा अग्रवाल
मनोरमा पंत
मधु जैन
अर्चना राय
सुनीता मिश्रा
खेमकरण 'सोमन'
संदीप तोमर
महावीर रवांल्टा
उषा लाल
रश्मि स्थापक
मनोज कर्ण
सुषमा सिंह करचुली
अतिथि संपादकीय
लघुकथा विशेषांक के बहाने...
अशोक भाटिया
हिन्दी लघुकथाओं का वर्तमान जनपथ सौ से अधिक वर्षों के संघर्ष से बन पाया है। बीसवीं सदी में प्रेमचंद, प्रसाद से लेकर कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (आकाश के तारे धरती के फूल), रावी (मेरे कथा-गुरु का कहना है), आनंदमोहन अवस्थी (बन्धनों की रक्षा) आदि से होते हुए इसे विष्णु प्रभाकर (सम्पूर्ण लघुकथाएँ), हरिशंकर परसाई जैसे कलम के धनी कई लेखकों का साथ मिला। सन सत्तर के बाद लघुकथा के नये दौर में अनेक लेखक इसके स्वरूप को संवारने-निखारने में प्राणपण से जुटते हैं जैसे, चित्रा मुद्गल (बयान) आदि अपनी रचनात्मकता के साथ, तो रमेश बत्तरा (सवाल-दर-सवाल) और भगीरथ (पेट सबके हैं) आदि रचना और आलोचना--दोनों धरातलों पर। सन् अस्सी के आसपास नवयुवा पीढ़ी बड़ी संख्या में लघुकथा को हाथों-हाथ लेती है, जिसमें गंभीर लेखकों के साथ-साथ अ-लेखक भी हाथ आजमाने लगते हैं। इससे संघर्ष का एक और मोर्चा खुल जाता है। तब से आज तक लघुकथा-साहित्य कहाँ तक पहुँच पाया?--यह गंभीर और विस्तृत चर्चा का विषय है।
'बिजूका' कविता में कवि कुंवरनारायण लिखते हैं-- “बोलो जरा जोर से बोलो / ताकि वे भी सुन सकें/जो जरा ऊँचा सुनते हैं।"
यह विशेषांक आज के विकट दौर में लघुकथा की गंभीर, जिम्मेवार, रचनात्मक धारा को बढ़ाने-उभारने की दिशा में एक विनम्र प्रयास है। पहले भी ऐसे प्रयास हुए हैं और ऐसे निरंतर प्रयासों से ही लघुकथा के नये वातायन खुलेंगे और इसके परिदृश्य पर थिरक रहे 'निरे मिट्टी के माधो' स्वतः ही पीछे छूट जाएँगे। इस अंक में आप वरिष्ठ साहित्यकार सूरज प्रकाश द्वारा इस कठिन समय में अभिव्यक्ति की नयी युक्तियाँ खोजने की पहल देखेंगे, साथ ही अनुभवी उपन्यासकार राजनारायण बोहरे की, किसान और देहाती स्त्री के दर्द में घुली, इच्छित यथार्थ की रचनाएँ पढ़ेंगे। हरभगवान चावला की लघुकथाएँ जिस प्रकार आज के राजनीतिक विद्रूप से लोहा लेती हैं, उसे रेखांकित करने की जरूरत है। निर्देश निधि की लघुकथाओं में कहानी का-सा प्रवाह और प्रभाव अपनी अलग चमक लिए है। कमल चोपड़ा, बलराम अग्रवाल, चैतन्य त्रिवेदी और मार्टिन जॉन अपनी चिर-परिचित शैली के साथ उपस्थित हैं। इधर उभरकर आई, वीरेंदर भाटिया, सुरेश बरनवाल और आनंद की त्रयी, अपने परिपक्व दृष्टिकोण और सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति के कारण, प्रबल संभावनाओं के साथ अंक में मौजूद है। इनके साथ श्याम सुंदर दीप्ति, रामकरन, अरुण कुमार, शर्मिला चौहान और 'रचना : दो' खंड के तमाम रचनाकार गंभीरता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।
वर्तमान विभाजनकारी राजनीति जहाँ सांप्रदायिक भूमियों को विष - जल से सींचने और उसकी फसल का गौरव गान करने में जुटी है, वहीं साहित्य की विविध विधाएं आपस में गलबहियां डाले अपनी शक्ति और पठनीयता के नए आयाम सामने ला रही हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी का 'नंगातलाई का गाँव', काशीनाथ सिंह का 'काशी का अस्सी' जैसी कई कृतियाँ इस समृद्धि की इबारत लिख चुकी हैं। यह प्रवृत्ति लघुकथा के लिए विशेष रूप से 'उत्प्रेरक' का काम कर सकती है।
प्रेमचंद जब कहते हैं कि 'सच्चा साहित्य वही है, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी उत्पन्न करे', तो वे एक तरफ लेखक के चिंतन और बेहतर समाज के उसके सपने, दूसरी तरफ पाठक पर ऐसे साहित्य के पड़ने वाले प्रभाव को भी ध्यान में रखते हैं। 'गति, संघर्ष और बेचैनी' की व्याख्या करने का यहाँ अवकाश नहीं, किन्तु इनसे प्रेरित साहित्य और रोमान तत्व से संचालित साहित्य का अंतर अवश्य हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है। अन्य विधाओं की तरह आज लिखा जा रहा बहुत-सा लघुकथा-साहित्य भी 'रोमान' से संचालित है। ऐसे में पुस्तकों, सम्मानों का गगनचुम्बी ढेर तो लग सकता है; लग भी रहा है, किन्तु यह कवायद भ्रम की धुंध फैलाने का काम अधिक करती है और सच्चे साहित्य के लिए एक नयी चुनौती खड़ी करती है । विलासी साहित्य भी 'साहित्य का गोदी युग' (बोधिसत्व) ही है, जिसे पहचानने और अलगाने की जरूरत है। ज्यों-ज्यों लघुकथा की सामर्थ्य को बढ़ाने वाली रचनाओं में वृद्धि होती जाएगी, यह परिदृश्य बदलता जाएगा। इस क्रम में अ-लेखकों की थोपी गई शर्तों के कई स्पीड ब्रेकर टूट ही रहे हैं।
लघुकथा-क्षेत्र में गंभीरता से अभी बहुत काम करने की जरूरत है। अभी तो बेहतर रचनाओं की परम्परा को भी ढंग से संजोया नहीं जा सका है, उस पर आलोचनात्मक काम तो बाद की बात है। संक्षेप में इतना ही ।
यह अंक विख्यात और पूर्ण कथाकार प्रेमचंद की स्मृति को समर्पित है, जो अनेक लोकप्रिय उपन्यासों और कहानियों के साथ 'बाबाजी का भोग', 'राष्ट्र का सेवक', 'बंद दरवाजा', 'कश्मीरी सेब' जैसी विविधमुखी, दिशासूचक लघुकथाओं के रचनाकार भी थे।
इस विशेषांक के रूप में समकालीन हिंदी लघुकथा की एक झलक आपके सामने है। ये सभी रचनाएँ पहली बार साहित्य - जगत के सामने आ रही हैं। अपनी बेबाक राय अवश्य दीजिएगा।
अशोक भाटिया
संपर्क : बसेरा, 1882, सेक्टर-13, करनाल-132001 (हरियाणा)।
फोन : +91 94161 52100
ईमेल : ashokbhatiahes@gmail.com
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