बाँग और अन्य लघुकथाएँ / रत्नकुमार सांभरिया
कथाकार : रत्नकुमार सांभरिया
प्रथम संस्करण : 1996
(राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित)
प्रकाशक : नरेन्द्र बाहरी, विवेक पब्लिशिंग हाउस, धामाणी मार्केट, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302003 (राजस्थान)
शब्द-संयोजन : वी.एम. कम्प्यूटर्स, ज्योति नगर,
जयपुर-302005
मूल्य : रुपये 95.00 (पचानवें मात्र)
मुद्रक : रूपा ऑफसेट प्रिंटर्स, जयपुर
सूची
मेरी बात ix
लघुकथाएँ
निरुत्तर 1
अन्तर 2
पचास पैसे 3
कैद 4
अपनी रचना 5
रायल्टी 6
घोंसला 8
बिगुल 9
घोड़ा, घास और चश्मा 10
पतवार 11
नजरिया 13
चुनाव प्रचार 14
द्रोणाचार्य जिंदा हैं 15
रिश्ता 16
अभिशप्त 17
बाँझ 18
कायर 19
सौंदर्य 21
गिरगिट 22
अपने हाथ 23
बाँग 24
कमीशन 25
दण्ड 27
आबरू 28
अपना कद 30
हत्यारा 31
इज्जत की सुरक्षा 32
हुकियाहट 34
रक्षक 35
धर्म 36
उनकी खातिर 37
एहसास 38
बिम्ब 39
स्वर्ग का मार्ग 41
पात्रता 43
दो मुँह 45
मूक वेदना 46
रक्तबीज 47
मकान 49
सेतु 50
पगड़ी 52
जीने की राह 53
कोड़ा 55
समीकरण 56
समस्या-उन्मूलन और मन्त्री पद 57
भेड़िया 58
सलीब 60
वहम 61
अदावत 62
उत्सर्ग 63
टिकट 65
प्रतिमान 66
शिलान्यास 67
पश्चाताप 68
चोट 70
पराकाष्ठा 71
नशावृत्ति 73
पुण्य 75
यथार्थ 76
वजूद 77
पौध 78
हम शक्ल 80
गुंडई 81
नियति 82
एहसान 83
डैडी 84
देशद्रोही 85
मूर्ति 86
परजीवी 87
आस्था 89
भँवर 90
समाधान 92
योद्धा 93
कड़ी 95
लड़की 96
सुखी होने का दुःख 97
आकार 99
अनिश्चय 100
प्रहरी 101
हत्या 102
आज का रावण 104
आवरण 105
जानवर 106
नौकरानी 107
धर्मनिरपेक्ष 108
हादसा 109
समझौता 111
आदमी 113
अनुभव 115
फूल 117
दोष किसका 118
मवाली 119
शुभकामना 120
बबुआ सहानुभूति 122
वफादार 123
टारगेट 124
मरीचिका 125
लाल आँसू 126
नकेल 127
किरचें 128
भगवान की व्यथा 129
कर्त्तव्यपालन 130
चुग्गा 132
तमाचा 133
फर्क 134
राजनीति 135
सेवा 137
अपनी-अपनी सत्ता 138
दण्ड- विधान 139
मेरी बात
साहित्य सतत् साधना का सुफल है। साहित्य-सृजन हृदय की दवात और मस्तिष्क को मसि से होता है। दवात से अभिप्राय संवेदनशीलता से है और मसि का आशय बौद्धिक कौशल से जिस लेखन में संवेदना और बौद्धिकता नहीं होती, उसे श्रेष्ठ रचना की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। क्योंकि लघुकथा भी साहित्य की एक विधा है और आकार में लघु होने के कारण उसे कम शब्दों में निर्वाचित होना होता है। अतः अधिक संवेदनशील और परिपक्व होना उसकी आवश्यकता है। वह समाज से जुड़ी सच्चाइयों की मुखर अभिव्यक्ति है, जो विद्रूपताओं और विसंगतियों को उद्घाटित कर जागृति की अपेक्षा करती है। उसमें कल्पना होते हुए श्री यथार्थ मौजूद रहता है।
साहित्य की एक विधा का सम्मान पाने के बाद लघुकथा में विचारगत मूल्यबोध का समावेश हो गया है। वह अब भाषा और शिल्प तथा बुनावट की दृष्टि से इतनी समृद्ध है कि सिर्फ लघुकथा के रूप में ही स्थापित है। लघुकथा में भी अन्य विधाओं की भाँति शैलीगत और भावगत सतर्कता और समर्थता आ गई है। साहित्यिक प्रतिमानों में गुंथी लघुत्तम आकार की वह संवेदनशील गद्य रचना, जिसमें काव्य का बिंब तथा कथा का शिल्प हो और वह पाठक मन को छू जाए लघुकथा है।
लघुकथा को समझने के लिए बिहारी का निम्न दोहा सटीक जान पड़ता है--
सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।
देखन में छोटे लगैं, घाव करें गंभीर ॥
लघुकथा के अर्थ हेतु हमें लघुकथा संज्ञा को लघु तथा कथा दो शब्दों में विभक्त कर इसके शाब्दिक अर्थ ढूंढने होंगे। लघु का अभिप्रायः छोटा, सूक्ष्म, संक्षिप्त, क्षुद्र, अल्प अथवा निम्न से है। प्रसंगगत लघु का अर्थ छोटा का पर्याय मानता चाहिए। कथा “कथ" धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है, जो कहा गया। क्योंकि कथा सदैव भूतकाल को व्याख्यायित करती है, इसलिए यहां कम का अर्थ यही लिया जाना चाहिए। अर्थात् जो कथ्य कम से कम शब्दों में (किन्तु पैनापन लिए हुए) चित्रित है, वही लघुकथा की श्रेणी में आता है।
लघुकथा का कथानक किसी एक घटना केन्द्रित ही हो तो लघुकथा का कलेवर आहत नहीं होता है । जहाँ एक से अधिक घटनाओं का समावेश लघुकथा में हुआ कि उसका रूप विधान क्षीण हो जाएगा। लघुकथा की बुनावट बया के घोंसले की भाँति होती है, जिसमें लघुकथाकार की मेहनत और कौशल स्पष्ट नज़र आते हैं। लघुकथा का कलेवर संश्लिष्ट, अछूता और मौलिक हो। वह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा अन्य परिस्थितिक विद्रूप को जितनी सहजता से मुखर कर पाएगी, वह लघुकथा उतनी ही सुन्दर और समर्थ बन पड़ेगी। शालीनता लघुकथा की सुन्दरता होती है, अगर अश्लीलता कथानक की माँग है, तो वह इतनी ढकी हो कि पाठक मन को काम-पीड़ा न पहुंचा दे। मानवेतर कथानकों पर सृजित लघुकथाएं मानवपेक्षी ही होती हैं। उनके बिम्ब और प्रतीक मानवीय जीवन के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। उन्हीं में पाठक उसके द्वारा जिए जा रहे जीवन का प्रतिबिम्ब देखता है।
परिवर्तित होते परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप करवट बदलना सृजन की नियति होती है। साहित्य समाज का दर्पण है और उक्त दोनों ही कारक उस आईने के बिम्ब बनते हैं, जिसमें समाज के दर्शन होते हैं। आजादी से पूर्व की लघुकथाओं के कथानक साहित्य की अन्य विधाओं के कथानकों की भाँति ही राष्ट्र के प्रति समर्पण, पराधीनता तथा साम्राज्यवाद के प्रति घृणा, स्वदेश प्रेम और स्वाधीनता के लिए मर मिटने की भावना से ओत-प्रोत होते थे। देश स्वतन्त्र हुआ। आजादी के बाद स्वतन्त्र समाज में सुविधाभोगी होने की जो ललक उफनी उससे भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, कुटिलता, लालफीताशाही, पुलिस ज्यादती और गुण्डागर्दी ने अपने फन उठा लिए। राजनीति भी समाजदर्शी होती है। कहना होगा कि आज राजनीति में जिस कदर अपराधीकरण बढ़ा है और नेताओं का चरित्र उभर कर सामने आया है, उसने साहित्यकारों के अन्तस को भी गहरी चोट पहुंचाई है। फिर लघुकथाकार इससे आहत क्यों नहीं होते, भला । राजनीति के काष्ट्य को उद्घाटित करती और अन्य निम्नताओं को प्रकट करते कथ्यों की बहुत सी लघुकथाएं सामने आई हैं, जो चेतना सापेक्ष हैं।
आज लघुकथा, चुटकला, प्रेरक-प्रसंग, सूक्तिकथन, हितोपदेश, दृष्टांत, मनोरंजनप्रद हास्य, जातक-कथा, पंचतंत्र और लोककथा की केंचुली से बाहर निकल कर केवल लघुकथा के रूप में ही प्रकट हुई है। वह संवेदना सापेक्ष तो है ही विषय सापेक्ष, भाषा सापेक्ष, शैली सापेक्ष और उद्देश्य सापेक्ष भी है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर हास्य-परिहास, अश्लीलता, तिलिस्म से परे मानवीय पीड़ा और जमीन की गंध से जुड़ी धड़कन को ही थीम बनाकर श्रेष्ठ लघुकथाओं का ताना-बाना बुना जा रहा है।
तर्क दिया जाता है कि चमत्कारवाद लघुकथा का अनिवार्य तत्त्व या गुण है। यह तर्क गैर लघुकथाकारों तथा छद्यपोशी लोगों द्वारा लघुकथा जैसी नई विधा को लांछित करने की एक साजिश मात्र है। चमत्कारवाद अलौकिकता का संस्करण है, जो लघुकथा की ही नहीं, बल्कि साहित्य की किसी भी विधा की खामी हो सकती है, खूबी नहीं। यूं भी चमत्कार क्षणिक होता है, जबकि सृजन शाश्वत सुख पाने का आकांक्षी । चमत्कार कथ्य केन्द्रित लघुकथा पाठक को झटका तो दे सकती है, उसे उद्वेलित नहीं कर पाती। संवेदना ही तो रचना का मर्म माना जाता है।
यह भी कि श्रेष्ठ लघुकथा वह है, जो चोट करती हो। यह बात चोट की भाँति ही कष्टदायक है। चोट की परिणति पीड़ा और कष्ट होते हैं, जबकि साहित्य का स्वरूप सत्यम् शिवम् सुंदरम् है। क्योंकि लघुकथा भी सत्यम् शिवम् सुंदरम् की त्रयी से दीगर नहीं है। अतएव अच्छी लघुकथा वह मानी जाती है, जो पाठक को चोट न पहुंचा कर उसे संवेदित करे, उद्वेलित करे और हृदयग्राही हो ।
एक बात और दृष्टव्य है कि बड़ी लघुकथा जो लघुकहानी और लघुकहानी को लघुकथा समझ लेने का भ्रम कई बार हो जाता है। जबकि लघुकहानी, लघुकहानी है. और लघुकथा, लघुकथा है। भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों ही दृष्टियों से इनमें मूलभूत अंतर है। अंग्रेजी साहित्य में लघुकथा को 'स्टोरिएट' कहते हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' लघुकहानी को कहा जाता है, जो अब अलग विधा के रूप में अपना अलग स्वरूप बनाती जा रही है।
पहली लघुकथा कौन-सी है ? उसका लेखक कौन है ? वह कब लिखी गई ? इस बात की खोजबीन उतनी ही मूल्य सापेक्ष है, जितनी यह बात कि पहले मानव का नाम क्या था? वह कब पैदा हुआ? उसका जन्मदाता कौन है ? दरअसल मानव तो तभी उत्पन्न हुआ, जब उसमें मानवता पैदा हुई। इसी प्रकार पहली लघुकथा भी उसे ही माना जाए, जिसमें मानवीयता का अंकुरण हुआ। निःसंदेह खलील जिब्रान आधुनिक लघुकथा के जनक हैं। क्योंकि उनकी लघुकथाएं मानवता से रूबरू होती हुई दर्शन की समझ, भावों की गहराई और विचारों को ऊंचाई अभिव्यक्त करती हैं। संवेदनाओं से सराबोर उनकी लघुकथाएं मानवीय जीवन को आत्मसात करती हैं। वे न समुद्र में तैरती हैं, न आकाश में काम है
आठ दशक में लघुकथा ने अपनी जड़ें जमाई और वह नई। आते आते मुमित पल्लवित हो लहलहाने लगी। वह उत्तरोतर प्रगति है। लघुकथा के शताधिक संकलन, संग्रह पाठकों तक पहुंच चुके है। मल्ल, मिनी ललकार, शुभतारिका आदि लघुकथा केन्द्रित पत्रिकाएं को आगे बढ़ा रही हैं।
भारत में आज लगभग सभी भाषाओं में लघुकथाएं लिखी जा रही हैं। पर शोध कार्य भी हो रहा है। लघुकथा गौरवान्वित है कि बिहार सरकार वे उसे अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर सम्मान प्रदान किया है। अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी लघुकथा को शामिल किया जाना चाहिए। लघुकथा के प्रमुख हस्ताक्षरों में सर्वश्री विष्णु प्रभाकर, यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र', बलराम, बलराम अग्रवाल, रमेश बतरा, जगदीश कश्यप, सतीशराज पुष्करणा, सतीश दुबे, विक्रम सोनी, श्रीमती अंजना अनिल, दुर्गेश, महेन्द्र सिंह महलान, डॉ. शकुंतला किरण, डॉ. राजकुमार निजात, तरुण जैन, डॉ. कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी आदि हैं।
डॉ. सत्यनारायण, श्री कलानाथ शास्त्री, श्री रतिराम जी, डॉ. सुदेश बत्रा और डॉ. किशोरी लाल 'पथिक' का उनके सहयोग के लिए तथा श्री नरेन्द्र बाहरी का पुस्तक के प्रकाशन के लिए आभार व्यक्त कर, मैं गौरव का अनुभव कर रहा हूँ।
श्री भगवान अटलानी का कोटिशः अभिवादन इस हेतु कि उनके मार्गदर्शन से रचनाएं तो मंजी ही, पांडुलिपि पुस्तकाकार भी ले पाई है।
सुधी पाठक, चिंतक, शोधार्थी और विधा मर्मज्ञ “बाँग और अन्य लघुकथाएँ' पुस्तक का अवलोकन कर अपने निष्पक्ष विचारों और सुझावों से अवश्य हो। अवगत कराएंगे। इसी आशा और अपेक्षा के साथ ।
भाड़ावास हाउस, रत्नकुमार सांभरिया
259, कटेवा नगर,
जयपुर 302019 (राजस्थान)
रत्नकुमार सांभरिया
जन्म : छ: जनवरी, सन् उन्नीस सौ छप्पन, गाँव-भाड़ावास, जिला - रेवाड़ी (हरियाणा) ।
पिछले 40 वर्षों से राजस्थान में।
शिक्षा : एम.ए. बी.एड., बी. जे. एम.सी. ।
कृतियाँ : हुकम की दुग्गी, काल तथा अन्य कहानियाँ, खेत तथा अन्य रत्नकुमार सांभरिया कहानियाँ, दलित समाज की कहानियाँ, एयरगन का घोड़ा (कहानी- संग्रह); समाज की नाक (एकांकी-संग्रह); वीमा, उजास भभूल्या (नाटक); बांग और अन्य लघुकथाएँ, प्रतिनिधि लघुकथा शतक (लघुकथा-संग्रह): मुंशी प्रेमचन्द और दलित समाज (आलोचना); डॉ. अम्बेडकर : एक प्रेरक जीवन (सम्पादन)। देश की अधिकांश स्थापित पत्रिकाओं में कहानियाँ, लघुकथाएँ और समीक्षाएँ प्रकाशित । 'मैं जीती ' कहानी पर टेलीफिल्म ।
अनुवाद : रचनाओं का अँग्रेजी, मराठी, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, ओड़िया सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद। Thunderstorm Dalit Stories, U.K. London and Company Hachette India के द्वारा प्रकाशित तथा जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल 2016 में विमोचन एवं चर्चा । विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में कहानियाँ, लघुकथाएँ एवं नाटक सम्मिलित ।
सम्मान : नवज्योति कथा सम्मान। सहारा समय कथा चयन प्रतियोगिता, 2005 में पुरस्कृत, 'चपड़ासन' कहानी के लिए उपराष्ट्रपति द्वारा सम्मानित। कथादेश अखिल भारतीय हिन्दी कहानी प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार-2007 'बिपर सूदर एक कीने' कहानी पर। राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक पुरस्कार-2007 'खेत' कहानी पर वर्ष 2014 का हरियाणा गौरव सम्मान। 2017 में मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा का सुब्रह्मण्य भारती साहित्य पुरस्कार ।
सम्प्रति : राजस्थान सूचना एवं जनसम्पर्क सेवा के वरिष्ठ अधिकारी उप निदेशक (प्रशासन) पद से सेवानिवृत्त ।
सम्पर्क : भाड़ावास हाउस, सी-137, महेश नगर, जयपुर-302015, राजस्थान
मोबाइल : 9636053497.
ई-मेल : sambhriark@gmail.com
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