साहित्यिकी (लघुकथा-विशेषांक) / रेवा जाजोदिया-गीता दूबे
सन् 2010 में ही, बंगलौर प्रवास के दौरान मुझे यह सुधा (भार्गव) दीदी से मिला था। अपने ब्लॉग 'जनगाथा' पर उन दिनों ही इसकी मैंने चर्चा भी की थी। हिन्दीतर प्रांत की राजधानी की महिलाओं के इस प्रयास को सराहा था।
उक्त अंक का संपादकीय और उससे एक लघुकथा, बहुत-बहुत बधाई के साथ यहाँ प्रस्तुत हैं।
'साहित्यिकी'
कार्यकारिणी समिति
अध्यक्ष : सुकीर्ति गुप्ता
उपाध्यक्ष : कुसुम जैन-सरोजिनी शाह
सचिव : किरण सिपानी
निदेशक : विद्या भंडारी
कोषाध्यक्ष : विजयलक्ष्मी मिश्र
सदस्य : वसुन्धरा मिश्र, मंजुरानी गुप्ता, विनोदिनी गोयनका, सिन्दूर विरिक, रेवा जाजोदिया
अन्य सदस्य : प्रमिला धूपिया, सिन्धु मेहता, पुष्पा बैद, सुषमा हंस, मधुबाला रोहतगी, सुधा भार्गव, राज जैन, सविता पोद्दार, विभा कुमारी, उमा झुनझुनवाला, नमिता जायसवाल, माया गरानी, चित्रा बसुमल्लिक, रेणु गौरीसरिया, गीता दूबे, सीमा बंद्योपाध्याय, आशा अभाणी, आशा जायसवाल, इन्दिरा चक्रवर्ती, कविता मेहरोत्रा, सुनन्दा रायचौधरी, नूपुर अशोक, शुक्ला चौधरी, मंजु गुटगुटिया, दुर्गा व्यास, पद्मा कानूगा, वाणी श्री बाजोरिया, रूपा गुप्ता, अमिता शाह, अमृता बेरा, रिंकू घोष, रेशमी पंडा मुखर्जी, मधुलता गुप्ता।
अनुक्रमणिका
सम्पादकीय
अपनी बात
पाठकों का पन्ना
साक्षात्कार
लघु कथा :
सताये हुए लोग/सुकीर्ति गुप्ता
बेचारे शनि महाराज! /कुसुम जैन
सदमा/सरोजिनी शाह
मंगल-वार ?/किरण सिपानी
ठहराव / अमिता शाह
कुपोषण / रूपा गुप्ता
सौदेबाजी / नूपुर जैसवाल
बतसिया/वाणीश्री बाजोरिया
बँटवारा/गीता दूबे
बैसाखी/आशा जायसवाल
अनुत्तरित सवाल /माया गरानी
बोनसाई/विनोदिनी गोयनका
अपना अपना लगाव/सुषमा हंस
जिन्दगी के सुख-दुख/ चित्रा बसुमल्लिक
हाथी-घोड़े/सुधा भार्गव
एक जोड़ी आँखे/अमृता बेरा
एक सेफ्टीपिन/रेणु गौरीसरिया
पिंजरे में कौन ?/ राज जैन
कासिम/मंजु रानी गुप्ता
शोक अभिव्यक्ति/सविता पोद्दार
लालच/उमा झुंझुनवाला
एक सच/कविता मेहरोत्रा
इत्तफाक/शुक्ला चौधरी
लिव टुगेदर/सोमा बंद्योपध्याय
पीड़ा का पुनर्जन्म/वसुंधरा मिश्र
सच्चे हमसफर/विजय लक्ष्मी मिश्र
चिट-चैट/पुष्पा बैद
दृढ़ निश्चय/प्रमिला धूपिया
रजिया की पीड़ा/पद्मा कानूगा
पति की ब्याहता/रेवा जाजोदिया
सम्पादकीय
कथा कहने-सुनने की परम्परा वाचिक अभिव्यक्ति के आरम्भिक दौर से चली मां रही है। नानी -दादी की कहा- नियाँ जहाँ अनुभवों के स्वर्णिम पृष्ठों को खोलनी आई हैं, वहीं कुतूहलपूर्ण बाल मन को संस्कारित भी करती रही हैं। वर्तमान व्यस्त जीवन शैली में - लघु-कथा लेखन वह विशिष्ट वरदान है, जिसका संस्प पाठक को समृद्ध करने के साथ साथ उसके अनुभूति-जगत को आलोड़ित भी करता है। लघु-कथा-विशेषांक की परियोजना में विविध कथाएँ जीवन-जगत के जाना परिदृश्यों का अंकन है, जिसे लेखिकाओं ने अपनी संवेदना के संस्पर्श से सजीव करने का प्रयास किया है। स्त्री-लेखिकाओं की लेखनी कहीं शोषण के चक्रव्यूह को भेदती दिखाई दे रही है तो कहीं आत्मशक्ति की गहरी छाप छोड़ रही है, कहीं दकियानूसी पुरुषों की कुटिल छींटाकशी को चुनौती दे रही है तो कहीं अपने सहज वात्सल्य की शीतल फुहारों से अभिषिक्त कर रही है।
वस्तुत: 'साहित्यिकी' तो वह मंच है जो सताकर सत्ता हथियाये रखने वाली संकीर्ण मनोवृत्ति को धराशायी करने के लिए कटिबद्ध है क्योंकि यह तो पूर्णतया हीनग्रथि-ग्रस्त भयातुर हृदय का करतब ही हो सकता है।
●रेवा जाजोदिया
●गीता दूबे
अपनी बात
दलों-विज्ञापनों की राजनीति से दूर, निस्वार्थ रूप से संगठित होकर स्त्रियाँ जब साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक मुद्दों पर बौद्धिक विमर्श करती हैं तो उन्हें 'सतायी गयी औरतों' का फतवा दे देना - सोच के बौनेपन को उजागर करता है। क्या यह मान लेना चाहिये कि ऐसी टिप्पणिय 'सताये गये पुरुषों' के अवचेतन से ही निष्पन्न होती हैं? समानता का दंभ भरने वाले, उच्च पदों पर आसीन कुछ पुरुष इस भ्रम में जीते हैं कि गोया स्वस्थ बौद्धिक चिंतन पर उनका ही एकाधिकार है। ऐसे अहम्बादी अपना और दूसरों का कितना हित साथ पाते हैं, यह तो समय ही तय करेगा। बहरहाल साहित्यिकी' की महिलाएँ विभिन्न गोष्ठियों, परिसंवादों एवं प्रकाशनों के माध्यम से अपनी प्रबुद्ध गतिविधियों में क्रियाशील हैं। यह अभिव्यक्ति तो सिर्फ इसलिए के महिलाएँ इतनी दयनीय नहीं कि अपने प्रति किये गये आक्षेपों के प्रतिकार का साहस तक न जुटा पायें।
अब प्रस्तुत हैं पिछले अंक में उल्लिखित अक्टूबर : - 200र्च से आगे की गतिविधियों का ब्यौरा | २३ दिसम्बर 200र्च को उपाध्यक्ष सरोजिनी शाह की अध्यक्षता में आयोजित गोष्ठी में पत्रिका के १७ वें अंक का लोकार्पण किया गया। इस गोष्ठी में मंजु गुटगुटिया ने चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की कहानी - 'काम-काज' का पाठ किया। इस कहानी को विभिन्न कोणों से परखते हुए आशा जायसवाल, रेवा जाजोदिया, गीता दूबे, कविता मेहरोत्रा, वाणीघ्री बाजोरिया सुषमा हंस एवं मंजुरानी गुप्ता आदि ने अपने विचार प्रस्तुत किये। वक्ताओं के अनुसार सौ वर्ष पूर्व लिखी गई यह कहानी आज भी प्रासंगिक है। आज के युग की अर्थ केन्द्रित मानसिकता को बखूबी उजागर करते हुए सौ वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त विद्यालंकार ने विलुप्त होती मानवीय संवेदनाओं को तीन कथाओं के माध्यम से बड़े गहरे रंगों में उकेरा है।
26 जनवरी २०१० को दो सत्रों में आयोजित गोष्ठी के प्रथम सत्र में पत्रिका के 90वें अंक - "जीवन का अंतिम पड़ाव की समीक्षा की गयी। विजयलक्ष्मी मिश्र एवं सुषमा हंस ने प्रत्येक रचना की मूल संवेदना एवं शै की गहराई से पड़ताल की। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए विनोदिनी गोयनका ने कामना की कि भविष्य में भी यह परम्परा जारी रखी जाये। गोष्ठी का दूसरा सत्र ८० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में दिवंगत रघुवीर सहाय को समर्पित था। इस सत्र का संचालन करते हुए वसुंधरा मिश्र ने कहा कि रघुवीर सहाय की रचनाओं में विविधता, लोकतांत्रिक चेतना, आक्रोश और कटाक्ष है, एक्स-रे की तरह समय के आर-पार देखने की शक्ति है। वक्ता भीता दूबे ने रघुवीर सहाय की चुनिन्दा कविताओं का प्रभावशाली पाठ किया।
उनके अनुसार रघुवीर सहाय ने साहित्य का मूल्यांकन पत्रकार की दृष्टि से किया, अखबार की खबरों के पीछे छिपी खबर को उजागर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाओं में रोमानी स्पर्धा, स्त्री की विडम्बना एवं व्यंग्य की पैनी धार है। उन्होंने हिन्दी को दुहाजू की पत्नी कहा। जुकारू पत्रकार होने बावजूद उन्होंने इमरजेन्सी में घुटने टेक दिये । अध्यक्ष कविता मेहरोत्रा ने खुवीर सहाय की पूरी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्होंने नयी कविता का अतिक्रमण कर नये मुहावरे का गठन किया। उनकी रचनाओं में आत्मबद्धता से समाजबद्धता एवं आत्महत्या के विरुद्ध स्वर सुनाई पड़ते हैं। स्त्री की दीन स्थिति, , बुद्धिजीवियों का दोगलापन, मार्क्सवाद की पक्षधरता को उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। उन्होंने पाखंड से परे आधुनिकता बोध को अंगीकृत किया। अर्थ और शैली की दृष्टि से वे अज्ञेय के निकट पड़ते है। उनके काव्य में नये वाक्य, नयीं लय और नया संगीत है। सुषमा हंस, उभा झुझुनवाला, आशा जायसवाल एवं विनोदिनी गोयनका ने भी गोष्ठी में अंश ग्रहण किया।
होली के उपलक्ष्य में १० मार्च २०१० को आयोजित गोष्ठी में विनोदिनी गोयनका ने हास्य-व्यंग्य कविताओं का सार्थक पाठ किया। १० अप्रैल २०१० को जीवनानन्द सभागार में 'मीडिया में यथार्थ और कल्पना : स्त्री के संदर्भ में' विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संस्था की मंत्री किरण सिपानी ने स्वागत करते हुए संस्था का संक्षिप्त परिचय दिया। उन्होंने विषय का प्रवर्तन करते हुए कहा कि आज के युग में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए गोष्ठी के लिए यह 'चुना गया। मीडिया के इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंटेड रूपों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि आज के मीडिया का उद्देश्य उत्तेजना और चमत्कार उत्पन्न करना है। "मीडिया के केन्द्र में स्त्री है उसके ऑब्जेक्टीफिकेशन यानी उपभोक्ता सामग्री के रूप में प्रस्तुत किये जाने पर विरोध प्रकट करते हुए उन्होंने टी.वी धारावाहिकों, फिल्मों, नाटकों एवं पत्रिकाओं आदि में स्त्री-संदर्भों की पड़ताल की। इस अवसर पर मीडिया विशेषज्ञ जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा कि आज स्त्री के विषय में कोई भी बात इंटरनेट के परिप्रेक्ष्य के बिना नहीं कही जा सकती। उन्होंने कहा कि आज अर्थनीति, गृह नीति और विदेशनीति द्वारा मीडिया संचालि है- वह इन नीतियों के हाथ का खिलौना है। उन्होंने विस्तृत रूप में आज के मीडिया के स्वरूप एवं उसके पीछे की ताकतों पर प्रकाश डाला।
इस संगोष्ठी की मुख्य अतिथि, नारी एवं कला- -मर्मज्ञ शालिनी माथुर ने कहा कि मीडिया बाजार का उपकरण है। वह बाजार पेश करता है, जानकारी या मनोरंजन नहीं। उन्होंने कहा कि मीडिया स्त्री की वही छवि निर्मित करता है जिसके इर्द-गिर्द चीजें बेची जा सकें। उनके अनुसार, महिलाओं को निर्णयात्मक पदों पर आना चाहिए। लखनऊ की इस विदुषी ने संस्कृत साहित्य से विभिन्न उद्धरण देते हुए यथार्थ और कल्पना तत्व पर महत्वपूर्ण वक्तव्य प्रस्तुत किया।
इस अवसर पर दुर्गा व्यास द्वारा संचालित परिसंवाद में अंश ग्रहण करते हुए रेवा जाजाेदिया ने कहा कि मीडिया स्त्री के रूप, लावण्य के साथ- साथ मांसलता को परोसने का माध्यम बन गया है। गीता दुबे ने कहा कि मीडिया वही रच रहा है जो बिक रहा है। वह हमारे आस-पास की स्त्री की छवि प्रस्तुत नहीं करता। मंजुरानी गुप्ता के अनुसार मीडिया का रवैया नकारात्मक अधिक है। वह स्त्री को देवी या शोषणकर्त्री दानवी के रूप में प्रस्तुत करता है, उसका मानवी रूप उपेक्षित है। सभागार में उपस्थित प्रबुद्ध श्रोताओं ने भी प्रस्तुत विषय पर अपनी जिज्ञासा और प्रश्न रखे। अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रसिद्ध आलोचक विजय बहादुर सिंह ने कहा कि आज लेखक भी भरोसे का नहीं रहा और मीडिया भी अतिवाद का शिकार हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर स्त्रियों को अपनी सत्ता बनानी है तो अपने मूल्यों एवं जीवन शैली को परिवर्तित कर अपनी बौद्धिक क्षमता को बढ़ाना होगा। इस अवसर पर अस्वस्थता के कारण आने में असमर्थ संस्था की अध्यक्ष सुकीर्ति गुप्ता की कमी को सबने महसूस किया। रेणु गौरीसरिया ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
5 मई, 2010 को उपयोजित गोष्ठी में विजयलक्ष्मी कि ने साहित्यिकी की सद्य दिवंगत सदस्या विभा दास का संक्षिप्त परिचय देते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। सभी ने 2 मिनट के मौन व्रत का पालन किया।
सचिव किरण सिपानी ने सूचित किया कि तय किये गये कार्यक्रमों के अनुसार 'शताब्दी स्मरण क्रम' में प्रथम कड़ी के रूप में यह गोष्ठी अज्ञेय को समर्पित है। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के बाद हिन्दी की अपनी सीमा के बाहर सबसे चर्चित रचनाकार हैं। अज्ञेय मूलत: कवि हैं, उन्हें जितने पुरस्कार मिले--सभी काव्य संकलनों पर। 1943 में 'तार सप्तक' के प्रकाशन के पूर्व 1941 में 'शेखर : एक जीवनी' के माध्यम से अज्ञेय को प्रसिद्धि मिल चुकी थी। अज्ञेय की कथायात्रा पर केन्द्रित इस गोष्ठी का संचालन करते हुए कविता मेहरोत्रा ने मृत्यु से संबंधित अज्ञेय की कविता-पंक्तियों का पाठ करते हुए कहा कि अज्ञेय ने मृत्यु को जीवन का विकास माना। उन्होंने कहा कि अज्ञेय की हर विधा विशिष्ट है। वे हर जगह नवीनता का सूत्रपात करते हैं। वे जिस साहित्यकार को स्वीकार कर लेते थे, उसे हर जगह स्वीकृति मिल जाती थी।
इस गोष्ठी में डॉ० शुभ्रा उपाध्याय ने अज्ञेय की कहानी- यात्रा पर अपना वक्तव्य रखते हुए कहा कि उनके गद्य वडे साथ साहित्य जगत में विस्फोट होता है। उन्होंने कहा कि अज्ञेय उस जगत के कहानीकार नहीं है जिस तरह के साहित्यिक कहानी जगत से हम सब परिचित हैं। वे विविध अनुभवों की पृष्ठभूमि से जुड़े साशक कहानीकार हैं। जैनेन्द्र और अज्ञेय समकालीन कहानीकार हैं, पर जैनेन्द्र और अज्ञेय के मनोवैज्ञानिक धरातल और चरित्रों में एक बड़ी विभाजक रेखा है। अज्ञेय की तुलना में जैनेन्द्र में व्यक्तिवाद अधिक है। अज्ञेय उस कक्ष की तरह हैं जो अपनी खिड़कियों को चारों ओर से खुला रखता है। १८२८ में कहानी लिखना शुरू कर अज्ञेय ने ६७ कहानियाँ लिखीं। पहली कहानी 'जिज्ञासा 'में अज्ञेय ने मानव को ईश्वर से श्रेष्ठ ठहराया है क्योंकि मानव की विजय को वे महत्वपूर्ण मानते हैं। जेल - जीवन की कहानियाँ क्रांति से जुड़ी हैं। जेल-जीवन के बाद की कहानियों में जीवन के विविध रंग दिखाई देते हैं। सैनिक जीवन से जुड़ी कहानियों में सैनिकों की मर्मस्पर्शी समस्याओं को वाणी मिली है, जैसे मेजर चौधरी की वापसी उनकी कई कहानियाँ साम्प्रदायिक हमलों से आहत मानव-मन की गहरी पड़ताल करती हैं। शुभ्रा ने 'केविप्रिया', 'गैंग्रीन',' हजामत का साबुन ' एवं 'रिवलिन बाबू' आदि कहानियों पर विस्तार से चर्चा की।
इस गोष्ठी की दूसरी बक्ता वाणीश्री बाजोरिया ने अरोध की उपन्यास- यात्रा पर अपना वक्तव्य केंद्रित करते हुए कहा कि अज्ञेय की यह मान्यता है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। अज्ञेय की औपन्यासिक विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा कि शेखर: एक जीवनी' में निजी क्षणों की घनीभूतता एवं युग-संघर्ष को वाणी मिली है। शेखर के जीवन की आधारशिला विद्रोह है। स्वतन्त्रता की जद्दोजहद उसे भटकाती है। इस उपन्यास में जिज्ञासा एवं प्रेम की ज्वाला प्रश्वर रूप में उभरी है। वाणी के अनुसार 'नदी के द्वीप' संवेदनात्मक और व्यक्ति केंद्रित उपन्यास है। इस उपन्यास में रेखा का चरित्र मुख्य है जो आत्म-बलिदान की ऊँचाई तक पहुँचता है 'अपने- अपने अजनबी' को वाणी इतना प्रभावोत्पादक उपन्यास मानती हैं जैसे कि आत्मा से उठता हुआ हुआ। हमारी जीवन-शैली एवं अर्थव्यवस्था के कारण रागात्मक संबंधों की मृत्यु अजनबीपन को पैदा करती है। वर्षों साथ रहने पर भी हमारा एक दूसरे से परिचय नहीं होता। अध्यक्ष सिंदूर विरिक्त ने वक्ताओं की धाराप्रवाह वक्तृता के सराहते हुए अज्ञेय के अछूते पक्षों का उद्घाटन किया । धन्यवाद ज्ञापित करते ईवा जाजोदिया ने कहा कि वक्ताओं ने श्रोताओं का अत्यधिक समृद्ध किया।
- किरण सिपानी, सचिव
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