आवरण के आर-पार / डाॅ. सत्यवीर 'मानव'

डाॅ. सत्यवीर 'मानव' द्वारा ' लघुकथा सम्मेलन इंदौर, में 29 अक्टूबर  2023 को प्रदत्त।

लघुकथा-संग्रह  : आवरण के आर-पार 

कथाकार : डाॅ. सत्यवीर 'मानव'

ISBN: 978-81-88971-38-1

समन्वय प्रकाशन

के.बी. ६७, प्रथम तल, कविनगर, गाज़ियाबाद - २०१००२ ( उ०प्र०)

मूल्य : १००.०० रुपये

प्रथम संस्करण : २००९ © लेखकाधीन

आवरण : आर.के. शर्मा

कम्पोज़िग : कोनिका कम्प्यूटर्ज, हिसार (हरि०)

मुद्रक : क्वालिटी सिस्टम, शाहदरा - ११००३२


।। भूमिका ।।

मानवीय मूल्यों के लघु अंतरीप हैं ये लघुकथाएँ 

बहुआयामी प्रतिभा के रचनाकार डॉ. सत्यवीर 'मानव' के दूसरे लघुकथा संग्रह 'आवरण के आर-पार में कुल ४५ लघुकथाए संगृहीत हैं। संग्रह को लेखक ने दो खंडों में विभाजित किया है-'आवरण के तार-तार एवं 'आवरण के आर-पार । वास्तव में, 'आवरण' ही व्यंजनामूलक शब्द है. जो इस संग्रह में व्यवस्था के प्रतीकीकृत अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। यहां यह बात गौरतलब है कि आवरण के तार-तार करने के बाद ही आवरण के आर-पार देखा जा सकता है। वास्तव में, इस संग्रह की लघुकथाएं अपने प्रतीकीकृत अर्थ में न केवल व्यवस्था के विद्रूप को अनावृत्त करती हैं, बल्कि व्यवस्था के विद्रूप के कारणों की निशानदेही भी करती हैं। इन लघुकथाओं के बरक्स व्यवस्था के विद्रूप के आर-पार सहजता से झांका जा सकता है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि लघुकथा अब साहित्य की एक स्वतंत्र विधा है, लेकिन लघुकथा को एक आंदोलन का रूप देकर उसे एक स्वतंत्र विधा के तौर पर स्थापित करने में हरियाणा की हिस्सेदारी किसी औपचारिक परिचय की मोहताज नहीं है। जिन साहित्यकारों ने लघुकथा को एक आंदोलन का रूप देकर समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में एक स्वतंत्र विधा के तौर पर स्थापित करने की पहल की, उनमें हरियाणा प्रदेश के डॉ. रामनिवास 'मानव', रामकुमार आत्रेय, विकेश निझावन, डॉ. अशोक लव और पृथ्वीराज अरोड़ा की ख़ास हिस्सेदारी है। डॉ. सत्यवीर मानव भी हरियाणा में लघुकथा-आंदोलन के शुरुआती दौर से ही हमकदम होकर चलने वाले लघुकथाकारों के अन्तर्गत आते हैं। इनके दूसरे लघुकथा-संग्रह 'आवरण के आर-पार की कमोवेश सभी लघुकथाएं मेरी इस मान्यता की पुष्टि करती हैं।

मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि सबसे ज्यादा दुर्गत भी साहित्यिक विधाओं में लघुकथा की ही हुई है। छपास का मोह अक्सर लेखकों को लघुकथा के आभामंडल के गिर्द खींचता जा रहा है। कुछ लेखकों को यह भी लगा कि साहित्य में स्थापित होने का एक शॉर्टकट लघुकथा भी है। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा' वाली बात दरअसल लघुकथा के साथ है नहीं। यह एक शुभ संकेत है कि ऐसे लेखकों की भीड़ अब छटने लगी है। वैसे भी, गंभीर लेखन, चाहे वह किसी भी विधा का हो अपनी पहचान अलग से दर्ज करता ही है।

लघुकथा तुरन्त-फुरत वाली फास्ट फूड की तर्ज पर कोई इंस्टीट विधा नहीं है। इसके लिए तो घोर साधना और श्रम अपेक्षित है। मनुष्य-जीवन क्या है- यह घटनाओं का पुलिन्दा है । पर कहीं से भी कोई घटना उठाई और उसे लघुकथा के रूप में काग़ज़ पर उतारने से ही वह लघुकथा नहीं बन जाती। या फिर जिस थीम पर कहानी नहीं लिखी जा सकी, वह लघुकथा के नाम पर परोस देने मात्र से या फिर इस तरह के छद्म लेखन ने लघुकथा का बहुत अहित किया है।

ऐसे लेखकों की घुसपैठ हालांकि अब भी लघुकथा में दायें-बायें से हो रही है, लेकिन संतोष की बात यह है कि गंभीरता से जो लेखक लघुकथा लेखन को समर्पित हैं, वे अब लाभबंद हो गए हैं। लघुकथा-शिविरों का चलन, जो इन दिनों आम हो गया है, वह गंभीरता से जुड़े लघुकथा-लेखकों का लामबंद होना ही है ।

लघुकथा का चिंतन - पक्ष भी अब पुख्ता हो चला है और इस बात की अब निशानदेही कर ली गई है कि लघुकथा कोई नयी विधा नहीं है, यह उतनी ही पुरानी विधा है, जितनी की कविता, कहानी या उपन्यास अर्थात् प्रसाद से लेकर विष्णु प्रभाकर, यशपाल और रावी से होती हुई यह परम्परा रघुवीर सहाय, अज्ञेय, हरिशंकर परसाई, उदयप्रकाश, संजीव और असगर बजाहत जैसे लेखकों पर विद्यमान है।

लघुकथा के स्वरूप पर अगर एक नज़र डालें, तो उसके दो घटक हैं- लघु और कथा मानी यह कि केवल घटना की सपाटबयानी और कुछ तो हो सकती है, लेकिन लघुकथा नहीं हो सकती। यह विधा कलेवर में छोटी होते हुए भी घाव गहरा करती है। बिहारी के दोहे की तरह 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' यह इस विधा का मूल मंत्र है। इसमें कथा का रहना 'अपरिहार्य है और कथा भी ऐसी, जिसका अंत पाठक को भीतर तक उद्वेलित कर दे। व्यंग्य लघुकथा का अपरिहार्य तत्त्व है। यदि लघुकथा का अंत पाठक के मन में विस्फोट पैदा नहीं करता अथवा जीवन- अंबर में टंगी विसंगतियों में किसी एक विसंगति के रूबरू लाकर पाठक को कटघरे में खड़ा नहीं करता, तो समझो कि लघुकथा अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुई है। विष्णु प्रभाकर ने सही कहा है, "यदि लघुकथा पाठक को प्रत्यक्ष कर उसे सही दिशा में सोचने के लिए विवश नहीं करती, तो लघुकथा नहीं है। विष्णु जी ने यह भी कहा है कि "लघुकथा एक स्वतंत्र विषय की मांग करती है। मैं जिस विषय पर कहानी लिखता हूं, उस विषय पर लघुकथा नहीं लिख सकता ।"

यदि हम इस निकर्ष पर डॉ. सत्यवीर 'मानव' के दूसरे लघुकथा-संग्रह 'आवरण के आर-पार' की पड़ताल करें, तो पाते हैं कि उनकी लघुकथाएं पाठक के मन में संवेदना के स्तर पर गहरी उलझन पैदा करती हैं और व्यंग्य इस संग्रह की ज़्यादातर लघुकथाओं का प्राण-तत्त्व है। ये लघुकथाएं पाठक के अन्तर्मन को मथती हैं और सही दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। 'सिलसिले का अंत', 'आरक्षण', 'उसका टूटना', 'लौट आया नरेन', 'बड़ा आदमी', 'चिड़िया के बच्चे', 'तेवर', 'कौमी हीरो' और 'परिणति' इस संग्रह की कुछ ऐसी उल्लेखनीय लघुकथाएं हैं, जो पाठक की चेतना में एक ज़बरदस्त विस्फोट पैदा करती हैं। इन लघुकथाओं की खासियत यह है कि इनमें जीवन-स्थितियों का केवल शिष्ट चिन्तन नहीं है, इनमें लेखक ने जीवन की कुसंगतियों - विसंगतियों को एक नये कोण से भी देखा है। प्रस्तुति में मौलिक मर्मस्पर्शिता है, इसलिए साधारण कथ्य भी लेखक के हाथों में संधकर एक ख़ास चमक और ऊर्जा लैस होकर पाठक से मुखातिब होता है। लघुकथाओं का अंत प्रायः सुजेस्टिव है। यह भी कहा जा सकता है कि लेखक जीवन की विसंगति को एक तरतीब देकर जो उपादेय और श्रेयष्कर हैं, वह अपनी लघुकथा के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहता है। ऐसा चूंकि सायास नहीं, अनायास हुआ है, इसलिए खटकता नहीं और न ही आरोपित प्रतीत होता है।

कुछ लघुकथाओं में कथ्य की पुनरावृत्ति भी हुई है। यह शायद लेखक का चीज़ों को देखने और उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में पड़तालने का तरीका है। यही कारण है कि ऐसी लघुकथाएं लेखक की सोच के सही ठिकाने को रेखांकित करती हैं अथवा तर्ज को उठाकर यह बताती है कि लेखक की तरफ़दारी किनके प्रति है। यहां मैं अपनी बात की पुष्टि एक उदाहरण से करना चाहूंगा। 'सिलसिले का अंत' और 'आरक्षण' दोनों लघुकथाओं का विचार-बिन्दु लगभग एक है, लेकिन लेखक ने जिस तरह से आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे के सिक्के का जो दूसरा पक्ष उजागर किया है, वह गौरतलब है । उस दूसरे पक्ष को उजागर करने के लिए साहस भी चाहिए और चाहिए सब कहने की हिमाकत भी। यह दोनों चीज़े लेखक में प्रचुर मात्रा में हैं और उस संग्रह की लघुकथाएं बार-बार इस तथ्य की पुष्टि करती हैं।

संवाद डॉ. सत्यवीर 'मानव' के इस संग्रह की लघुकथाओं का मुख्य सरोकार है और संवादों ने ही इनके अंत को अधिक कम्पलैक्स और सुघड़ता प्रदान की है। व्यंग्य से भी इन लघुकथाओं की अर्थगर्भिता में कई गुणा बढ़ोतरी हो गई है। डॉ० सत्यवीर 'मानव' के इस दूसरे संग्रह की लघुकथाओं की भाषा में अधिक घुमाव - फिराव नहीं है। एक सहजता है और है पारदर्शिता । यही दो गुण इन लघुकथाओं को एक अलग पहचान और शक्ति भी प्रदान करते हैं।

वास्तव में, 'आवरण के आर-पार की सभी लघुकथाएं मानवीय मूल्यों के छोटे-छोटे अंतरीप हैं, जो जीवन की एक मुकम्मल तस्वीर पाठकों के समक्ष सम्मूर्तित करते हैं।

१२१६ - ए. सैक्टर ४१-बी,   -डॉ. सुभाष रस्तोगी

चण्डीगढ़ - १६००३६

अनुक्रम

सिलसिले का अन्त

आरक्षण

उसका टूटना

लौट आया नरेन

स्वप्न- महल

बड़ा आदमी

चिड़िया के बच्चे

तेवर

मैत्री

शगुन

नपुंसक मधुमक्खियाँ

ज्वार-भाटा

कौमी हीरो

देश - निकाला

प्रवाह

प्रश्न-चिह्न

अकेलेपन का साथ

बदली

अहसान फरामोश

बरबादी

परिणाम

स्वभाव

बलात्कार

देह - शोषण

प्रेक्टिकल

तमाचा

अपराधी कौन ?

सह-शिक्षा

गिरगिट

समझौता

गुरु-दक्षिणा

परिणति

रिश्ते

पुनरावृत्ति

इमेज

बदला

दरारें

सौदा

आत्महत्या

अनसुलझे सवाल

पेपरवेट

ख़राबी

सुधार

ताजमहल

मुबारकबाद

बेवकूफ

डाॅ. सत्यवीर 'मानव' 

जन्मतिथि : 9 जून, 1958

जन्मस्थान : गाँव तिगरा, जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा)

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी, समाजशास्त्र), पी-एच.डी., डी. लिट्. (मानद)

प्रकाशित लघुकथा-संग्रह :

कैक्टस की छाँव तले, आवरण के आर-पार, कैक्टस की छाँव तले ( ब्रजभाषा में भी प्रकाशित )

अन्य प्रकाशित पुस्तकें : 4 बालगीत-संग्रह, पाँच काव्य, दो शोध प्रबन्ध

सम्प्रति : वरिष्ठ प्रबन्धक, सर्व हरियाणा ग्रामीण बैंक (से.नि.)

सम्प्राप्ति : विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित

सम्पर्क : वार्ड नम्बर-1, मण्डी अटेली, जिला महेन्द्रगढ़ - 123021 (हरियाणा)

मोबाइल : 094162 98131, 07082406131

E-mail : svmanav@gmail.com

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