सवाली पिपासा / अतुल कुमार

लघुकथा-संग्रह  : सवाली पिपासा

कथाकार  : अतुल कुमार 

ISBN No. : 978-81-958754-5-0

सर्वाधिकार : @ लेखकाधीन

प्रकाशक : विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान (पंजी.) 

ए- 249, सेक्टर-46, नोएडा - 201303 

मो. 9810911826

ईमेल : vishnuprabhakarpratishthan@gmail.com

आवरण : श्वेताली कपूर

शब्द संयोजन : विक्की कपूर

मुद्रक : कपूर डिजाईनर एण्ड प्रिंटर्स, नोएडा

संस्करण : 2023

मूल्य : 175.00 रुपये

भूमिका 

सवाली पिपासा : आश्वस्त करती लघुकथाएँ

अतुल कुमार जी प्रमुखतः समाजसेवी हैं। समाजसेवा के साथ ही साहित्यसेवा भी उनके संस्कार में शामिल है। लेकिन उम्र के 8वें दशक के उत्तराद्ध में उनका कवि कथाकार रूप भी बड़ी सामर्थय तथा मानवीय दर्शन की कुछ अनछुई अनकही-सी बातों के साथ सामने आया है। 'सवाली पिपासा' उनकी लघुकथाओं का स्वतन्त्र संग्रह है जिसमें 60 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इससे पूर्व उन्होंने 'प ग चिह्न' नामक संग्रह में अपनी कुछ लघुकथाएँ और कविताएँ एक-साथ प्रस्तुत की थीं।

इस पुस्तक की पहली लघुकथा 'निस्तारण' पढ़ते हुए पाठक को स्वाभाविक-सा पूर्वाभास हो सकता है कि अब छोटा भाई कहेगा-मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई। लेकिन माँ तो 5 साल पहले ही जा चुकी थी! ऐसे में छोटे भाई का स्वयं को सम्पत्ति के तौर पर पेश करना यह दिखाता है कि गोचर सम्पत्ति के बँटवारे के उपरान्त कुछ अगोचर भी शेष रह जाता है और वह अगोचर होता है—पारस्परिक प्रेम।

लघुकथा 'चिंता' संवेदना के उस बिंदु पर उँगली रखती है, जो आज की व्यवहारिक और भागम-भाग भरी दुनिया में भीड़ के बीच वस्तुतः खो-सा गया है।

'जाले' सिर्फ वहाँ नहीं होते, जहाँ नजर आते हैं; और खून चूसने वाले कीट भी केवल वे नहीं हैं जो शरीर को त्रस्त किये हुए हैं। जाले और खून चूसने वाले कीट बाहर की दुनिया में जगह-जगह मौजूद हैं।

'2 अक्टूबर का वह दिन' सिपाही द्वारा 50 का नोट न लिया जाने पर ही समाप्त होती तो भी एक बेहतरीन आदर्श प्रस्तुत कर रही होती; लेकिन उसमें यथार्थ की वह कटुता न होती जो पाठक को कचोटती है। 'हम ही बंद करवाने वाले हैं और हम ही खुलवाने वाले' कहकर सिपाही एक ऐसे यथार्थ को प्रस्तुत कर देता है जो पुलिस की वर्तमान छवि को मटियामेट होने से बचा ले जाता है।

देश में आईपीसी यानी इंडियन पीनल कोड के कुछेक प्रावधान ऐसे हैं कि दुर्घटनाग्रस्त लोगों की सहायता करने में सक्षम व्यक्ति को 'तमाशबीन ' बनकर खड़ा रह जाना पड़ता है और बचाए जा सकने वाले लोग बचाए नही जा पाते हैं। वे किसी भी यत्न से अगर बचा भी लिए जाएँ तो उन्हें बचानेवाला कानून की चपेट से नहीं बच पाता है। ऐसी कथाओं का तात्पर्य कानून की खामियों की ओर इशारा करना होता है; लेकिन खामियाँ करने में सक्षम लोग साहित्य से सम्भवतः दूर ही रहकर चलते हैं। 

'कर्मफल' में अतुल जी ने शानदार फेंटेसी रची है और 'बिल पूरा भरना' कहकर हल्की-सी एक चिकौटी भी काटी है।

'फुलवारी' को फूलने के लिए किन परिस्थितियों और कैसे स्नेह लगाव की आवश्यकता होती है, इसे बहुत खूबसूरत ढंग से बताया गया है तथापि कुछेक बातें बताने से बचा भी जा सकता था।

'जीवन' कुछेक विरोधाभासों का नाम है और उन विरोधाभासों से मनुष्य को परिचित कराने की कला का नाम साहित्य है। इसे अतुल जी ने - दृष्टान्त शैली में लिखा है।

'वास्तुयोग' आज के राजनेताओं पर उतना नहीं, 2014 से पहले के राजनेताओं पर काफी खरा उतरता है। मेरा यह कथन मुझको 'भक्त' सिद्ध कर सकता है; और अगर आज के परिप्रेक्ष्य में कहूँ तो मुझसे प्रमाण माँगा जा सकता है। इस लघुकथा के मुख्य पात्र का नाम 'हुल्लड़' रखा गया है। यह एक राजनीतिक व्यक्ति है जो आम चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी को मतों के भारी अन्तर से हराता है। इसके पुरस्कार स्वरूप नई सरकार में उसे मंत्रीपद 'समर्पित' होता है। उसके चरित्र का खुलासा कथाकार ने यों किया है- 'वे तो खड़े-खड़े, चाहे लट्ठ के प्रयोग से, तुरन्त समस्या के निपटारण में विश्वास रखते हैं'। चमचों को इसमें चमचा नहीं, सहयोगी बताया गया है।

'जज्बा' का बुजर्ग पात्र - बत्रा जी — कैंसरग्रस्त होने के बावजूद हमेशा चुस्त और खुश रहता है। दोस्तों द्वारा पूछने पर अपनी चुस्ती के रहस्य का उद्घाटन वह यों करता है— 'जब से कैंसर के शरीर में पदार्पण का पता चला है, मुझे उसका बस एक ही इलाज नजर आता है— खेलते जाओ...'


लघुकथा 'सुधार का ठेका' की ये तीन प्रारम्भिक पंकतियाँ देखें— रात हो गयी थी। पति-पत्नी अपने शयन कक्ष में बिस्तर पर लेट गये थे । "तुमसे एक बात करनी है। "


"कहो न !"


उपर्युक्त वार्तालाप में पहला वाक्य पति ने कहा है या पत्नी ने ? यह स्पष्ट नहीं है; लेकिन 'कहो न !' के तुरन्त बाद वाले, तीसरे संवाद में कथाकार ने बिना कुछ कहे ही इस जिज्ञासा को शान्त कर दिया है। देखिए-"मैं सोच रहा था....सामान्यतः कथाकार पहले संवाद में ही पात्र को खोलते हुए यों लिखते हैं--

" तुमसे एक बात करनी है। " पति ने कहा ।

लेकिन अतुल कुमार जी ने तीसरे संवाद की शुरुआत 'मैं सोच रहा था' से कराकर बता दिया कि पहला संवाद पति के द्वारा कहा गया था और इस तरह पहले संवाद के बाद 'पति ने कहा' लिखे जाने वाले तीन शब्द बचा लिए। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने 'क्या हम जीना छोड़ दें' में किया है। वाक्य है—'डॉक्टर ने बताया। यहाँ डॉक्टर मेल है या फीमेल, इस तथ्य को उन्होंने अगले पैरा में यों खोला है—'आत्मीय परिचित होने के कारण डॉक्टर भी बात करते-करते भावुक हो उठी थी।' डॉ. शकुन्तला किरण ने शब्दों की इस अल्प-व्ययता के गुण के कारण ही लघुकथाकार को मितव्ययी शब्दशास्त्री कहा है। लघुकथा 'समझौता' अपनी 'कहन' शैली के कारण पठनीय बन पड़ी है। 'किस्सा भैंस का' भी कहन-शैली की रोचक कथा है। मुहावरों के प्रयोग ने रचना को आकर्षक बनाया है।

सामान्यत: देखने में आता है कि कुछ लघुकथाएँ कथा का कम, संस्मरण का आभास अधिक कराती हैं। वस्तुतः विवरणात्मकता को प्रमुखता दी जाने के कारण ऐसा होता है। कुछ लघुकथाओं में व्यक्तिवाचक संज्ञा के प्रयोग की बारम्बारता देखने में आती है। निकट वाक्यों में लघुकथाकार को व्यक्तिवाचक और जातिवाचक दोनों ही संज्ञाओं के प्रयोग के प्रति सावधान रहना चाहिए। दोहराव की बजाय दूसरे-तीसरे वैकल्पिक शब्दों के प्रयोग पर, संज्ञा के स्थान पर तत्सम्बन्धी सर्वनाम के प्रयोग पर भी ध्यान देना चाहिए। ऐसा करने से भाषा की प्रवहमन्यता बनी रहती है।

'सुधार का ठेका' प्रकारान्तर से दलित-विमर्श की कथा है और सवर्ण मानसिकता के दोहरेपन को सामने रखने का प्रयास इसमें किया गया है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि दलितों के लिए दूसरी क्रॉकरी रखने का प्रस्ताव पत्नी की ओर से आता है, पति उक्त प्रस्ताव का न केवल विरोध प्रस्तुत करता है बल्कि पत्नी के दोगलेपन के कुछ प्रमाण भी हाथों-हाथ प्रस्तुत करता है। चरित्रों की यह प्रस्तुति पत्नी में सरकार का और पति में जनता का रूप देखने हेतु पाठक को बाध्य कर देती है। चरित्र प्रत्यारोपण के प्रमाण स्वरूप लघुकथा का यह वाक्य देखें - 'वह अपनी धुन में बोले जा रहा था। पर जब उसने देखा कि सामने से जवाब आना बन्द हो गया है, शायद पत्नी सो गयी थी, घने अंधेरे में गहरा सन्नाटा पसर गया था। '

यहाँ पति नहीं, जनता बोले जा रही है और पत्नी नहीं, सरकार सो गयी है।

इस स्थिति को कथाकार ने 'घना अंधेरा' बताया है, न केवल घना अंधेरा बल्कि 'गहरा सन्नाटा' भी। इस लघुकथा का समापन पत्नी के व्यंग्य भरे जुमले के साथ हुआ है- उसके जाते ही पत्नी ठहाका लगाकर हँसी और बोली - "क्या सारे सुधार का ठेका आपने ही लिया हुआ है! हमारी भी कुछ जिम्मेदारी है कि नहीं !! स्पष्ट है कि जागी हुई सरकार अन्ततः सुधारकों को ही सुधारने में जुट जाती है।

'उं हूँ' को संसार की बेहतरीन प्रेम कथाओं में गिना जा सकता है। 'लिहाज' की स्थापना यही है कि इस संवेदनहीन समाज में बेलिहाज आदमी कमा खाता है और अन्ततः लिहाज करने वाला ही घाटे में रहता है। 'सीख' अचेतन मन की कथा है।

'हमने सीखा ही यही है' में 10-11 वर्षीय किशोर-पूर्व वय के लड़के का यह कथन सुनिए- "तुम शरीफ आदमी हो। अच्छा है, हमारे बीच में मत बोलो वरना मैं तुमसे भी इसी तरह बात करूँगा। हमने सीखा ही यही है । " बातचीत के प्रारम्भ में ही किसी व्यक्ति को 'शरीफ' कह देना बड़ी कूटनीतिक चाल है।

'माया मरी न मन मरा, मर-मर गये सरीर। आसा, तिरना ना मरी कह ये दास कबीर ।' मोह और ममता प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में लाइलाज बीमारियाँ हैं। ऐसी बीमारियाँ, जिन्हें व्यक्ति जीवनभर पाले रखता है। 'शिकायत' के समापन वाक्य ने लघुकथा को बरबस ही मुख पर मुस्कान ला देने वाला बना दिया है। जीवन एक 'चौपाल' है जहाँ 'मेरा कहा मानो वरना मरो', 'नर्क में जाओ', 'दंड भुगतो', 'कुढ़ो - मरो', 'सड़ो - मरो' जैसे स्वर और धमकियाँ लगातार सुनाई देती हैं। इन सबके बीच शान्ति- प्रदाता मात्र साहित्य है जो कहता है- 'मुझे सुनो, गुनो; जीओ और जीने दो ।"

'बलि के बकरे' में जिस अन्तिम वाक्य का प्रयोग हुआ है, लघुकथा में उसे 'लेखक का आ उपस्थित होना' कहते हैं और इस स्थिति से उसे बचने की सलाह दी जाती है। एकल संग्रह के रूप में ये लघुकथाएँ पहली ही बार संग्रहीत हुई हैं। इससे पहले 'पग चिह्न' नामक अपनी पुस्तक में अतुल कुमार जी ने अपनी कुछ कविताओं के साथ लघुकथाओं की प्रस्तुति दी थी। उल्लेखनीय है कि संग्रह की लगभग सभी लघुकथाओं में 'लेखकविहीनता' के गुण का पालन हुआ है।

लघुकथा 'जहर' | शंकरदेव के संन्यासी बन जाने के पीछे जो प्रेमकथा है, उसकी ओर कलियुग के कुछ लक्षण गिनाने के क्रम में गोस्वामी तुलसीदास ने भी संकेत किया है— नारि मुई भई सम्पति नासी, मूड़ मुड़ाइ होहि संन्यासी । 'कड़वी बेल यश की' दार्शनिक उच्चता प्राप्त लघुकथा है। इसमें अतुल जी एक सम्भ्रांत महिला का सुन्दर और सकारात्मक रूपक रचने में सफल हुए हैं। लघुकथा 'मेरा घर' की कानन तप्त मौसम में ठंडी हवा के झोंके -सी अनुभूति कराती है। 'चक्र सु-दर्शन' में दर्शन ने अधिक जगह ले ली है, कथा गौण-सी हो गयी है। 'चिंता' जीवन-दर्शन से जुड़ी एक शानदार लघुकथा है।

कुल मिलाकर अतुल कुमार जी की लघुकथाएँ, उनमें व्यक्त वैचारिक परिपक्वता, भाषा की सहजता और मर्यादा, शिल्प और शैली आश्वस्त करती हैं। इस संग्रह की लघुकथाओं का साहित्य जगत में स्वागत होगा। अनेकशः शुभकामनाएँ।

बलराम अग्रवाल

मोबाइल : 8826499115

ई-मेल : balram.agarwal1152@gmail.com

अपनी बात

हर पल हमारे आसपास कुछ ना कुछ घटित होता रहता है। उस घटनाक्रम को हर व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण से देखता है और उसको महसूस करता है । किसी को वह पसंद आता है, दूसरे को उसमें कमियां दिखाई देती हैं। यह सब निर्भर करता है हमारी मान्यताओं, विचारधारा और सोच पर। इन्हीं के अनुरूप हमारे मन मस्तिष्क में सारे घटनाक्रम पर मंथन चलता है और हम सकारात्मक, नकारात्मक अथवा तटस्थ निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। इसी सब प्रक्रिया से कथाएं उपजती हैं। एक ही घटनाक्रम पर अनेको अंदाज की कथाएं उपज सकती हैं। हमारे दृष्टिकोण और निष्कर्ष के अनुरूप ही उस कथा का रूप, स्वरूप, शब्दावली आदि इन कथाओं में परिलक्षित होता है ।

मैंने भी जो अपने आसपास घटित होते देखा और मन मस्तिष्क में उस पर जो प्रतिक्रिया हुई, उसी को एक कथा का रूप देने का प्रयास किया । इसमें से कुछ तो अवश्य आपको पसंद आनी चाहिएं।

सन 2020 तक मैंने केवल छह लघु कथाएं लिखी थी, वह भी कुछ घटनाओं और अनुभव की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप । लघुकथा अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम के रूप में उभर रही थी। मुझे भी कुछ रुचि बनी और अगले दो वर्षो में मैंने 25 लघुकथाएं लिख डाली। वे एक संकलन में प्रकाशित भी हुई। उसके बाद बलराम अग्रवाल जी वह अन्य मित्रों के प्रोत्साहन मिलने पर मैंने अगले एक वर्ष में 30 और लघुकथाएं लिखी और यह संकलन तैयार हो गया ।

आदरणीय बलराम अग्रवाल जी का में आभारी हूं, उन्होंने प्रोत्साहित भी किया और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया भी दी। इस पुस्तक को तैयार करने में मेरे दामाद विक्की कपूर ने भरपूर सहयोग दिया। मैं उनका आभारी हूं।

आप सबकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

अतुल कुमार

मोबाइल : 9810911826

अनुक्रमाणिका

1 निस्तारण

2 चिंता

3 जाले

4 2अक्टूबर का वह दिन

5 तमाशबीन

6 अपने ही

7 कर्म फल

8 फुलवारी

9 समझौता

10 जीवन

11 वास्तु योग

12 मंत्र

13 उपाय

14 निवृत्ति कर्म

15 सुधार का ठेका

16 ऊं हूं

17 तथास्तु

18 सुरक्षित स्थान

19 लिहाज़, फितरत और मजबूरी

20 प्रभु माया

21 संगदिली

22 मूल्य

23 सीख

24 गाँठ

25 हमने सीखा ही यही है

26 तलाश

27 क्या हम जीना छोड़ दें

28 अध्यक्ष की खोज

29 चौराहे की बत्ती के रंग

30 सम्मान

31 व्यंग्य बाण

32 किस्सा भैंस का

33 समय-समय की बात

34 नामुराद औलाद

35 स्वादिष्ट दाने

36 जमीर

37 ईमानदारी की फीस

38 चिंता

39 शिकायत

40 चौपाल

41 बलि के बकरे

42 मोह और मुक्ति

43 जहर

44 कड़वी बेल यश की

45 दमित उग्रता

46 म्हारा क्या है

47 दायित्व

48 जवाबदारी

49 चम्पू का आत्मालाप

50 चेतावनी ( सायरन)

51 स्थिति नियंत्रण में है

52 नींद गायब

53 आधुनिकता का शिकार

54 चक्र सु-दर्शन

55 मेरा घर

56 भेड़ को तो मुंडना ही होगा

57 व्यावसायिकता

58 जुगाड़

59 किताबी बात

60 संकल्पबद्ध

अतुल कुमार

जन्म : 18 अप्रैल 1945, दिल्ली

शिक्षा : एम. एस-सी

कार्यक्षेत्र : पहले - निजी व्यवसाय 

 अब - साहित्यिक गोष्ठियों व अन्य कार्यक्रमों का आयोजन तथा समाज सेवा 

 सम्प्रति : संस्थापक मंत्री, विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान, नोएडा

 संयोजक - सन्निधि संगोष्ठी, नई दिल्ली

 उपाध्यक्ष - विश्व समन्वय संघ, नई दिल्ली

पुस्तकें : 1. संपादन- चलता चला जाऊगाँ (विष्णु प्रभाकर की कविताओं का संग्रह) प्रभात प्रकाशन

2. संपादन - विष्णु प्रभाकर रचना संचयन, साहित्य अकादेमी

3. संयोजन - विष्णु प्रभाकर, जीवन एवं कृतियाँ विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान

4. कृति - डूबते को तिनके का सहारा (कविता संग्रह) विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान, 

प ग चिन्ह, (मुक्तक एवं लघुकथाएँ) विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान

सम्पर्क : ए-249, सेक्टर-46, नोएडा - 201303

मो. 9810911826

ईमेल : atul.kumar018@gmail.com

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