लालटेन (लघुकथा-संग्रह) / सुधा भार्गव

लालटेन (लघुकथा-संग्रह)

सुधा भार्गव 

कॉपीराइट - श्रीमती सुधा भार्गव (लेखिका)

मूल्य : 245/-

सर्वाधिकार सुरक्षित

ISBN: 978-93-91437-95-4

प्रथम संस्करण : 2023

प्रकाशक :- श्वेतांशु प्रकाशन

D-14, नियर रामलीला पार्क, पाण्डव नगर, दिल्ली - 110092

Contact: 8178326758, 9971193488

Website: www.shwetanshuprakashan.com

Email : shwetanshuprakashan@gmail.com

मुद्रक :- एस. पी. प्रिन्ट पॉइंट D-14, पाण्डव नगर, दिल्ली - 110092

भूमिका

कोमल संवेदन तंतुओं को झंकृत करती लघुकथाएँ

बलराम अग्रवाल 

सुधा भार्गव जी की पहली लघुकथा सन् 2006 में प्रकाशित हुई थी। उम्र की दृष्टि से देखा जाए तो उनका लघुकथा लेखन काफी बाद में आरम्भ हुआ; लेकिन अनुभव, विचार प्रवणता, भावुक प्रसंगों के प्रति संवेदनशीलता, ममत्व आदि ऐसे गुण हैं जो उनको सहज ही वरिष्ठ साहित्यकार की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। भाषा- शिल्प के माध्यम से लघुकथा के कथ्य या तो टंकार उत्पन्न करते हैं या झंकार। एक तीसरा भी प्रभाव है जो टंकार और झंकार का मिला-जुला रूप है; वह है बौछार । बौछार बाणों की भी हो सकती है और रसों-गंधों की भी। सुधा भार्गव जी के लघुकथा संग्रह 'लालटेन' की लघुकथाओं के कथ्य झंकार उत्पन्न करते हैं।

लघुकथा में कथ्य और उसकी प्रस्तुति दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। कथ्य में कथाकार की अन्तःप्रकृति, अन्तःसंस्कृति तथा आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक सरोकार निहित होते हैं; जबकि प्रस्तुति के अन्तर्गत हम उसके भाषा-शिल्प, शैली तथा शीर्षक के निर्धारण आदि को देख पाते हैं। हमारी लघुकथाएँ कथा के साथ-साथ मानवता का रूपक भी होनी चाहिए। 'पालना', 'आज का सुदामा', 'वात्सल्य की हिलोरें', 'माँ का प्रतिरूप', 'जीवन का पहिया' अलग-अलग ढंग से इस रूपक को प्रस्तुत करती हैं। सुधा दी प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग अक्सर नहीं करती हैं, किन्तु काव्यात्मक प्रवाह और झरने से झरकर मिली बूँदों-सा कोमल स्पर्श उनकी भाषा में देखने को मिलता है। यही कारण है कि उनकी लघुकथाओं के संदेश को समझने की तुलना में पाठक महसूस अधिक करता है। इसी को लघुकथा में 'छुअन' का गुण कहा जाता है। बावजूद इसके उनकी लघुकथा 'दर्द का उत्कर्ष' में प्रतीक और बिम्ब दोनों का प्रयोग देखने लायक है। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था कि इस लघुकथा के केन्द्र में यह भाव है कि सिर्फ स्त्रियाँ ही पुरुषों के द्वारा नहीं छली जातीं, पुरुष भी स्त्रियों के द्वारा छले जाते हैं, उनका भी हृदय विदीर्ण होता है। प्रतीक रूप में इसी भाव को उन्होंने लघुकथा के अंत में यों प्रकट किया है- 'तितली के इस व्यवहार ने पुष्प के सीने में एक अनकही पीड़ा उत्पन्न कर दी, जीवन निरर्थक लगने लगा। निरर्थकता की इस कचोट से उसकी पत्तियाँ झर-झर, झर-झर झरने लगीं।' पुष्प की पंखुड़ियों को एक-एक कर झरने का बिम्ब पाठक के मन में शनैः शनैः डूबते-टूटते हृदय का चित्त उपस्थित करता है।

'वह एक रात' अपने आप में पूरा उपन्यास है, छोटी काया में कुशलता से कहा गया पूरा उपन्यास। यह गहरे और घने नेपथ्य वाली अनुपम लघुकथा है।

सुधा भार्गव जी ने लघुकथा लेखन में शिल्प और शैली के कुछ प्रयोग भी किये हैं। जैसे पत्न-शैली (अकेलापन), टेलीफोन अथवा मोबाइल वार्तालाप शैली (समय का चक्र) जिसमें दूसरी ओर से आने वाले संवादों का अनुमान इस ओर से कहे जाने वाले संवादों के आधार पर पाठक अथवा श्रोता को होता है, मुहावरों और कहावतों के प्रयोग की भाषा-शैली (गिरगिट)।

इस संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ रिमझिम बरसती बारीक बूँदों-सी या कह सकते हैं कि किसी शिशु के कोमल पोरुओं- सी पाठक के एहसास को, उसकी चेतना को 'छूती' हैं। कुल मिलाकर यह कि सुधा भार्गव कोमल संवेदन तंतुओं को छूने और झंकृत करने की कला में प्रवीण दिखाई देती हैं। लघुकथा 'प्रेम का धागा' और 'वक़्त ठहर गया' प्रेम और स्नेह से पूर्ण संवेदना के कोमल तंतुओं से बुनी हैं। स्रेह के कोमल तंतुओं की झंकार सुधा दी की अधिकतर लघुकथाओं में सुनाई देती है। इस लघुकथा में यह अनहद नाद-सी है। अद्भुत और अपरिमित सुख से भरपूर ।

इस संग्रह का नाम उन्होंने संग्रह की किसी लघुकथा के शीर्षक पर न रखकर स्वतंत्रतः 'लालटेन' रखा है जो अनेकार्थी है। यह नाम प्रतीकात्मक भी है और बिम्बात्मक भी। अतीत में यह वर्तमान के अँधेरों से लड़ने का औजार रहा है। गाँव-गोहार की कच्ची बस्तियों में ही नहीं, शहर की बड़ी-बड़ी हवेलियों में भी शाम की सियाही को रोशन करने की जिम्मेदारी लालटेन ने लम्बे समय तक निभायी है। फिल्म 'शोले' में लालटेन प्रेम की दबी-दबी पींग का प्रतीक बनकर आ चुकी है। हिन्दी-पट्टी में लालटेन को जिस मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, उस अर्थ में आजकल ट्यूबलाइट को किया जाता है यानी 'स्लो' सोचने-करने वाले व्यक्ति की उपमा लालटेन रही है। दूसरी ओर, लालटेन संघर्षपूर्ण जीवन का भी प्रतीक रही है। 'लालटेन में पढ़कर बड़े हुए हैं' जैसे वाक्य का तात्पर्य है कि बंदा संघर्षों के बीच से राह निकालकर वर्तमान स्थिति तक पहुँचा है। आज़ादी मिलने के आसपास यानी उससे दो-चार साल इधर-उधर पैदा हुई पीढ़ी निःसंदेह 'लालटेन में ही पढ़कर' बड़ी हुई है और इसका आभास उसकी रचनाओं में मिलता भी है। बहरहाल, इस सुन्दर नाम वाली लघुकथा कृति के लिए सुधा दी को बहुत-बहुत बधाई ।

सम्पर्क : 8826499115

स्वकथ्य

सुधा भार्गव

आज की डिजिटल दुनिया में सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है। हम बदल रहे हैं। हमारी सोच बदल रही है और बदल रही है हमारे जीवन की शैली। इसका प्रभाव साहित्य पर भी अवश्यम्भावी है। लघुकथा आजकल खूब फूल-फल रही है और सब के आकर्षण का केंद्र बनती जा रही है। है। जिसका मुख्य कारण है इसका गागर में सागर होना। बड़ी खूबसूरती से कम शब्दों में अपनी बात कह जाती है। जिससे मस्तिष्क झंकृत हो उठता है। जिसकी टंकार में पाठक घंटों डूबा रहता है। कोई-कोई लघुकथा तो जीवन भर के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ देती है।

हर कोई नवीनता व निरालेपन का प्रेमी है, चाहे वह कला क्षेत्र हो या सृजन क्षेत्र । लेखन क्षेत्र में भी तो पाठक नए विषय पर आधारित लघुकथा चाहते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पुराने विषय महत्वहीन हैं। नवीन रूप देकर उनका प्रस्तुतिकरण हो तौ अच्छा है। यह प्रयास कई जगह मैंने संग्रह में किया है। यह मेरा तीसरा लघुकथा संग्रह है जिसमें राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों के अलावा मानवीय मूल्यों व रिश्तों की सुगंध को लेकर अनेक रचनाएँ हैं। कटाक्ष के साथ-साथ उनको एक सकारात्मक आकाश दिया है क्योंकि लघुकथा कोई नकारात्मक रचना-विधा नहीं है।

लघुकथा 6-7 वाक्य की भी हो सकती है और आमने- सामने के दो पृष्ठ पर भी हो सकती है। यह उसके कथ्य, लेखन कौशल व लेखन क्षमता पर निर्भर करता है। इस संदर्भ में मुझे कथादेश पुरस्कृत लघुकथाएँ संग्रह की याद आ रही है जिसमें संतोष सुपेकर जी ने मुश्किल से 8 लाइनों की लघुकथा 'लार पर आघात' में वर्दी वाले की टपकती लार पर अच्छा व्यंग कसा है। शीर्षक भी बहुत सटीक है। इसी संग्रह में दो पेज की लघुकथा 'रिश्तों की पहेली' किसलय पंचोली ने लिखी है। उसमें भी बालमन व बाल जिज्ञासा का अनूठा संगम है। लंबी लघुकथा होते हुए भी संवाद रुचिकर हैं। कथा की कसावट व बुनावट देखते ही बनती है।

इस संग्रह में मेरी भी एक लघुकथा- 'वह एक रात' है, जो लंबी है। कथ्य ही कुछ ऐसा रहा कि उसके चारों तरफ मन की सलाई पर शब्दों के फंदे बुनते-बुनते उसका आकार दो पेज में फैल गया ! पता भी ना लगा। कहने का तात्पर्य यह है कि लघुकथा का आकार लघु नहीं, बल्कि उसका विस्तार तो धरती से आकाश तक है।

लघुकथा शैली पर नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। इससे पहले इतनी विविधता देखने को नहीं मिली थी। अगर मिली भी थी तो उनके साथ न्याय न हो सका। पिछली बार 'लघुकथा कलश' का विशेषांक निकला था जो लघुकथा की प्रयोगात्मक शैलियों पर आधारित रहा। इसका संपादन श्री योगराज प्रभाकर जी ने किया है। तब से ऐसा लग रहा है जैसे शैलियों की बाढ़ सी आ गई है। डायरी शैली, पत्न शैली, टेलीफोन शैली, अकबर बीरबल शैली, मुहावरे लोकोक्तियों की शैली ! ना जाने कौन-कौन सी शैलियाँ। इससे लेखक उत्साहित हैं और इन शैलियों पर सफलतापूर्वक लिखा जा रहा है। इन शैलियों ने लघुकथा संसार को रोचक बनाकर हरा-भरा कर दिया है। नए-नए अंकुर फूट रहे हैं। बस कहीं-कहीं झाड़ियों का इतना अंबार दिखाई देने लगता है कि कुशल माली के हाथों की आवश्यकता प्रतीत होती है। मेरा निजी अनुभव है कि इससे कथा सौंदर्य में बढ़ोतरी होती है। असल में लघुकथा कोई विशाल समुद्र या बहती नदिया नहीं है बल्कि वह तो झरने की तरह से कल-कल करती, उछलती तीव्र प्रवाह के साथ चलती है। यदि लघुकथा में कथा सौंदर्य के साथ-साथ काव्यात्मक बौछारों का छिड़काव भी कर दिया जाए तो उसकी कल-कल की ध्वनि में एक संगीत-सा सुनाई देगा और पाठक मुग्ध हो उठेगा।

आजकल लघुकथा को केवल लिखते और पढ़ते ही नहीं है बल्कि लघुकथा वाचन की धूम है। कथा वाचन में श्रोता की आँखें वाचक पर गढ़ी रहती हैं पर कथा को एकाग्र चित्त से सुनता है। सुनते-सुनते यदि शब्दों में उसे कोयल की सी कूक सुनाई देने लगे तौ वह भावविभोर हो उठेगा और कथा में डूब जाएगा। इसी में तो लघुकथा की और उसके वाचन की सार्थकता है। इसमें कोई शक नहीं कि मेरी कुछ लघुकथाएँ काव्यात्मक प्रभाव लिए हैं लेकिन उनको मैंने खुद नहीं लिखा है बल्कि लघुकथा के कथ्य ने मुझसे वैसा लिखवा लिया है।

मैं उन वरिष्ठ लघुकथाकारों की आभारी हूँ जिनकी लघुकथाएँ पढ़-पढ़ कर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मेरी लेखनी को ऊर्जा मिलती है। फेस बुक पर उमेश महादोषी जी के लघुकथा वाचन से तो मुझे घर बैठे ही एक से एक बढ़कर लघुकथाएँ सुनने का अवसर मिल जाता है। बलराम अग्रवाल जी का तो मैं किस तरह शुक्रिया अदा करूँ कह नहीं सकती। गहन और गंभीर व्यक्तित्व होते भी व्यवहार इतना सरल सहज व माधुर्य पूर्ण ! एक बार कहने से ही वे इस संग्रह की भूमिका लिखने को तैयार हो गए! मैं तो सोचती ही रह गई कि इतने व्यस्त रहने वाले इंसान से मैं किस मुँह से कहूँ- भूमिका लिख दो। मेरे कहने में देर हुई, मगर उनके लिखने में देर नहीं हुई। वे एक कुशल ब्लॉगर भी हैं। 'जनगाथा' और 'लघुकथा-वार्ता' आदि उनके ब्लॉग्स बहुत उपयोगी हैं। जब भी लघुकथा से संबंधित कोई समस्या मेरे सामने खड़ी होती है, उनके ब्लॉग खोलकर बैठ जाती हूँ और मुझे मिल जाता है अपनी समस्या का समाधान ।

लघुकथाकार प्रेरणा गुप्ता जी (कानपुर निवासी) का आभार मैं कैसे प्रकट करूँ ! समझ नहीं आता। उन्होंने मेरी पग-पग पर बहुत मदद की। पहले मैं कहानियाँ सुना करती थी, पर अब मैं इस ताक में रहती हूँ कि कोई मेरी रचना सुनने वाला मिल जाए ताकि उसकी कमियों की तह तक पहुँचा जा सके। वे बार-बार मेरी पकड़ाई में आ जातीं। अपना काफी समय उन्होंने मेरी रचनाओं को दिया। अपनी लिखी रचनाओं को एक दूसरों को सुनना-सुनाना और धैर्य से सुझाव सुनना भी तो जरूरी है। श्वेतांशु प्रकाशन के सर्वेसर्वा संजय कुमार जी व उनकी पूरी टीम को मेरा धन्यवाद जिनके कारण इतना सुंदर संग्रह आपके सामने है। इस संग्रह में जैसी भी लघुकथाएँ हैं आपके सामने हैं। अब ये कैसी हैं, इसका तो निर्णय आप ही करेंगे। आपके विचारों का व सुझावों का सदैव स्वागत है। 

अनुक्रमणिका

शीर्षक

पालना

आज का सुदामा

वात्सल्य की हिलोरें

लौह पुरुष

माँ का प्रतिरूप

एक ज़माने के अवशेष

प्रेमबेलि

ज़िंदा हूँ अभी

बाजी पलटी तो पलटी

वक़्त ठहर गया

दर्द का उत्कर्ष

बेताज बादशाह

एक्सपायरी डेट के जीव

सम्बन्धों का नायक

जीवन का पहिया

कला प्रेमी

कोरोंटाइन

नयनों के दीप

पृथ्वी और आकाश

माँ खो गई

ज़ल्लाद

ज़िन्दगी मुस्करा उठी

साँसों की बाँसुरी

अरमानों की रंग भूमि

प्रेम का धागा

खून रंगे हाथ

औलाद है मेरी

अंकुर

बापू तो बदल गए

ओ मेरे माँझी

शिला पर उगती दूब

दलदल की चौखट

गर्दिश के तारे

यातनाओं का शहर

निष्ठुर पंजे

गऊ ग्रास

सिक्कों का आँकड़ा

आरती का चढ़ावा

कबाड़घर के हीरे

यमराज

बैरंग चिट्ठी

भावनाओं का सम्बल

शादी का ठप्पा

अकेलापन

कठपुतली का विद्रोह

चरित्रहीना

गिरगिट

जन्मदिन की सौगात

मन की खिड़की

समय का चक्र

नानी की दुनिया

वह एक रात

सुधा भार्गव

जन्मस्थल : अनूपशहर, जिला - बुलंदशहर यू. पी.

शिक्षण : बिरला हाई स्कूल कलकता में 22 वर्षों तक हिन्दी भाषा का शिक्षण कार्य किया।

लेखन : साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लेखनी अविरल क्रियाशील है। अब चाहे यह कविता-कहानी हो, लघुकथा या लोककथा हो, बालकहानी- बालसंस्मरण या यात्रा संस्मरण हों।

प्रकाशित कृतियाँ: लघुकथा संग्रह: 1-वेदना संवेदना 2-टकराती रेत ।

बालसाहित्य : 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ किताबों का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट, सूचना विभाग व किन्डल प्रकाशन से भी हुआ है।

कहानी संग्रह : सुगंध भरी साँसें (प्रौढ़ कहानियाँ)

यात्रा संस्मरण : क्रूज शिप यात्रा, मेरे वे चार दिन ।

काव्य संग्रह : रोशनी की तलाश में

डायरी लेखन : किशोर की डायरी-मातृभूमि प्रकाशन, कनाडा डायरी के पन्ने-की 40 कड़ियाँ अंतर्जाल साहित्यकुंज पत्रिका में प्रकाशित होती रहीं।

लघुकथाओं का प्रकाशन प्रसिद्ध अविराम साहित्यकी पत्रिका, वार्षिकी संरचना, संकलनों, विशेषांकों में निरंतर हुआ है। लेखिका का रचना संसार हिन्दी समय व गद्य कोश में भी देखा जा सकता है। लेखिका ब्लॉगर भी है। यू ट्यूब पर भी कहानियाँ व लघुकथाएँ सुनी जा सकती हैं। दिल्ली आकाशवाणी रेडियो स्टेशन में महिला विभाग, बाल विभाग से कई वर्षों तक जुड़ाव रहा। कविता पाठ व कहानी वाचन का प्रसारण हुआ।

सम्मान : डॉ. कमला रत्नम् सम्मान, राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान, श्रीमती अरुणा निगम सम्मान, प्रेरणा नैतिक मूल्य प्रहरी सम्मान, मगसम अमृत महोत्सव सम्मान ।

पुरस्कार : राष्ट्र निर्माता पुरस्कार (प. बंगाल) 

संप्रति : स्वतंत्र लेखन

संपर्क सूत्र : जे ब्लॉक 703, स्प्रिंगफील्ड अपार्टमेंट, सरजापुरा रोड, बैंगलोर-560102 ईमेल : subharga@gmail.com

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