विलोम/अशोक मिश्र

लघुकथा संग्रह : विलोम

कथाकार  : अशोक मिश्र 

प्रकाशक 

बोधि प्रकाशन 

सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006 

फोन : 0141-2213700, 9829018087

ई-मेल : bodhiprakashan@gmail.com

कॉपीराइट : अशोक मिश्र

प्रथम संस्करण : 2024

ISBN: 978-93-5536-836-2

कम्प्यूटर ग्राफिक्स : बनवारी कुमावत

आवरण संयोजन : बोधि टीम

मुद्रक : तरु ऑफसेट, जयपुर

मूल्य : ₹ 200/-

अनुक्रम

प्रासंगिक और प्रभावशाली लघुकथाएँ :

वेदप्रकाश अमिताभ

विविधवर्णी लघुकथाएँ : चित्रेश

लघुकथाएं

राजा की बात

विलोम

खानदान

बच्चे की मौत

रोजगार

किसान

अंतर

अनपढ़

अपराध

अवमूल्यन

अपराधी

आँखें

आधार

आधारशिला

आवास वर्ष

उद्योगपति

उनका दुख

खून की होली

ख़ौफ़

गरीब

चीनी का रेट

जुगाड़

झोपड़ी का अँधेरा

डर

तब से

थाना : एक परिचय

दंगा

दुकानदारी

धन्धा

धर्म कौन ?

धर्म के नाम पर

नशा

नए वर्ष की शुभकामनाएँ

नाटक

निर्दोष

नेता

पंचायत का न्याय

पक्षी से बदतर

पढ़ा-लिखा आदमी

पुत्र-प्रेम

पेट की शिक्षा

पैसे से

प्रेजेन्ट

प्रमोशन

बँटवारा

बिरादरी में इज्जत

बेईमान

भविष्य की चिंता

भिखारी कौन

भिखारी का दान

भूखा

भ्रष्टाचार उन्मूलन आयोग

भ्रष्टाचार के खिलाफ

मनौती

मिठाई

मुआवजा

मैं तो, छोटा बच्चा हूँ

रणनीति

रहस्य

रावण जिंदा है

रुपये

लायक

विडंबना

विदाई पार्टी

विदेशी एजेंट

विभाग कायम है

विश्वास के दो रूप

शांति वार्ता

शादी या बलिदान

शिक्षा

शिक्षा का असर

शिलान्यास की दीवार

शोक-संवेदना

संवेदना

संशय

सबक

साक्षरता मिशन

सूखी रोटियाँ

समझौता

समय की मार

समस्या

सुख चैन

स्वार्थ अपने-अपने

स्वेटर

सपनों की उम्र

कुछ कहानियाँ...

किरदार

हीरा नचनिया

जिंदगी के रिश्ते

प्रासंगिक और प्रभावशाली लघुकथाएँ

रामदेव आचार्य ने 'कहानी' की व्याख्या करते हुए लिखा है, 'कहानी का अर्थ है, जिंदगी के एक हिस्से से अंतरंग पहचान जताना। अनुभव के दराजों से सही वस्तु चुनना और उसे शिल्प की तल्खी देना।' हालांकि 'लघुकथा' एक स्वतंत्र विधा के तौर पर स्थापित हो चुकी है और उसकी आलोचना के कई प्रतिमान सुनिश्चित किए जा रहे हैं, फिर भी रामदेव आचार्य की उपयुक्त अवधारणा बहुत दूर तक 'लघुकथा' पर भी लागू हो सकती है। जिंदगी के अनुभव-विशेष से अंतरंग पहचान का लगभग वही अर्थ है जिसे आधुनिक काव्यालोचन में 'मार्मिक स्थलों' की 'पहचान' कहा गया है। किसी भी विधा के लिए सही 'कथ्य' का चुनाव बहुत बड़ी समस्या है, लेकिन 'लघुकथा' में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। एक वैचारिक कौंध, कोई व्यंग्यात्मक टिप्पणी, कोई अंतर्विरोध 'लघुकथा' का आधार बन सकता है, लेकिन जब तक उसमें मार्मिक छुअन का अभाव होगा, कोई 'लघुकथा' प्रभावपूर्ण और लेकिन टिकाऊ नहीं हो सकती। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने 'कहानी' से 'जीवन-मर्म' के उद्घाटन की अपेक्षा की थी, 'लघुकथा' में भी वह न्यूनाधिक आवश्यक है। समग्रतः 'लघुकथा' के मूल्यांकन के तीन प्रतिमान विवाद से परे हो सकते हैं--

(क) मानवीय संवेदना की छुअन

(ख) स्पष्ट 'विजय'

(ग) सुगठित संरचना

अशोक मिश्र की लघुकथाओं का आस्वादन करते हुए लगता है कि 'लघुकथा' के उपर्युक्त प्रतिमानों के संदर्भ में उनके बोध और विन्यास को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है।

संकलित संवेदना-संवलित लघुकथाओं में 'भिखारी का दान', 'खून की होली', 'सूखी रोटियाँ', 'अंतर', 'आधार', आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें सामान्यतः कोई त्रासदी पाठक-मन को आर्द्र कर जाती है। 'आधार' और 'खून की होली' में मृत्यु की उपस्थिति वातावरण को गंभीर बनाती है। 'अंतर' में मृत्यु के निकट पहुँचा हुआ पिता है जो बेटे और बेटी में अंतर करता रहा है। जब वह देखता है कि बुरे दिनों में बेटा गायब है और बेटी हाजिर है तो पश्चाताप के अलावा कोई चारा नहीं रहता है-'उनकी अंतरात्मा उन्हें झिंझोड़ रही थी और वह चुपचाप मौन बिस्तर पर लेटे बस बेटी का हाथ अपने हाथ में लेकर रोते जा रहे थे।' 'सूखी रोटियाँ' में जहाँ गरीब की विवशता मार्मिक बन पड़ी है, वहीं उसे पीटनेवाले का पछतावा भी संकेतित है। पछतावा 'उनका दुःख' में भी है, जहां युवा पीढ़ी गाँव में रहने वाले पिता से दूर हो चुकी है। ग्रामीण पिता का सोचना है, 'इससे ज्यादा अच्छा था, उन्हें गँवार रखता तो वे खेती करते और साथ ही मेरी सेवा करते, इस बात का मुझे दुःख है।' 'भिखारी 'का दान' और 'खौफ' सरीखी कथाएँ अपने तरीके से मानवीय संवेदना का उपस्थिति को रेखांकित करती हैं। 'भिखारी का दान' में एक भिखारी दूसरे भिखारी को भोजन करा के संतोष का अनुभव करता है कि वह भिखारी होते हुए भी किसी का पेट भर सका और इस संतोष-भाव में उसकी भूख उड़ जाती है। 'खौफ' में मनुष्यता की झलक कई भ्रमों को निरस्त करती है।

इस संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ अपने स्पष्ट 'विजन' के लिए सराही जाएँगी। तमाम विसंगतियों के प्रति रचनाकार की दृष्टि आलोचनात्मक यथार्थवादी है। वह निर्भीक भाव से अपने आसपास की कुत्साओं को खारिज करता है और इस प्रतिवाद-कर्म में 'व्यंग्य' एक कारगर हथियार का काम करता है। व्यवस्था के स्तंभ और पहरुए विशेषतः लेखकीय आक्रोश का निशाना बने हैं। सर्वाधिक रोष पुलिस की अमानवीयता के प्रति है। 'डर', 'प्रमोशन', 'अपराधी', 'विभाग कायम है', 'संवेदना आदि रचनाएँ रक्षकों के भक्षक बन जाने की विडंबना पर केंद्रित हैं। पुलिस का आदर्श-वाक्य है- 'विनाशाय च दुष्कृताम्' । व्यवहार में ठीक इसके उल्टा है। 'प्रमोशन' के लिए थानेदार किसी निरीह की हत्या करा सकता है और बेहयाई से अपने इस कार्य की वकालत भी करता है, 'हमें नौकरी करनी है तो इधर-उधर से फर्जी मुठभेड़ दिखाकर कोटा पूरा करना है। आखिर इन्हीं चोर-डकैतों के बल पर ही तो विभाग कायम है।'

'अपराधी' में निर्दोष को बैंक डकैती का अभियुक्त बना दिया गया है, जबकि वह 'लॉकर सेफ' के बारे में कुछ भी नहीं जानता। व्यवस्था के अन्य अंग भी कम क्रूर और निर्मम नहीं हैं। 'पंचायत का न्याय', 'बिरादरी की इज्जत' जैसी लघुकथाओं में न्याय-व्यवस्था निशाने पर है। जहाँ गरीब को कभी न्याय नहीं मिलता वह व्यवस्था जनविरोधी नहीं है तो क्या है? पत्रकारिता के अधःपतन को 'धंधा', 'भूखा' और 'उद्योगपति' में देखा जा सकता है। कोई रचना किसी पत्रिका में छपनी जरूरी है क्योंकि वह एक उद्योगपति के सुपुत्र की रचना है।

छोटा-मोटा पत्रकार दस किलो चीनी पर ही बिक जाता और समझ जाता है-'समाचार छपने से दुश्मनी अलग, इससे तो अच्छा यह धंधा ही है...।' (लघुकथा-धंधा)। 'भूखा' में तेज-तर्रार युवा पत्रकार अधिकारियों द्वारा खरीद लिया जाता है-'... फिर एक अधिकारी ने कहा कि भूखा कुत्ता अधिकं भौंकता है, अतः उसे मांस का टुकड़ा चाहिए।' ये सारे संदर्भ परिवेश के संक्रमणशील यथार्थ से कथाकार के अंतरंग परिचय की गवाही देने के साथ-साथ उसके अन्याय, भ्रष्टाचार, अवमूल्यन विरोधी दृष्टिकोण को भी व्यंजित करते हैं।

जाहिर है, इस तरह की लघुकथाएँ जीवन-यथार्थ के ठोस आधार पर निर्मित हैं और इनका अभिप्राय सर्वथा स्पष्ट है।

अशोक मिश्र के व्यंग्य की मार से शिक्षा जगत्, डॉक्टरी पेशा, अफसरशाही राजनीतिक कदाचार आदि भी बरी नहीं हैं। 'विदाई-पार्टी' में अध्यापकों का टुच्चापन केंद्रस्थ है और 'गरीब' में चिकित्सक की अमानवीयता का संदर्भ है। आज के धनवंतरि का गरीबों के विषय में नजरिया कुछ इस प्रकार है-'गरीब साले मरने के लिए ही पैदा होते हैं। इसके मरने से एक गरीव तो कम होगा ही साथ ही ये भी गरीबी और दुःखी जीवन से छुटकारा पा जाएगा।' 'प्रेजेन्ट' सरीखी लघुकथाएँ नौकरशाहों की भ्रष्टता को उभारती हैं। समूचे तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को 'पैसे से' शीर्षक लघुकथा में प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति मिली है-'आज जब ऑफिस से निकला तो पुराने मित्र शरद बाबू मिल गए। चाय-पानी के पश्चात् मैंने पूछा, भाई! कैसे हो, तो वह कहने लगे, 'छोटा भाई घूस लेने के आरोप में बंद हो गया था फिर पैसे देकर छुड़वा लिया ।' नेताओं की नीचता को 'नाटक', 'बेईमान' आदि रचनाओं में पढ़ा जा सकता है। वर्तमान की प्रमुख चिंता 'सांप्रदायिकता' पर आधारित कई लघुकथाएँ इस संग्रह में हैं। 'दंगा', मुआवजा', 'धर्म कौन', आदि में सांप्रदायिक उन्माद में बच्चों की निर्लिप्तता से भावी पीढ़ी के प्रति आशा का भाव मुखरित हुआ है- दोनों लड़के धर्म की भावना से दूर प्रेम से खेल रहे थे। 'खौफ' में संकेतित है कि हमारे बहुत-से डर कल्पित और खुद के गढ़े हुए हैं। अनेक लघुकथाएँ संकेत देती हैं कि तमाम समस्याएँ और विडंबनाएँ हमारी मौजूदा व्यवस्था की देन हैं। अतः जहाँ-तहाँ व्यवस्था- विरोधी तेवर स्पष्ट हैं। संग्रह की संभवतः सबसे तीखी लघुकथा 'आँखें' में व्यवस्था-विरोध की अभिव्यक्ति बहुत सलीके से हुई है। फाँसी चढ़ते निर्दोष युवक की आखिरी इच्छा है- 'मैं मरने से पूर्व अपनी दोनों आँखें इस देश की अंधी न्याय व्यवस्था को देना चाहता हूँ।' यह अकेली लघुकथा अशोक मिश्र की लघुकथा-लेखक के तौर पर विशिष्ट पहचान बनाती है, इसमें संदेह नहीं है।

जो आलोचक आज के चालू विमर्शों-'दलित-विमर्श', 'नारी-विमर्श' के बिना रचना की सद्गति नहीं मानते वे भी इस संग्रह से निराश नहीं होंगे। नारी के विद्रोह-भाव की दीप्ति 'सबक' में है, जहाँ नववधू घोषणा कर देती है कि दहेज देकर खरीदा गया वर घरजमाई बनकर रहेगा। 'अपराध' में दलितों की नियति वर्णित है। वैसे अनेक रचनाओं में दलितों-वंचितों का संघर्ष है लेकिन वह 'वर्ण' के रूप में न होकर 'वर्ग' के रूप में ही सामने आया है।


अशोक मिश्र कथ्य-सजग कथाकार हैं, लेकिन 'शिल्प' की उपेक्षा नहीं करते हैं। वे कई तरह से इन रचनाओं को 'कथ्य' के अनुरूप प्रभावपूर्ण और नुकीली बनाने का प्रयास करते हैं। 'जुगाड़' में पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग स्वाभाविकता लिए है। कई लघुकथाओं में अंतिम वाक्य हथौड़े की तरह बज उठा है। उदाहरण के लिए 'आँखें' और 'उनका दुःख' । 'उनका दुःख' में आखिरी वाक्य असंबद्ध-सा लगता हुआ भी व्यंजक बन पड़ा है- 'बाहर किसी बम के धमाके से हम दोनों काँपकर रह गए', यहाँ धमाका मन के भीतर हुआ है। 'पेट की शिक्षा' का अंतिम वाक्य' उसने मेरे सामने एक प्रश्नचिह्न छोड़ दिया था' अनावश्यक सा है। इसी तरह 'पैसे से' में यह वाक्य किसी प्रभाव की वृद्धि नहीं करता 'वह तो अपनी बात कह चुके थे, परंतु मैं सोच रहा था कि दुनिया में पैसे से क्या नहीं होता।' वस्तुतः यहाँ पाठक को सोचने के लिए छोड़ देना चाहिए था। कई कथाओं में विभिन्न कथन-पद्धतियों के सहयोग से अभिव्यंजना को आकर्षक बनाने के लिए अशोक मिश्र प्रयत्नशील हैं। शुभकामना के शिल्प में 'नए वर्ष की शुभकामनाएँ' पर्याप्त बेधक है। 'तब से' एक फैंटेसीनुमा रचना है। 'अंतर' में दो स्थितियाँ और दो मनः स्थितियाँ एक साथ 'कंट्रास्ट' में हैं और 'कथ्य' की चमक बढ़ गई है लेकिन 'शांतिवार्ता' जैसी रचना बड़े सरोकारों से संपन्न होते हुए भी समर्थ लघुकथा नहीं बन पाई है। 'बँटवारा' की थीम सकारात्मक है लेकिन इसकी शुरुआत सामान्य वर्णनात्मक वाक्यों से हुई है और अपेक्षित प्रभाव नहीं डालती। किंतु अधिकतर लघुकथाओं में सुगठित, चुस्त और नुकीली संरचना है। कम शब्दों में अपनी बात कहने का लाघव इन्हें संप्रेषणीय बनाता है।

समग्रतः कहा जा सकता है कि अशोक मिश्र ने अपने अनुभवों की बड़ी-सी दराज में से कुछ जरूरी चीजें चुनी हैं और उन्हें रचना का विषय बनाते समय बड़े सरोकारों से जोड़ने में वे सफल रहे हैं। ये सरोकार उनके सुचिंतित और प्रतिबद्ध 'विजन' से पोषित और प्रेरित हैं। उन्होंने विधा की शर्तों के अनुरूप कम शब्दों में अधिक-से-अधिक पाठकों तक अपनी संवेदना के संप्रेषण के कौशल को प्रमाणित किया है।

                             - वेदप्रकाश अमिताभ

विविधवर्णी लघुकथाएँ

आज की तारीख में लघुकथा अपनी स्वतंत्र विधागत विकास की यात्रा में इस मुकाम तक पहुँच चुकी है, जहाँ वह अस्तित्व पहचान के संकट से मुक्त है। लघुकथा को उस सम्मानित सीमा तक ले जाने में नौवें दशक के दौरान जिन शताधिक ऊर्जावान लेखकों का रचनात्मक योगदान है, उनमें अशोक मिश्र की विविधवर्णी लघुकथाओं के अवदान से इनकार नहीं किया जा सकता। 

पुस्तक का प्रस्तावना लेख सुधी समीक्षक डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ ने लिखा है, 'प्रासंगिक और प्रभावशाली लघुकथाएं' शीर्षक से ! यह संगृहीत लघुकथाओं के मूल्यांकन क्रम में लघुकथा के कथ्य, शिल्प और संरचना कर बेबाक टिप्पणी प्रस्तुत करता है। संग्रह की अधिकांश रचनाओं का परिवेश ठेठ ग्रामीण या कस्बाई है तथा पात्र निम्न अथवा निम्न मध्यवर्ग से लिए गए हैं। उस्मान साहब (मुआवजा), रामप्रसाद बाबू (अंतर), राम प्रसाद बाबू (चीनी का रेट), बडे भैया (दुकानदारी), रामचरण बाबू (रणनीति) ले-देकर मध्यवर्ग के कहे जा सकते हैं। संग्रह की लघुकथाओं के पात्र और उनकी जीवन-स्थितियों के माध्यम से ग्रामीण व कस्बाई जीवन में भरे पड़े 'अन्याय, शोषण, उत्पीड़न और उससे उभरती कराह के भयावह बिंब तथा पारिवारिक/सामाजिक संबंधों में बढ़ती दूरियों के बीच छटपटाती आकांक्षाओं की पहचान के अभीष्ट में रचनाकार की संबद्धता निर्विवाद है।

इन लघुकथाओं का रचनाकाल (नौवां एवं दसवां दशक) अपने आप में बड़ा संवेदनशील रहा है। इस काल खंड में राज्य के लोक-कल्याणकारी स्वरूप का विघटन हो रहा था। 'गरीबी हटाओ' की हवा निकल चुकी थी। जातिवाद, क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता का आगाज प्रत्यक्ष होने लगा था। विश्वास दम तोड़ चुका था। परंपराएं और नीतियां बिखर रही थीं। इस टूटन और बिखराव के दौर की-बेरोजगारी, अविश्वास, जातीय हिंसा, साम्प्रदायिकता, पीढ़ियों का द्वंद्व, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, लिप्सा, हृदयहीनता, नैतिक पतन, कुसंस्कार, क्रूरता, वैमनस्य जैसी, जो भी निष्पत्तियां हो सकती हैं- उन समस्त विद्रूपताओं और उससे उत्पन्न जीवनगत जटिल प्रश्नों, स्थितियों व अंतर्विरोधों को लेखक 'लघुकथा के फलक पर समेटने को आतुर दृष्टिगत हो रहा है।

लघुकथा के लिए कथ्य का चयन एक कठिन और चुनौतीपूर्ण कर्म है किंतु इस बिंदु पर 'सपनों की उम्र' की लघुकथाएं खरी हैं। इनमें सूक्ष्म, तीखी और गहरी जीवन स्थितियों को लघुकथा के ढ़ांचे में बारीकी से पिरोकर मानवीय संवेदना के धरातल पर लाने का प्रयास किया गया है। संग्रह में पारिवारिक-सामाजिक संदर्भों की रचनाएं तो हैं ही, सत्ता-व्यवस्था से जुड़ी लघुकथाएं भी हैं। इनमें पुलिस, कार्यालयीय भ्रष्टाचार, शिक्षा एवं शैक्षिक परिवेश का अवमूल्यन, न्याय व्यवस्था, नेतागीरी, प्रशासन के दोहरेपन को आधार बनाया गया है, तथा सत्ता के गलियारे में निरंतर पीड़ित-उपेक्षित आमजन की अनुभूतियों को एक विद्रोह भरे अहसास के साथ पाठक तक पहुंचाने की व्याकुलता है।

'आँखें' में संवेदनहीन और अंधी न्याय व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है, जो स्मृति पटल पर गहरा निशान छोड़ जाता है। 'डर' में सामान्यजन के बीच रची-बसी पुलिस की भयावनी छवि है, तो 'थाना एक परिचय' पुलिस के चरित्र की व्यंग्यात्मक झलकी है। 'अपराधी', 'विभाग कायम है' और प्रमोशन' भी पुलिसिया कार्यपद्धति पर आधारित रचनाएं हैं, जो अपनी वक्रोक्ति और वर्णनात्मकताजन्य अर्थ-संकेतों से मन में बेचैनी उत्पन्न करती हैं।

'पैसे से' के शरदबाबू, 'प्रेजेन्ट' का आनंद और 'भ्रष्टाचार उन्मूलन आयोग' के रामचरण बाबू के माध्यम से रिश्वत-खोरी की सर्वव्यापकता को उभारा गया है। इन लघुकथाओं में कहीं और किसी स्तर पर लेखकीय हस्ताक्षेप नहीं है। लघुकथाओं का अंत एकदम सहजता से प्रतिकूल स्थितियों में आकर पाठकीय चेतना पर असरकारक ढंग से छा जाता है। 'बेईमान', 'नाटक' और 'समझौता' में नेताओं की स्वार्थवृत्ति का कच्चा चिट्ठा खोला गया है। 'धंधा' की भ्रष्ट पत्रकारिता, 'भूख' की व्यवस्था द्वारा भ्रष्ट बनाने की साजिश एवं 'भ्रष्टाचार के खिलाफ' में शिक्षा माफिया के विरुद्ध संघर्ष में मिली पराजय-वर्तमान समाज की ऐसी विसंगतियां हैं, जो व्यवस्था के प्रति अकुलाहट भरी खीझ पैदा करती है। 'तब से', 'नेता', 'रावण जिंदा है', 'शिक्षा', 'पक्षी से बदतर आदमी', 'विश्वास के दो रूप' जैसी कुछ लघुकथाओं में मिथक, लोककथा, प्रतीक और परंपरा को समकालीन यथार्थ और सामाजिक सरोकारों से जोड़कर विसंगतियों को उभारने का प्रयास द्रष्टव्य है। 'विश्वास के दो रूप' मूलतः एक ही संदर्भ से जुड़ी परस्पर विरोधी मान्यताओं की मानवीय आचरण के आधार पर व्याख्या करने वाली सुंदर रचना है।

चरित्र का संकट आधुनिक जीवन का एक तीखा सच है। 'आधारशिला' एक कौंध के साथ शिक्षकों के चारित्रिक पतन को सामने लाती है। यह कौंध शीर्षक की शक्ति के बेहतर प्रयोग से पतनशील मूल्यों के बीजारोपण के संदर्भ में उन सबको पाठकों की अदालत में ला खड़ा करती है, जिनका मूल दायित्व संस्कार निर्माण और मूल्य संवर्द्धन से जुड़ा है। इसी क्रम में 'अवमूल्यन' गुरु-शिष्य की उदात्त परंपरा में आई गिरावट की दिशा में ध्यान खींचती है। 'पेट की शिक्षा' (शिक्षा के प्रति आमजन की धारणा), 'शिक्षा का असर' (बनावटीपन) और 'पढ़ा-लिखा आदमी' (श्रमनिष्ठा का स्खलन) भी तीखे व्यंग्य से आवेष्ठित है। 'पेट की शिक्षा' में केंद्रस्थ बालश्रम, इस सामाजिक बीमारी के मूल कारणों को सामने लाता है। लेखक का व्यवस्था विरोध इन रचनाओं में उभरकर सामने आया है।

संग्रह में देश की ज्वलंत समस्या सांप्रदायिकता को केंद्र में रखकर रची गई 'मुआवजा', 'धर्म कौन', 'स्वेटर', 'दंगा', 'मैं तो छोटा बच्चा हूं' में सांप्रदायिक खेमों में बंट चुकी सामाजिक संरचना के बीच कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पर्श किया गया है। 'मुआवजा' के उस्मान साहव शिक्षित मध्यवर्गीय समाज के ऐसे पात्र हैं, जिनके अर्थप्रधान सोच में हर स्थिति का फायदा लेने की सनक है। परिजनों की मानवीयता, समर्पण और त्याग उनके स्वार्थ के समक्ष बौने है। निश्चय ही इस महौल में मनुष्यता के निरंतर क्षीण होते जाने का खतरा 'धर्म कौन' जैसा ही बढ़ता जा रहा है। इस सामाजिक संरचना में 'विदेशी एजेंट' के बाबाजी अनफिट होने के कारण मरणोपरांत पड़ताल के विषय बन जाते हैं और हाल-फिलहाल उनकी पहचान अस्पष्ट है। 'दंगा' के दोनों संप्रदाय के बच्चों का आपस में हिल-मिलकर खेलना और 'स्वेटर' के पंडितजी की लड़की का सांप्रदायिक मनोवृत्ति पर सहज प्रहार की व्यंजना अपने समेकित प्रभाव के अंतर्गत समाज के 'सयानों' की समझ के संकट को रेखांकित करती है। सांप्रदायिकता के घटाटोप में 'मैं तो छोटा बच्चा हूँ' की ईशा मिश्रा का धर्म के प्रश्न पर स्वयं को बच्चा बताना सही अर्थों में भविष्य के पंथ निरपेक्ष समाज की संभावना की आशा की किरण जगाती है।

आलोचकों की यह सामान्य शिकायत है कि लघुकथा में नेता, पुलिस, प्रशासन आदि विषयों पर व्यंग्यात्मक सामग्री तो काफी लिखी जाती है, लेकिन पारिवारिक/सामाजिक संदर्भों को लेकर लिखने में लघुकथाकारों की कलमें जवाब देने लगती हैं। इस दृष्टि से इस संग्रह का यह उल्लेखनीय पहलू है कि इसमें आधी से अधिक रचनाएं इसी धरातल की हैं। वर्तमान समय के बदलते परिदृश्य में समाज और आदमी के जटिल होते यथार्थ की पर्तों को उधेड़ना, इस संवर्ग की रचनाओं का मूल मंतव्य है। फलस्वरूप सामाजिक/पारिवारिक जीवन की द्वंद्वात्मक स्थितियां, उनके संकल्प-विकल्प, तनाव और संघर्ष-अनुभव घटना और विचार संश्लिष्ट रूप में इस प्रकार की लघुकथाओं में आकर संवेदना को झकझोरने में कामयाब हुई हैं।

शीर्षक कथा 'सपनों की उम्र' का रघुआ उस तबके का किशोर है, जिसकी संपूर्ण इच्छा, आकांक्षा और स्वप्न के केंद्र में सिर्फ रोटी होती है। 'निर्दोष', 'गरीब', 'झोपड़ी का अँधेरा' और 'बिरादरी' में भी विपन्नता का वह भयावह रूप है, जो पाठक को 'आह!' के लिए मजबूर कर देता है। 'समय की मार' रोजगार के पारंपरिक तौर-तरीकों के अर्थहीन होते जाने की आहट के साथ परिवर्तन की दिशा भी देती है। 'पंचायत का न्याय', 'बिरादरी में इज्जत', 'बंटवारा', 'शोक संवेदना' और 'अपराध' में वैश्वीकरण के दौर में मानवीयता के छीजते जाने की त्रासदी उभरकर सामने आई है।

कई रचनाओं में 'कंट्रास्ट' की सधी परिकल्पना प्रभावशाली बन पड़ी है। 'संशय', 'समस्या', 'स्वार्थ अपने-अपने', 'ख़ौफ', 'शिलान्यास की दीवार' और 'आवास वर्ष' इस प्रकार की स्तरीय लघुकथाएं हैं। 'भिखारी का दान', 'सुख-चैन' और 'भविष्य की चिंता' मानव मन के अपरिभाषित भावों को सामने लाती हैं। 'भविष्य की चिंता' का आशा-निराशा का द्वंद्व प्रेरक बन पड़ा है। 'विदाई पार्टी', 'मनौती' और 'संवेदना' में शिक्षित वर्ग की संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण सोच का अक्स प्रस्तुत किया गया है। 'सबक' और 'साक्षरता मिशन' क्रमशः स्त्री और दलित विमर्श की लघुकथाएं हैं। 'अपराध' अस्पृश्यता की लोकव्यापी समस्या को रेखांकित करने में सफल हुई है।

'अंतर' रामप्रसाद बाबू के पश्चाताप से लिंग संवेदीकरण की विशिष्टं रचना बन पड़ी है। आधुनिक जीवन मूल्यों के दबाव के फलस्वरूप बदलती प्राथामिकताओं के बीच अपनों के होते हुए भी अकेले पड़ते जा रहे वृद्ध तिवारी की मार्मिक व्यथा 'उनका दुःख' लघुकथा में व्यक्त हुई है। 'चीनी का रेट' में थोथे बड़प्पन का पाखंड है तो 'दुकानदारी' में अंधी व्यावसायिकता ! 'विडंबना', 'खून की होली', 'नशा', 'नववर्ष की शुभकामनाएं', 'अनपढ़', 'आधार', 'पुत्र-प्रेम', 'भिखारी कौन', 'रहस्य' संग्रह की कुछेक ऐसी लघुकथाएं हैं, जिनमें जीवन की धड़कनों को तो सुना जा सकता हैं, किंतु सृजनात्मक कौशल के समुचित प्रयोग के अभाव में ट्रीटमेंट के स्तर पर इनमें अपेक्षित पैनापन नहीं आ पाया है। 'आधार का कथ्य उत्कृष्ट है। रचनाकार यदि धैर्य के साथ चिंतन-मनन के माध्यम से संवेदनात्मक चित्रात्मक फलक का निर्माण करता तो यह मर्मस्पर्शी रचना बन सकती थी। जीवन में भोगी और देखी-सुनी घटनाएं-स्थितियां बाज मर्तबा लेखक के अंदर गहरा उद्वेलन पैदा करती हैं और यथार्थ-अंकन के दुराग्रह में कल्पना तत्व की अनदेखी हो जाती है। इस प्रकार कल्पना के अभाव में सौंदर्यबोध, आस्था और संवेदना का स्तर कमजोर पड़ जाता है। यह स्थिति रचना को 'रचना' से इतर 'रिपोर्टिंग' बना देती है।

समायोजित रचनाओं के कथ्य और विषय लेखक के व्यापक और बहुरंगी अनुभव क्षेत्र की पुष्टि करते हैं। शिल्प के धरातल पर रचनाकार के लिए कुछ सावधानियाँ अपेक्षित हैं। आकारगत लघुता लघुकथा का एक वैशिष्ट्य है, एकमात्र गुण नहीं। इसलिए कम से कम शब्दों के फेर में रचना में अस्पष्टता लाने वाला अनकहापन एक दुर्गुण बन जाता है। अधिकतर मामलों में भारी-भरकम शीर्षक रचना पर बोझ बन जाते हैं, जबकि शीर्षक की भूमिका रचना को शक्तिकृत करने की होती है। यदि 'शिलान्यास' से बात बन सकती है तो 'शिलान्यास की दीवार' शब्दों के अपव्यय के अलावा और क्या है? दलितों-मजूदरों के विकृत नामों की सुदीर्घ परंपरा के बीच बार-बार 'हरखू' का प्रयोग भी समझ से परे है। हां, एक कालखंड के कटु सत्यों, असाध्य प्रश्नों, गंभीर चिंताओं और विषय अंतर्विरोधों का रचनाकार ने जिस प्रतिबद्धता के साथ उधेड़ने का प्रयास किया है, उससे यह कृति कुछेक कमियों के बावजूद भी अपने समय के जीवन यथार्थ का आईना बन गई है।

                                                -चित्रेश

पहले के फैजाबाद और वर्तमान अयोध्या में जन्मे अशोक मिश्र मूल रूप से कहानीकार हैं। आजीविका के लिए मीडिया संस्थानों से जुड़कर दो दशक तक पत्रकारिता। 1982 से साहित्य से जुड़ाव के साथ ही एकाधिक विधाओं में लेखन। वर्ष 2010 में छमाही पत्रिका रचना क्रम के तीन अंकों का संपादन। वर्ष 2012 से 2019 तक त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के संपादक का कार्य किया। पुस्तक समीक्षा केंद्रित पत्रिका पुस्तक वार्ता का 2018- 2019 के दौरान संपादन। हिंदी समय वेबसाइट के अप्रैल 2020 से 2022 तक संपादक । नया ज्ञानोदय के अक्टूबर-दिसंबर 2022 अंक का अतिथि संपादन। परिकथा, लमही, पाखी, हंस, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, जनसत्ता, साहित्य अमृत, इंद्रप्रस्थ भारती व अन्य साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में विपुल संख्या में लघुकथाएं, कहानियां, संस्मरण, पुस्तक समीक्षाएं, टिप्पणियां, साक्षात्कार आदि प्रकाशित ।

सपनों की उम्र लघुकथा संग्रह (2004), मीडिया का अंतर्पक्ष (संपादित), कहानी संग्रह दीनानाथ की चक्की (2017) प्रकाशित। एक अन्य संपादित पुस्तक आज का मीडिया प्रकाशनाधीन। महाराष्ट्र-युवा मन की कहानियां डायमंड पाकेट बुक्स की श्रृंखला के अंतर्गत संपादित संग्रह का जून 2022 में प्रकाशन। संस्मरण पुस्तक अनवरत का प्रकाशन शीघ्र। राजेंद्र यादव की रचनाओं का संपादित संचयन प्रकाशनाधीन। कुछ अन्य पुस्तकों पर भी कार्य जारी। दीनानाथ की चक्की कहानी संग्रह को वर्ष 2017 के लिए विजय वर्मा कथा सम्मान। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से सेवानिवृत्ति के उपरांत इन दिनों नोएडा एक्सटेंशन में रहकर लेखन ।

संपर्क :

ला रेजीडेंसिया, टावर 22/1301

नोएडा एक्सटेंशन वेस्ट, गौतम बुद्ध नगर 201318 ( उ. प्र.)

मोबाइल: +91-7888048765

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