स्वाति-बून्द (लघुकथा संग्रह) / सुगनचन्द 'मुक्तेश'

भाई योगराज प्रभाकर के सौजन्य से प्राप्त

गत दिनों किन्हीं भाई ने अपनी फेसबुक वॉल पर घोषित किया था कि नवम्बर 1966 में प्रकाशित श्री सुगनचन्द 'मुक्तेश' का 'स्वाति-बून्द' पहला ऐसा संग्रह है जो 'लघुकथा संग्रह' के नाम से छपा है। यह एक प्रशंसनीय घोषणा थी। इसने मुझ जैसे व्यक्ति को इस कथन की प्रामाणिकता खोजने की ओर अग्रसर किया। मैंने पाया कि आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र की पुस्तक 'खाली-भरे हाथ' अक्षय तृतीया, वैशाख सन् 1958 (तदनुसार 22 अप्रैल 1958) को प्रकाशित हुई थी। उसके मुखपृष्ठ पर 'मौलिक बोधकथाओं की सर्वप्रथम कृति' तथा भीतरी प्रथम पृष्ठ पर 'बोध-कथाएँ (लघुकथाएँ)' छपा है। 'खाली-भरे हाथ' की दोनों उद्घोषणाएँ ईमानदार हैं क्योंकि इस कृति की अधिकतर रचनाएँ अपनी अन्त:प्रकृति में बोधकथाएँ ही प्रतीत होती हैं। दूसरी ओर, 'स्वाति-बून्द' में छपी 64 रचनाओं में से अधिकतर अपनी अन्त:प्रकृति में बोध-कथाएँ हैं जिन्हें 'लघुकथाएँ' घोषित किया है। फिर भी, 'स्वाति-बून्द' का ऐतिहासिक महत्व तो बनता ही है। सन् 1964 में प्रकाशित 'आकाश के तारे, धरती के फूल' (कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर) की लघुकथाओं का चौथा संस्करण है। पहला संस्करण  सन् 1952 में आया था। इस संस्करण में 'चौथे जन्म पर' शीर्षक अपनी भूमिका में कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी ने लिखा है--'जब प्रथम संस्करण छपा, तो उसका भाग्य और भविष्य अनिश्चित था क्योंकि लघुकथा हिन्दी के लिए नयी विधा थी। पाठक के लिए उसका रस अज्ञात तो नहीं, अल्पज्ञात अवश्य था। निश्चित रूप से यह कि लघुकथा के सम्बन्ध में पाठक की तय कोई सम्मति न थी और खतरा यह कि गद्यकाव्य की विधा पनपते-पनपते मुरझा गयी थी। तो लघुकथा की जड़ जमेगी या नहीं, कहना कठिन था।' तात्पर्य यह कि लघुकाय कथाओं के लिए 'लघुकथा' शब्द का प्रयोग 1964 से पूर्व प्रकाशित संग्रहों में होने लगा था।

भाई योगराज प्रभाकर का आभार प्रकट करते हुए 'स्वाति-बून्द' का सक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है। साथ ही, सगुनचन्द 'मुक्तेश' जी का 'विश्व हिन्दी लघुकथाकार कोश' में प्रकाशित संक्षिप्त परिचय भी। 

स्वाति-बून्द (लघुकथा संग्रह)
लेखक : सुगनचन्द 'मुक्तेश'
प्रकाशक  : श्रीशंकराचार्य मठ भानपुरा (म० प्र०)
मूल्य : दो रुपये

प्रथम आवृत्ति : नवम्बर 1966

अनुक्रम
अपनी ओर से/सुगनचन्द 'मुक्तेश'
१. जीवन का उद्देश्य
२. शान्ति का रहस्य
३. सृष्टि-क्रम
४. स्पर्धा और सहयोग
१. अर्ष विराम
६. ईर्ष्या
७. पूर्व जिज्ञासा
८. एक-अनेक
१. हिंसा-यहिसा
१०. आदिम भूल
११. प्रथम वरदान
१२. महानता
१३. कार्यक्षेत्र
१४. देव-दानव
१५. काँटों की रोज
१६. राजा-प्रजा
१७. प्यार का वृत्त
१८. महात्मा
१६. धर्म, जाति, इतिहास
२०. सहृदयता का मूल्य

२१. मित्रता
२२. वरदान के कुछ क्षण
२३. मर्यादा
२४. पाप का मूल कारण
२५. प्यार का अभिशाप
२६. वास्तविक रूप
२७. सद्‌गुण और अवगुण
२८. निर्वासित पुत्र
२६. सीमा का बन्धन
३०. स्नेहसूत्र
३१. गति-यति
३२. वरदान
३३. उत्तराधिकार
३४. प्रथम भूल
३५. जय-जगत्
३६. विवशता का मूल्य
३७. सत्य की खोज
३८. पुनर्मिलन
३६. मृत्युञ्जय
४०. काल-चक
४१. उपचार
४२. भग्न आशा
४३. प्रश्न और प्रश्न
४४. ईश्वर के रूप
४५. कीचड़ और काई
४६. प्रथम उड़ान

४७. आलोचक
४८. देवदूत
४६. उपेक्षित
५०. करवट
५१. दायरे
५२. तथ्य-सत्य
५३. अधिकार का प्रदन
५४. भय-अभय
५५. प्रश्न-उत्तर
५६. मृगतृष्णा
५७. अर्द्धता
५८. संकेत
५६. उपचार
६०. प्रदर्शन
६१. प्रत्यावर्तन
६२. सभ्यता
६३. ज्ञान-विज्ञान
६४. स्वाति-बून्द

अपनी ओर से

मानव द्वारा सर्व प्रथम कहानी कब कही गई का उत्तर विवादास्पद हो सकता है, लेकिन कहानी की उत्पत्ति कैसे हुई का उत्तर खोजना सहज है। सृष्टि के आदिकाल में जब उसने निज प्रारंभिक अनगढ़, अस्पष्ट जीवनपथ पर संघर्षरत डगमगाते चरणों को सन्तुलित करने का यत्न किया तो संभव है अपने सहचर से उसने सांकेतिक मूकभाषा में अन्तरतम में हो रहे उद्वेगों का परस्पर आदान-प्रदान करने का असफल प्रयास किया हो। या प्रकृति के विस्तृत, अगाध शक्ति-पंजों का अनन्त चक्र संभवतः उसके मानस में एक आश्चर्य-मिश्रित कौतुहल जागृत करने में सहायक हुआ हो। और उसकी प्रतिक्रिया विविध रूपों में उसने अपने किसी निकट साथी से सुनाने का यत्न किया हो।

मानव के ये आदि असफल प्रयास ही. वस्तुतः कहानी के प्रथम सूत्र कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं जो युगों के घात-प्रतिघातों में उलझ संवर कर आधुनिक सर्वांगीण, शिल्पश्रेष्ठ प्रधान कहानी के शतरंगी इन्द्रधनुष को, संकेतों और तालपत्रों से लाकर कागज पर ढालने में सहायक बने । कलेवर परिवर्तित होते रहने पर भी इसके मूल उद्देश्य में कोई अन्तर पड़ा हो ऐसा सोचना या मानना भ्रामक होगा। और वह उद्देश्य है कहानी कहने-कहलाने का, सुनने-सुनाने का। भले ही आज का कहानीकार आदिमयुग के अपने उस आदिवंशज से नितान्त भिन्न रूप ले चुका है जिसने कभी उन्मुक्त गगन के नीचे कहीं एकान्त बीहड़ वन में किसी चट्टान पर या किसी भयावह कन्दरा के अनजाने कोने में अपने जीवनसाथी को निज दैनिक संकटपूर्ण जीवन या अस्पष्ट कल्पना की उड़ान में बहलाने का प्रयत्न किया था।

कहानीकार कहानी कहने-सुनाने के लिए विवश है क्योंकि इसके बिना उसका संवेदनशील हृदय निज अनुभवों का भार सहने में असमर्थ असमय ही दबकर मिट जायेगा, और श्रोता-पाठक सुनने को इसलिये कि उसे प्यास है, जिज्ञासा है, एक प्रश्नवाचक क्या है, जो वह अपने से बाहर देखना, सुनना और समझना चाहता है। उसको जो उसकी पहुंच की सीमा से परे है, अनजान व अज्ञात न होते हुए भी अस्पष्ट है, अदृश्य है और अजेय भी है। कहानी क्या है ? की परिभाषा में पड़, इस विषय को उलझाकर शब्दों के ताने-बाने में पाठक को चक्कर कटवाना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है। न ही यहाँ मैं इस बारे में कोई नई मान्यता स्थापित करने बैठा हूँ। फिर भी हिन्दी पाठक के हाथों में अपनी लघु कथाओं का यह संग्रह समर्पित करते हुए, इसके बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट करने के उद्देश्य से कुछ शब्द निवेदन करना मैं अपना पुनीत कर्तव्य मानता हूँ. विशेषकर इस तथ्य को लक्ष्य करते हुए कि हिन्दी में लघु कथायें अभी निज शैशव काल में हैं और प्रस्तुत संग्रह जैसी तो संभवतः प्रसूतिगृह में ही।
प्रस्तुत संग्रह की कथायें किस श्रेणी में आती हैं, वे कथायें हैं भी या नहीं, आदि बातों का निर्णय करना आलोचकों का कार्य है। मैं नहीं कहता कि इन्हें किसी श्रेणी विशेष में येन-केन-प्रकारेण बैठा ही लिया जाये। सम्भव है इनमें उन उपकरणों की उपलब्धि न हो सके जो एक कहानी के कलेवर के लिए आज सर्वमान्य सिद्धान्त बन चुके हैं, वह ढाँचा न मिल सके जिस पर कथारूपी अंकुर विस्तार पा सौरभ फैलाते हैं। क्योंकि इनके पात्र हमारे दैनिक जीवन से परे, एक उस लोक में विचरण करते हैं जो वर्तमान की संघर्षपूर्ण, तथ्यों पर आधारित वास्तविक जिन्दगी से नितान्त अज्ञात न होकर भी बहुत सीमा तक अपरिचित है।
इनमें से प्रथम कोटि में वे आते हैं जो अधिकतर अपार्थिव है, अज्ञेय हैं। जिन्हें अनुभव किया जा सकता है देखा नहीं, सुना जा सकता है-कहा नहीं। जिनकी भाषा के शब्द पकड़ में न आते हुए भी हम उनमें छपी भावना को ग्रहण करते हैं। जो कुछ न कहते हुए भी हमें बहुत-कुछ कह जाते हैं और जब पग-पग पर हम उनकी मान्यताओं पर चलने की शत-प्रतिशत प्रतिज्ञा कर भी उन्हें हर पल ठुकराते हैं तो वे निर्विकार से ही, सब-कुछ देखकर भी कुछ नहीं कहते। दुःख क्रोध से परे, ईर्ष्या-द्वेष से रहित, एक उस स्थितप्रज्ञ की तरह जो निर्लिप्त रूप धारण कर मायावी सृष्टि से संन्यास ले चुका हो। सबमें रहकर भी जो किसी का न हो।
स्पष्ट है ऐसे पात्रों से सम्पर्क स्थापित कर उनसे तादात्म्य जोड़ने के लिए पाठक को भी कुछ 'अपार्थिव', 'सूक्ष्म' समन्वयात्मक उपचार खोजना होगा, जिससे उसके हृत्तल का स्पन्दन वह सुन, समझ और अनुभव कर सके। यह उपचार भावना का है, विचारों का है, अवचेतन मन की उन सुप्त विशिष्ट रन्ध्रतंत्रियों का है, जो एक बार जागृत होने पर चारों ओर खोजभरी दृष्टि पसार कुछ प्रश्नवाचक चिह्न अपने सम्मुख प्रगट कर फिर स्वयं ही उनके उत्तर प्राप्त करने की चेष्टा करती हैं। जो जागने पर सोना नहीं जानती, चलने पर ठहरना जिन्हें अखरता है और दायरे में बंद रहने की बजाय भटकना जिनका अन्तिम ध्येय बन जाता है। भटकना जो एक जिज्ञासु का है, एक अन्वेषक का है। प्रश्न जिसकी सीढ़ी है और उत्तर सीमारेखा। जिनका आरम्भ 'क्यों' से होता है और अन्त 'है' पर जाकर ।
और इसी 'क्यों' और 'है' के बीच में मानव की, जड़-जगत् की, सृष्टि के आदि-अन्त और ब्रह्माण्ड की कथाश्रृंखला बिखरी पड़ी है। एक जिज्ञासु आता है-कवि, लेखक या मनीषी के रूप में और इस कथा के टूटे धागे को जोड़ने का यत्न करता है। निज कल्पना के सहारे, घपनी भावना के प्रवाह में, और उन्मुक्त हो भूल जाता है-जो उसने पकड़ा है, पाया है, वह तो महज उस कथा का एक सिरा है, किनारा है जो हर बार चक्कर कटवा उसे पूर्वस्थिति में ही ला खड़ा कर देता है जहां से उसने चलना प्रारम्भ किया था। और निराश फिर नये सिरे से वह इस 'क्या' और 'क्यों' का उत्तर पाने की लालसा ले बढ़ पड़ता है, नई राह पर, नये रूप में।
द्वितीय श्रेणी के पात्र वे हैं जो हममें से होकर भी आज हमारे लिए अपरिचित से बन चुके हैं। अडिग रहकर जो रूढ़िवादी कहलवाने के दोषी बने हैं या हम आगे बढ़कर भटके हैं, यह प्रश्न अलग है। लेकिन ये भी अपने आचरण से, निज विश्वासों और आदर्शों से बहुत-कुछ कह जाते हैं। जिनकी सीख आज के युग में अटपटी-सी लगती है, उपदेश दम्भी का प्रलाप नजर आता है। हर बार उपेक्षित और अपमानित होकर भी जो एकरस रहते हैं, बिना किसी उत्तेजना के, गहन सागर की तरह विस्तृत गगन के समान ।
ऐसे ही कुछ, 'क्या' और 'क्यों' के उत्तर खोजने का मैंने प्रयत्न किया है और उनका जो 'उत्तर' मिला वह सामने है। मैं नहीं कहता मेरे प्रश्न समयोचित हैं, उपयोगिता की दृष्टि से इनका क्या मूल्य है ? लेकिन क्या सभी बातें 'मूल्य' की तराजू पर तुलकर ही महत्त्व पाती हैं जबकि यह तथ्य है कि बहुत-सी घटनाओं का कोई मूल्य नहीं होता और इस तरह वे या तो अमूल्य बन जाती है या नितान्त निकृष्ट, निरर्थक। यह देखना पाठक का काम है कि मेरे 'उत्तर किस कोटि में आते हैं। वैसे मैं इनका मूल्य अँकवाने इन्हें झोली में डालकर बाजार में नहीं निकला हूँ। फिर भी मुझे कुछ ऐसा अनुभव हुआ है जैसे अपनी श्रद्धा या लगन से मैंने इनका विश्वास प्राप्त करने में कुछ सफलता पाई है। मुझे विश्वास है- यदि पाठक इसी भावना और विश्वास के सहारे इन पात्रों तक पहुँचने की कोशिश करेगा तो अपना अन्तरतम तक खोलकर उसके आगे रखने में ये संकोच न करेंगे जहाँ एक अलग सृष्टि का प्रसार है और मेरे विचार में जो अधिक शाश्वत है, सत्य है व सुन्दर है। उस समय उसे अधिकार होगा कि वह निर्णय करे- सत्य क्या है, वह जो प्रगट है या वह जो अप्रगट है, पार्थिव है वह, या जो अपार्थिव है. स्कूल है वह, या जो सूक्ष्म है।

अन्त में, यहां पर मैं अपने उन घनिष्ठतम हितैषियों के प्रति आभार प्रकट करते हुए उनके ऋण को शिरोधार्य करता हूँ जो प्रत्यक्षतः या परोक्षतः इनके सृजन में सहायक बने। इनमें मुख्य हैं-मेरे अपने अभिन्न बालसखा और सुख-दुःख के साथी माहेश्वरीबन्धु अंग्रेजी के नवोदित कवि व लेखक कैलाशचन्द्र एम. ए. व अविनाशचन्द्र एम. ए., जिनकी प्रेरणा में अन्तनिहित भावना का स्पन्दन मैंने अपनी हर धड़कन के साथ अनुभव किया है। श्री पूरणसिंह एम. ए., एल. एल. बी., जो इतने निकट और स्नेह-सूत्र से आबद्ध हैं कि अलग से उनके बारे में सोचना उनकी साधु भावना के प्रति अत्याचार करना होगा-का अनथक प्रयास यदि न होता तो सम्भवतः प्रस्तुत संग्रह अभी अनिश्चित समय तक निज जीवन अंधेर में बिताने को विवश रहता। जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी सत्यमित्रानन्दजी गिरी, भानपुरापीठ (म. प्र.) - जिनकी सद्प्रेरणा और शुभाशीर्वाद का वरदहस्त प्राप्त करने का लेखक को सौभाग्य प्राप्त हुआ और प्रस्तुत संग्रह वर्त्तमान रूप में पाठकों के हाथों में पहुँच सका। मेरे मित्र और हिन्दी कवि श्री भूरिश्रवा 'शास्त्री', जिनके साथ एक अर्से तक संघर्षों से जूझते हुए मैं इस ज्योति को ज्वलित रखने में इस सीमा तक सफल रहा ।
भूकरका (श्रीगंगानगर),                                                                                                                 'मुक्तेश'
राजस्थान ।
विजयादशमी, संवत् २०२३

सुगनचन्द मुक्तेश : 

जन्म  : 3 मार्च, 1933 को राजस्थान के हनुमानगढ़ जिलान्तर्गत ग्राम भूकरका में।  

शिक्षा  : एम. ए. (हिन्दी), साहित्यरत्न।      

कृतियाँ  : 60 लघुकथाओं से युक्त इनका 124 पृष्ठीय लघुकथा-संग्रह 'स्वाति बूँद' सन् 1966 में प्रकाशित । इसका दूसरा संस्करण सन् 1996 में प्रकाशित हुआ जिसमें 30 अन्य लघुकथाओं का समावेश हुआ। इसके अतिरिक्त 3 उपन्यास, 1 यात्रा-वृत्तान्त, 1 साक्षात्कार, कविता-संग्रह व बाल-साहित्य की पुस्तकों सहित कुल दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित । कुछ पुस्तकें हरियाणा साहित्य अकादमी से भी प्रकाशित । अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।  

देहावसान : 16 मार्च, 2006 को।     

पारिवारिक सम्पर्क : राकेश वालिया, पोस्ट:भूकरका, जिला : हनुमानगढ़ (राजस्थान) पिन:335523

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