जीवन है तो संघर्ष है / रमेश यादव

लघुकथा-संग्रह  : जीवन है तो संघर्ष है


कथाकार  :  रमेश यादव

प्रकाशक / विपणक

इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड

मुख्यालय : सी-122, सेक्टर-19,          नोएडा- 201301

गौतमबुद्ध नगर (एन. सी. आर. दिल्ली)

फोन: +91 120437693, 

मोबाइल +91 9873561826

कॉपीराइट : डॉ. रमेश यादव

प्रथम संस्करण: 2024

ISBN: 978-81-979031-9-9

मूल्यः रुः 200.00/- (पेपरबैक)

भूमिका

रमेश यादव : एक सम्भावनावान लघुकथाकार

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही भारतीय संस्कृति के आधारभूत मूल्यों, मान्यताओं और धार्मिक आधारों का विवेचन विदेशी विद्वानों द्वारा किया जाने लगा था। उन्नीसवीं सदी के बाद बीसवीं और बीसवीं सदी के बाद अब, इक्कीसवीं सदी तक आते-आते इसकी परिधि बढ़ती घटती रही है। काल-विशेष में जो विचार और कृत्य सांस्कृतिक कहलाते हैं, कालान्तर में वे परम्परा का रूप ग्रहण कर लेने के कारण त्याज्य भी होते रह सकते हैं। इसके मद्देनजर हम कह सकते हैं कि जीवन को आर्थिक अर्थवत्ता और पहचान देने वाली वह दृष्टि, जो आधारभूत मूल्यों से युक्त हो, संस्कृति है। संस्कृति का ताना-बाना कभी भी एक-जैसा नहीं रहता। इसमें धार्मिक परम्पराएँ, उत्सव, देवी-देवता आदि के साथ अनेक नदियाँ, ग्रंथों तथा लोक और पुराणों में प्रचलित कथाएँ जुड़ती-हटती रहती हैं। इस जुड़ने घटने में स्त्री और पुरुष, दोनों का विचार-साम्य न हो तो नैया डगमगाने-जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

कथाकार रमेश यादव की लघुकथा 'हाई प्रोफाइल बहू' एक द्वंद्व, एक सघन विमर्श को आमन्त्रित करती है। इसमें अनायास ही सही, मुख्य पात्र का नाम 'सागर' है और उसके साथ विवाह हेतु प्रस्तावित लड़की का नाम 'अनन्या' है। इन दोनों ही शब्दों के कुछ अर्थ होते हैं जो कथ्य को सार्थक करते हैं। सागर विशाल होता है, कहीं पर नितांत शांत तो कहीं पर ऊँची-ऊँची लहरों वाला अनियन्त्रित-सा। अनन्या यानी अतुलनीय, अद्वितीय, दूसरों से अलग। ऐसी लड़की की तुलना जब 'एकल जीवन शैली आदि के चलते सिगरेट, शराब, लेट नाईट पार्टी, फ्लर्टिंग आदि' में आसक्त अन्य लड़कियों से की जाती है, तब सिद्ध हो जाता है कि समूची विशालता के बावजूद सागर का पानी उपयोग में लाने योग्य नहीं है, खारा है। वह स्वयं देश-विदेश घूम रहा है, पापा-मम्मी और बहन के साथ बैठने का समय उसके पास नहीं है; 'फ्लाइट का वक्त हो रहा है, कुछ देर में मुझे निकलना होगा' कहकर जो शायद निकल ही गया होगा, पत्नी के प्रति उसकी सोच को समझा जा सकता है। ऐसी लघुकथाओं को व्यापक विमर्श के केन्द्र में आना चाहिए।

उपर्युक्त सन्दर्भ में यह भी ध्यातव्य है कि एक ही देश, एक ही जाति, यहाँ तक कि एक ही कुटुम्ब, एक ही परिवार के लोग भी परस्पर अलग प्रकृति के होते हैं। सभी का उठना-बैठना, चलना-फिरना, बोलना-चालना, खाना-पीना, हँसना-रोना, सब भिन्न प्रकार का होता है। वे बाहरी रूप-आकार व व्यवहार में तो भिन्न होते ही हैं, भीतरी तबियत यानी रुचि-अरुचि, सोचने-विचारने, लिखने-पढ़ने की आदतों व तौर-तरीकों तथा अनुरक्ति और विरक्ति आदि में भी भिन्न ही होते हैं। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य की प्रत्येक बात भिन्न होती है। इसलिए न तो सागर के और न ही अनन्या के चरित्र-विकास को लेकर 'माता-पिता से क्या संस्कार पाये हैं' जैसी टिप्पणी निरर्थक होगी।

इसी बात को रचनाकार के स्तर पर यों कह सकते हैं कि-एक ही कथ्य को अलग-अलग रचनाकार अपनी शिक्षा, स्वाध्याय, तज्जनित संस्कार और सोच के अनुरूप अलग-अलग शैली और शिल्प प्रदान करता है। पाठक के बारे में कहें तो-एक ही पाठ के प्रत्येक व्यक्ति अपनी शिक्षा, अध्ययन, तज्जनित संस्कार और सोच के अनुरूप अलग-अलग अर्थ निकालता व ग्रहण करता है। निःसंदेह मैंने भी निकाले होंगे। प्रत्येक शब्द की अलग-अलग अर्थ प्रकट करने की प्रकृति ही वह कारण है कि समस्त सामाजिक सरोकारों के केन्द्र में मनुष्यता होने के बावजूद कथ्यों में भिन्नता प्रकट होती है। एक ही राजनीतिक पार्टी के सदस्यों के बीच 'नीयत' के स्तर पर ऐक्य तथा 'मत' के स्तर पर भिन्नता दिखाई देती है। देखें, इस संग्रह की लघुकथा-'अहिंसावादी पार्टी'। एक ही धर्म के बीच अनेक सम्प्रदाय और जातियाँ हैं, जातियों में उप-जातियाँ हैं। 'अहिंसावादी पार्टी' में बात अत्यंत व्यंजक शैली में मानवेतर पात्रों के माध्यम से कही गयी है। तुलसीदास कहते हैं-'सुमति कुमति सबके उर रहहिं'। सुमति यानी मानुषिक वृत्ति और कुमति यानी पाशविक वृत्ति। कोई व्यक्ति देवतुल्य बहुत अच्छा है. कोई केवल अच्छा है, कोई सामान्य है, कोई बुरा है और कोई बहुत बुरा यानी आसुरी वृत्ति का है-इसका निर्णय उसमें निहित सुमति और कुमति के अधिक या कम अनुपात पर निर्भर करता है। 'अहिंसावादी पार्टी' राजनेताओं के दोहरे चरित्र की खाल उधेड़कर रख देती है।

मगर इस संग्रह की लघुकथाएँ संवेदनाओं और कलात्मकता के विशेष ग्राफ को अधिग्रहित करते हुए नए विचारों को जन्म देते हुए नई दृष्टि प्रदान करती हैं। रमेश यादव की लघुकथा 'साँड़ों की लड़ाई' का कथानक तो केवल इतना है कि महामारी से निपटने के लिए सरकार से फण्ड आया है। इसके बंदर-बाँट को लेकर बाबू, अफसर, सरपंच और पार्टी कार्यकर्ता छुट्टी के दिन भी कार्यालय में जमा हैं और परस्पर झगड़ रहे हैं। बाहर तमाशबीनों की भीड़ है जो समय के साथ-साथ बढ़ती ही जा रही है और लगभग बेकाबू होने लगी है। स्थिति को बिगड़ने से रोकने के लिए पुलिस बुलाई जाती है यानी पहले से झगड़ रहे साँड़ों के बीच एक साँड़ और। लाठी चार्ज हुआ। भीड़ तितर-बितर हुई और नुकसान किसका हुआ? बस यही वो दृष्टि है, जो इस लघुकथा को भीड़ से अलग करती है।

'अन्तिम फैसला' पिता की ओर से या कहें कि पूर्व पीढ़ी की ओर से एक कठोर किन्तु व्यावहारिक फैसला है। पूर्व पीढ़ी अब सन्तान-मोह से बाहर आकर सोचने लगी है, स्वाधीन होने लगी है। वह नई पीढ़ी के संकीर्ण विचारों तथा स्वार्थ से अवगत हो चुकी है इसलिए उस पीढ़ी के लोगों को दृष्टि देने का काम करती लघुकथा है।

'गऊदान' में कर्मकांड से जुड़े पंडित वर्ग की दान-लिप्सा का जबर्दस्त खाका खीचा गया है। कर्मकांडी ब्राह्मनों में (ऐसे लोगों को पंडित अथवा ब्राह्मण कहना इन शब्दों की गरिमा का अपमान करना है) दान-लिप्सा का ग्राफ लगातार ऊपर की ओर जाता और भ्रष्ट होता दिख रहा है; लेकिन कथाकार का मानना है कि हिन्दू समाज के पास इस भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अन्य भी अनेक विकल्प मौजूद हैं यानी परम्परा भी निभ जाए और लूट से मुक्ति भी मिल जाए। यह एक अलग अंदाज की लघुकथा है।

लघुकथा 'राजकाज का खेल' में संवाद भले ही दो बालकों के मध्य संपन्न हुआ हो, लेकिन उस संवाद के प्रश्न और उत्तर दोनों में प्रौढ़ता है। यह लघुकथा बताती है कि आज का बालक धार्मिक समझे जाने वाले कथा-प्रकरणों की अतार्किकता से जूझने की बुद्धि और साहस रखता है, उन पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है। वह पूर्वकालीन और समकालीन दोनों राजनीतिकों के काले, समाज और मनुष्यता विरोधी कृत्यों से भली-भाँति परिचित है तथा उन पर टिप्पणी भी करता है। 'पीड़ा की पोटली' मानवीय संवेदनहीनता का दृश्य हमारे सामने साकार करती है। जैसी और जितनी आशा किसी भी जागरूक साहित्यकार से की जाती है, वैसी आशा पर कथाकार रमेश यादव लगभग खरे उतरते हैं। वृद्ध माता-पिता के प्रति दायित्व की जो भावना आज की युवा और पूर्व-युवा (यह किशोर और युवा के बीच की अवस्था है) पीढ़ी में मर चुकी है, उस संवेदना को 'पीड़ा की पोटली' का कथाकार बाल, किशोर और पूर्व युवा मन में जीवित दिखाता है; यानी आने वाले कल को युवा होने वाली पीढ़ी के मन में। 'मंथरा मंत्र का दहन' शीर्षक ही पाठक के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला है। स्नेह की अधिकता पिता और माता दोनों के मन में सन्तान के प्रति असुरक्षा का भाव स्वभावतः रखती है। इसके चलते ही बहुत-सी बेटियाँ अपनी ससुराल से असन्तुष्ट रहने लगती हैं या बहुत-से बेटे अपनी पत्नी से माँ-जैसा व्यवहार चाहकर दाम्पत्य जीवन को नर्क बना लेते हैं। यह एक सुन्दर पारिवारिक कथा है। बिना उपदेश के ही इस लघुकथा में सब-कुछ समझा देने का सामर्थ्य है। श्रीमद्भगद्‌गीता का एक श्लोक है-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

सामान्यतः 'आत्मा' के सन्दर्भ में इसका अर्थ किया जाता है। मेरी दृष्टि से, इसका अर्थ 'वाक्' के सन्दर्भ में किया जाना चाहिए। इसका वास्तविक अर्थ तब यह होगा-'वाक् को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है। न पानी गला सकता है और न हवा उसे सुखा सकती है।' वाकई, विश्व के किसी भी कोने के किसी भी तानाशाह द्वारा वाणी को न छेदा जा सकता है, न जलाया अथवा गलाया जा सकता है और न ही इसको सुखाया यानी रसहीन और प्रभावहीन किया जा सकता है। दुष्यंत ने कहा है-

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता।

एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारो ।।

वाणी एक बार पत्थर-सी हवा में उछल गयी तो आकाश में छेद करके ही मानेगी। लघुकथा 'अनमोल उपहार', 'वाक्' और 'पत्थर' जैसा ही उपर्युक्त संदेश देने का प्रयास करती है। इसमें 'कुलम' के खो जाने से हुई बेचैनी को वाक् यानी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से विरत हो जाने की बेचैनी के रूप में ग्रहण करना चाहिए। इसी तरह 'कोख का सौदा', 'जीवन है तो संघर्ष है', 'झुनझुना', 'मैं हूँ ना!', 'प्रेशर कुकर', 'ऑक्सीजन लेवल', 'चोर पर मोर' जैसी लघुकथाएँ जीवन एवं समाज के विविध वर्गों तथा पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हुए वैचारिक आघात करती हैं और नई दिशा देती हैं। साइबर अपराध जैसे विषय पर आधारित लघुकथाएँ इस विधा विशेष लेखन में स्वागत योग्य हैं, जो नए विषयों की ओर संकेत करती हैं। अस्तु ।

इन कुछेक लघुकथाओं की विवेचना के आधार पर रमेश यादव को संभावनावान लघुकथाकार कहा जा सकता है। बाल साहित्य लेखन की तरह ही वे लघुकथा लेखन में भी नैरन्तर्य बनाए रखेंगे, इसी विश्वास और शुभकामनाओं के साथ...

बलराम अग्रवाल

मोबाइल : 8826499115

मेरी बात 

देखन में छोटे लगैं, घाव करें गम्भीर

पेशे से प्रोफेशनल बैंकर और पॅशन से पत्रकार एवं साहित्यकार की भूमिका निभाते हुए जीवन में हमेशा विविधता दस्तक देती रही। सामने जो काम आया, फिर चाहे प्रोफेशनल हो या शौकिया, उसे चुनौती मानकर करता रहा और सृजन के इस महायज्ञ में अपनी समिधा समर्पित करता रहा। जब हम विधा विशेष में काम करते हैं तो उसकी गहराई में उतरने का प्रयास करते हैं। विविधता की इस प्रक्रिया में आश्वस्त था कि साहित्य सृजन का रंग निखर रहा है और कलम जम रही है। मैं काफी कुछ सीखने का प्रयास करता रहा और सीखने की यह प्रक्रिया आज भी जारी है।

साहित्य की कई विधाएँ हैं, हर विधा का पूरा ज्ञान हो ऐसा सम्भव नहीं होता। साहित्य सृजन के इस सफर में लघुकथाएँ मुझे काफी पहले से प्रभावित करती रहीं हैं पर कभी ठीक से गौर नहीं कर पाया। आधुनिक दौर के इस रफ्तार भरी जिंदगी में लोगों के पास समय की कमी है। सीमित समय में कुछ अच्छा पढ़ने को मिल जाए शायद आगामी दौर में पाठकों की प्राथमिकता होगी। ऐसा कयास लगाना गलत नहीं होगा इसीलिए लघुकथाओं का महत्व दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। लघुकथा के इतिहास पर गौर करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि इसके प्रस्तुतिकरण और स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है। भविष्य में भी परिवर्तन होता रहेगा इसमें कोई दो राय नहीं है।

एक अच्छी लघुकथा नपे-तुले शब्दों में, संवेदनशील कथा-शिल्प के साथ, अपनी प्रभावी अभिव्यक्ति और सटीकता के साथ कुछ इस तरह से पेश होती है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता है। बल्कि कथा समापन के बाद एक नई लघुकथा जन्म लेती है। एक अच्छी लघुकथा पढ़ने के बाद आलपिन की चुभन के बाद जो झनझनाहट होती है या गरम तावे पर पानी की फुहार छिड़कने के बाद जो चरचराहट होती है, ऐसा प्रभाव छोड़ जाती है। कवि बिहारी के शब्दों में कहें तो देखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीरग डॉ. राजम पिल्लई के सम्पादन में मुंबई से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका 'कृत्बन्मा', का अक्टूबर-दिसंबर 2010 का अंक मेरी अगुआई में बाल पत्रिकाय विशेषांक के रूप में निकाला गया। इस अंक के माध्यम से देश के कई सान्यवर साहित्यकारों से संवाद करने का मौका मिला। नागपुर की उषा अग्रवाल 'पारस' जी से परिचय उसी दौरान हुआ। बाल साहित्य के साथ उनका विशेष फोकस लघुकथा और हाइकु पर था। साहित्य की इस विधा में उदीयमान गंभीर लेखिका के रूप में हिंदी साहित्य जगत में उन्होंने अपनी खास पहचान भी बना ली थी। उन्हीं की प्रेरणा से हाइकु तथा लघुकथाएँ लिखने का चस्का मुझे लगा। दोनों विधाओं में एक मार्गदर्शक और समीक्षक के रूप में उनसे मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। आगे चलकर पुष्पा कुमारी 'पुष्प' से भी ऐसा ही सहयोग प्राप्त हुआ। सीखने के लिए वरिष्ठ और कनिष्ठ ऐसा कोई भेद नहीं होता है, जब मैंने अपनी यह भूमिका स्पष्ट की तब मुझे ये सहयोग मिला। तत्पश्चात् इस विधा के कई मान्यवरों को सुनने और पढ़ने का प्रयास किया।

लघुकथा तथा हाइकु के क्षेत्र में रुचि निर्माण होने के बाद धीरे-धीरे पठन- पाठन आरंभ किया। सैकड़ों रचनाओं तथा समीक्षा लेखों, इस विधा में सक्रिय संस्थाएँ, पत्र-पत्रिकाएँ एवं मंचों से जुड़ने का प्रयास किया, जिनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। विशेषतः रामेश्वर काम्बोज तथा सुकेश साहनी द्वारा संचालित 'लघुकथा डॉट कॉम', मधुदीप जी द्वारा सम्पादित 'पड़ाव और पड़ताल' के दो अंक', उमेश महादोशी जी द्वारा सम्पादित पत्रिका 'अविराम साहित्यिकी', बी.एल. आच्छा द्वारा सम्पादित प्रेमचंद सृजन पीठ (उज्जैन) का लघुकथा विशेषांक- 'संवाद-सृजन', 'अखिलेश सिंह' (दादू भाई) एवं प्रतिमा जी द्वारा संचालित वाट्सप्प ग्रुप 'गद्य-गगन', उषा अग्रवाल द्वारा सम्पादित पुस्तक 'लघुकथा वर्तिका,' कांता रॉय द्वारा संचालित मंच 'लघुकथा के परिंदे', डॉ. ऋचा शर्मा द्वारा संचालित 'लघुकथा शोध केंद्र-अहमदनगर, संतोष श्रीवास्तव जी द्वारा संचालित 'अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच', ओम गुप्ता द्वारा संचालित 'वैश्विक लघुकथा-पीयूष' आदि मंचों से मान्यवर साहित्यकार पवन जैन, महिमा वर्मा, मिथिलेश दीक्षित, रामनिवास 'मानव,' कांता रॉय,' नरेंद्र कौर छाबड़ा, बलराम अग्रवाल, राज बोहरे, गोकुल सोनी आदि को सुनने और मार्गदर्शन प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। कहानीकार एवं पत्रकार का जर्म होने के नाते प्रारंभ में में लघुकथाएँ भी विस्तार से लिखा करता था। भूमिका बड़ी हो जाती थी मगर लघुकथा लेखन के अपने कुछ मापदंड हैं। अतः इस लघुकथा संग्रह को लेकर मेरा ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि ये लघुकथा लेखन के सांकेतिक कसौटी पर पूर्णतः खरे उतरे हैं मगर ईमानदार कोशिश ज़रूर की है। लघुकथा लेखन के इस सफर में जो संकेत और नियम मैं समझ सका उसका पालन करने का प्रयास किया है।


मित्रो, लघुकथा एवं हाइकु ये दोनों विधाएँ देखने में जितनी छोटी लगती हैं, लिखने, समझने एवं कसौटी पर कसने में उतनी ही कठिन होती हैं, इसे अनुभव से समझा जा सकता है। तकनीकी दौर और अपनी भाषा से दूर होता आगामी दौर का पाठक भविष्य में शायद इन्हीं विधाओं को पढ़ना अधिक पसंद करेगा, इसलिए इन विधाओं की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। बदलते समय के साथ इन विधाओं का समावेश साहित्य की मुख्यधारा में किया जाना चाहिए और केन्द्रीय तथा राज्य के साहित्य अकादमियों के पुरस्कार योजनाओं में इन्हें भी स्थान दिया जाना चाहिए। वैसे भी देखा जाए तो सूक्ष्मता के चलते आज इन दोनों विधाओं ने हर भाषा के साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान प्रस्थापित कर लिया है।


मेरा यह लघुकथा संग्रह आप सुधी पाठकों को सौंपते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। आपकी प्रतिक्रियाओं का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहेगा। आदरणीय बड़े भाई बलराम अग्रवाल जी ने प्रस्तावना लिखकर तथा भाई रामेश्वर काम्बोज जी ने स्नेहाशीष देते हुए मेरी जो हौसला-अफजाई की है उसके लिए मैं तहे दिल से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। प्रकाशक इंडिया नेट बुक्स, के निदेशक डॉ. संजीव कुमार, उनकी पूरी टीम तथा परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जिनका भी सहयोग मुझे मिला उन सबके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। घर परिवार एवं मित्रों के ऋण से उऋण नहीं होना चाहता। इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को फिलहाल विराम देता हूँ। धन्यवाद।

डॉ. रमेश यादव

मुंबई

फोन 9820759088/7977002381

अनुक्रम

रमेश यादव :    एक सम्भावनावान लघुकथाकार / बलराम अग्रवाल 

मेरी बात / रमेश यादव 

जीवन है तो संघर्ष है 

क्या माँ भी कभी रिटायर होती है! 

तेरा तुझको अर्पण...

गठरिया में लागा चोर...

बेटी की बिदाई 

जब हर दिल चंगा, तब हर घर तिरंगा 

ऑक्सीजन लेवल 

प्रेशर कुकर 

गऊदान 

पीड़ा की पोटली 

साँड़ों की लड़ाई 

हाई प्रोफाइल बहू 

अनमोल उपहार 

मंथरा-मंत्र का दहन 

राजकाज का खेल 

अहिंसावादी पार्टी 

अंतिम फैसला 

रेस 

बुढ़ापा वरदान भी हो सकता है...

नई चुनौतियाँ

मैं हूँ ना !

प्राथमिक शिक्षा

कोख का सौदा -1

कोख का सौदा -2

कहानी बेची थी, हौसला नहीं

खेल बनाम साहित्य 

चोर पर मोर 

दिखाने और खाने के दांत 

क्या आप लोगों का दुख मेरे दुख से बड़ा है...!

मृगतृष्णा

नौटंकी

लॉकडाउन और भिखारी 

मूर्ख गदहों का भार

लक्ष्य-1

लक्ष्य-2

वास्तववादी सपना 

रिटायर्ड हैं हम, टायर्ड नहीं... 

टोपी पहनाने की कला 

नाच करे बंदर और माल खाए मदारी 

नहले पे दहला 

अधिकार और कर्तव्य 

थर्ड डिग्री 

माँ का धर्म 

साहब मैंने चोरी नहीं की 

ऊ तो जानवर है और हम इंसान...! 

बच्चों का क्या दोष...! 

साथी हाथ बढ़ाना, साथी रे..... झुनझुना 

नौकरी का झांसा 

सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी...! 

अंग्रेजी का भूत

डॉ. रमेश यादव

हिंदी एवं मराठी के बीच सेतु का काम कर रहे डॉ. रमेश यादव वरिष्ठ साहित्यकार, स्वतंत्र पत्रकार एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं। मुंबई विश्वविद्यालय से एम.ए. पीएच. डी. की उपाधि तथा बैंकिंग, अनुवाद एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करते हुए उन्होंने विविध विधाओं में मौलिक लेखन, अनुवाद तथा बाल साहित्य में उल्लेखनीय कार्य किया है। मराठी लोकसाहित्य एवं लोककलाओं का हिंदी में मौलिक लेखन तथा टीम के साथ मंचीय प्रस्तुति जैसा अनूठा कार्य भी उनके द्वारा सम्पन्न हुआ है। इस कार्य के लिए संस्कृति मंत्रालय, संगीत नाटक अकादमी (भारत सरकार) तथा महाराष्ट्र राज्य सांस्कृतिक संचालनालय द्वारा उन्हें सहयोग प्राप्त हुआ है।

विविध विधाओं में उनकी अब तक 16 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। महाराष्ट्र राज्य के पाठ्यक्रमों में उनकी रचनाओं का समावेश कक्षा 5 और कक्षा 9 में किया गया है। देश-विदेश के विविध मान्यवर संस्थाओं द्वारा उन्हें कई मान-सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हैं, जिनमें प्रमुख हैं- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर का सौहार्द सम्मान, महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार, गुणवंत कामगार सम्मान (महाराष्ट्र राज्य), विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरीशस) द्वारा काव्य का प्रथम पुरस्कार, कमलेश्वर स्मृति कहानी पुरस्कार, दया पवार स्मृति सम्मान, डॉ. राष्ट्रबंधु स्मृति राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मान, पत्रकारिता भूषण, समाज रत्न, समाज गौरव आदि।

संस्कृति मंत्रालय, संगीत नाटक अकादमी तथा केंद्रीय हिंदी निदेशालय (भारत सरकार) द्वारा उन्हें शोध एवं प्रकाशन अनुदान के अलावा उनकी बाल साहित्य के पुस्तक का प्रकाशन भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा किया गया है। देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से उनकी विविध विधाओं की रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण होता रहता है। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता करते हुए उनके अब तक 400 से अधिक फीचर, लेख एवं रिपोर्ट्स प्रकाशित हो चुके हैं। सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से शैक्षिक, कला, साहित्य, संस्कृति, विवेकानंद व्याख्यानमाला जैसे कार्यक्रमों के आयोजन नियोजन में सक्रिय सहभागिता के साथ उन्हें अभिनय में भी विशेष रुचि है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा उन्हें विशेष कार्यकारी अधिकारी (S.E.O.) का पद दूसरी बार बहाल किया गया है। 

संपर्क : 481/161 - विनायक वासुदेव बिल्डिंग, एन.एम. जोशी मार्ग, चिंचपोकली (पश्चिम) मुंबई-400011.

फोन : 9820759088/7977992381, 

E-mail: rameshyadav0910@yahoo.com

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