लघुकथा-संग्रह-2021/बलराम अग्रवाल (सं.)

लघुकथा-संग्रह  : सूली ऊपर सेज (चुनी हुई व्यंग्य                   लघुकथाएँ)

कथाकार  : बलराम अग्रवाल 

प्रकाशन वर्ष  : अक्टूबर 2021

कुल पृष्ठ : 40         मूल्य  : ₹ 40/-

अग्रज साहित्यकार  डॉ. प्रेम जनमेजय  द्वारा लिखित भूमिका--'सूली ऊपर सेज यानी अन्तर्भूत करुणा और दंश' :

गद्य-युग में सतसइया के दोहों और कबीर की साखियों की भूमिका लघु-व्यंग्य निभा रहे हैं। व्यंग्यकार शब्द प्रयोग में बेहद कंजूस होता है । वह ऐसा धनुर्धर है जो आसपास के पेड़ नहीं देखता, सीधम-सीध चिड़िया की आँख देखता है। वह व्यंग्य जैसे विवशताजन्य हथियार का प्रयोग एक कला-कुशल सैनिक की तरह करता है।

सार्थक लघुकथा में व्यंग्य एक उत्प्रेरक का काम करता है। व्यंग्य की प्रखरता, लक्ष्यबेधक दृष्टि, आलोचनात्मक प्रवृत्ति आदि लघुकथा को एक मारक रचना-शक्ति प्रदान करती हैं। पर, लघुकथा को यह शक्ति तभी मिलती है जब उसका प्रयोगकर्ता इसके टूल्स का सावधानी से प्रयोग करता है। किसी भी अच्छी रचना के लिए उसके टूल्स का प्रयोग सावधानी से करना अनिवार्य तत्व है।

बलराम अग्रवाल को मैं वर्षों से पढ़ता रहा हूँ। उनकी रचनात्मक दृष्टि दलबद्ध नहीं है। इस कारण वे विचार का प्रयोग अपने विवेक से करते हैं। इस संकलन भी उन्होंने व्यंग्य दृष्टि प्रयोग द्वारा अपने सामाजिक सरकारों को रेखांकित किया है। वे अपनी मानवीय सोच के कारण मनुष्य को जाति, धर्म आदि से देखने वाली दृष्टिबाधित विचारधारा के विरोध में दिखाई देते हैं। इन रचनाओं में उन्होंने संकुचित दृष्टि के कारण उपजी विसंगतियों पर निर्भीक प्रहार किए हैं। बहुत कुछ ऐसे ही प्रहारों का अनुभव हम सबने मंटो को पढ़ते हुए किया था।

मैंने इस संकलन को जब पढ़ा, तो मेरे लिए यह मंटो के पुनर्पाठ जैसा था। आरम्भ से ही यह संकलन अंतर्भूत करुणा के साथ दंश देता है। बलराम अग्रवाल कुछ शब्दों में बात कहते हैं, पर मेरी विवेक बुद्धि ने उसके अन्यार्थ ग्रहण किये और एक विस्तृत विसंगति से मेरा सामना हुआ। आप जब 'अपने-अपने आग्रह', 'अपने-अपने सुकून', 'आदाब', 'पाकिस्तान', 'कुर्बानी', 'मज़हब', 'मजहबी किताबें' आदि पढ़ेंगे तो चाहे मेरे कितने ही विरोधी हों, कम से कम अंतर्मन से मेरे पक्षधर हो जाएँगे। कह सकता हूँ कि यह किताब अपने समय की ताज़ातरीन राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि विसंगतियों को समझने की एक पाठशाला - जैसी है।

अनुक्रम 

अपने-अपने आग्रह

अपने-अपने सुकून

आदाब

एक राजनीतिक संवाद

कुर्बानी

परदादारी

पाकिस्तान

पाखण्ड

है ये वो आतिश गालिब

पुरातन इतिहास

समझदारी 

बकरा और बादाम

बदबू 

बन्दरों की नयी खेप 

भरोसा और ईमानदारी

भुट्टा और कलम

मजहबी किताबें

मजहब 

मध्यमार्गी

मुर्दों के महारथी

मरा हुआ मर्द

मौसम की मार 

दौलतखाने में दलित

मीडिया इन दिनों

रचनाशील विपक्ष

मेरे मेहमां

व्यवसायी

जोस्सी और जजमान

ये दुकानवालियाँ

सेक्युलर 

बेचारा पत्थरबाज

बड़े लोग

नए रहनुमा

चुप ही बेहतर 

लेखक-प्रकाशक संवाद 

व्यावसायिक संबंध

शह और मात

कुंडली

ब्रह्म-सरोवर के कीड़े

पूजावाली जगह

अथ ध्यानम्

मान-अपमान

अगर तू खुदा है

लानत

सरकारी अमला

सेक्यूलर

दूसरा अमेरिका

वे चार शब्द

संकट मोचन

संसद पर हमला

अंधी-दौड़

एक और देवदास

नागपूजा

बदलेराम

युद्धखोर मुर्दे

आदि गर्दभ

संग्रह से कुछ व्यंग्य लघुकथाएँ :

भरोसा और ईमानदारी

“आओ, भूत-भूत खेलते हैं।” 

“ठीक है। पहले तू गायब हो, मैं तुझे तलाशने की कोशिश करूँगी।” 

“उसके बाद तू गायब होना, मैं तुझे तलाश करूँगा ।” 

“अच्छा सुन, अगर हम दोनों ही एक साथ गायब हो जाएँ तो?” 

“तो इन्सान हमें तलाश करने की कोशिश करेगा!”

“तब यही ठीक है। दोनों मिलकर इन्सान को छकाते हैं। पकड़ मेरा हाथ... ए...S...क-दो...ऽ...छुः!”

दोनों गायब !

भुट्टा और कलम

“आँच तेज करके जरा तेजी से घुमाओ रामरती! बहुत देर लगा रही हो ।”

भुट्टा भूनती रामरती से बस यही कहा था कि तपाक् से बोली, “जे भुट्टो है लल्ला, इतमिनानतेई भुनैगो । तुम्हाई कलम नईए, के उठाई और घिस डारी ।”

मजहबी किताबें

“चारों तरफ से यह भीड़ क्यों उमड़ी पड़ रही है?" 

“कुछ नहीं, किसी ने 'किताब' का अपमान कर दिया बताते हैं।” 

“कल भी तो इसी बात को लेकर हो-हल्ला हुआ था ?" 

“हाँ, वो किताब 'अपनी' नहीं, 'उनकी' थी।” 

"परसों ?"

“वो उन 'तीसरे' वालों की थी ।”

"अरे, तो लड़ाई-झगड़े की जड़ इन सारी किताबों को एक ही बार क्यों नहीं गर्क कर डालते? तीन-तीन समन्दर हैं मुल्क की सरहदों पर; डुबो आओ बीचों-बीच जाकर।”

बलराम अग्रवाल 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 16 अक्टूबर 2021 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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