बिखरी चीनी / सुनीता प्रकाश
लघुकथा-संग्रह : बिखरी चीनी
कथाकार : सुनीता प्रकाश
ISBN: 978-93-91484-58-3
मूल्य : रु. 380/-
प्रथम संस्करण 2024
• लेखक सुनीता प्रकाश
आवरण : कान्ता रॉय
प्रकाशक अपना प्रकारान 54/ए, सेक्टर-सी, बंजारी कोलार रोड, भोपाल 462042 (म.प्र.) फोन: +91 9575465147 roy.kanta69@gmail.com
अनुक्रम
अपने मन की बात / सुनीता प्रकाश
गहरे संदेश के साथ समृद्ध लघुकथाओं का संग्रहण : सुनीता प्रकाश की लघुकथाएँ / कान्ता रॉय
आसपास बिखरे कथानकों से चुनी और बुनी गई हृदय स्पर्शी लघुकथाएँ / घनश्याम मैथिल 'अमृत'
लघुकथाएँ
1. साँसों का अभाव
2. बदलते रंग
3. मीठे बोल
4. अधिकार
5. सरकारी उपस्थिति
6. फैसला
7. घर
8. छुट्टी
9. लत
10. बुत
11. चौराहे का बुत
12. आधुनिक कृषक
13. माँ
14. क्लेम
15. नौकरी
16. पिता की सोच
17. पैंतरे
18. लिव इन रिलेशनशिप
19. पदोन्नति
20. पपी
21. करवाचौथ का उपवास
22. सहेलियाँ
23. छतरी
24. तिरंगा
25. सयानी बिटिया
26. भाग्य का चक्र
27. आस
28. व्रती
29. मुखौटा
30. बसेरा
31. सखा
32. यूनियन
33. अस्तित्व की तलाश
34. हड़ताल
35. स्वच्छता अभियान
36. पलटवार
37. वर्चस्व
38. संघर्ष
39. बिल
40. वार्तालाप
41. चुनाव प्रचार
42. छाला
43. अपना समय
44. कबाड़
45. सकोरा
46. भाई बहन का प्यार
47. कामकाजी
48. नट
49. सांप
50. परछाइयों से दूर
51. दुविधा
52. बिखरी चीनी
53. फोटोग्राफर
54. प्रश्न
55. खण्डहर
56. डिजिटल भुगतान
57. दानी
58. सुनहरे सपने
59. सेवानिवृत्ति
60. आज का परशुराम
61. बाढ़
62. आजादी
63. सहचर
64. कर्तव्यबोध
65. अंतिम बहस
66. दादी के लड्डू
67. नहीं
68. साया
69. और हरसिंगार के फूल खिल उठे
70. विक्रम और बेताल
71. तलाशती राहें
72. आगमन
73. चाँद के नक्शे-कदम
74. जीवन की शतरंज
75. जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
अपने मन की बात
मेरे मन में कभी-कभी प्रश्न उठता है कि कलम हाथ में लेते ही लघुकथा ही लिखने की इच्छा क्यों जागृत हुई, कहानी क्यों नहीं?
जानती हूँ कि साहित्य सृजन की उत्कृष्ट विधा है। उसमें अपने समय के वैचारिक और भावनात्मक स्पंदन के पुष्प अनेक विधाओं के रूप में पल्लवित होते हैं। निःसंदेह लघुकथा या किसी भी विधा का कथ्य हमारे आस-पास ही बिखरा पड़ा है। लेखक द्वारा उस कथ्य को कलात्मक रूप से बुन कर पाठकों के समक्ष रखने की बस जरा सी देर होती है। दरअसल मेरे परिवार में स्त्रियों की शिक्षा और उनकी भावनाओं की बड़ी कद्र थी। किसी भी बात पर रोक-टोक नहीं। बचपन की स्मृतियों में कहीं भी कोई सामाजिक विसंगतियों का स्थान नहीं रहा। मेरे लिए समाज एक आदर्श ही था। फिर जैसे-जैसे बड़ी हुई, होकर बाहरी समाज के संपर्क में आयी, तब मैंने पाया कि वास्तविक समाज में विसंगति और कुरीतियाँ बड़े पैमाने पर व्याप्त हैं।
आज कई घटनाएँ नजरों के सामने घूमने लगीं हैं, बुजुर्गों और स्त्रियों की दुर्दशा, भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियाँ आदि हृदय को झकझोर कर चली जाती हैं। मैंने बचपन में सपनों की सतरंगी चूनर में लिपटी, कही-सुनी बातों और युवा होने के उपरांत सामने खड़े यथार्थ में बहुत अंतर पाया। जैसे संविधान के अनुसार स्त्री और पुरुष को समान अधि कार प्राप्त है पर असल कुछ और ही है। अपने कार्यस्थल पर मेरा कितनी महिलाओं से संपर्क हुआ, और पाती हूँ कि वे भले आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों, पर उनके स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास होना अभी शेष है। यह जो शेष है वही चिंतन का विषय है। आखिर इस शेष के पीछे के कारण क्या हैं? बुजुर्गों की दयनीय अवस्था भी चिंता का विषय हैं। इन दोनों विषयों से संबंधित जीवंत घटनाओं को सुन मन व्यथित हो उठता है। मन में प्रतिरोध का जैसे एक ज्वार-सा उठता महसूस करती हूँ बावजूद इसके लघुकथा के माध्यम से अपने मन को आंदोलित करने वाली अनुभूतियों की सहायता से पाठकों के समक्ष रखना मुझे अधिक श्रेयस्कर प्रतीत हुआ। उन्हीं दिनों मेरा संपर्क आदरणीय कांता रॉय जी से हुआ। आदरणीय जया आर्य जी ने कांता जी से मेरा परिचय कराया था। वे तबसे हमारी ऊर्जा का स्त्रोत रहीं हैं। हम उनसे अक्सर लघुकथाओं पर लंबी चर्चा करते रहते हैं।
मेरी इस लघुकथा संग्रह 'बिखरी चीनी' में विशेषकर स्त्री विमर्श, बुजुर्ग और बच्चों से संबंधित सकारात्मक लघुकथाएँ हैं। मेरे मन में समाज को सुंदर और सुखी देखने की लालसा निहित है। मैं लिख रही हूँ, लेखन की भाषा और शैली भी कथ्य की गति और प्रकृति के साथ ही तय हुई है, इसमें मेरा कोई विशेष हाथ नहीं है।
अगर मैं अपनी रचना प्रक्रिया को सोचती हूँ तो पर्यावरण को केंद्रित करके लिखी गई लघुकथा 'साँसों का अभाव' का कथ्य मुझे कोर्ट की एक घटना से मिला। पर्यावरण से संबंधित जनहित के केस की सुनवाई के दौरान माननीय जज महोदय ने एक चित्र बनाकर कोर्ट में कहा कि प्रदूषण के चलते भविष्य में मानव की आकृति भी विकृत हो सकती है। इस लघुकथा में उसी काल मानव का जिक्र किया गया है। लघुकथा 'बदलते रंग' में परिवार में बेटी की अहमियत पैसे से होती है। यह लघुकथा भी मेरे इर्द-गिर्द घटनाओं से प्रभावित है। कैसी विडंबना है कि जो माँ भागी हुई बेटी को समाज के लिए त्याग सकती है पर जैसे ही वही बेटी जब कमाऊ हो जाती है तब उसे अपना लेती है। त्यागे जाने के बाद बेटी परदेश में इतने दिन कैसे रही, क्या कष्ट भोगा, इससे उसकी माँ को कुछ भी लेना-देना नहीं।
इसी प्रकार 'पपी' लघुकथा भी बच्चों की संवेदनाओं को समेटे हुई है। जब-तब मेरा भतीजा सड़क पर किसी भी कुत्ते के बच्चे को उठा कर प्यार करता था। मूक पशुओं के प्रति उसकी संवेदनाएँ मुझे अंदर तक झकझोड़ देती थीं। एक दिन प्रयागराज में उच्च न्यायालय के समीप से एक कुत्ते के बच्चे को उठा लाया। इसी घटना ने मुझे 'पपी' लघुकथा लिखने के लिए प्रेरित किया।
मेरे परिवार में बच्चों और उनके दादा-दादी, नाना-नानी के मध्य गहरा भावनात्मक रिश्ता रहा है। उनका आपस में मित्रवत् व्यवहार, ऊपर से मेरे पिताजी और ससुर जी के निधन के पश्चात मेरी माँ और सासु माँ का आपस में सामंजस्य और बच्चों की उनके साथ की गई मस्ती भी दिल को अपनी सोंधी महक से भिगो देती थी। इन्हीं महकते रिश्तों की कोख से 'बिखरी चीनी', 'दादी', 'घर' आदि लघुकथाओं का जन्म हुआ। हम भले ही समय के साथ बुजुर्ग की श्रेणी में आ जाये पर हमारी भावनाएँ तो वैसी ही रहेंगी जैसे पहले थीं। लघुकथा 'बिखरी चीनी' में पात्र नानी भले ही अशक्त हो गई हों, पर अपनी नातिन को मनपसंद खाना बना कर खिलाने की अभिलाषा वैसी ही थी। बस, बुजुर्गों को युवा वर्ग का थोड़ा-सा सहयोग चाहिए जो उनके जीवन में खुशियाँ ला सकता है। मेरे हृदय में ऐसे समाज को बनाने की लालसा है जहाँ बुजुर्ग जीवन का स्थान समाज की मुख्य धारा में समाहित हो। किसी भी वृद्ध को उपेक्षा का सामना न करना पड़े पर क्या यह वास्तव में संभव है? लेखक समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार तो करता है, साथ ही एक सुखद, सकारात्मक पहलू को भी सामने रखता है। यह लघुकथाकार की प्रकृति है और मैं भी इससे अछूती नहीं रहीं हूँ। मैंने भी लेखनी के माध्यम से इस प्रकार के स्वप्न देखे हैं।
कहते है॔ कि घर से ही सुखद समाज का निर्माण प्रारंभ होता है। इसके अनुरूप समाज की विसंगति भी घर से ही प्रारंभ होती है। पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहन एवम् सभी संबंधों की जड़ें घर में ही रोपित हैं। मेरे इस लघुकथा संग्रह में पति-पत्नी, माँ-बेटी, आदि रिश्तों की बारीकियाँ इंगित हैं। मैंने अपने इर्द-गिर्द परिवारों में पति-पत्नी के मध्य उतार-चढ़ाव को शिद्दत से महसूस किया है।
लघुकथा 'वार्तालाप' में पति-पत्नी के बीच नोकझोंक तो है पर मौन समझौता भी है। अगर हम रिश्तों को सुधारना चाहे तो लघुकथा 'मीठे बोल' में स्त्री-पुरुष केवल अपने मृदु वचनों के द्वारा अपने जीवन को आनंद से परिपूर्ण बना लेते हैं। इस लघुकथा के पात्र स्त्री-पुरुष आपस में एक दूसरे के पूरक है। मेरी एक सहेली ने अपने पति की बहुत प्रशंसा की। वह बार-बार इसी बात पर जोर देती रही कि उसके पति इतने दरियादिल थे कि उसको बाहर भी जाने देते थे, पर फिर यहीं प्रश्न उठता है कि क्या आज के युग में स्त्री को अपना मनपसंद कार्य करने के लिए पति या अभिभावक की अनुमति चाहिए या वाकई में वह संविधान के अनुरूप ही स्वतंत्र है। इस संग्रह की लघुकथा 'अधिकार' में पात्र द्वारा इसी प्रश्न को उठाया गया है। कहते हैं कि पति-पत्नी दोनों जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं।
यदि उनके आपसी रिश्तों में सामंजस्य नहीं है तो जीवन में 'अंतिम बहस' छिड़ जाती है, परिवार का विघटन, अकेलापन आदि समस्याओं का जन्म होता है। इसमें कोई भी संशय नहीं कि अहं ही मानव के जीवन में पतन का कारण बनता है। मानव अनजाने में ही अपने अमूल्य रिश्तों को छोड़ कर अहं का दामन पकड़ लेता है। ऐसी कितनी ही समाज में व्याप्त विसंगतियाँ हैं जिसपर लिखने की जरूरत सदैव महसूस होती है क्योंकि साहित्य का आधार यथार्थ सदैव ही रहेगा। लेखक की कलम से यथार्थ कल्पना की उड़ान के साथ लघुकथा या कहानी के रूप में पाठकों के समक्ष आ ही जाता है। लेखक तो अपनी बात लघुकथा में कथ्य को कल्पना के साथ एक नई दृष्टि रोपित करता है। मैंने भी कुछ ऐसा करने की चेष्टा की है। मेरे इस प्रयास की सफलता आपकी प्रतिक्रिया पर निर्भर है।
सदा की तरह ईश्वर का आभार करना चाहूँगी जिसने मुझे ऐसे माता-पिता और परिवार प्रदान किया, जिनकी परवरिश से मुझमें आत्मविश्वास और स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास हुआ। मैं सुमन ओबरॉय जी, मनोरमा पंत जी, नीना सोलंकी जी, गोकुल सोनी जी को तहेदिल से धन्यवाद देना चाहूँगी, जिनकी पाठकीय प्रतिक्रिया से लघुकथाओं में सुधार संभव हुआ।
इसके साथ ही मैं अपने जीवनसाथी डॉ. सौरभ प्रकाश का आभार व्यक्त करना चाहूँगी जिन्होंने सदैव मुझे हर पग पर साथ दिया। अपनी दोनों बेटियाँ पल्लवी, तन्वी और दामाद अभिनव को भी तहे दिल से आभार देती हूँ जिन्होंने हमेशा मेरी हौसला अफजाई की।
मुझे आशा है कि आपको यह संग्रह पसंद आएगा। इस पुस्तक पर आपके प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
सेवानिवृत्त अधिकारी
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एवं
कोषाधयक्ष, लघुकथा शोध केन्द्र समिति, भोपाल
श्रीमती सुनीता प्रकाश
पिता : श्री (स्व.) बृजेन्द्र कुमार
माता : श्रीमती (स्व.) मनोरमा कुमार
पति : डॉ. सौरभ प्रकाश
जन्म तिथि : 20 नवम्बर 1962
जन्म : कानपुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम. ए., अर्थ शास्त्र, लघुकथा लेखन कौशल, सर्टिफाईड
सम्मान : लघुकथा श्री, विक्रम सोनी लघुकथा कृति सम्मान
सम्प्रति : रिजर्व बैंक आफ इंडिया में अधिकारी पद से सेवानिवृत्त
कोषाध्यक्ष : लघुकथा शोध केंद्र समिति
विधाएँ : कविता, बाल कहानियाँ, लघुकथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और साँझा संकलन में प्रकाशित तथा लघुकथा के मासिक अखबार 'लघुकथा वृत्त' की सह-संपादक
प्रकाशन : बिखरी चीनी (लघुकथा संग्रह) सम्पादन : लघुकथाएँ-नारी सशक्तिकरण (लघुकथा संकलन)
संपर्क : ई/14 शालीमार गार्डन, कोलार रोड, भोपाल-462042
मो. : 9425013043
ईमेल : sunitatanvi@gmail.com
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें