लघुकथा-संग्रह-2020/ चंद्रेश कुमार छतलानी
लेखक का नाम : चंद्रेश कुमार छतलानी
प्रकाशक: प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, मेरठ
प्रकाशन वर्ष: 2020
ISBN: 978-93-87856-07-3
लघुकथाएं:
भेद-अभाव, एक औरत, मृत्युदंड, मन का जयघोष, जानवरीयत, वैध बूचड़खाना, वोटबन्दी, कमज़ोर बुनियाद, बहादुरी, सत्यव्रत, अस्पृश्य प्रकृति, एक और सूर्य, पहचान, आपका दिन, सब्ज़ी मेकर, खोटा सिक्का, पराजित हिन्द, रावण का चेहरा, रोकना है मुश्किल, आँखों का दायरा, पहचान, गर्व, तिरस्कृत, दुरुपयोग, डर के दायरे, सच्चाई का हलुवा, कमाई, चुप देशभक्त, बंद दरवाज़ा, मैं फ्रॉड नहीं करता, परम्परा का परिष्करण, बुराई का सच, आत्ममुग्ध, मौका, खरीदी हुई तलाश, बचपन, मृत्युंजय, और कितने, मंदिर, प्रसाद का अधिकारी, नशा, जीत, दंगे की जड़, सम्मान, प्रयास तो करो, लहराता खिलौना, मैं जानवर, छंटती धुंध, तो क्या हुआ, अक्षम दाता, प्रेम, जल सरंक्षण, मानसिकता, मेरा धन, आग, शह की संतान, लापता चरित्र, मौसेरे भाई, आदमी, कर्तव्य-संगीनी, स्वदेशी वार्मिंग, बंटवारा, ना-लायक, मेरा सांता, संवेदनशील, मैं पानी हूँ, एकत्व की हत्या, मेरा जिस्म, मज़बूत दीवार, वक्ती पहचान, बचा हुआ, एक दिन की रोटी, महत्वाकांक्षी सन्यासी, ज़रूरत, कमज़ोर बुनियाद
लघुकथा-संग्रह 'बदलते हुए' से एक लघुकथा :
मृत्यु दंड
हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"
कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"
यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."
"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"
भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"
सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"
कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."
-0-
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें