आलोचना पुस्तक-2006/ इन्दु वर्मा (संपादक)

पुस्तक-परिचय

अनिल शूर आज़ाद : प्रतिनिधि लघुकथाएं

■सम्पादन एव॔ भूमिका : इंदु वर्मा

■प्रथम प्रकाशन : वर्ष 2006

(वरिष्ठ लघुकथाकार अनिल शूर आज़ाद के कृतित्व एवं मूल्यांकन पर आधारित विशिष्ट पुस्तक - जिसमें समकालीन साहित्यमर्मज्ञों सर्वश्री अशोक वर्मा, डॉ नूर संतोखपुरी, मनोहरलाल रत्नम, डॉ राहुल, मोहनकुमार डहेरिया, प्रो विपिन सुनेजा, वेदप्रकाश अमिताभ, संजीव निगम, सतीश राठी व डॉ अशोक लव के दस दस्तावेजी आलेख तथा प्रमुख लघुकथाविदों की अहम टिप्पणियों सहित अनिल शूर आज़ाद की अस्सी लघुकथाएं शामिल थी।)

संकलित लघुकथाएं : 80

(बिजिनेस प्वाइंट, डण्डा, तूफानी हवा, एक सर्कुलर की हत्या, दस रुपये, निरीक्षक, बचकानी आदत, असर, एक ईसा और, मैं क्यों नहीं, कलंक-कथा, उसका परमेश्वर, नंगी लड़की, कपूत, अंतर, मैडल, पराई औलाद, वे दोनों, प्रथम लघुकथा का जन्म, कुलबुलाहट, थप्पड़, पता नहीं, आस्था, अंधविश्वास, उसका बेटा, भीख, विरासत, समाधान, शादी से पहले, बसेसर बाबू, मसीहा, भिखारी, दुआ-बददुआ, मुर्गा, दुश्मन, चीप, आहत मन, दरिंदे, सीख, कटे हाथ, जहां के तहां, दर्द, विकलांग, क्वालिफिकेशन, अप्रत्याशित, महत्व, दया का पात्र, उनका लिखना, क्रांति मर गया, स्वतंत्रता दिवस, बजरंगबली, चोर हवलदार, न्याय, पव्वा, कड़वा सत्य, आज का  विक्रमादित्य, पुरस्कार, उसका वोट, जांच आयोग, दलबदल, भारतीय वोट, नेतागिरी के असूल, आतंक, तगड़ा धंधा, दूरी, अनुकरण, रास्ते का पत्थर, श्रीकृष्ण, अबू और फरिश्ता, भ्र्ष्ट, डर, विडम्बना, बड़ी मछली, हक, आक्रोश, ईमानदार, स्कोर, परिवर्तन, फर्ज, विद्रोही।)  

प्रस्तुत है उक्त पुस्तक से एक लघुकथा 'बसेसर बाबू' : 

           टिक..टिक..टिक..टिक..।

         घड़ी की सुइयां रात्रि के मौन को भंग करती हुई आगे बढ़ रही हैं। रात्रि के लगभग साढ़े ग्यारह बजे हैं, लेकिन नींद बसेसर बाबू से अभी कोसों दूर है। इस बीच उनकी बूढ़ी हो रही आंखें अंधेरे की कुछ-कुछ अभ्यस्त हो चली हैं। अंधकार के बावजूद कमरे में एक मद्धम सी रौशनी भी है। इसमें वे कमरे में मौजूद एक-एक चीज़ को देख सकते हैं।

      कुछ ऐसी ही रौशनी उनके स्मृति-पटल पर भी कार्य कर रही है। बसेसर बाबू का नौकरी के लिए शहर चले आना..फिर नीरू, मोहन और विजय। पहले माता और फिर वृद्ध पिता का गांव में स्वर्गवास..और उसके बाद तो उन्होने गांव से बिल्कुल ही सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। गांव की हवेली बेचकर शहर में इस डेढ़ कमरे का जो जुगाड़ बिठाया तो तबसे डेढ़ कमरा ही चला आ रहा है।

       अब तो बच्चे भी बड़े हो चले हैं। नीरू और मोहन तो कालेज जाते हैं। विजय अभी मैट्रिक पढ़ रहा है। और परबतिया..सहसा बसेसर बाबू कोहनियों के बल जरा उठकर, अधलेटे-अधबैठे से होकर बड़ी हसरत से परबतिया को निहारते हैं। नून-तेल के झंझटों ने ऐसा उलझाया कि कब उनके और परबतिया के बीच दो-तीन खाटें और आ बिछी, इसका उन्हें पता ही नहीं चला।

        वे..नीरू,मोहन और  विजय की चारपाईयों के पीछे, दूर कोने में ढीली सी खटिया पर सोई परबतिया को बड़े ध्यान से देखते हैं। क्या यही उनकी बरसों की साथिन है! अचानक कई मधुर यादें उन्हें पुलकित कर जाती हैं। किन्तु अगले ही पल वे उदास हो जाते हैं। वक्त कितना निर्मम है। इंसान को कितना बदल देता है यह। आदमी चाहे लाख शक्तिमान होने का दम भर ले, वक्त के आगे वह खिलौना ही है।

       अचानक वह अपने बैड के साथ लगा स्विच 'आन' कर देते हैं। सारा कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा है। किसी अजानी आशंका के वश वे तुरंत स्विच 'ऑफ' भी कर देते हैं। शीघ्र ही वे पुन: स्विच 'आन' करते हैं। सोई हुई परबतिया दूधिया प्रकाश में कितनी भली लग रही है। वे एक नजर अपने बच्चों पर डालते हैं। दुनिया मानती है बच्चे वृद्ध माता-पिता का सहारा बनते हैं। हुंह, बकते हैं सबके सब। स्वयं वे कितना सहारा बने अपने मां-बाप का!

      सहसा उनका मन कसैला होने लगा है। उनके हृदय में एकाएक विरक्ति के भाव उमड़ने लगते हैं। फरेब है यह दुनिया। तभी उनकी विचार-शृंखला टूटती है। नीरू ने उन्हे टोका है - 'पापा, आप सोये नहीं अब तक?'

       'बस, सो ही रहा था।' कहते स्विच 'ऑफ' कर वे पुनः सोने का असफल-सा उपक्रम करने लगते हैं। घड़ी की सुइयां अभी भी मंथर गति  से आगे बढ़ रही हैं।

        टिक..टिक..टिक..टिक..।●

इंदु वर्मा (संपादक)

ई-मेल : induanil.verma@gmail.com

प्रकाशक : नवशिला प्रकाशन, नांगलोई, नई दिल्ली-41

प्रकाशन वर्ष : प्रथम संस्करण 2006 / द्वितीय संस्करण : 2020

पृष्ठ संख्या : 128

ISBN-Not mentioned 


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