लघुकथा समालोचना-2017 / बलराम अग्रवाल
(डॉ. उमेश महादोषी द्वारा प्रस्तुत)
हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान / डॉ. बलराम अग्रवाल
इस ग्रंथ की भूमिका स्वयं लेखक द्वारा लिखी गयी है तथापि फ्लैप लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार-आलोचक डॉ. कमल किशोर गोयनका जी द्वारा लिखा गया है।
ग्रंथ सुप्रसिद्ध लघुकथाकार डा. शकुंतला किरण जी को समर्पित किया गया है। मुद्रित पृष्ठों की संख्या 256 है।
‘हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान’ ग्रंथ के अध्यायों के शीर्षक-
01. लघुकथा : परम्परा और विकास
02. समकालीन लघुकथा : विभिन्न आयाम
03. संवेदना, सृजनशीलता और मनोविज्ञान
04. मनोविश्लेषण : सिद्धान्त और विवेचन
05. लघुकथा साहित्य एवं अन्य संदर्भित ग्रन्थों की सूची।
ग्रंथ में व्यक्त लेखक की कुछ मान्यताएँ, तथ्य और कथन :
01. मानव मन के अध्ययन की मनोवैज्ञानिक पद्धति में लेखक ने सिग्मण्ड फ्रायड को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताते हुए कहा है- ‘‘फ्रायड के विचार सर्वथा नवीन माने गये; क्योंकि उनके पूर्व मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा नियमों का मानव व्यवहार के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं था। फ्रायड से पूर्व, चेतन मन सम्बन्धी अध्ययन पर बल दिया जाता था; लेकिन फ्रायड ने अचेतन मन को अपने अध्ययन का विषय बनाया। (पृष्ठ 151-152)
‘‘फ्रायड ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला कि सामान्य रूप से व्यक्ति जो कहता है उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अपने कथन के मूल कारणों को नहीं जानता। वे कारण उसके अचेतन-मन में अज्ञात रूप से पड़े रहते हैं। अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि उन कारणों को मालूम किया जाय जो उसके अचेतन-मन में दबे पड़े हैं।’’ (पृष्ठ 153)
02. अभिव्यक्ति के रचनात्मक माध्यम ‘भाषा’ के वास्तविक आशय और संवेदना के साथ उसके सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए लेखक का यह कथन दृष्टव्य है- ‘‘मार्मिक यथार्थ संवेदनाओं को भाषा द्वारा अभिव्यक्त करना ही लघुकथाकार का ध्येय रहता है। भाषा और संवेदना को वह अलग-अलग करके नहीं देखता, क्योंकि जिस संवेदना को वह महसूस करता है, उसे व्यक्त करना चाहता है। संवेदनशील होना वह अतिरिक्त गुण है जिसके चलते कोई व्यक्ति अभिव्यक्ति के क्षेत्र को चुनता है। लेखकीय अभिव्यक्ति भाषिक संरचना द्वारा ही संभव है। इसलिए लेखक के पास सशक्त और प्रभावशाली भाषा का होना आवश्यक है।’’ (पृष्ठ 149) इस सन्दर्भ में अन्यत्र भी उन्होंने लिखा है- ‘‘सर्जन के स्तर पर भाषा जब संवेदन या अनुभव को व्यंजित करती है, वह व्यवहार और प्रयोजन को प्रकट करने वाली भाषा नहीं रहती। सर्जन की भाषा का रूप संवेदनात्मक होता है।’’ (पृष्ठ 146)
03. बिम्ब और मनोविश्लेषण के सन्दर्भ में लेखक का यह कथन प्रासंगिक है- ‘‘कलात्मक अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष अनुभव से पूर्णतः भिन्न अस्तित्व रखती है। यद्यपि मानव-मन का रहस्य लोक अभी भी पूर्ण विजित नहीं हो सका है, तथापि मनोविज्ञान और विशेषतः मनाविश्लेषण-शास्त्र की नवीनतम खोजों के द्वारा मानव-मन के अन्तःप्रदेश का अधिकांश उद्घाटित हो चुका है। उसकी कार्य-प्रणाली, शक्ति और सीमाओं के सम्बन्ध में नित्य नवीन खोजें की जा रही हैं। मनोविश्लेषण की सहायता से मन की गहन अबौद्धिक शक्तियों को खोलने का प्रयास किया जाता रहा है। रचना से अधिक रचना-प्रक्रिया पर विशेष बल देने के पीछे यही तथ्य निहित है।
बिम्ब मानसिक प्रक्रिया की सृष्टि होता है। मानव-मन से निकलकर वह भाषा के साँचे में ढलता है। ... बिम्ब निर्माण के पीछे मनुष्य की चेतन इच्छा-शक्ति का भी किसी न किसी रूप में योग होता है। ... कहा जा सकता है कि बिम्ब की रचना-प्रक्रिया में मनस्तत्व का सर्वाधिक योग रहता है।’’ (पृष्ठ 142-143)
04. एक सुझाव के रूप में लेखक का यह कथन भी महत्वपूर्ण है- ‘‘...व्यक्ति की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के चित्रण का काम ही तो समकालीन लघुकथाकार कर रहे हैं। इस कार्य को उत्कृष्टता, परिपूर्णता, कुशलता के साथ सम्पन्न करने के लिए आवश्यक है कि वे समकालीन मनोविश्लेषण की धारा को, समकालीन मनोविश्लेषकों द्वारा गहन अध्ययन के बाद प्रस्तुत व्यक्ति चरित्र सम्बन्धी अनेक रहस्यों को, उनकी परतों को जानें, तब आगे बढें। आगे बढ़ चुके हैं तो इनके द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों के आलोक में उन्हें जाँचें, परखें। उनका व अपना आकलन करें।...’’
डॉ. बलराम अग्रवाल, जन्मतिथि : 26.11.1952, जन्मस्थान : बुलन्दशहर, उ.प्र.।पता- एम-70, निकट जैन मन्दिर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मो. 08826499115
प्रकाशक : राही प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशक का ई मेल : rahiprakashan@gmail.com
पुस्तक का आईएसबीएन: 978-93-80208-26-8
आवरण चित्र: कुँवर रवीन्द्र
प्रकाशन वर्ष : 2017
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