लघुकथा-संग्रह-2020 / मुज़फ़्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी

'अम्मा अभी जिन्दा हैं' में संग्रहीत लघुकथाओं के शीर्षक (क्रमशः)-

असमर्थ,फालतू, जीवन साथी, कसम, अम्मा अभी ज़िन्दा हैं, सुख-शांति, सदा बहार, वक़्त की गर्मी, उपन्यास, बुलावा, मैं बुरा हूँ, पच्चीसवीं साल गिरह, कन्या भोज, फ़र्ज़, बरकत, पड़ाव, इच्छा, साहस, ज़ुबान, दवाई, फानूस, आश्रित, विभूति, समानान्तर, वास्तविकता, फासला, विश्वास, बदला, तमाशा, मंज़िल, समर्पण, जीत या हार, सबक, ज़रूरत, जन्नत, बेड न0 - 14, अभिव्यक्ति, बड़ा आदमी, एक्सचेंज ऑफर, सपनों का सौदा, अवहेलना, विकास, धरना, उम्मीद की किरण, ये दिल मांगे मोर, अनुभव, बड़प्पन, तसल्ली, आभासी संसार, पहली बारिश, ताबीर, विनम्रता, भविष्य, त्याग, सोच का बीज, एक समझौता सा, विदाई, किताबी चेहरा, शेरू, समाजवाद, पद्मश्री, गुलाबी गालों वाली इमोजी, शाम ढल चुकी, माया जाल, अंतर्द्वंद, कोरा काग़ज़, लड़कियाँ, उम्मीद, बहरूपिया, असली गुरु, ताजमहल, पेइंग गेस्ट, सपने, धुएँ का गुबार, अपना अपना मक़सद, चाहत, माँ के आँसू, दोस्ती, ममता, शिक्षा पद्धति, बर्थ डे, ज़मीर, बच्चे बड़े हो गए, दीदी, सोमू की ज़िद, नव सृजक, अधूरा सपना, ज़रा सी गिरह, अनुकम्पा, परवरिश, एकांत, कुन-कुना सा, माँ का फ़र्ज़, लाइफ लाइन, अनदेखी, अस्तित्व, लॉकडाउन,विपदा की घड़ी, पापा की गिफ्ट। 

प्रस्तुत संग्रह से एक लघुकथा 'फालतू' : 

दीपक को ऑफिस से घर लौटने में देर हो गई थी। ये रोज़-रोज़ की समीक्षा बैठकों से तो खुद भी तंग आ चुका था। सीमा ने तो शाम को ही मैसेज किया था। 

"कब तक आओगे ?"

"बस आधा घंटा बाद।" 

ये आधा घंटे करते-करते रात नौ बज गए। जैसे ही घर में प्रवेश किया तो सीमा ने बहुत ही फीकी सी मुस्कान से स्वागत किया। ये तो अच्छा रहा। कहा कुछ नहीं। शायद कुछ कहते-कहते, उसके कुछ कहने की सीमा भी समाप्त हो चुकी थी। 

जैसे-जैसे मेरे प्रोमोशन होते गए। बैठकों का समय भी बढ़ता गया। और साथ ही घर लौटने का भी। 

"चाय लेंगे या ... ... ... ।” 

“नहीं आज ऑफ़िस में बहुत चाय हो गईं।” 

"तो फिर, ... " 

"हाँ, ... " 

समझ गया था उसका मतलब। कुछ डरा था। जानता था। जब भी सीमा बहुत सीमित शब्दों से काम चलाती है न तो समझ लो, "उसके अंदर शब्दों का एक ज्वालामुखी सा दहक रहा होता है। ये कब फटेगा? पता नहीं।" 

चुपचाप फ्रेश होकर, डाइनिंग टेबल पर आकर बैठ गया। तब तक खाना भी लग चुका था। सीमा भी रोटी बेल रही थी। जैसे ही पहली रोटी परोसी, लगा सब कुछ ठीक है। सीमा का गुस्सा भी अब शांत हो गया। पहला नुवाला उठाते ही पूछ लिया। 

आज बच्चों से बात हुई कि नहीं ?

- हाँ, ... हुई नहीं हुई, सब बराबर है ?

- मतलब ?

- विशाल को मुंबई में कोई प्रोजेक्ट मिला है। तो बॉस ने पुणे से मुंबई ही ट्रांसफर कर दिया। बहुत व्यस्त है। बोल रहा था। मैं बाद में कॉल करता हूँ। 

- और राखी ?

- राखी को असाइनमेन्ट सबमिट करना है बिलकुल फुर्सत नहीं है। जब से छुट्टियों के बाद बैंगलोर गई है, बहुत काम पेंडिंग है।' 

- सब बहुत बिजी हैं, इस घर में। 

 “… .. .. फालतू तो एक मैं ही हूँ।”

कथाकार - मुज़फ़्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी  

जन्मतिथि - 28 मई 1963     

जन्मस्थान - राहतगढ़ , जिला सागर 

शुभकामना सन्देश - अशोक भाटिया 

भूमिका - कान्ता रॉय 

समीक्षा - घनश्याम मैथिल 'अमृत' 

संग्रह का नाम - अम्मा अभी ज़िन्दा हैं

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण - 2020 

ISBN न0 - 978-81-943408-8-1

कुल पेज संख्या - 192 

प्रकाशक - अपना प्रकाशन, 21/सी सुभाष कॉलोनी, गोविन्द पुरा, भोपाल म प्र - 462023


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