लघुकथा-संग्रह-2013/सुधा भार्गव
कथाकार : सुधा भार्गव
ISBN : 978-93-82421-07-8
संस्करण : प्रथम, 2013
प्रकाशक : शब्दायन प्रकाशन, दिल्ली
email: shabdayanprakashan@gmail.com
अनुक्रम
अतृप्ति
अनुशासन
अन्याय
अशिष्टता
अपूर्णता
आधे-अधूरे
आखेटक
अंधड़ अंधेरी गुफा
उसको सोने दो
एक प्रश्न
कर्त्तव्य
कोई हर्ज नहीं
काठी
किस्सा एक था
कहाँ जाएगी !
कलाकार
नेत्रदान
क्यों आए !
गुलाब की महक
गणेश पुराण
गधे
गुमसुम
घर
घिराव
चुनना है एक जीजा साहब
जलजला
जय महादुर्गा
टके में बारह
तीसरा दर्जा
दक्षता
देवी
दौडमदौड़
दो प्रतियोगी
नवविवाहित
नाग
नई परिभाषा
पुल
परीक्षा
पुरुष
पूत के पाँव
फूटते गुब्बारे
बासी ताजी
बाबा आदम की घड़ी।
बूचड़खाना
बेचारा
बाजारवाद
भविष्य
भाग्यवान
महत्वाकांक्षी
मेहरबानी
महाप्रयाण
मौत की घाटी
ये प्रौढ़...
रोटियाँ
लक्ष्मी
सुबकती जान
सितारों की दुनिया
विस्फोट
व्यवस्था
विद्रोहिणी
शेरनी हार चुकी थी।
समाधान
सच्चाई
स्वर्ण जयंती
चूड़ियाँ
संविधान
संघर्ष
समर्पण
सुदामा
सहूलियत
सिरफिरी
संजीवनी
हितैषी
हस्ताक्षर
हाथी-घोड़े
हलचल
हैवानियत
अतृप्ति
'वेदना-संवेदना' से एक लघुकथा 'हस्ताक्षर' :
संसद में यह अधिनियम पास हो गया था कि बाप-दादा की संपत्ति में बेटियों का भी समान हक है। यदि वे चाहें तो अपनी कानूनी हक की लड़ाई लड़ सकती हैं। बेचारे भाइयों के बुरे दिन आ गए। यह हिस्सा-बाँट नियम कहाँ से आन टपका। कुछ सहम गए, कुछ रहम खा गए कुछ घपलेबाजी कर गए, कुछ चाल चल गए। माँ-बाप मुसीबत में फँस गए। बेटी को दें तो बेटे से दुश्मनी, न दें तो उसके प्रति अन्याय! खैर माँ-बाप पहले से समझदार और बेटी के प्यारे हो गए! जिनके माँ-बाप ऊपर चले गए उनके लड़कों ने संपत्ति की कमान संभाली। निशाना ऐसा लगाया कि माल अपना ही अपना ।
इकलौती बहन अपने भाइयों के नाम की माला हमेशा जपती रहती। मेरे भाई ग्रेट हैं; मैं उनके खिलाफ कुछ नहीं सुन सकती। वे तो लाखों में अच्छे हैं। ये शब्द दिन में एक बार दोहरा ही देती।
उसकी शादी को 10 वर्ष हो गए थे। हर वर्ष राखी के उत्सव पर दोनों भाइयों की कलाई पर स्नेह के धागे बाँधती।
वे भी भागे-भागे चले आते। उत्सव की परिणति महोत्सव में हो जाती। इस साल भी रक्षाबंधन के अवसर पर तीनों भाई-बहन एकत्र हुए। छोटा भाई कुछ विचलित-सा था। ठीक राखी बाँधने से पूर्व उसने एक फॉर्म उसके सामने बढ़ा दिया, "दीदी! इस पर हस्ताक्षर कर दो।"
सोबती उस पेपर के विषय से अनजान थी। हस्ताक्षर करने से पहले उसने पढ़ना उचित समझा। लिखा था, “मैं अपनी इच्छा से पिता की संपत्ति में से अपना हक छोड़ रही हूँ।”
उसे मालूम था कि ऐसा एक दिन होगा ही। कानून बनने से क्या होता है। मानसिक जंग भी तो लड़नी होती है। हो सकता है अगली पीढ़ी के माँ-बाप लड़के-लड़की को समान रूप से पालकर उनमें विभिन्नता की प्रवृत्ति पैदा ही न होने दें। अपनी पीढ़ी से यह उम्मीद करना निरर्थक है। बेटी को पराई समझने के बीज तो बहुत पहले से उसके माँ-बाप ने बो दिए हैं।
सोबती एक हाथ में प्रपत्र अवश्य पकड़े हुए थी, परंतु हृदय में उठती अनुराग की अनगिनत फुआरों में भीगी सोच रही थी, 'बचपन में ही मैं अपने हिस्से की मिठाई इन भाइयों के लिए रख देती थी और ये शैतान अपनी मिठाई भी खा जाते और मेरी भी। उनको खुश होते देख मेरा खून तो दुगुना हो जाता था। आज तो ये बड़े हो गए हैं पर रहेंगे तो मुझसे छोटे ही। यदि ये मेरा संपत्ति अधिकार लेना चाहते हैं तो इनकी मुसकराहटों की खातिर पेपर पर हस्ताक्षर कर दूँगी। मुझे तो अपना हिस्सा देने की आदत है।' अपनी सोच को लगाम देकर सोबती ने पेपर पर दस्तखत कर दिए।
सुधा भार्गव
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