लघुकथा-विशेषांक-2021/पृष्ठ 3/ कांता रॉय (सं.)

लघुकथा वृत्त मई-जून 2021 संयुक्तांक

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दिल्ली विशेषांक के 20 पृष्ठों में दिल्ली लघुकथा का सम्पूर्ण परिदृश्य

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अनुक्रम : पृष्ठ संख्या - 3

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आलेख - 

हिंदी लघुकथा का दिल्ली दरवाजा : डॉ. पुरुषोत्तम दुबे 

लघुकथा साहित्य में पौराणिक कथाओं का बढ़ता रुझान : वीरेंदर वीर मेहता

लघुकथा साहित्य में पौराणिक कथ्यों का बढ़ता रुझान

साहित्य की प्राचीन विधाओं में कथा-कहानी हमेशा से प्रथम स्थान पर मानी जाती रही है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान की एक प्रमुख विधा बन चुकी लघुकथा को प्रारंभ में पूरी तरह कहानी का ही हिस्सा माना जाता रहा है। इस संदर्भ में यदि बीती सदी की ओर देखा जाए तो सहज ही महसूस किया जा सकता है कि लघुकथा को कथा से अलग करके देखने का नज़रिया और इसे अलग पहचान दिलाने का निश्चय, कुछ दशक पूर्व ही अपने चरम पर आया। और इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बहुत से वरिष्ठजनों के योगदान और श्रम के फलस्वरूप ही समय बीतने के साथ आज लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचाना जाने लगा है। 

अब ये तो स्वाभाविक है कि लघुकथा विधा के इतने लंबे कालक्रम के चलते इसकी कथ्य शैली का भी एक लंबा सफर स्वाभाविक ही है। और इस मायने में शायद यही एक मात्र ऐसी विधा है, जिसकी कथ्य शैली का विस्तार समय गुजरने के साथ बदल भी रहा है और निरंतर बढ़ भी रहा है। तय मानकों से हटकर लिखने वाले गुणीजन रचनाकार इस विधा को अपने नजरिए से अपनी शैली देने का प्रयास करते रहे हैं और कर रहे हैं। वैसे तो लघुकथा में अधिकतर लेखन परम्परागत विषयों पर होता रहा है। फिर भी कई प्रयोगशील रचनाकार अपनी उपस्थिति हर काल में दर्ज करवाते रहे हैं और आज भी कई समर्थ रचनाकार लीक से हटकर बहुत कुछ नया लिखने का प्रयास कर रहे हैं। 

इन्हीं प्रयासों में, पौराणिक संदर्भों पर लिखने की कोशिश भी सहज ही एक शैली के रूप में उभरकर आई है। हालांकि पौराणिक संदर्भों पर लिखने का रुझान लघुकथा साहित्य में कोई नया भी नहीं है, अतीत में बहुत से स्थापित साहित्यकार इस पर अपनी कलम चलाते रहे हैं। 

आठवें दशक में शंकर पुणतांबेकर के संपादन में एक संकलन, 'श्रेष्ठ लघुकथाएं' प्रकाशित हुआ था जिसमें राजनीतिक एवं अन्य विषय के साथ पौराणिक पात्रों के आधुनिक परिवेश में चित्रित लघुकथा को भी शामिल किया गया था। एक और संकलन 'पौराणिक संदर्भ की लघुकथाएं' डॉ राम कुमार घोटड़ के संपादन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें कमोबेश रामायण और महाभारत के पात्रों सहित कई अन्य पौराणिक पात्रों को भी कथ्यों में शामिल किया गया था। इस पुस्तक में विभिन्न पात्रों/घटनाओं के  द्वारा वर्तमान की कई विसंगतियों को आधार बनाया गया था। 

ऐसे ही कुछ रचनाओं जैसे, राम कुमार आत्रेय की लघुकथा 'एकलव्य की विडंबना' में एकलव्य, पारस दासोत की लघुकथा 'अभी रावण नहीं मरा' में श्रीराम, और जय प्रकाश मानस की लघुकथा 'दर्द' में यमराज को कथ्य में पात्र बनाकर घटनाक्रम को आधुनिक संदर्भ में पिरोया गया था। लेकिन इधर बीते कुछ वर्षों में इस तरह के कई कथ्य सामने आए हैं जो किसी पौराणिक संदर्भ पर अपना दृष्टिकोण सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं।

ऐसे रचना लेखन में मुख्यतः जिस तरह के लेखन सामने आते हैं। उनमें प्रथम वह हैं, जो अतीत में घट चुके किसी घटनक्रम को कथ्य बनाकर उसके निष्कर्ष या संदेश में अपनी नई सोच का प्रभाव उत्पन्न करते हैं। और दूसरे वह, जो वर्तमान की किसी घटना/विसंगति को अतीत के घटना क्रम से जोड़कर उसका मूल्यांकन करते हैं या फिर अपने किसी कथ्य में घट चुके घटनक्रम को केवल टैग लाइन बनाकर या उसके बिंदु विशेष को ही अपनी रचना में समावेश करते हुए प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। 

ऐसे ही कुछ कथ्यों की ओर यदि एक दृष्टि डाली जाए तो सहज ही कुछ लघुकथाएं ज़हन में उभर आती है। (हालांकि न तो इन्हें वरीयता के क्रम में देखा जा सकता है और न ही इसका अर्थ यह है कि इससे इतर और प्रयास नहीं हुए हैं, इसे मेरे पढ़ने की सीमा भी माना जा सकता है)

जाने-माने लघुकथा मर्मज्ञ योगराज प्रभाकर जी की 'रामचरितमानस' के राम वनवास संदर्भ में रचित रचना 'सुबह का भुला' में लक्ष्मण के वनवास साथ चलने पर सीता के मुख से उर्मिला के प्रति संवेदनशील संवाद "उर्मिला के हृदय में झांकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।" न केवल उस काल के कथ्य को एक नया विचार देता है वरन पत्नि के प्रति पति के कर्तव्य और प्रेम की पराकाष्ठा को भी छूता है। ऐसे ही उनकी एक लघुकथा 'बेग़ैरत' में, वे द्यूतक्रीड़ा में पांडवों के स्थान पर द्रौपदी द्वारा जुआ खेले जाने को कथ्य बनाते है, जहां सब कुछ हारने के बाद पतियों को दांव पर लगाने की बात पर द्रौपदी उत्तर देती है। "मैं इतनी बे ग़ैरत नहीं, कि अपने जीवन साथी को ही दाव पर लगा दूँ।" संवाद सहज ही पुरुष के स्वयं को पति परमेश्वर मानने के अधिकार पर एक  गहरा कटाक्ष करती है।

लघुकथाकार सविता मिश्रा अपनी लघुकथा 'टीस' में, माँ द्वारा किसी परपुरुष के लिए पति को छोड़कर चले जाने के अपमान के प्रतिशोध लेने के लिए तत्पर बेटे के अँजुली में गंगाजल भरकर संकल्प लेने को कथ्य बनाती हैं। जहां बेटा समाज के द्वारा पिता के होते अपमान से नाराज; 'परशुराम की तरह' माँ का मस्तक पिता के चरणों में लाकर रखने का संकल्प करना चाहता है।  लेकिन यहां लेखिका द्वारा पिता के दिए उत्तर, "बेटा! गिरा दो अँजुली का जल। तुम परशुराम भले बन जाओ, पर मैं जमदग्नि नहीं बन सकता हूँ।" में न केवल पौराणिक संदर्भ को नए सिरे से गढ़ने की कोशिश करता है बल्कि एक नया संदेश भी सामने रखता है।

देव राज इंद्र द्वारा अहिल्या के सतीत्व भंग करने और गौतम ऋषि द्वारा अहिल्या को पत्थर बनने के श्राप देने के कथ्य को वर्तमान संदर्भ में रखकर रची गई लघुकथा 'अहल्या' में लेखिका उपमा शर्मा पूरे घटनक्रम को ही आज के बदलते दौर में पलट कर रख देती हैं और अहिल्या के 'स्वयं पत्थर हो जाने' और गौतम ऋषि के पश्चताप पर चिंतन करने के साथ आज भी 'आधुनिक इंद्र' के बेख़ौफ़ रहने पर चिंता जताती हैं। 

इसी कथ्य पर रची मेघा राठी की लघुकथा 'कब तक पत्थर' में लेखिका धर्मराज और चित्रगुप्त के वार्तालाप के जरिए दिखाती है कि आज समय बदल गया है, अहिल्या के अपमानित होने पर वह गौतम ऋषि के क्रोध का न केवल प्रत्युत्तर देती है बल्कि इंद्र के विरुद्ध न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए गौतम ऋषि को तैयार भी करती हैं।

एक लघुकथा 'रावण का दर्द' में डॉ लता अग्रवाल रावण-कुंभकर्ण मध्य हो रहे वार्तालाप के ज़रिए रावण की व्यथा में इस बात पर चिंता जताती हैं कि आज के युग में रावण को सजा (दहन) देने  स्वयं रावण से कहीं अधिक पापी और अत्याचारी हैं।

पौराणिक विषयों पर लघुकथाओं के रुझान के मद्देनज़र दिलचस्प बात यह है कि बीते कुछ वर्षों में लिखे गए कथ्यों में सबसे अधिक महाभारत कालीन कथ्यों पर लिखने का रुझान रहा है।

चर्चित लेखिका डॉ लता अग्रवाल का तो इस संदर्भ में एक पूरा लघुकथा संग्रह 'गांधारी नहीं हूं मैं' ही आ चुका है। जिसमें उन्होंने भिन्न-भिन्न शैलियों में महाभारतकालीन घटनक्रम को वर्तमान की कई विसंगतियों को आधार बनाया है।  

'एक और महाभारत' में वह मुंबई शहर की एक चाल बस्ती में पानी भरने के लिए होते झगड़े को जल की कमी को विषय बनाती हैं तो एक रचना 'सत्य की अग्नि परीक्षा' में वह 'युधिष्टर' के सहारे वर्तमान में झूठ और विज्ञापनबाजी के बोलबाले का विषय उठाती हैं।

पौराणिक कथ्यों के विषयों में यह बात भी ग़ौरतलब है कि सबसे अधिक जिस कथ्य को भुनाया गया, वह महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद गांधारी के अपनी आँखों पर बांधी हुई पट्टी के निर्णय को लेकर है। इस विषय पर न केवल 'दो आँखें' ( डॉ लता अग्रवाल), 'बदलता इतिहास' (संगीता गांधी), पश्चताप (वीर मेहता, कल्पना भट्ट) जैसी रचनाएं रची गयी, बल्कि समान कथ्य पर और भी कई रचनाकारों ने मिलते-जुलती कलम चलाई है। संभवतय इसका एक कारण यह हो सकता है कि 'महाभारत' में गांधारी का पट्टी बांधना एक आश्चर्यजनक विसंगति थी।

बहरहाल इन तमाम प्रभावी रचनाओं और नई शैली अथवा इन कथ्यों के रुझान की सार्थक और चर्चित प्रस्तुतियों के बावजूद भी मुझे लगता है कि, इस प्रयोगात्मक शैली की उम्र बहुत अधिक लंबी नहीं है। अन्य प्रयोगिक शैलियों की तरह यह प्रयोग या परिपाटी भी लंबी अवधि की हो सकेगी, इसमें थोड़ा संदेह है। इसका सबसे मुख्य कारण इसके साथ जुड़े बंधनों का होना है।

दरअसल इस तरह के कथ्यों में दो तरह की लिमिटेशन यानि सीमाएं जुड़ी होती है। एक, रचनाकार इसमें बहुत ज्यादा लिबर्टी अर्थार्त स्वतंत्रता नहीं ले सकता और दूसरे ऐसी रचनाओं में रचनाकार को निश्चित रूप से फाइनली एक दो लाइन में ही अपना उत्कृष्ट दिखाना जरूरी हो जाता है। क्योंकि जब रचनाकार पूर्व में स्थापित किसी कथ्य को उठाता है तो उन तथ्यों को अवांछित रूप से परिवर्तित नहीं कर सकता और उसके संदर्भ में अपनी विचारधारा को संक्षिप्त और दो टूक प्रस्तुत करना एक अनिवार्यता बन जाती है। इसके अतिरिक्त इन्हीं सीमाओं के कारण कथ्यों में समानता का खतरा बराबर बना रहता है। जो कभी-कभी रचनाकार के किसी दूसरी रचना से अनभिज्ञता की स्थिति में समान प्रस्तुति के रूप में आ जाती है। इसलिए मेरे विचार से ऐसे कथ्यों को यदि विषय बनाया भी जाए, तो उनका दायरा बढ़ाना बहुत जरूरी है। 

क्योंकि यदि इस विशिष्ट शैली पर गौर किया जाए तो पौराणिक की अपेक्षा ऐतिहासिक कथ्यों पर लेखकों की दृष्टि कम ही गई है, लेकिन ऐसे कथ्यों में भी रचनाकारों की कल्पनाशीलता सहज ही देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए एक लघुकथा 'शिकस्त' (विरेंदर वीर मेहता) में बहादुरशाह जफ़र को लालक़िले से बेदखल करते जनरल हडसन के बीच के वार्तालाप के ज़रिए मुगल साम्राज्य के आख़िरी वंशज का दर्द उभारा गया है।

एक और लघुकथा में भारतवर्ष की सीमा पर एक बार फिर लौट कर आए विश्व विजेता सिकंदर के ऐतिहासिक सदंर्भ को आज के आईने में दिखाने का एक अद्धभुत कथ्य रचा गया है लघुकथा 'खंडहर' (योगराज प्रभाकर) में। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत की दुर्दशा और आपसी नफ़रत में बंट गए टुकड़े-टुकड़े देश की ओर से सीमा पर अपने सामने किसी पोरस को न पाकर जब सिकंदर अपनी सेना को लौटने का आदेश देता है तो उसका सेनापति सहज ही अचंभित रह जाता है। इस निर्णय का कारण पूछने पर सिकंदर का उत्तर, "जो देश अपनों के हाथों पहले ही लुट-पिट चुका हो, उसे हम क्या लूटेंगे?" हमारे पूरे समाज पर न केवल एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है बल्कि सोचने पर भी विवश कर देता है। 

अर्थात यदि लघुकथाकार अपनी कल्पना को और अधिक विस्तार देकर अपने लेखन में पौराणिक से अधिक ऐतिहासिक और मध्य कालीन सभ्यता में हुए घटनाक्रम को समेटने के साथ सामाजिक कुप्रथाओं से जुड़े बिंदुओं पर चिंतन करें तो निःसन्देह इस परिपाटी को और अधिक सार्थक बनाया जा सकता है। ऐसी ही आशाओं और अपेक्षाओं के साथ हार्दिक शुभेच्छा सहित. . . . 

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