पंख, पीर और पर्वत-2021/शकुन्तला किरण (स्व.)
(डॉ. शकुन्तला किरण श्रद्धांजलि पुष्प)
संग्रह का नाम : पंख, पीर और पर्वत(डॉ. शकुन्तला किरण का रचनात्मक अवदान)
रचनाकार : डॉ. शकुन्तला किरण
डॉ. शकुन्तला किरण का लघुकथा विषयक अन्तिम आलेख
अनावश्यक फैलाव और लघुकथा
सर्वप्रथम मैं आदरणीय डॉ. बलराम अग्रवाल जी की इस पुस्तक के प्रकाशन पर अपनी असीम मंगलकामनाएँ देती हूँ। साथ ही उनके इस प्रयास की सफलता व सार्थकता हेतु ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ। आधुनिक हिन्दी लघुकथा के संदर्भ में मेरे विचार, जो कि मेरी पुस्तक 'हिन्दी लघुकथा' में निहित है, आज भी वही हैं। कुछ सार-संक्षेप के रूप में मैं उन्हीं को यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ :
लघुकथा की परिभाषा के अन्तर्गत मेरा मानना है कि : लघुकथा लघु आकारीय गद्य-कथात्मक रूप में जीवन के किसी क्षण-विशेष के आन्तरिक सत्य की वह सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है जो पाठकीय चेतना को झकझोरने के साथ ही, उसे कोई गंभीर चिन्तन बीज भी प्रदान कर सके ।
लघुकथा की आकारीय लघुता का उसकी शब्द-सीमा के संदर्भ में : लघुकथा एक प्रकार से कम आय वाले अर्थशास्त्री का अपना निजी बजट है, जिसे वह प्रबुद्धता के साथ बहुत सोच-समझकर इस प्रकार बनाता है कि प्रत्येक पैसे का सार्थक उपयोग हो सके ।
लघुकथा को किसी निश्चित शब्द-सीमा में नहीं बाँधा जा सकता क्योंकि यह तो कथ्य की माँग पर निर्भर है, जैसे मकान बनाना है या अस्पताल, पहले यह तय करना होगा; बाद में उसके अनुसार ही भूमि एवं निर्माण सम्बन्धी नक्शे का चयन करना होगा, सामग्री जुटाने होगी। ठीक इसी प्रकार लघुकथा के लिए हर कथ्य उपयुक्त नहीं होता, उसके लिये एकांगी, उद्देश्यपरक, संक्षिप्त लेकिन प्रभावी कथ्य होना आवश्यक है जो शाब्दिक आडम्बर से दूर हो ।
लघुकथा में अनुभूति की सघनता या उसके घनत्व के संदर्भ कहा जा सकता है कि जैसे कमरे की एक दीवार पर लगे एक बल्ब के प्रकाश का दायरा या उसका लक्ष्य, लगभग पूरा कमरा ही होता है, फलस्वरूप प्रकाश का घनत्व कमरे में चारों तरफ फैल जाने के कारण कम या हल्का पड़ जाता है; किन्तु वही बल्ब किसी टेबिल लैम्प में लगकर, वस्तु विशेष पर फोकस होकर सघन प्रकाश देता है। इस प्रक्रिया में प्रकाश का घनत्व अधिक हो जाने के कारण उसमें सघनता व प्रखरता आ जाती है। उसी तरह लघुकथा के कथ्य में अनावश्यक फैलाव, उसे धुंधला कर देता है, और वह अपना अपेक्षित प्रभाव खो देती हैं ।
चुगीन सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ किसी भी विधा में भी समयानुरूप परिवर्तन अपेक्षित हैं, समयानुकूल भी उसकी उपादेयता बनाये रखने के लिये उसमें परिवर्तन आवश्यक है, और परिवर्तन के लिये नई सोच एवं दृछता समयानुसार विधा को जीवंत एवं उपयोगी बनाये रखने के लिए सोच के नए धरातल पर उपयोगी व मजबूत स्तंभ खड़े करने होंगे। नए वातायन का निर्माण करना होगा जिससे ताजा हवा अंदर आ सके और पाठक उससे लाभान्वित होते रहें। यद्यपि वर्तमान में फेसबुक, गोष्ठियाँ, पुरस्कार आदि रूपों में यह निरंतर आगे बढ़ती जा रही है।
चूंकि हर विधा का अलग-अलग कोई लक्ष्य होता ही है, तो अगर मैं लघुकथा के संदर्भ में कहूँ तो मुझे गलत नहीं लगता : "लघुकथा अर्जुन का तोर है। "
मूलतः मेरी विधा पद्य ही रही है-- कविता, गीत, ग़ज़ल में ही मेरा मन ज्यादा रमा है। सन् 1981 से 1996 तक राजनीतिक पक्षों के निर्वहन की बाध्यता और उसके बाद आध्यात्मिक पथ की ओर झुकाव । लघुकथाएँ मैंने मात्र 13 या 14 ही लिखी थीं, सब सन् 1980 तक की ही हैं। उन दिनों संचार माध्यम की कमी के साथ ही राजनैतिक परिवेश भी बहुत उथल-पुथल वाला रहा था। मेरी पुस्तक 'हिन्दी लघुकथा' (सन् 1980 में लिखित व सन् 2008 में यथावत् प्रकाशित) एवं लघुकथाओं को, आप सभी पाठकों का जो सम्मान मिला, वह मेरे लिये ईश्वरीय वरदान से कम नहीं हैं। इसके लिये किसी आभार प्रदर्शन की औपचारिकता न निभाकर मैंने इन वरदानों को किसी कंजूस के धन की तरह हृदय में सहेज कर रखा है।
अतीव शुभकामनाएँ !!
शकुन्तला किरण 18-4-2021
पारिवारिक सम्पर्क : डॉ. दिलीप मित्तल,
मित्तल हास्पिटल एण्ड रिसर्च सेण्टर, पुष्कर रोड, अजमेर-305004 (राज.)
अनुक्रम
अनावश्यक फैलाव और लघुकथा /
डॉ. शकुन्तला किरण
डॉ शकुन्तला किरण : संक्षिप्त जीवन-यात्रा /
डॉ. बलराम अग्रवाल
स्नेहांजलि स्वीकारो प्रिय शकुन ! /
विभा रश्मि...
डॉ. शकुंतला किरण : एक मुलाकात /
माधव नागदा
अनुकरणीय हैं डॉ. शकुन /
डॉ. अशोक भाटिया
वन्दन है आपको /
डॉ. लता अग्रवाल
मैंने लघुकथा लिखना उनसे ही सीखा /
कमल कपूर
विश्वास की हथेली से समाज को छूने की कोशिश / डॉ. हरीश अरोड़ा
मानक लघुकथाएँ देखनी हैं तो इन्हें देखें /
सुभाष चन्दर
लघुकथाएँ
अप्रत्याशित
तार
सुहागव्रत
रूपरेखा
साप्ताहिक भविष्यफल
धुँधला दर्पण
मौखिक परीक्षा
चैकिंग
कैरियर
इमरजेन्सी
विकल्प
कोहरा
कारगिल और काया
लघु-शोध
राजस्थानी लोककथा
काव्य
गीत प्रीत का कैसे गाऊँ
प्यारा सतगुरु आया है
क्यूँ गुमां तुमको हुआ
मुक्ति थी जिसके बंधन में
इस संग्रह से डॉ. शकुन्तला किरण की एक लघुकथा 'कैरियर' :
“सर! आपकी पुस्तकें ।"
“बैठो, पेपर्स कैसे हुए?"
“जी, बहुत अच्छे।”
“और नीता, तुम्हारे ?”
“जी सर, यूँ ही, तीसरा तो बिलकुल बिगड़ गया ।"
“खैर छोड़ो! नीता, तुम्हें तो हर चीज का पता है, जरा चाय बना लाओ। और अंशु, सामनेवाला बण्डल खोलकर जरा नम्बरों की टोटलिंग करवा दो, आज ही भेजना है, फिर बाद में... ।”
टोटलिंग करते-करते अंशु ने अचानक सिर उठाया तो देखा, सर की नजरें उस पर चिपकी हुई हैं।
“अंशु ! तुम साड़ी मत पहना करो, सलवार-सूट में ज्यादा जँचती हो !”
“जी सर ?” वह अन्दर-ही-अन्दर काँप उठी।
“अरे तुम घबरा क्यों रही हो?” सर ने एक चपत थपकी, बिलकुल करीब आकर ।
“नहीं तो... याद ही नहीं रहा, मम्मी अस्पताल गई हैं, खाना बनाना है घर पर।"
“तो चाय पीकर चली जाना!" सर व्यंग्य से मुस्कराए ।
“नहीं सर ! फिर कभी!" और वह तेजी से बाहर आ गई किचन में चाय बनाती नीता से कहा, “मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है, अभी चलना होगा, थोड़ा जल्दी कर लो।"
“पर, पर मुझे तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है, फिर कॉपियाँ नहीं जँचवाई तो सर नाराज हो जाएंगे, अंशु, रुक ही जाओ तो अच्छा है।"
“तुम्हें जाना है तो जाओ, इसे भी क्यों घसीट रही हो?” अचानक सर की परदे को चीरती आई इस तूफानी डॉट पर अंशु चौंक पड़ी और बेबस-सी अकेली ही लौट पड़ी।
आज जब रिजल्ट आया, उसका सारा कैरियर बिगड़ चुका था और नीता का बन गया था। वास्तव में नीता उससे अधिक समझदार थी।●
डॉ. शकुन्तला किरण
जन्म :
07-02-1943
निधन :
23-5-2021
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