लघुकथा कलश : अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-2/योगराज प्रभाकर
अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-2
संपादक : योगराज प्रभाकर
वर्ष : 5 अंक : 9 जन.-जून 2022
(अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-2)
अवधि : जनवरी-जून 2022
संपादक : योगराज प्रभाकर
संपादकीय
'लघुकथा कलश' का नौवाँ अंक अर्थात् 'अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-2' आपको सौंपते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है। प्रसन्नता इसलिए कि हम यह अंक समय पर लाने में सफल रहे। प्रसन्नता इसलिए कि हम इतनी भारी संख्या में स्तरीय अप्रकाशित लघुकथाएँ जुटाने में सफल रहे। प्रसन्नता इसलिए भी हमारे रचनाकारों ने बढ़-चढ़कर इस अंक हेतु सहयोग प्रदान किया।
जैसा कि हम सब जानते है कि गत दो वर्षों में कोरोना महामारी ने हमें बहुत गहरे घाव दिए हैं, जो समय के साथ भर तो जाएँगे किंतु उनके निशान जीवनप्रयंत नहीं जाने वाले। इस दौरान असंख्य लोगों ने अपने परिजनों को खोया। असंख्य लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इस महामारी का प्रकोप धीरे-धीरे कम तो हो रहा है। परिस्थितियाँ सामान्य होने की ओर अग्रसर भी हैं। किंतु इसके नए-नए वेरिएंट 'ईजाद' करके भय और अनिश्चितता का माहौल बनाने के प्रयास भी लगातार जारी हैं। प्रार्थना करनी चाहिए कि दुनिया को इस महामारी से जल्दी ही मुक्ति मिले।
मैं कुछ बातें अपने युवा लघुकथाकारों से करना चाहूँगा। आजकल अपनी रचनाओं पर अपने वरिष्ठों की सलाह लेने से पता नहीं क्यों डरते हैं, पता नहीं क्यों हम उनपर दूसरों से चर्चा करने में क्यों हिचकते हैं। विश्वास करें इससे बहुत फ़ायदा होता है। वरिष्ठजन कई बार ऐसा परिमार्जन सुझा देते हैं कि अल्पजीवी रचना भी दीर्घजीवी बन जाती है। मेरे पास इसके कई उदाहरण हैं, किंतु एक उदाहरण ऐसा है कि उससे बेहतर शायद ही कोई दूसरा हो । 'सलाम दिल्ली' श्री अशोक लव की एक कालजयी लघुकथा है। यह लघुकथा मानवीय संघर्ष और जीवट की एक उत्कृष्ट बानगी है। भाई रवि प्रभाकर इस लघुकथा से इतने प्रभावित थे कि वे इसपर एक शोधात्मक आलेख लिखने पर विचार कर रहे थे। बहरहाल, मैंने अशोक लव से जब इस लघुकथा के बारे में बातचीत की तो उन्होंने एक बेहद रोचक क़िस्सा सुनाया। उन्होंने बताया कि यह लघुकथा लिखकर तो वे बेहद प्रसन्न और संतुष्ट थे। लेकिन जब उन्होंने यह लघुकथा कुमार नरेंद्र को दिखाई तो वे इस लघुकथा के अंत से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। यह लघुकथा अशरफ़ नामक कथानायक के इर्दगिर्द घूमती है जो मीडिया जगत् में नाम कमाने का सपना लेकर बनारस से दिल्ली आया था। दिल्ली आया था तो प्लेटफ़ॉर्म की इन्हीं रंग-बिरंगी जलती-बुझती बत्तियों ने उसे चकाचौंध कर दिया था। टी.वी. पर घोषणाएँ करने वाली सुंदर युवतियों के शहर दिल्ली में पहुँचकर वह अति प्रसन्न था। उसे लगा था--दिल्ली उसके अभिनय की कद्र करेगी और उसका चेहरा भी टी.वी स्क्रीन पर होगा। वह दिल्ली के आकाश में बिना पंखों के उड़ रहा था। उसे विश्वास था कि वह अपनी मुट्ठी में आकाश को बाँध लेगा। वह छह महीने वहाँ संघर्ष करता है... खूब संघर्ष करता है... केवल संघर्ष ही करता है। किंतु असफल रहता है। वह प्रोड्यूसरों की माँगें पूरी नहीं कर पाता, क्योंकि कहीं उससे पैसा माँगा जाता है तो कहीं शराब की फ़रमाइश की जाती है। स्थिति यहाँ तक आ जाती है कि उसके पास न तो ढाबे का उधार चुकाने को ही पैसे होते हैं और न ही सर्दी से बचने के लिए तन पर ढंग के कपड़े ही। और अंत में निराशा के इस आलम से दो-चार वह अलविदा कहने की मंशा से 'सलाम दिल्ली' बोलकर बनारस वापस जाने के लिए रेलगाड़ी में जा बैठता है। यह लघुकथा पढ़कर कुमार नरेंद्र ने अशोक लव से कहा कि लघुकथा का अंत नकारात्मक है अतः इसे बदला जाना चाहिए। तो काफ़ी लंबे विचार-विमर्श के बाद इसका अंत बदला गया। इस परिवर्तित अंत में गाड़ी में बैठे अशरफ को यूँ महसूस होता है मानो दिल्ली उसे मुँह चिढ़ा रही हो, उसकी असफलता पर हँस रही हो। अब अशरफ़ अपने संघर्ष को याद करते हुए आत्ममंथन करता है और इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि पलायन किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। उसके मन में यह भी आता है कि वह क्या मुँह लेकर बनारस वापस जाएगा? गाड़ी चल पड़ती है, लेकिन वह यकायक अटैची उठाकर सरकती हुई गाड़ी से बाहर कूदकर स्टेशन से बाहर आ जाता है। वह देखता है कि सामने एक पत्थर पड़ा है। वह कसकर उसे ठोकर मारता है और पत्थर उछलकर दूर जा गिरता है। अब उसकी उदासी मुस्कराहट में परिवर्तित हो जाती है। अब वह पूरे उत्साह से हाथ उठाकर जगमगाती हुई दिल्ली नगरी से कहता है--'सलाम दिल्ली!' जहाँ पहला 'सलाम दिल्ली' पलायन का प्रतीक था तो यह 'सलाम दिल्ली' उसके वापस लौटने का संकेत है। इसमें हुंकार है, चुनौती है और संघर्ष को पीठ दिखाकर न भागने का संकल्प है। इसी परिमार्जित अंत के कारण 'सलाम दिल्ली' एक कालजयी लघुकथा का दर्जा हासिल कर पाई। अतः अपनी रचना पर उस्तादों से इस्लाह लेने में हरगिज़ गुरेज़ न करें।
मैं यह बात पहले भी कर चुका हूँ कि लघुकथा विधा में जिस चीज़ की कमी मुझे बहुत अधिक खलती है; वह का प्रयोग का अभाव। हम लोग प्रयोग करने से क्यों डरते हैं, वह बात मेरी समझ से बाहर है। लघुकथा के दो अंग होते है; कथानक और शिल्प । यहाँ यह जान लेना भी ज़रूरी है है कि भाषा, शैली, संवाद, चरित्र-चित्रण व शीर्षक इत्यादि शिल्प के अंतर्गत ही आते हैं। अतः प्रयोग कथानक के स्तर पर भी हो सकता है और शिल्प के स्तर पर भी। आज जबकि लघुकथा विधा साहित्य की मुख्यधारा में शामिल होने के बहुत ही निकट है, अतः आवश्यक है कि अब हमारे लघुकथाकार गैर परंपारागत विषयों और शिल्प पर भी हाथ आज़माएँ। इसका प्रारंभ अपेक्षाकृत कम प्रचलित पत्र शैली अथवा डायरी शैली से किया जा सकता है। विक्रम-बैताल शैली व तोता-मैना शैली अथवा अकबर-बीरबल शैली को भी अपनाया जा सकता है। नाट्यात्मक अथवा काव्यात्मक शैली में भी सृजन किया जा सकता है। किंतु स्मरण रहे कि कोई भी प्रयोग करने से पूर्व विधा के मूलभूत नियमों एवं पारंपरिक लेखन की बारीकियों से भली भाँति परिचित होना भी अति आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में किसी भी प्रयोग कि सफलता संदिग्ध हो सकती है।मित्रो, 'पड़ाव और पड़ताल' के जनक मधुदीप भी पिछले दिनों हमें छोड़कर अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए। उनका जाना लघुकथा विधा के लिए एक अपूरणीय क्षति है। 'लघुकथा कलश' का यह अंक उनकी मधुर स्मृतियों को समर्पित है।अंत में, मैं इस अंक में शामिल सभी सुधि रचनाकारों का दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होंने भाई रवि प्रभाकर द्वारा संकल्पित इस महायज्ञ में पूर्णाहुति डालकर इसे सफल बनाने में महती योगदान दिया। इस अंक की सफलता का पूरा श्रेय इन्हीं सुधि रचनाकारों को ही जाता है। जबकि संपादक होने के नाते हर प्रकार की असफलता की जिम्मेवारी मेरी ही रहेगी।
योगराज प्रभाकर
सम्पादकीय कार्यालय:
'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला- 147002 (पंजाब)
दूरभाष- 98725-68228
ईमेल- yrprabhakar@gmail.com
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