प्रज्ञा-पर्व/हरनाम शर्मा (सं)

लघुकथा-संकलन  : प्रज्ञा-पर्व

संपादक : हरनाम शर्मा

ISBN : 978-93-91559-34-2

मूल्य : 550.00 रुपये (हार्डबाउंड)

प्रथम संस्करण : 2023

प्रकाशक : कौशिक पब्लिशिंग हाउस

ए - 49, गली नं. 6, जगतपुरी एक्सटेंशन

दिल्ली-110093, 

मोबाइल : 9811827837

Email : kphouse2016@gmail.com


ब्रांच आफिस : के-225, यू. पी. एस. आई.डी. सी., सेक्टर-5, कासना, ग्रेटर नोएडा-201310 (उत्तर प्रदेश)

शब्द-संयोजक : विशाल कौशिक प्रिंटर्स दिल्ली

आवरण : हरनाम शर्मा

भूमिका

कश्मीर में परमपूज्य आदिशंकराचार्य के मंदिर से रामेश्वरम् मन्दिर की विशाल एवं विस्तृत वीथिकाओं तक और द्वारका से मणिपुर तक के विशाल भू-भाग की भव्यता एक शब्द 'भारत' में समाई है।

यह एक शब्द मात्र नहीं है। इसमें विशाल भौगोलिक स्थिति की सामूहिक सांस्कृतिक चेतना समाहित है । लघु शब्द में निहित भाव असीमित है। वामन अवतार तथा महर्षि अष्टावक्र की लघुता में भी प्रभुता का दर्शन है ।

भारतीय मनीषा में लघुता में प्रज्ञा, बुद्धिमता, प्रभुता एवं विशालता का दर्शन हमारे समग्र अस्तित्व का अविच्छिन और अभिन्न अंग रहा है। वाल्मीकि, वेदव्यास, असंख्य महर्षियों, ऋषियों तथा गोस्वामी तुलसीदास आदि के रूपों से भारतीय वाङ्मय का विस्तार अभिव्यक्त हुआ है। सरल शब्दों में अतिसूक्ष्मता से स्थूलता का व्यवहारिक फैलाव हमारी संस्कृति, साहित्य और अस्तित्व की परम्परा रही है । इसे ही गागर में सागर भरने की क्रिया कहा गया है। भारतीय साहित्य में लघुकथा विधा का उद्भव और उत्थान इसी बिन्दु का विस्तार है ।

लघुकथा का विकास क्रम और स्वरूप क्या है। यह शोध और प्रयास का विषय रहा है। किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है। कि इसके विभिन्न रूपों ने भारतीय जन-जीवन को प्रभावित अवश्य किया है।

अभिव्यक्ति की नवीनतम तकनीक का जन-साधारण तक पहुँच बना लेना भी इस विद्या के प्रचार-प्रसार का साधन बन रहा है । लघुकथा-लेखन सरल और 'ग्लैमरस' समझ कर बहुत बड़ा पाठक वर्ग स्वयं लेखन के माध्यम से सुर्खियों में आने के लिए बेताब है । स्व- रचित रचना को 'मास्टर पीस' या 'सर्वोत्तम' मान लेना या ऐसा 'हो जाना' की प्रबल प्रच्छन्न कामना प्रत्येक रचनाकार रखने लगा है। यह पल में प्रसिद्धि पा जाने जैसा है। इस प्रयास द्वारा अल्प समय में ही सैंकड़ों संग्रहों संकलनों का प्रसव हुआ किन्तु रचनाकार की प्रसव पीड़ा' की अभिव्यक्ति का दीदार बहुत कम ही रहा। आत्म-विज्ञापन के रूप में चीख चिल्लाहट उच्चतम स्तर पर है। ऐसे में सत्तर संकलनों में से कुछ लघुकथाएँ चुनना अतिजोखिम भरा दुष्कर कार्य था। फिर भी स्वर्गीय मित्र मधुदीप की स्मृति में यह संकलन प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। प्रस्तुत संकलन से पूर्व भी प्रज्ञा मंच द्वारा अपने सदस्यों सहयोगियों के सम्पादित लघुकथा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।

इस पुस्तक में श्री मधुकांत जी द्वारा आयोजित 'लघुकथा पुस्तक प्रतियोगिता' से लघुकथाएँ ली गई हैं। प्रत्येक रचनाकार से अपने संग्रह से पांच लघुकथाएँ चिन्हित करने के लिए कहा गया था जिनमें इस पुस्तक के लिए पुरस्कृत पुस्तक से दो तथा प्रतिभागी पुस्तक से एक रचना लेनी थी । इस तरह पुस्तक-प्रतियोगिता में भाग लेने वाले सभी रचनाकारों की पुस्तकों में से हमें भरपूर सहयोग मिला है। अड़सठ रचनाकारों के साथ-साथ प्रज्ञा मंच के सदस्यों सहयोगियों की रचनाएं भी सम्मिलित की गई हैं। कुमार नरेन्द्र जी लम्बे समय तक स्व. श्री मधुदीप जी के सहयोगी रहे हैं । उनके द्वारा रचित मधुदीप जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक संक्षिप्त लेख भी इस पुस्तक में लिखा गया है। लघुकथा-सृजन एवं विकास के लिए प्रतिबद्ध स्व. श्री मधुदीप जी के लिए श्री मधुकान्त जी तथा प्रज्ञा मंच द्वारा श्रद्धांजलि स्वरूप यह लघुकथा - संकलन प्रस्तुत है ।

कुमार नरेन्द्र जी ने संकलन सम्पन्न प्रक्रिया में भरपूर सहयोग दिया है। हृदय की गहराइयों से उनका धन्यवाद ।

- हरनाम शर्मा

ए. जी.-1/ 54, सी.एम.आई.जी. फ्लैट्स विकासपुरी, नई दिल्ली-110018 

मो. 7701809073

लघुकथा के प्रहरी मधुदीप

हर प्राणी किसी अज्ञात लोक से इस पृथ्वी लोक पर सुकृतकृत्य के लिए आता है; इस लोक को जिसे मृत्यु-लोक भी कहते हैं । प्राणी इस लोक का भ्रमण करता है, अवलोकन करता है और लोक-कल्याण की इच्छा लिए भांति-भांति के प्रयोग एवं सृजन करता है। ऐसे ही, लेखक मधुदीप ने अपने जीवनकाल में अनेक साहित्यिक कृतियों की रचना की है। इन्होंने मुख्यरूप से उपन्यास और कहानी विधा में काम किया है, लेकिन इसी के बरअक्स लघुकथा-विधा पर अपना ध्यान विशेष रूप से केंद्रित किया-यह सन् 1977 की बात है । उस समय अशोक जैन, मधुकांत, श्रीमती इंद्रा स्वप्न (भटनागर), हरनाम शर्मा, कमल चोपड़ा और मैं सबने साथ-साथ लघुकथा-विधा के उन्नयन के लिए कार्य करना प्रारंभ कर दिया था ।

सन् 1972 में मेरे वरिष्ठ साथी साहित्यकार एवं कामरेड सुरजीत गांधी मधुदीप जी के प्रथम उपन्यास (एक यात्रा अंतहीन) के बारे में चर्चा की; वह सर्दियों की एक दोपहर थी, धूप खिली हुई थी और हम दोनों ने त्रिनगर (दिल्ली-35 ) की वाटिका में चहल-कदमी करते हुए साहित्य-संबंधी कई बातें की थीं। उन्हीं दिनों त्रिनगर से एक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका (कजरारी) का प्रकाशन हो रहा था। जिसके संपादक पं. रघुनंदन शर्मा जी थे। मैं उन दिनों गणित (विशेष) के प्रथम वर्ष में था । बस, उसके बाद मधुदीप जी से अगले पचास वर्षों अर्थात् 11 जनवरी, 2022 की प्रभात बेला तक साथ बना रहा; भाभी शकुंतदीप जी का देहांत 20 जनवरी, 2021 हो चुका था और वे अकेलेपन को झेल नहीं पा रहे थे ।

सन् 1976 में हम दोनों ने एक कहानी-संकलन (एक कदम और) का संपादन किया, जिसकी भूमिका आदरणीय गंगाप्रसाद विमल जी ने लिखी थी। उन्हीं दिनों त्रिनगर के नए-पुराने लेखकों द्वारा एक साहित्यिक संस्था " कृतिकार" भी बनाई गई, जिसके मंत्री मधुदीप जी थे और कोषाध्यक्ष मैं था और मासिक शुल्क दो रुपये मात्र ।

शरद् ऋतु 1980 में भाभी श्रीमती शकुंतदीप और मैंने “दिशा प्रकाशन" का आधार रखा। मधुदीप जी प्रकाशन के निदेशक बने और निश्चय किया कि किसी भी लेखक की प्रथम पांडुलिपि को प्रकाशित करने के लिए प्राथमिकता देंगे। प्रकाशन की पहली चार पुस्तकों के सेट में कथाकार संजीव का कहानी-संग्रह ( तीस साल का सफरनामा) भी था, जिसके दो संस्करण प्रकाशित हुए थे। दूसरी पुस्तक मुझ द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ( सांझा हाशिया ) 1981 ई. थी, जिसमें 17 लघुकथकारों की पांच-पांच लघुकथाएं थीं। इसके बाद सन् 1982 में “पुष्पगंधा" के संपादक विकेश निझावन का प्रथम कहानी-संग्रह ( हर छत का अपना दुःख) प्रकाशित किया। उसी वर्ष वरिष्ठ लेखकों, में कथाकार मुद्राराक्षस जी का प्रथम कहानी-संग्रह (मेरी कहानियां) छापने का गौरव हमें प्राप्त हुआ ।

पुस्तक मेलों में हम लोग तो बड़े उत्साह के साथ भाग लेते ही थे और भाभजी तो हमसे भी अधिक उत्साहित रहती थीं । पर्यटन में मधुदीप और शकुंतदीप दोनों ही अग्रणी थे; यात्राओं में तो उनके जैसे प्राण बसते थे।

मधुदीप जी अनेक-अनेक अच्छाइयों के भंडार थे; यह कहना सर्वदा उचित होगा कि नीम के पेड़ के ऊपर आम का पेड़ थे। जो भी उनके पास गया, वह खाली हाथ नहीं लौटा। दिल्ली नगर निगम में क्लर्क भर्ती हुए थे और 30 अप्रैल 2010 में अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए और 1 मई की संध्या समय श्री सुंदरकांड का पाठ हुआ, तदुपरांत रात्रि भोज; उस दिन उनका जन्मदिन भी मनाया गया।

जीवन में सब कुछ सामान्य गति से चलने लगा, लेकिन उन्हें अब संतान का अभाव खलने लगा था; प्रभु की इच्छा सर्वोपरि होती है-जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए ।

वे अक्सर कहा करते थे-नरेंद्र! मुझे हार से बड़ा डर लगता है, मैं कभी हारना नहीं चाहता। संभवतः इसीलिए वे सदैव सुरक्षा-चक्र में रहते थे। सुरक्षा चक्र में एक चक्र आर्थिक होता है; किसी भी योजना में अर्थ की सबसे अधिक भूमिका होती है और उससे भी अधिक निश्चय की, गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा भी है कि निश्चय कर अपनी जीत को प्राप्त करो! ऐसी ही मान्यता मधुदीप जी की भी थी कि उन्होंनें जिस काम को हाथ में लिया है तो उसे निश्चित समय में पूरा करके ही दम लिया ।

जैसा कि मैंने प्रारंभ में कहा कि उन्होंने लघुकथा - विधा पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित कर लिया था। सन् 1988 में “ पड़ाव और पड़ताल" का पहला खंड प्रकाशित होकर पाठकों के सामने आया, जिसमें छह लेखकों की ग्यारह-ग्यरह लघुकथाएं संग्रहीत थीं - अशोक वर्मा, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, मधुकांत, मधुदीप और विक्रम सोनी। समय का पहिया अपनी धुरी पर घूमता रहा....घूमता रहा.... और 25 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद सन् 2013 में पहले खंड का पुनर्प्रकाशन हुआ और उसके बाद तो खंड- 2-3-4-....33 तक इनकी संख्या जा पहुंची। मैं समझता हूं कि यह लघुकथा- विधा पर सबसे बड़ा कार्य हुआ है, इसको छू पाना हर किसी के लिए संभव नहीं होगा। इस विशाल कार्य को मेरा कोटिशः नमन !

उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में दिशा प्रकाशन से चार पुस्तकों के नए सेट में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रकाशन हुआ - " मधुदीप लघुकथा - सृजन के विविध आयाम”, इसका संपादन “ अविराम साहित्यिकी" के कुशल संपादक डॉ. उमेश महादोषी ने किया है; उनका 11 पृष्ठीय संपादकीय “लघुकथा की निरंतरता का पथ वाया मधुदीप" वास्तव में उच्चकोटि की श्रेणी में आता है । महादोषी जी ने ग्रंथ को 8 खंडों में बांटा है। ग्रंथ का विवरण इस प्रकार है- प्रथम संस्करण : 2022, पृष्ठ संख्या: 728, मूल्य : 1000 रुपये।

मधुदीप जी ने अपने जीवनकाल में एक सौ पच्चीस लघुकथाएं लिखीं और उनका मूल स्वर था कि जो शक्तिहीन है, उसे बल प्रदान करना और उसके साथ खड़े होना है - ऐसा ही उन्होंने अपने जीवन में अपनाया भी, सिद्धांत और प्रयोग में कोई अंतर नहीं रखा। उनके भीतर का लेखक एक आम आदमी था, एक मजदूर था, एक परोपकारी था, एक सच्चा मित्र था और न जाने क्या-क्या.... । मधुदीप जी ने लघुकथा के क्षेत्र में कई प्रकार के प्रयोग किए और सफल हुए अब मैं इनकी केवल पांच लघुकथाओं की चर्चा करना चाहूंगा-1. हिस्से का दूध, 2. लौहद्वार, 3. संन्यास, 4. वजूद की तलाश, और 5. मुक्ति ।

पहली लघुकथा (हिस्से का दूध) एक निर्धन परिवार की व्यथा है जो ऋणी भी है। दूध उनके जीवन संघर्ष का प्रतीक है और साथ ही सभ्याचार का द्योतक भी। एक महाजन उनके घर में ब्याज की वसूली के लिए आया है और पति के कुर्ते की जेब खाली है। पैसे कहां से देगा, क्या बहाना बनाएगा, कैसे उस महाजन को पटाएगा इसी उधेड़बुन में वह शिष्टाचार को भूला नहीं है। वह अपनी पत्नी से बैठे हुए गले से कहता है-सुनो, जरा चाय रख देना !

दूसरी लघुकथा (लौह द्वार) एक प्रयोगधर्मी रचना है। इसमें महिलाओं के हितों के पक्ष में मिले अधिकार का मिसयूज का वर्णन हैं हाल के वर्षों में “लिव-इन” का प्रयोग बढ़ा है। विवाह जैसे पवित्र संस्कार की प्रतिष्ठा को धक्का लगा है। “लिव-इन” का पालन सहज और सरल है-दूध पीओ और कुल्हड़ फेंको, आप और हम अपने-अपने घर, भाड़ में जाएं दीन-दुनिया और मर्यादा। पर समस्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती । लौहद्वार तो निर्जीव हैं लेकिन लेखक ने उसमें प्रवेश कर उसे संवेदनशील बना दिया है। अब प्रश्न यह है उच्च न्यायालय ने न्याय तो कर दिया लेकिन सत्र न्यायालय के आदेश ने पुरुष पात्र का तीन वर्षों में बखिया तो उधेड़कर रख दिया, लेकिन लौहद्वार चीख भी नहीं सका । झूठे मुकदमे झूझा न्याय! जै जै न्याय की देवी!

तीसरी लघुकथा (संन्यास) धर्म व्यापार के आडम्बर का कच्चा चिट्ठा है। दीनदयाल जी सेवानिवृत्ति के उपरांत अपनी सारी पूंजी और संपत्ति अपने परिवार में यथोचित ढंग से बांटकर संन्यास के लिए उद्यत होते हैं। 

“आश्रम के लिए कितनी व्यवस्था की वत्स !” स्वामी जी की दृष्टि दीनदयाल के मुख पर स्थित हो गई । 

“क्या.... ?” दीनदयाल जी हत्प्रभ थे, “उसके बारे में मैंने कुछ सोचा ही नहीं, गुरुदेव!” 

“सोचना चाहिए था वत्स!” स्वामी रामाधार ने बस इतना ही कहा। इसी के साथ बड़ी-बड़ी गाड़ियों वाला स्वामीजी का लाव-लश्कर धूल उड़ाता हुआ हरिद्वार की ओर लौट गया।

चौथी लघुकथा (वजूद की तलाश) व्यक्ति के अस्तित्व की “रचना" । लेखक 30 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद अपने गांव में किसी परिचित की तलाश में पहुंचता है। प्रतीत होता है कि लेखक का कोई सगा-संबंधी गांव में नहीं रहा, सिवाय मित्रों और गलियों के; संतोष इस बात का है कि लेखक के दार्शनिक अंदाज से परिचित प्रेम भाई समझ जाता है कि वह व्यक्ति दीप भाई है, “मैंने पहचान लिया दीप भाई !” और दीप भाई निहाल हो गए। यूं वास्तव में देखा जाए तो परिवर्तन सृष्टि का नियम है; पुराने पत्ते झरते हैं, नए पत्ते आते हैं। सबसे बड़ा प्रश्न हैं अपने अस्तित्व को बचाए रखना और नगरों-महानगरों में अपने वर्चस्व की रक्षा कर पाना एक चुनौती है क्योंकि धन का बोलबाला है।

पांचवीं लघुकथा (मुक्ति) 70 वर्ष के रामबाबू और समीप ही अलग रहने वाले उनके इकलौते पुत्र एवं पुत्रवधू पर केंद्रित है । रामबाबू की पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं। पिछले 40 दिनों से वे और सगे-संबंधी रोगी की सेवा-टहल में लगे हुए हैं। सभी लोग कहते हैं कि रामबाबू को जैसे कोई दैविक शक्ति मिल गई है, पत्नी की सेवा में दिन-रात एक कर दिया परंतु विधि का विधान तो अटल है। घर के सामने दरियां बिछी हैं; नीम के पेड़ की पत्तियां झर-झरकर दरियों पर फैल रही हैं। उनके एक मित्र कहते हैं कि भाई ! भाभी मरी नहीं है, उसे तो मुक्ति मिली है। इसके प्रत्युत्तर में रामबाबू कहते हैं कि यह तो पता नहीं कि उसे मुक्ति मिली है या नहीं, मगर हम सबको मुक्ति मिल गई है। उनका कहने का आशय यही था कि शारीरिक रूप से तो मुक्ति मिल गई है उसे, लेकिन आध्यात्मिक रूप से हम सांसारिक लोग कहां मुक्त हो पाते हैं! यहां उनकी खीझ भी उभरती है ।

मधुदीप जी की वर्णन शैली, शब्दों का चयन, शीर्षक, कथ्य का चुनाव और लघुकथा का अंत अद्वितीय होते थे। उनके जीवन-कोश में केवल एक शब्द नहीं था, और वह शब्द है-समझौता। मुझे गर्व है कि हम तीनों ने मिलकर प्रकाशन के क्षेत्र में यथासंभव काम किया है और विशेषकर लघुकथा-विधा में; वे वास्तव में लघुकथा के प्रहरी थे ! उन्हें शत-शत नमन!

- कुमार नरेंद्र

पारुल प्रकाशन

35 प्रताप एन्क्लेव (मोहन गार्डन) दिल्ली-110059 

मोबाइल : 9654935499

अनुक्रमणिका

लघुकथा के प्रहरी मधुदीप

मधुदीप की लघुकथाएँ

समय का पहिया घूम रहा है...

मजहब

चैटकथा

किस्सा इतना ही है

प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत पुस्तक से लघुकथाएं

अस्वीकृत मृत्यु

एक गिलास पानी

द्वितीय स्थान प्राप्त पुस्तक से लघुकथाएं

ह्यूमन बॉम्ब डिफ्यूजड

मुलाकात

डंडा

आत्मीय पल

अन्य पुरस्कृत पुस्तकों से लघुकथाएं 

रोक-टोक

दीमक 

और.... ये

जो हुआ अच्छा हुआ

जल्पना

और वह मरी नहीं.....

दस्तक

टॉपर

अभी बेल हरी है

ममता का तकाजा

नमकीन पसीना

पचास रुपये

भूख

जानवर

बेचारी कौन

गोश्त की जात

यह भारत है

मैं एक मां हूं

समझ

वो लड़की 

कन्या भोज

बेनामे

105 नम्बर

कड़वी चाशनी

प्रतिभगी रचनाकारों की रचनाएं 

बच्चों की कठिनाइयों के आगे बुजुर्ग छोटे हो जाते हैं

मानपत्र

कुत्ता और चिड़िया

शब्द पराए नहीं

गिरगिट

गाली

जान

सेल्फी

मैं दोषी कैसे

ड्यूटी

अपने हिस्से का आकाश

भ्रष्टाचार की सजा

होम ! हैप होम 

ऊंची सोच

आत्म-सम्मान

परिक्रमा

खुशी

एक छुपा हुआ किरदार

उनके दर्द

पंछी

गाय की रोटी

ओपरी जगह

हड़ताल

रंगरेज

मोबाइल और चिट्ठी

संकल्प

बदल रही हैं लड़कियां

सौहार्द

पाती मेरे नाम की

घर की रौनक

चयन समिति 

मापदंड

शयनेषु रम्भा

सुध

गिद्ध 

जंगल की नदी

देश की माटी

नीलाम घर

बालमन

कर्मवीर सीमा

आस तीस का लाडू

शगुन

कलम का कहर

छूटा हुआ सामान 

दुविधा

आदमी और जानवर

डिजिटल ड्यूटी 

भय की कगार पर 

एक आदमी अपने ही खोल के अंदर.

उल्टी किताब

यकीन

प्रज्ञा मंच के सदस्यों/सहयोगियों की लघुकथाएँ

नेत्रदान

अनामिका

सुरक्षा

मंच

बाबू! एक रजाई

आराधन

आंसू

हुनर

चिंगारी

मृत्यु की आहट

दरी और कुर्सी

सिर्फ वैधानिक चेतावनी ही क्यों

उसके लिए

सैल्यूट

इज्जत

राम-राम अंकल !

हरामखोर

चाबी

घर वापसी

स्याह सुर्खियां 

संवेदना

पुलिया 

रंग

विनाश काले 

परिणाम 

हरनाम शर्मा

जन्म : 22 जून, 1950, रोहतक (हरियाणा) 

शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेजी, अर्थशास्त्र), बी.एड.

प्रकाशित कृतियाँ :

1. हाँ! मैंने ही बाँग दी थी (काव्य-संग्रह); हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रथम पुरस्कार से सम्मानित

2. शब्द ऑक्सीजन हैं (काव्य-संग्रह)

3. यूँ बात तो कुछ भी नहीं ( काव्य-संग्रह)

4. पेट-प्यार-पैसे की बातें (काव्य-संग्रह)

5. कम नहीं कोई (सम्पादित काव्य-संकलन)

6. अपने देश में (लघुकथा-संग्रह)

7. स्वरों का आक्रोश (सम्पादित लघुकथा-संकलन)

8. खुली खिड़की (अंग्रेजी कहानियों का अनुवाद)

9. देशभक्ति तथा अन्य कहानियाँ (विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक की श्रेष्ठ कहानियों का सम्पादन)

10. एम्प्टी फ्रेम (मधुकान्त की लघुकथाओं का अंग्रेजी अनुवाद)

11. चलो गाँव की ओर (मधुकान्त के उपन्यास का नाट्य रूपांतर)

12. बाल-पाठकों के लिए लोक-कथाओं तथा अन्य विषयों पर पुस्तिकाएँ

13. प्रज्ञा मंच से लघुकथाएँ (संपादित)

सम्प्रति : राजकीय सेवा निवृत्ति के पश्चात् स्वाध्याय 

सम्पर्क सूत्र : ए. जी. 1/ 54, सी. विकासपुरी, नई दिल्ली-110018

मोबाइल : 7701809073

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