घरों को ढोते लोग (लघुकथा-संकलन)/सुरेश सौरभ (संपादक)

घरों को ढोते लोग  (लघुकथा-संकलन)


सुरेश सौरभ  (संपादक)

प्रकाशक :

समृद्ध पब्लिकेशन (साहित्य की नई पहचान) 

शाहदरा, दिल्ली

© स्वत्त्वाधिकार : सुरेश सौरभ

संस्करण: प्रथम 2024

ISBN: 978.93.94837.84.3

कवर डिजाइन: shagunartindia@gmail.com

पुस्तक सज्जा : समृद्ध टीम

ई-मेल: samriddhpublications@gmail.com

वेबसाइट : www.samriddhpublication.com

मूल्य : 245/- रुपये (पेपरबैक)

सभी वर्गों के जीवन का लेखा-जोखा करतीं लघुकथाएँ

-सुधा जुगरान-

लंबी कथाओं को पढ़ने के आदी पाठकों के सामने जब लघुकथाओं की पुस्तक हाथ में आती है, तो गद्य की एक विशिष्ट शैली से, उसका परिचय होता है।

लघुकथा लेखन एक अलग तरह की विशिष्ट कला है। लघुकथा एक छोटी कहानी नहीं है। यह कहानी का संक्षिप्त रूप भी नहीं है। यह विधा अपने एकांगी स्वरूप में, किसी भी एक विषय, एक घटना या क्षण पर आधारित होती है।

लघुकथा, 'गद्य कथा' का एक अंश है, जिसे एक ही बैठक में पढ़ा जा सकता है।

लघुकथा गद्य का बहुत ही सटीक रूप है, जिसमें रचनाकार बहुत थोड़े से शब्दों में बहुत बड़ी बात कह देता है, जिसे कभी-कभी एक पूरी लंबी कहानी या उपन्यास के ढेर सारे पात्र भी उतनी स्पष्टता व सार्थक तरीके से व्यक्त नहीं कर पाते हैं।

सुप्रसिद्ध लेखक व संपादक सुरेश सौरभ जी के संपादन में संग्रहित साझा लघुकथा संग्रह "घरों को ढोते लोग" पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लगभग 65 लघुकथाकारों का यह संग्रह लाजवाब है। इसकी लघुकथाएं हर वर्ग व प्रत्येक क्षेत्र में शोषित, वंचित लोगों की बात बहुत शिद्दत से करती हैं। शायद ही संपादक की नज़र से कोई क्षेत्र छूटा हो। लघुकथाओं का चयन काफी सतर्कता व कुशलता के साथ किया गया है। सुरेश जी एक कुशल संपादक होने के साथ-साथ बेहतरीन लेखक भी हैं। यही दोनों मिश्रित गुण उनकी इस पुस्तक में दिखाई देता है।

यूं तो पुस्तक की सभी लघुकथाएं अत्यंत सटीक व सशक्त हैं, फिर भी कुछ का जिक्र करना लाजिमी होगा। संकलन की पहली लघुकथा 'सलोनी' में डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी ने कामवाली बाई का मार्मिक हार्दिक चित्रांकन किया है।

भीषण गर्मी के बाद बरसात का मौसम साधन संपन्न लोगों के लिए खुशनुमा पलों की सुगंध लेकर आता है। यशोधरा भटनागर की लघुकथा 'कम्मो' में, घर में काम कर रही नौकरानी से चाय की फरमाइश होती है, लेकिन वही नौकरानी 'कम्मो' जब अपने घर पहुँचती है, तो टपकती झोपड़ी और गीली लकड़ियों के कारण पेट की आग बुझानी भी मुश्किल हो जाती है।

बाल श्रम की आड़ में छोटी बालिकाओं के शोषण पर लिखी रश्मि लहर की लघुकथा, "हिसाब-किताब" भी पाठकों के अंतस को झिंझोड़ देती है। लघुकथा "धूल भरी पगडंडी' गांवों से युवा वर्ग के हो रहे पलायन पर सार्थक विमर्श करती नजर आती है।

अत्यंत कड़वा सत्य परोसती है लघुकथा 'कबाड़'। समाज का साधन संपन्न वर्ग, शो रूम में रखी महंगी वस्तुएं बिना आगा-पीछा सोचे खरीद लेता हैं। अपनी सुख-सुविधा को लेकर कोई भी समझौता करना, आम समाज को मंजूर नहीं होता, लेकिन मजदूर वर्ग, चाहे फिर वह सब्जीवाला, रिक्शावाला, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, कबाड़ी, घरों में काम करने वाले या कोई भी अन्य, उनसे 10-20 रुपए कम कराने का लोभ अक्सर संवरण नहीं कर पाते हैं। सुखद लगता है रश्मि चौधरी की लघुकथा, 'कबाड़' को पढ़ना, जहां एक गृहणी घर का कबाड़ एक कबाड़ वाले को बिना पैसे लिए दे देती है। जबकि वह पैसे देने के लिए लगातार बोलता रहता है।

'उपहार' देने का संबंध, हैसियत से अधिक देने वाले की भावना से होता है। इस तथ्य को बहुत से लोग नहीं समझ पाते हैं, इसीलिए शायद आज, संवेदनाएं व भावनाएं हृदय की दहलीज लांघने को तत्पर हैं। मनवीर कौर पाहवा की 'उपहार' मार्मिक लघुकथा है।

मार्टिन जॉन की शीर्षक लघुकथा, "घरों को ढोते लोग' एक ऐसी लघुकथा है, जो बहुत से चित्र आंखों की परिधि में बिछा देती है। वस्तुतः समाज का चाहे कोई भी वर्ग हो, वह अपने घरों को ही ढो रहा है, यह अलग बात है कि कोई पेट की आग बुझाने के लिए ढो रहा है, तो कोई सुख-सुविधा कमाने के लिए ढो रहा है। यह एक ऐसी लघुकथा है, जो सभी वर्गों के समस्त जीवन का लेखा-जोखा पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देती है।

लघुकथा, 'चैरेवति, चैरेवति' भी इसी भाव को आगे बढ़ाती है, अनेक कलाओं में माहिर, एक रिक्शावाले के माध्यम से।

गरीब, अनपढ़ वर्ग अक्सर इल्जाम का अधिकारी हो जाता है। ऐसा ही बहुत कुछ कह जाती है पूनम 'कतरियार' मार्मिक लघुकथा, 'इज्जत' ।

बहुत से अधखिले फूल हैं समाज में, जिन्हें अगर अपना लें तो इन्हें नवजीवन भी मिलेगा और देश को एक अच्छा नागरिक भी। साधन संपन्न घरों में जहां रोज ही अन्न की बरबादी होती है, वहीं ऐसे भी लोग हैं जिनको पेट भर खाना भी नहीं मिल पाता। इसी भाव की लघुकथा 'आस' की चर्चा करें, जिसमें, भीखू फर्श पर पड़े अनाज के दानें मजदूरी के रूप में मिल जाने पर बेहद खुश हो जाता है। सविता मिश्रा 'अक्षजा' की यह बेहतरीन लघुकथा है।

प्रत्येक लघुकथा का नायक चाहे वह कोई रिक्शावाला हो, ड्राइवर हो या कोई अन्य, उसके कांधों पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ है और वह उसे ढोये हुए बस दौड़ लगा रहा है।

पुस्तक की लघुकथाएं अलग-अलग समस्याओं व विषयों को समेटती हैं। लघुकथा 'गुनाह' की सेल्स गर्ल की भी एक अपनी कहानी है। ग्राहक की चोरी के कारण वह मुसीबत में फंस जाती है। लघुकथा 'शुभ तिथि' घर के गृहप्रवेश का अलग दृश्य पाठकों के सामने लाती है, जिसमें नायक, घर बनाने वाले मजदूरों के साथ गृहप्रवेश की पार्टी करने का निश्चय करता है। वहीं सेवा सदन प्रसाद की 'भूख' लघुकथा दिल को दहला देती है। जब कोरोना महामारी में भूख से बेहाल गाँव पैदल जाते एक मजदूर को, काम भी मिलता है, तो वह लाशों को दफनाने का।

नोटबंदी पर लिखी सुधा भार्गव की लघुकथा 'नमक का कर्ज' बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है। क्या सच ही गरीबों के लिए देश की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है? उनके मात्र शिकारी ही बदले हैं? सुकेश साहनी की लघुकथा 'धूप-छांव' अमीर व गरीब के लिए बरसात का न होना, सूखा पड़ना, दोनों के लिए अलग-अलग परिदृश्य रचता है। कुछ लालची लोगों के लिए आपदा, अवसर लेकर आती है। मनोरमा पंत की लघुकथा 'बदलते रिश्ते' करुणा भरी वात्सल्यमयी कथा है।

लपन श्रम देश में अपराध है, लेकिन अगर किसी बच्चे का पिता न हो. तो उसकी भूख किस श्रेणी में आती है? जब यह 'यक्ष प्रश्न' बालक रघु ठेकेदार से करता है, तो ठेकेदार के साथ-साथ पाठकों के पास भी कोई जवाब नहीं होता। सुनीता मिश्रा ने 'यक्ष प्रश्न' में बढ़िया संदेश दिया।

गरीब की मृत्यु उसके घरवालों के सिवा और किसी को व्यथित नहीं करती। लघुकथा, 'मजदूर मरा है' इस भाव व बात को अत्यंत सशक्त ढंग से चित्रित करती है, चित्रगुप्त की लघुकथा।

कोरोना महामारी पर आधारित राजेन्द्र पुरोहित की लघुकथा, 'शव-वाहन' उस वक्त की भयावह यादें ताजा कर देती है।

गरीब की भूख को पेट भर भोजन नहीं मिलता और अमीर के बच्चों की भूख खोलने के लिए इलाज किया जाता है, योगराज प्रभाकर की लघुकथा 'अपनी-अपनी भूख' की अंतिम पंक्ति इस सच्चाई पर जबरदस्त कटाक्ष करती है।

अरविंद सोनकर 'असर,' सारिका भूषण, मिन्नी मिश्रा, इंद्रजीत कौशिक, मीरा जैन, गुलज़ार हुसैन, विजयानंद विजय, नीना मंदिलवार, डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, राम कुमार घोटड़ आलोक चोपड़ा, कल्पना भट्ट, हर भगवान चावला, अविनाश अग्निहोत्री राजेन्द्र वर्मा सहित सभी लघुकथाकारों की लघुकथाएँ पाठकों की आंखों में कोई नमी जरूर छोड़ जाएंगी।

संग्रह की अंतिम दो लघुकथाएं, 'कैमरे' और 'हींग वटी' भी बाल श्रम पर जबरदस्त प्रहार करती प्रतीत होती हैं। यह दोनों लघुकथाएं संपादक व लेखक सुरेश सौरभ जी द्वारा रचित हैं। भीख मांगते बच्चों की भीड़ को, सरकार और समाज का प्रबुद्ध वर्ग कम तो करना चाहता है, लेकिन उनके सम्मान जनक जीवन-यापन के प्रयासों पर साथ नहीं देते।

चुनाव हो या कोई रैली अथवा शादी बारात की बात हो. इन जगहों पर काम करने वाले बच्चों के साथ अगर कोई दुर्घटना घट जाए तो इसकी जिम्मेदारी कोई आयोजक नहीं लेते, इस बात को बहुत स्पष्ट तरीके से सामने रखती है लघुकथा 'कैमरे'।

बहुत ही सटीक व स्तरीय लघुकथाओं की इस पुस्तक के सभी रचनाकारों को मैं हार्दिक बधाई देती हूँ। संपादक सुरेश सौरभ जी का साधुवाद करती हूँ।

- सुधा जुगरान, 

दिव्या देवी भवन, 

16 ई. ई. सी. रोड, 

देहरादून-248001 (उत्तराखंड) 

मो. 9997700506

मेरी संपादकीय

कब होगा इनका उद्धार?

अगर हिंदी साहित्य की बात करें, तो प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक के बाद, प्रगतिवाद का एक दौर शुरू हुआ और गरीबों किसानों मजदूरों की आवाज को स्वर देने के लिए तमाम कलमकार लामबंद हुए। अपने-अपने स्तर से गरीबों, किसानों, मजदूरों का दुःख-दर्द अपनी रचनाओं में पिरोते रहे। दुनिया में बहुत से आंदोलन हुए, बहुत सी क्रांतियाँ हुईं, बहुत से परिवर्तन हुए, किंतु मजदूरों, किसानों और कामगारों की तमाम दुश्वारियाँ आज भी बनी हुईं हैं, कहीं किसानों के लिए सड़कों पर कीलें बिछाई जातीं हैं, कहीं मजदूरों को उनका जायज हक नहीं मिलता, कहीं श्रमिकों पर अनेक अत्याचार किए जाते हैं।... संविधान ने बहुत से अधिकार दिए, बहुत सी सुविधाएँ सबको दीं हैं। मगर आज भी तमाम श्रमिकों और मजदूरों की अंतहीन दर्दनाक कहानियाँ रोंगटें खड़े कर देतीं हैं, जो प्रतिदिन समाचार पत्रों में, खबरों में सुर्खियाँ बनतीं रहतीं हैं, कहीं वे सेप्टिक टैंक साफ करते हुए मरते हैं, कहीं अपनी फसल नष्ट होने पर, या कर्ज में डूबने पर आत्महत्या करते हैं। कहीं मुफलिसी और अशिक्षा के कारण न्याय और सुरक्षा नहीं मिल पाती, वे उत्पीडन के शिकार होते हैं।

देश में करोड़ों आदिवासी हैं, उनकी मूलभूत समस्याएँ हैं, कहीं उन्हें तेंदू पत्ता बीनने नहीं दिया जाता, कहीं जल, जंगल, जमीन के तमाम पचड़ों में फंसाकर कथित स्वार्थी अधिकारी उन्हें प्रताड़ित करते हैं, कहीं उन पर पैसे फेंक फेंक कर उन्हें नचाया जाता है, कहीं समाज उनका भदेस वीडियो बनाकर परिहास उड़ाता है। कहीं गौ रक्षा के नाम पर श्रमिकों को सरेआम पीटा जाता है... कहीं पीटते हुए जूतों से उन्हें पेशाब • पिलाया जाता है।......

मैं साहित्य का विद्यार्थी हूँ, अपनी मेधा, अपनी क्षमता अनुसार यह * साझा लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' आपके बीच लेकर आया हूँ। कोशिश है अच्छी रचनाएँ पाठकों तक पहुँचाने की। अगर अपनी बात करूँ, पिताजी दिहाड़ी मजदूर थे। हम पाँच भाई-बहनों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी। वे संघर्ष करते रहे। हमें पढ़ाते लिखाते रहे। हम पाँचों सरकारी नौकरियों में तो न आ सके, पर समाज की मुख्य धारा में अपना सम्मानित जीवन जी रहे हैं। अतः मजदूर किसानों की तमाम दुश्वारियों को देखने का, महसूस करने का, कुछ मौका मिलता रहा। लिहाजा मेरी लघुकथाएँ, गरीब, गुरबों, मजदूरों का दुःख-दर्द व उनकी समस्याएँ कब बुनने लगतीं हैं, यह मुझे तिल अहसास नहीं रहता।

कुछ दिन पहले शायर अरविंद असर जी से बात हो रही थी, इस संग्रह को लेकर करीब आधे-पौन घंटे तक चर्चा हुई। उनका कहना यही था कि जो देखा जाए, जो भोगा जाए, जो महसूस किया जाए, अगर उसे साहित्य में पिरोकर पाठकों के समक्ष रखा जाए, तो वह ज्यादा सार्थक और साकारात्मक होगा, और पाठक उसमें स्वयं को खोजकर उसमें एकाकार सा हो जायेगा। निश्चित रूप से यह बात सही है, प्रेमचंद ने भी कहीं एक जगह लिखा था, अगर हमें किसी सैनिक छावनी पर लिखना है, तो हमें सबसे पहले उस छावनी को देखना होगा, समझना होगा, तभी उस छावनी के बारे में कायदे से लिख सकते हैं। आज साहित्य में कई मत, कई वाद हैं, जो अपने-अपने विषयों, अपने-अपने मतों, और अपने-अपने वाद-विवादों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, उन पर संवाद-विवाद होते रहते हैं। हम उनके परिसंवादों, विमर्शों में न जाकर सीधे-सीधे समाज के सबसे पिछड़े तबके की अगर चर्चा करेंगे, विमर्श करेंगे तो समाज का अधिक भला होगा। अन्त्योदय होगा। गरीबी रेखा की तो बात होती है, पर जब तक अमीरी रेखा की बात नहीं होती, उस पर विमर्श नहीं होगा, तब तक गरीबों का, मजदूरों का शायद कभी भला न हो।

स्वानुभूति, सहानुभूति के द्वारा लेखन में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का चित्रण करके, समाज में परिवर्तन होगा। कल्याण होगा। आज इसकी नितान्त आवश्यकता है, वीभत्स घोर यथार्थवाद, उद्देश्यहीन कामुक, हिंसात्मक रोमांचक मनोरंजनार्थ साहित्य धन-प्रतिष्ठा साहित्यकार को जरूर दिला सकता है, पर किसी का हित नहीं कर सकता।.... मैं अपनी बात करूँ तो अक्सर रिक्शे पर बैठता हूँ तो कभी रिक्शा वाले से उसकी आमदनी, कभी उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, कभी उसके तमाम दुखों की पड़ताल करते हुए चलता हूँ...... फल वाले, सब्जी वाले, खोमचे वाले, रेहड़ी वाले, किसानों मजदूरों बेरोजगारों के साथ कुछ पल बैठकर अगर हम उनकी तकलीफों को जानेंगे, समझेंगे तो जरूर मार्मिक नई कहानी मिलेगी, जरूर नए विचार मिलेंगे....। आज का मीडिया नेताओं के पीछे, बड़े व्यवसायियों के पीछे संस्कारहीन सिने अभिनेताओं-अभिनेत्रिओं के पीछे माइक लिए दौड़ रहा है, वासना-पिपासा उन्हें सिर्फ धन की है, अन्नदाता की नहीं? किसानों की नहीं? मजदूरों की नहीं? जिस दिन वह गरीबों किसानों मजदूरों, कामगारों की उनकी तकलीफें पूछना शुरू कर देगा। उनका दर्द, उनका दुख, उनकी मजबूरियों को पूछना शुरू कर देगा... उस दिन एक बड़ा परिवर्तन समाज में दिखाई देगा। साहित्य में यह कार्य हो रहा है, पर मंथर गति से, अभी इस विषय पर हमें बहुत कुछ करना शेष है। देश की वरिष्ठ कहानीकार आदणीया सुधा जुगरान जी ने इस संग्रह के लिए अपनी मार्मिक भूमिका लिखकर हमें अभिभूत किया। इस साहित्यिक अनुष्ठान में सभी सहयोगी रचनाकारों का एवं आर्थिक सहयोगियों का हृदय से आभार।

-सुरेश सौरभ, 

निर्मल नगर 

लखीमपुर खीरी-262701 (उत्तर प्रदेश)

अनुक्रम

सभी वर्गों के जीवन का लेखा-जोखा करतीं लघुकथाएँ / सुधा जुगरान 

कब होगा इनका उद्धार? / सुरेश सौरभ 

1. डॉ. मिथिलेश दीक्षित.

2. यशोधरा भटनागर,

3. रश्मि 'लहर'.

4. रश्मि 'लहर',

5. डॉ. लता अग्रवाल 'तुलजा'.

6. अरविन्द सोनकर 'असर'

7. अरविंद सोनकर 'असर'.

8. मीरा जैन..

9. रश्मि चौधरी

10. रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'.

11. रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'.

12. प्रेरणा गुप्ता

13. मनवीन कौर पाहवा

14. मार्टिन जॉन...

15. सारिका भूषण..

16. डॉ. अलका अग्रवाल.

17. मिन्नी मिश्रा.

18. मधु जैन

19. इंद्रजीत कौशिक..

20. पवन जैन.

21. डॉ. रामकुमार घोटड़.

22. अंजू निगम.....

23. पूनम 'कतरियार'

24. आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर.

25. डॉ. प्रदीप उपाध्याय..

26. मनोरमा पंत

27. अविनाश अग्निहोत्री.

28. रेखा सक्सेना..

29. सविता मिश्रा 'अक्षजा'

30. रतन चंद 'रत्नेश'

31. हरीश कुमार 'अमित'.

32. राजेंद्र वर्मा.

33. विजयानंद विजय.

34. विजयानंद विजय.

35. नीरू मित्तल 'नीर'.

36. डॉ. अंजू दुआ जैमिनी.

37. सरोज बाला सोनी.

38. गुलजार हुसैन..

39. ज्योति जैन.

40. संतोष सुपेकर.

41. गोविंद भारद्वाज,

42. कनक हरलालका.

43. सेवा सदन प्रसाद.

44. सेवा सदन प्रसाद

45. शराफत अली खान.

46. नरेंद्र कौर छाबड़ा.

47. डॉ. अंजना अनिल

48. नीना मंदिलवार..

49. सुधा भार्गव...

50. रशीद गौरी.

51. रशीद गौरी

52. डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

53. सुकेश साहनी.

54. अर्चना राय..

55. आलोक चोपड़ा

56. कल्पना भट्ट

57. हरभगवान चावला.

58. सुनीता मिश्रा.

59. डॉ. सुषमा सेंगर.

60. सिद्धेश्वर

61. चित्रगुप्त.

62. राजेन्द्र पुरोहित.

63. प्रो. रणजोध सिंह...

64. अदित कंसल

65. डॉ. सत्यवीर 'मानव'.

66. योगराज प्रभाकर.

67. रमेशचन्द्र शर्मा

68. बलराम अग्रवाल

69. जगदीश राय कुलरियाँ.

70. सुरेश सौरभ

71. सुरेश सौरभ

परिचय  : सुरेश सौरभ 


मूल नाम : सुरेश कुमार

जन्म तिथि : 03 जून, 1979

माता : स्व. कमला देवी, 

पिता : स्व. केवल राम

शिक्षा : बी.ए. (संस्कृत) बी. कॉम., एम. ए. (हिन्दी) यूजीसी-नेट (हिन्दी)

पत्नी : श्रीमती अंजू, 

पुत्री : कृति शाक्य

प्रकाशन : दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, हरिभूमि, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, इंद्रप्रस्थ भारती, विभोम स्वर, देवपुत्र, बाल भारती, कथाबिंब, पाखी, वागर्थ, सुबह सवेरे, डिपेस्ड एक्स्प्रेस, ट्रिब्यून सहित देश-विदेश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में सैकड़ों लघुकथाएँ, बाल कथाएँ, व्यंग्य- लेख, कविताएँ तथा समीक्षाएँ आदि प्रकाशित।

प्रकाशित पुस्तकें : एक कवयित्री की प्रेमकथा (उपन्यास), नोटबंदी, तीस-पैंतीस, वर्चुअल रैली, बेरंग (लघुकथा-संग्रह), अमिताभ हमारे बाप (हास्य-व्यंग्य), नंदू सुधर गया, पक्की दोस्ती (बाल कहानी संग्रह), निर्भया (कविता-संग्रह)

संपादन : 100 कवि, 51 कवि, अनुभूति सृजन की, काव्य मंजरी, खीरी जनपद के कवि, तालाबंदी, इस दुनिया में तीसरी दुनिया, गुलाबी गलियां, अस्मिता वेब पत्रिका। साहित्यिक पृष्ठ-दैनिक मेरी जुबान। विशेष : भारतीय साहित्य के विश्वकोश में इकतालीस लघुकथाएँ शामिल। यूट्यूब चैनलों और सोशल मीडिया में लघुकथाओं एवं हास्य-व्यंग्य लेखों की व्यापक चर्चा। कबाड़ी, देनदारी, पापा पिस्तौल ला दो, आदि लघुकथाओं पर लघु फिल्मों का निर्माण। चौदह साल की उम्र से लेखन में सक्रिय। मंचों से रचनापाठ एवं आकाशवाणी लखनऊ से रचनापाठ। कुछ लघुकथाओं का उड़िया, मैथिली, अंग्रेजी तथा पंजाबी आदि भाषाओं में अनुवाद।

सम्मान : अन्तरराष्ट्रीय संस्था भाखा, भाऊराव देवरस सेवा न्यास द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर पं. प्रताप नारायण मिश्र युवा सम्मान, ओम प्रकाश वाल्मीकि स्मृति सम्मान, स्वामी विवेकानंद, बाल उद्यान गोला गोकर्णनाथ की मानद उपाधि 'विवेक श्री'। हैदराबाद से प्रकाशित डेली हिंदी मिलाप द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता, में कहानी 'एक था ठठेरा' को द्वितीय स्थान। लखीमपुर की सौजन्या, करुणा फाउंडेशन, महादलित परिसंघ, परिवर्तन फाउंडेशन सहित कई प्रसिद्ध संस्थाओं द्वारा सम्मानित। शार्ट फिल्मों के लेखन में सक्रिय।

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन एवं पत्रकारिता।

सम्पर्क : निर्मल नगर, लखीमपुर-खीरी (उत्तर प्रदेश) पिन कोड-262701 

मोबाइल : 7860600355, 

ईमेल: sureshsaurabhlmp@gmail.com

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