भूख के 'जीन्स' (लघुकथा संग्रह)/वंदना सहाय

भूख के 'जीन्स' 

(लघुकथा संग्रह)

वंदना सहाय

पता : 

'गोविंदम', बी2/2, वासुदेव बंगलोज, वृंदावन टाऊनशिप, पो. गुमगांव, नागपुरः 441122 (महाराष्ट्र)

मोबाइल : 9168263178

Isbn : 978-93-91817-67-1

प्रकाशक : 

सृजन बिंब प्रकाशन 301, सनशाइन-2, के.टी. नगर काटोल रोड, नागपुर-440013 

दूरध्वनि-8208529489, 9372729002 

ई-मेल :- srijanbimb.2017@gmail.com

प्रथम संस्करण : दिसंबर 2024

मुख्यपृष्ठ : सिद्धेश्वर

मूल्य  : ₹ 250/_


अनुक्रम

1 भूख के जीन्स

2 तमगे

3 ध्वनि प्रदूषण

4 हेयर ऑयल

5 नेत्रदान

6 दूरी

7 गृहिणी

8 झूठे का सच

9 दस सेर गेहूँ

10 सूखी रोटी

11 फादर्स डे

12 मोजे

13 पितृ पक्ष

14 दूसरा विकल्प

15 दर्द

16 स्वतंत्रता सेनानी

17 सच

18 सूअरी

19 गुड डे

20 शहरी लौकी

21 जलेबियाँ

22 रोशनी

23 पंखहीन

24 तीन बेटों का बाप

25 क्वारन्टीन

26 अपने-पराये

27 नींद का चक्र

28 दर्द का साझा

29 पचास रुपये

30 आम की मिठास

31 स्वाद कलिकाएँ

32 सवाल

33 बूढ़ी तितलियाँ

34 नमक का कर्ज

35 व्यतिरेक

36 अगले साल

37 नेताजी के जूते

38 शुगर कैंडी

39 एक प्याली गर्म चाय

40 व्हाट्सऐप

41 नीले दाग

42 वर्चुअल वेडिंग

43 सिर्फ

44 पूर्वाग्रह

45 मर्सिडीज़ और थके पाँव

46 हिस्से का दूध

47 बेचने के लिए

48 किचेन-सेट

49 सन्नाटा

50 किन्नर

51 असली दिवाली

52 नया साल

आशा का संचार करती लघुकथाएँ

वंदना सहाय हिन्दी की कहानी, लघुकथा, कविता, हायकु, गजल, व्यंग्य, बाल-साहित्य, समीक्षा-आलोचना तथा समसामयिक विषयों पर आलेख लेखन में लगातार सक्रिय हैं। हिन्दी की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ निरन्तर देखी जा रही हैं। बहुत-से साझा संकलनों में उनकी रचनाओं ने स्थान पाया है। 'बूंद-बूंद प्रतिबिम्ब' नाम से उनका एक हायकू संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।

यह उनकी लघुकथाओं का पहला संग्रह है। इसमें संग्रहीत जिन लघुकथाओं ने विशेष रूप से मेरा ध्यानाकर्षित किया है, उनमें 'झूठे का सच', 'दूरी', 'गृहिणी', 'नेत्रदान', 'किचन सेट' आदि हैं। भारतीय गृहिणी की दारुण और कर्मशील स्थिति पर अनेक कथाकारों ने प्रभावशाली लघुकथाएँ लिखी हैं। वंदना सहाय की 'गृहिणी' एक अलग ही कोण से उसकी स्थिति को प्रस्तुत करती है। 'किचन सेट' एक निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के रोजमर्रा जीवन की दारुण और सम्पूर्ण गाथा है। यह एक तथ्य है कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों में साधारण झगड़ा, चोरी और जेब-तराशी आदि छिटपुट अपराध के कारण जेल की सजा पाए अनेक चालाक लोगों ने तत्कालीन प्रभावशाली लोगों की मदद से स्वयं को स्वाधीनता सेनानी घोषित कराया और स्वाधीन सरकार से अच्छी-खासी पेंशन जिंदगीभर ली। इसी के साथ एक तथ्य यह भी है कि वास्तविक सेनानियों ने जेल आदि की सजा को देश के प्रति अपना दायित्व माना और कभी भी स्वाधीनता सेनानी पेंशन आदि कोई भी सरकारी सुविधा नहीं ली। 'स्वतन्त्रता सेनानी' में लेखिका ऐसे लोगों की चारित्रिक गिरावट और उच्चता, दोनों ही आयामों को दर्ज करती हुई बताती हैं कि ऐसे 'नकली' सेनानियों का भरपूर उपयोग स्टार प्रचारक के तौर पर बहुत-से अवसरवादी राजनीतिकों ने चुनावी सभाओं में किया।

'तमगे' में वह यह बताने में लेखिका सफल रहीं हैं कि शौर्य दिखाकर शहादत देकर अर्जित किए गए तमगे परिजनों की दृष्टि में मूल्यहीन और बोझिल हो जाते हैं। 'ध्वनि प्रदूषण' में उन्होंने बताया है कि घर के भीतर का सन्नाटा और एकाकीपन मनुष्य के जीवन को शोर की तुलना में कम प्रदूषित नहीं करते हैं। लगभग यही तथ्य लघुकथा 'दूरी' में एक अन्य कथानक के माध्यम से प्रकट हुआ है। ये दोनों ही कथानक मनोवैज्ञानिक टच लिए हुए हैं जिसके लिए लेखिका प्रशंसा की पात्र हैं।

'दस सेर गेहूँ' में कामवाली बाई अपनी मालिकिन  द्वारा रोज-रोज रोटियाँ फेंकने यानी अन्न की बरबादी पर अपने अतीत की निर्धनता और असहाय स्थिति का वर्णन करके क्षोभ व्यक्त करती है। लेकिन उसका वक्तव्य आवश्यकता से कुछ अधिक ही लंबा हो गया है। ऐसा दीर्घत्व इनकी कुछेक अन्य लघुकथाओं में भी देखने को मिलता है। लघुकथाकारों को लंबे नैरेशंस और लंबे संवाद दोनों से यथासंभव बचना चाहिए।

'भूख के जीन्स' गर्भ में पल रहे शिशु की भूख के आजन्म बनी रहने को जस्टिफाई करती-सी लगती है। इसे मैं लेखिका की वैचारिक वैयक्तिकता की सीमा कहना चाहूँगा। ऐसा इसलिए कि मजदूर सिर्फ भूख से त्रस्त नहीं रहता, उसमें जुझारुता और प्रतिरोधात्मकता भी यथानुरूप पनपती है। वह भी उसके गर्भस्थ शिशु के जीन्स में अवश्य ही जाती है। 'झूठे का सच' लोगों द्वारा झूठा करार दिये गये शख्स की सचाई को निराले अंदाज में प्रस्तुत करती संवेदनशील लघुकथा है।

कुल मिलाकर वंदना सहाय की लघुकथाएँ कथ्य चयन और उसके प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से काफी संतुष्ट करती हैं तथा भविष्य के प्रति आशा का संचार करती हैं। 

अनन्त मंगलकामनाएँ और शुभाशीष।

● डॉ. बलराम अग्रवाल 

8826499115

वरिष्ठ लघुकथाकार

अपनी बात

लघुकथा एक छोटी कहानी नहीं है। यह कहानी का संक्षिप्त रूप भी नहीं है। यह विधा अपने एकांगी स्वरूप में किसी भी एक विषय, एक घटना या एक क्षण पर आधारित होती है। आधुनिक लघुकथा अपने पाठकों में चेतना जागृत करती है। लघुकथा गद्यकथा का एक अंश है। इसे आम तौर पर एक ही बैठक में पढ़ा जा सकता है। यह एक आत्म-निहित घटना या जुड़ी हुई घटनाओं की श्रृंखला पर केंद्रित होती है, जिसका उद्देश्य एक ही प्रभाव या मनोदशा को जगाना होता है। लघुकथा साहित्य सबसे पुराने प्रकारों में से एक है और यह दुनिया भर के विभिन्न प्राचीन समुदायों में किंवदंतियों, पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं, परियों की कहानियों, लंबी कहानियों, दंत कथाओं और उपख्यानों के रूप में मौजूद है। आधुनिक लघुकथा शताब्दी की शुरुआत में विकसित हुई।

19 वीं सदी से पहले लघुकथा को आमतौर पर एक अलग विधा नहीं माना जाता था। हालांकि इस अर्थ में यह एक विशिष्ट आधुनिक शैली लग सकती है, लेकिन तथ्य यह है कि लघुकथाएँ लगभग उतनी ही पुरानी हैं जितनी कि भाषा। पूरे इतिहास में मानव जाति ने विभिन्न प्रकार की संक्षिप्त कथाओं का आनंद लिया है, जैसे-चुटकुले, किस्से, लघु रुपक रोमांस, नैतिक परिकथाएँ, लघुमिथक और संक्षिप्त ऐतिहासिक किंवदंतियाँ। इनमें से कोई भी लघुकथा नहीं है जैसा कि 19 वीं शताब्दी से परिभाषित किया गया है, लेकिन वे उस परिवेश का एक बड़ा हिस्सा बनाते हैं, जहाँ से लघुकहानी उभरी है।

एक विधा के रूप में लघुकथा को 20 वीं सदी के मध्य तक अपेक्षाकृत कम आलोचनात्मक ध्यान मिला और इस विधा के सबसे मूल्यवान अध्ययन अक्सर युग तक ही सीमित रहे।

प्रारंभिक यूनानियों ने लघुकथा साहित्य के दायरे और कला में बहुत योगदान दिया। लघुकथाओं की विविधता से पता चलता है कि यूनानियों ने पहले की संस्कृतियों की तुलना में इस बात पर कम जोर दिया था कि लघुकथाएँ मुख्य रूप उपदेशात्मक होनी चाहिए।

युरोप में मध्य युग लघुकथाओं के प्रचार का समय था, हालांकि ये ज़रूरी नहीं कि वे सब परिष्कृत भी हैं। लघुकथाएँ मनोरंजन और मनबहलाव का साधन बन गईं। मध्यकालीन युग से लेकर पुनर्जागरण तक, विभिन्न संस्कृतियों ने अपने उद्देश्यों के लिए लघुकथाओं को अपनाया।

युरोप में लघुकथाओं को सबसे परिष्कृत रूप मध्य युग में मिला। 15वीं और 16वीं शताब्दी में युरोप के सबसे प्रभावशाली राष्ट्र के रूप में, स्पेन ने लघुगद्य कथा साहित्य के प्रचार में योगदान दिया। 17वीं और 18वीं सदी में पश्चिम में लघुकथा साहित्य में अस्थायी गिरावट देखी गई।

शायद इंग्लैंड में यह गिरावट सबसे स्पष्ट है, जहाँ लघुकथा को सबसे कम सुरक्षित पैर जमाने का मौका मिला।

मध्य युग के दौरान लघुकथाएँ मुख्य रूप से एक मनोरंजक और मनबहलाव वाला माध्यम बन गई थीं। हालांकि पुनर्जागरण और ज्ञानोदय ने इस विधा की अलग माँग की। धर्मनिरपेक्ष मुद्दों के प्रति जागरूकता ने वास्तविक स्थितियों पर नए सिरे से ध्यान देने की माँग की। सच बात तो यह थी कि मन बहलाने वाली कहानियाँ अब प्रासंगिक या व्यवहारिक नहीं रहीं।

लघुकथाएँ, वास्तव में गायब हो गईं, क्योंकि इसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जब 19वीं शताब्दी में इसने अपने पलायनवादी ढाँचे को छोड़ा. तो यह आधुनिक लघुकथा के रूप में फिर से सामने आई। यह लघुकथा के विकास में एक नया चरण था, जिसमें लघुकथा ने एक नई गंभीरता अपनाई और एक नई जीवंतता और सम्मान प्राप्त किया।

आधुनिक लघुकथा का उदय 19वीं सदी की शुरुआत में लगभग एक साथ ही हुआ।

दो प्रभावशाली आलोचक, क्रिस्टोफ़ विलैंड और फ्रेडरिक श्लेयर मारकर ने तर्क किया कि एक लघुकथा को वास्तव में घटित घटनाओं या घटित होने वाली घटनाओं से संबंधित होना चाहिए। उनके अनुसार लघुकथा को यथार्थवादी होना चाहिए।

20वीं सदी के पूर्वार्ध में लघुकथा का आकर्षण बढ़ता ही गया। इसी सदी में जर्मनी, फ्रांस, रूस और अमेरिका ने वह खो दिया, जिस रूप पर कभी इनका एकाधिकार प्रतीत होता था। नवोन्मेषी और प्रभावशाली लेखक उन जगहों से उभरे, जिन्होंने इस शैली पर बहुत कम प्रभाव डाला था। उदाहरण के लिए, सिसली ने लुइगी पिरानडेलो को जन्म दिया।

जैसे-जैसे लघुकथा के साथ परिचय बढ़ता गया, लघुकथा का स्वरूप स्वयं अधिक विविधतापूर्ण और जटिल होता गया।

लघुकथाओं के शुरुआती उदाहरण 1790 और 1810 के बीच अलग-अलग प्रकाशित हुए। लेकिन लघुकथाओं का सच्चा संग्रह 1810 और 1830 के बीच कई देशों में दिखाई दिया। सर वाल्टर स्कॉट और चार्ल्स डिकेंस जैसे उपन्यासकारों ने भी इस दौरान प्रभावशाली लघुकथाएँ लिखीं।

भारत में उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ में कई लेखकों ने दैनिक जीवन और विभिन्न आर्थिक-सामाजिक समूहों के परिदृश्य पर केंद्रित लघुकथाएँ रचीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने औपनिवेशक कुशासन और शोषण के तहत किसानों, महिलाओं और ग्रामीणों के जीवन पर डेढ़ सौ से अधिक लघुकथाएँ लिखीं। टैगोर के समकालीन शरतचंद्र चट्टोपाध्याय बंगाली लघुकथाओं के एक और अग्रदूत थे। लघुकथाओं के विपुल भारतीय लेखक मुंशी प्रेमचंद ने हिन्दुस्तानी भाषा में इस शैली की शुरुआत की। यथार्थवाद और भारतीय समाज की जटिलताओं के बारे में एक भावुकताहीन और प्रामाणिक आत्मनिरीक्षण की विशेषतावाली शैली में 200 से अधिक लघुकथाएँ लिखीं।

आज इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि लघुकथा एक पृथक और स्वायत्त, यद्यपि विकासशील विधा है।

हृदय की गहराई से अग्रज के समान आदरणीय श्री बलराम अग्रवाल जी का आभार, जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय निकालकर मेरी किताब की समालोचना लिखी और मेरे पुस्तक की गरिमा बढ़ायी।

अनुजासम कांता रॉय जी की कटिबद्धता का क्या कहना। साहित्यिक गतिविधियों में इतनी व्यस्तता के बावजूद उन्होंने मेरी पुस्तक की प्रस्तावना लिखी और सदा के लिए मुझे अपना ऋणी बना दिया।

आदरणीय विनोद नायक जी का हृदय तल से आभार, जिन्होंने मेरी लघुकथाओं को पुस्तक का रूप देने के लिए प्रेरित किया।

आदरणीय सिद्धेश्वर जी के रेखाचित्रों की मैं सदा से प्रशंसक रही हूँ और जब मैंने अपनी पुस्तक के लिए इन्हें माँगा, तो उन्होंने अपने विशाल हृदय का परिचय देते हुए मुझे अपने रेखाचित्रों के विपुल भंडार से चुन लेने को कहा। आभारी हूँ।

अंत में, मैं अपने पाठकों से यह जरूर साझा करना चाहूँगी कि लघुकथाएँ मैं क्यूँ लिखती हूँ।

जब कोई घटना मन को उद्वेलित कर जाती है तो मन संवेदना से भर उठता है और मैं अपनी संवेदनाओं को शब्दों का रूप देने की कोशिश करती हूँ। सार्थक शब्द व्यवस्थित हो वाक्य बनाते हैं और वाक्यों की टोली लघुकथा।

रचना को पढ़ते हुए जब रचनाकार और पाठक के बीच सेतु का निर्माण होता है, तभी रचना पाठकों के मर्म को स्पर्श करती है। मेरे द्वारा लिखी गयी लघुकथाओं ने पाठइकों के मर्म को स्पर्श किया या नहीं इसका निर्णय में सुधी पाठकगण पर छोड़ती हूँ।

वंदना सहाय



जन्म-तिथि : 29 नवंबर

शिक्षा : स्नातक (प्रतिष्ठा, प्राणीशास्त्र) स्नातकोत्तर (प्राणीशास्त्र)

लेखन-विधा : कहानी, लघुकथा, कविता, हायकु, गजल, व्यंग्य, बाल-साहित्य एवं आलेख

प्रकाशन : पुस्तक 'बूंद-बूंद प्रतिबिम्ब' (हायकु संग्रह) प्रकाशित तथा दो अन्य पुस्तकें (लघुकथा एवं कविता की) प्रकाशनाधीन ।

आजकल, गगनांचल, भाषा स्पंदन, साक्षात्कार, अक्षरा, दिशा शोध, अभिनव प्रयास, राजभाषा विस्तारिका, यथावत, परिकथा, अंतिम जन, साहित्य समर्था, वेब पत्रिका, सरस्वती सुमन, अंतिम जन, यथावत, आधुनिक साहित्य, प्राची, विश्व गाथा, निर्दलीय, चंपक, बाल हंस, बाल भास्कर, जनसत्ता, नई दुनिया, लोकमत, नवभारत, स्वदेश, हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, राष्ट्र किंकर, प्रभात खबर, सदीनामा, संपर्क भाषा भारती, हितवाद (अंग्रेजी) आदि के साथ ही अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी नियमित प्रकाशन। लघुकथा अनवरत, नयी सदी की धमक, सहोदरी सोपान, सहोदरी लघुकथा, कविता अभिराम जैसे कई स्तरीय साझा संकलनों में भी भागीदारी। कई लघुकथाओं का बांग्ला, राजस्थानी, मैथिली, भोजपुरी, नेपाली, पंजाबी, मराठी में अनुवाद। न्यूज पोर्टल 'लोक राग' (सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त), अश्रुतपूर्वा एवं भौकाल में रचनाएँ प्रकाशित। हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी में भी लेखन। अंग्रेजी की रचनाएँ दैनिक हितवाद, पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित। आकाशवाणी, नागपुर द्वारा रचनाओं का प्रसारण। यूट्यूब पर स्वयं कही गयी गजलों का गायन अन्य कलाकारों के द्वारा।

सम्मान : विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सम्मान प्राप्त, लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान, निर्दलीय दैनिक सह प्रकाशन समूह द्वारा 'वैश्विक साहित्य सम्मान' के साथ ही अन्य कई सम्मान प्राप्त । महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा पुस्तक अनुदान हेतु पुस्तक 'भूख के जीन्स' का चयन।

सम्प्रति : नागपुर में रहकर साहित्य-सृजन ।

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