परिंदों के दरमियां / बलराम अग्रवाल

31 अक्टूबर, 2018 को ई-मेल से प्राप्त समीक्षा सादर प्रस्तुत।  पूर्व में भी यह प्रकाशित हो चुकी है या नहीं, याद नहीं है। यहाँ श्रीयुत् बद्री सिंह भाटिया जी (04-7-194724-4-2021) को श्रद्धांजलि स्वरूप...सादर🙏

विमर्श के बहाने लघुकथा की जाँच-पड़ताल

  बद्री सिंह भाटिया 


एक समय था जब विचार-विमर्श के लिए कोई बैठक, फोन, काफी हाऊस की मेज, किसी पार्क की बेंच या राह चलते उपयुक्त माने जाते थे। जब से सोशल मीडिया अपने ताम-झाम के साथ समाज में आया है, सार्थक संवाद के लिए किसी साक्षात् आयोजन की बजाए आभासी आयोजन से विचार-विमर्श के लिए एक खुला मंच मिला है जहाँ अपनी बात कहने के लिए किसी बारी की नहीं अपितु बीच में चार पंक्तियाँ लिख देने मात्र से मंतव्य प्रकट कर सकते हैं और उसी तरह समय रहते प्रत्युत्तर भी प्राप्त कर सकते हैं। 

ऐसा ही एक संवाद ‘लघुकथा के परिंदे’ समूह के तत्वावधान में घंटां ऑन लाइन चला। यह सार्थक संवाद लघुकथा के नवोदित और संभावनाशील रचनाकारों और सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ॰ बलराम अग्रवाल के मध्य हुआ। बलराम अग्रवाल जी ने रचनाशीलता के सम्बंध में किए अनेक सवालों के प्रति-व्यक्ति सहजता से विस्तृत उत्तर दिए। इस संवाद को उन्होंने कालांतर में पुस्तक रूप दिया है—‘परिंदों के दरमियां’।

‘परिंदों के दरमियां’ पुस्तक तीन भागों में विभक्त है; सवाल-दर-सवाल, (संदभित लघुकथाएँ, उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत संदर्भित लेख/लेखांश,) समीक्षक की कसौटी तथा 21वीं सदी की 22 लघुकथाएँ।

अनेक सवाल सामने आए। एक सवाल रचना कनक-आरती कनिटकर, अनघा जोगलेकर ने किया कि—‘रचना में कई बार हम क्षण-विशेष को उठाकर, सम्बन्धित घटना को फ्लैश-बैक में उठाकर विवरण देते हैं। क्या वह क्षण-विशेष भूतकाल का नहीं हो सकता? इसी क्षण विशेष को लेकर कांता राय ने भी सवाल किया है कि—‘क्या पात्र द्वारा सोचने की प्रक्रिया को ‘क्षण-विशेष’ में ‘घटनाक्रम का घटित होना’ मान सकते हैं?’

बलराम अग्रवाल ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि—‘रचनाकारों को यह समझना जरूरी है कि लघुकथा में ‘क्षण’ सिर्फ समय की इकाई को ही नहीं कहते। संवेदना की एकान्विति को भी ‘क्षण’ कहते हैं। एकान्विति यानी रचना के पात्र को एक भावभूमि से दूसरी में प्रवेश नहीं करना चाहिए। लघुकथा में पात्र के चरित्र पर कथाकार का ध्यान केंद्रित रहना चाहिए। यह भी कि—रचना में अभिव्यक्त विचार जिस कालखण्ड को समेट रहे हैं, क्या वे उस कथा की अंतर्वस्तु के अनुरूप उस क्षण को रच पा रहे हैं? इस संदर्भ में उन्होंने रघुवीर सहाय के आलेख और स्नेह गोस्वामी की लघुकथा ‘वह, जो नहीं कहा गया’ को उद्धृत किया है। इस क्षण-विशेष को अनघा जोगलेकर ने भी स्पष्ट किया है कि—‘फ्लैश बैक उस क्षण से इस क्षण को जोड़ने का ऐसा टूल है जो कथा प्रस्तुति के प्रवाह को बनाए रखने में सहायक होता है।’

कथानक को लेकर भी कुछ रचनाकारों ने सवाल किए हैं। इनमें अनघा जोगलेकर, सविता गुप्ता, सीमा भाटिया आदि हैं। अनघा पूछती है कि—‘कैसा कथानक चुनना चाहिए?’ इस प्रश्न का बलराम अग्रवाल यूँ उत्तर देते हैं कि—‘साहित्य सदा स्वांतः सुखाय होता है। कोई माने या न माने। लेखक का अंतःकरण जितना व्यापक होगा, रचनाशीलता उतनी ही सशक्त होगी। कथानक रचनाकार के आस-पास बिखरे होते हैं। बस उसकी ग्राह्य क्षमता ही है जो उन्हें रचना बनाती है।’ इस प्रश्न में आगे जोड़ते हुए सविता गुप्ता पूछती हैं कि—‘माना, हमें अपने आस-पास या समाज की नब्ज टटोलते कथानक लेने चाहिए, मगर हमारे पास तो दहेज, बलात्कार, धार्मिक उन्माद आदि ज्यादा परिलक्षित होते हैं। इन पुराने पड़े विषयों पर ही मोह क्यों?’

इस प्रश्न पर बलराम अग्रवाल एक विज्ञापन का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि—‘अक्सर यह विज्ञापन कि ‘दीवारें बोल उठेंगी’ की तर्ज पर नवीनता को स्वीकार किया जा सकता है। वाल्मीकि जी ने रामायण लिखी। कितने समय बाद तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस लिखा, उनके उपरांत राधेश्याम कथावाचक ने भी और विगत समय में नरेंद्र कोहली ने भी। यह उस कथानक की नवीनता है, भाव-भंगिमाएँ और स्थापनाएँ हैं जो पाठक को नया आयाम देती हैं। सीमा भाटिया ने कथानक को लेकर एक और शंका व्यक्त की है कि—‘सोशल मीडिया के दृष्टिगत एक ही समय में विभिन्न रचनाकार समान विषयों पर रचना कर रहे होते हैं। ऐसे में नवीन विषयों का चयन कैसे किया जाए?’ इस शंका का समाधान करते हुए बलराम अग्रवाल ने बताया है कि—‘यह प्रभाव तो है, मगर कई बार पूर्व-पठित चीजें मस्तिष्क में गहरे चली जातीं हैं। कई बार पूर्व-रचित कोई साहित्य पढ़ा ही नहीं होता इसलिए मिलते-जुलते भावों अथवा भाषा की अभिव्यक्ति कर बैठता है। यहीं से नवीन विषय भी सामने आते जाएँगे।’ उन्होंने अपने कथन की स्पष्टता के लिए कुछ रचनाकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया है।

कुछ रचनाकारों ने यह सवाल उठाया कि रचना कैसी हो? सत्य घटना पर या निजी जिंदगी पर। इनमें चैतन्य चौहान, शेख शहजाद उस्मानी, सीमा त्यागी आदि हैं। कांता राय ने भी इस विषय पर पूछा कि सत्य घटनाओं का चित्रण और लघुकथा में अंतर क्या है? बलराम अग्रवाल ने इस जटिल प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि—‘जो घटना घटित हुई है क्या, हम उसके पूर्ण सत्य से वाकिफ हैं?’ घटना में सत्य, यथार्थ और लेखकीय दायित्व तलाशने की कोशिश होनी चाहिए। लेखक को कथावाचक की बजाए एक द्रष्टा, भोक्ता, पात्र के रूप में देखना चाहिए तभी वह अच्छी रचना कर सकता है।

लघुकथा की शैली को लेकर भी कुछ परिंदों अथवा जिज्ञासुओं ने सवाल किए हैं। इनमें राजेश शॉ, शेख शहजाद उस्मानी, सुनीता वर्मा, जानकी वाही, क्षमा सिसौदिया आदि ने विभिन्न पक्षों को उठाया है। एक प्रश्न यह है कि—‘रचना को भूमिका-विहीन रखने का क्या तरीका है?’ कि ‘मिश्रित शैली की लघुकथा में प्रतीकात्मक कटाक्षपूर्ण बात बाखूबी उभर आती है?’ ‘क्या विवरणात्मक शैली में केवल वर्णन ही होना चाहिए?’ कि ‘लघुकथा में काव्य का मिश्रण किया जा सकता है?’ कि ‘दृश्य चित्रण की उपयोगिता क्या है?’ कि क्या शैली का अनुकरण करना चाहिए?

शैली को लेकर इन विभिन्न प्रश्नों का उत्तर देते हुए बलराम अग्रवाल ने लिखा है कि—‘यदि रचना को भूमिका-विहीन रखना है तो वह संवाद से शुरू होनी चाहिए। जहाँ तक मिश्रित शैली की बात है, उसमें ये दोनों होते हैं यानि विवरण भी और संवाद भी। रचना में दृश्य-चित्रण पात्रों के परस्पर संवादों, मनोभावों और द्वंद्व के माध्यम से उभरना चाहिए। लघुकथा में काव्य का प्रयोग इतना सार्थक नहीं होता। फिर भी रचनाकार को चाहिए कि वह रचना की कथाभूमि के अनुसार अपनी शैली का निर्माण करें।

प्रत्येक रचनाकार चाहता है कि उसकी रचना की स्वस्थ समीक्षा हो। इस संवाद शृंखला में कुछ परिंदों ने सवाल उठाए हैं, जिनके बलराम अग्रवाल ने समुचित उत्तर दिए हैं। पहला सवाल यह कि—‘आज समीक्षकों का अभाव है।’ कि ‘अच्छा समीक्षक कैसे बनें?’ बलराम अग्रवाल जी ने समीक्षा के बारे में समझाते हुए लिखा है कि—‘रचनाकार को स्व-आलोचना और स्व-समीक्षा से गुजरना चाहिए। बाह्य समीक्षा के दृष्टिगत अपनी रचना को फिर से परखना चाहिए।’ उनके समर्थन में एक प्रश्नकर्ता कनक के. हरलालका कहती हैं कि—‘आलोचना और समीक्षा के मार्ग से नहीं गुजरेंगे तो परिपक्वता की मंजिल तक क्यों कर पहुँचेंगे।’

बलराम अग्रवाल बताते हैं कि—‘अच्छा समीक्षक बनने के लिए कथा-साहित्य की स्तरीय अलोचना और समीक्षा की पुस्तकों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। साथ ही समकालीन लघुकथा की प्रवृत्ति और प्रकृति से भी परिचित रहना चाहिए।’

समीक्षा की क्या कसौटी हो? इस पर लता अग्रवाल और बलराम अग्रवाल के बीच एक लम्बा संवाद हुआ है। यह इस पुस्तक में एक खण्ड के रूप में भी आया है। ये प्रश्न अधिकांशतया अकादमिक ज्यादा हैं। फिर भी नए रचनाकारों को उनकी रचना प्रक्रिया में सहायक सिद्ध होंगे। वार्तालाप में उन्होंने लघुकथा के शिल्प, कथ्य, शैली से संबंधित भी सवाल किए जिनका बलराम अग्रवा ने तदनुरूप उत्तर दिया है।

लघुकथा लेखन में भाषा को लेकर भी बहुत से रचनाकारों ने सवाल किए है। इनमें उषा भदौरिया पूछती हैं कि—‘किसी गाँव या अन्य जगह से संबंधित विषय पर लिखने के लिए क्या ग्रामीण अथवा आंचलिक भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए?’ इस पर बलराम अग्रवाल लिखते हैं कि—‘आंचलिक भाषा का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर ही होना चाहिए। भाषा अथवा बोली पात्र और समय के अनुकूल ही हों तो सम्प्रेषण में सुविधा रहती है। रचनाकार को अमुक भाषा अथवा बोली का स्वयं जानकार होना चाहिए।’ ‘कुछ रचनाकार अमर्यादित/अश्लील भाषा का प्रयोग कर लेते हैं!’ इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा है कि—‘रचना में भाषा मर्यादा में ही रहे तो उस रचना की पाठकीयता बढ़ती है। लघुकथाकार को सम्प्रेषण के लिए संकेत, व्यंजना की भाषा को स्वयं में विकसित करना चाहिए।’

लघुकथा के परिंदों को अपनी रचना का शीर्षक देने में आ रही कठिनाइयों पर भी प्रश्न हुए। इनमें सुनील वर्मा पूछते हैं कि—‘बहुत से रचनाकार छोटे आकार की कहानी लिखकर उसे लघुकथा का नाम दे रहे हैं!’ ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ पूछते हैं कि—‘आप शीर्षक का चुनाव कैसे करते हैं?’ इसी शृंखला में नीता सैनी और वीना शर्मा पूछती हैं कि—‘क्या किसी दूसरे रचनाकार और उसकी रचना का शीर्षक एक हो सकता है क्योंकि सारे शीर्षक स्मरण तो रहते नहीं?’ बलराम बताते हैं कि—‘यह अधिकतर रचना की कथावस्तु पर निर्भर करता है। शीर्षक ऐसा हो कि पाठक की पढ़ने के लिए जिज्ञासा उत्पन्न करे। जैसे ‘प्यार के साइड इफेक्ट’। एक-से शीर्षक स्वयं और किसी और से मेल खाते हो सकते हैं। फिर भी यदि रचना कर रहे हैं तो हर रचना का अलग ही शीर्षक होना चाहिए।’ उन्होंने क्षमा सिसौदिया के प्रश्न का समर्थन करते हुए कहा है कि—‘जब रचनाकार रचना करता है तो उस कथा में शीर्षक का अर्थ आना चाहिए, तभी वह सही कथा की श्रेणी में आएगी। रचना तात्विक दृष्टि से शीर्षक का प्रतिनिधित्व करती है।’

इस प्रश्नोत्तरी में एक सवाल बहुत ही अहम रहा कि—‘क्या किसी अन्य रचना से प्रभावित हो लिखा जा सकता है?’ कि ‘क्या यह चोरी की श्रेणी में नहीं आएगा?’ इस प्रश्न का उन्होंने उत्तर दिया है कि—‘रचना के बीज पढ़ी हुई रचनाओं के भीतर से अंकुरित होते हैं। वह उन विचार-बिंदुओं को पकड़ता है और पालता-पोसता है। अगर घटनाक्रम, परिस्थितियाँ तथा उसकी प्रस्तुति भिन्न है तो वह चोरी की श्रेणी में नहीं आता। मगर यदि आप उस कथानक को नाम और स्तिथियाँ बदलकर या यह सोच कि अमुक लेखक तो दूसरी भाषा का है, कि वह सुदूर अंचल का है; तब उसकी रचना यथा-तथ्य उठाकर अपने नाम प्रकाशित करवाते हैं तो वह चोरी की श्रेणी में आएगा।’ किसी अन्य की रचना के प्रभाव को लेकर अनघा जोगलेकर ने अलग सवाल उठाया है कि—‘लिखने से पहले अन्य रचनाकारों को पढ़ने पर जोर दिया गया है। ऐसे में किसी एक या दो की शैली का प्रभाव कथा या कहानी पर पड़ जाए तो क्या करना चाहिए?’ अग्रवाल जी ने लिखा है कि ‘पठन-पाठन दो तरह का होता है। एक किताब से अलग रहकर। यानी जागरूकता और चौकन्ना रहते हुए सामाजिक हालात को समझना। दूसरा किताब से बावस्ता होना और जुड़ जाना। आज कोई शैली नई नहीं रही है। बस वही नई है जिससे आप नहीं गुजरें हैं।’

रचनाशीलता में एक प्रश्न शिल्प को लेकर भी आया। सविता गुप्ता के साथ रूपेंद्र राज जुड़े तो सुप्रसिद्ध लघुकथाकार सुभाष नीरव जो इस वार्ता को मानिटर कर रहे थे, ने भी जोड़ा कि ‘रचना में प्रयोग की क्या सीमाएँ और दिशा है। जबकि अभी मानकों पर ही मतैक्य नहीं है। नए प्रयोग के बारे में भी बात हो।’ बलराम अग्रवाल ने लिखा है कि—‘विधा के विकास के लिए प्रयोग और सिर्फ प्रयोग के लिए अथवा शौक पूरा करने के लिए प्रयोग हो ये दो बातें हैं। प्रयोग के लिए प्रयोग रचना को कभी शीर्ष पर नहीं पहुँचा सकता। ये कहानी आंदोलनों में होकर गिर चुके हैं। लघुकथा में मतैक्य न होने के बावजूद भी अराजकता की स्थिति नहीं है। प्रत्येक साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, विशेषकर कथा-साहित्य। एक इतिहासकार अपने दायित्व निर्वहन में बेईमानी कर सकता है लेकिन कथाकार नहीं।’

इसके इलावा लघुकथा के परिंदों ने लघुकथा के आकार, लघुकथा के अंत और निष्पादन, रस-निष्पति, कालखण्ड, रचना में संवाद आदि अनेक प्रश्न पूछे हैं जिनका पुस्तक में विस्तृत विवरण है।

पुस्तक के तीसरे खण्ड में 21 रचनाकारों की लघुकथाएँ भी दी गईं है। ये कथाएँ अपने में एक अलग विवेचन की माँग करती हैं। इस पुस्तक में इन 21 लघुकथाओं के साथ 38 संदर्भित लघुकथाएँ भी हैं। यह पुस्तक न केवल नए लघुकथाकारों के लिए ज्ञानवर्द्धक हैं बल्कि प्रगतिशील और स्थापित रचनाकारों के साथ कहानी के पाठकों और लेखकों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। यह भी कहा जा सकता है कि इस ऑन लाइन संवाद ने एक सार्थकता का रास्ता प्रशस्त किया है।


          समीक्षक : बद्री सिंह भाटिया 

गाँव : ग्याणा, डाकखाना : मांगू, वाया दाड़ला घाट, तहसील : अर्की, जिला सोलन, हि.प्र. पिन 171102

  

बतौर भूमिका

 

किस्सा इस किताब का

 

लगभग सात घंटे तक अनवरत चले ऑन-लाइन लघुकथा-विमर्श का इस किताब के रूप में आने का श्रेय तीन व्यक्तियों को है—कांता रॉय, सुभाष नीरव और अशोक भाटिया ।

जुलाई 2017 के मध्य में मैं भोपाल गया था—हिंदी लेखिका संघ म. प्र. के बुलावे पर। लेखिका संघ की वर्तमान अध्यक्ष आ. अनिता सक्सेना एवं पूर्व अध्यक्ष आ. डॉ. राजश्री रावत, वरिष्ठ लयुकथाकार मालती महावर बसंत जी आदि ने कांता रॉय के अनुरोध पर ‘समकालीन लघुकथा से जुड़ी नवोदित लेखिकाओं की जिज्ञासाओं पर बात करने के लिए मुझे आमन्त्रित किया था। वह व्याख्यान संतोषप्रद रहा, ऐसा मुझे लगता है; क्योंकि वहाँ से चले आने के बाद एक दिन कांता जी का फोन आया। कहा, "सर, 'परिंदे' के सदस्यों के लिए माह के अंत में एक ऑन लाइन मीटिंग किसी सीनियर के साथ रखने की योजना बना रही है।"

उनकी बात मेरी समझ में नहीं आई थी, फिर भी कहा, "जरूर बनाइए।"

वह खुश। पूछा, "तो पहली मीटिंग आपके साथ घोषित कर दूँ?"

मैं, याद नहीं किस योजना में व्यस्त था। कहा, "इस बार किसी और को ले लीजिए, अगली बार में आ जाऊँगा।"

"आप ही सुझाइए, किसे लें?... मधुदीप जी को ले लें?"

"ले लीजिए।"

और इस तरह 'लघुकथा के परिंदे' पर पहले विमर्शकार बने—मधुदीप।

अगस्त 2017 में कांता जी ने पुनः फोन खनखना दिया। तब मैं बेटी के पास बंगलौर में था और लेखन सम्बन्धी तनाव को दरकिनार कर केरल भ्रमण की मानसिकता में था। मना कर देना पड़ा।

"इस बार किसे लें?" कांता जी का सवाल आया।

"अशोक भाटिया से पूछ लीजिए। वह करनाल में ही हुए तो मना नहीं करेंगे।"

"पूछकर अभी आपको बताती हूँ।" कांता जी ने कहा, और थोड़ी देर बाद ही सूचना दी, "भाटिया जी ने 'हाँ' कह दी है।

"बधाई हो।" मैंने कहा। कांता जी ने आदत के मुताबिक 'शुक्रिया’ कहा। दो-चार कुछ अन्य बातों के बाद बात खत्म हो गई।

इन दोनों महानुभावों के सेशन्स का लाभ 'परिंदों' को अवश्य ही मिला होगा; उनसे अलग, यह भी जरूर हुआ कि शुरू में 'ऑन लाइन मीटिंग' की कांता जी की जो बात मेरी समझ में नहीं आई थी, वह समझ में आ गई।

सितम्बर में कांता जी ने फिर घेरा लगाया। फोन उठाते ही बिना किसी औपचारिकता के कहा—‘इस बार मना नहीं करेंगे आप।"

मैं समझ गया, किस बारे में बात हो रही है। 'ना' कहने पर पाबंदी पहले ही लग चुकी थी। 29 सितंबर को दुर्गा नवमी और 30 को विजया दशमी पर्व के कारण सितम्बर की 28 तारीख 'परिंदों की नुकीली चोंचों और वहचाहटों के बीच हाजिर रहने की तय हो गयी।

उक्त सभा में परिंदों के सवाल पूर्वाह्न 11 बजे से ही आने शुरू हो गये थे। उन्हें शायद यही समय कांता जी ने दिया होगा। नवरात्र चल रहे थे। लैपटॉप ऑन करके मैं नित्य कर्मों में लगा रहा और दोपहर बजे हॉट-सीट पर जा जमा। उसके बाद, बीच में 15 मिनट का एक ब्रेक मैंने रामचरितमानस-पाठ के लिए लिया और शाम आठ बजे तक पुनः उस सभा में अनवरत बैठा रहा।

नयना-आरती कानितकर, बीना शर्मा, शेख शहजाद उस्मानी, ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश', सविता गुप्ता, विभा रश्मि, कनक के. हरलालका, चित्रा राणा राघव, डॉ. लता अग्रवाल, सुनीता त्यागी, कान्ता रॉय, अर्विना गहलोत, आनन्दबाला शर्मा, राजेश शॉ, कपिल शास्त्री, प्रेरणा गुप्ता, सुनील वर्मा, मधु जैन, अनघा जोगलेकर, क्षमा सिसौदिया, रेखा श्रीवास्तव, पवन जैन, राजेन्द्र राज, कुणाल शर्मा, जानकी वाही, उदयश्री ताम्हणे, राहिला आसिफ, सुमित कुमार, पूनम डोगरा, सीमा भाटिया, पूनम झा आदि अनेक लघुकथा-जिज्ञासुओं ने लगातार सवाल रखे और तुरन्त ही उनका समाधान भी पाया। कई के सवालों ने स्तब्ध किया तो कई के सवालों ने क्षुब्ध भी किया। कुल मिलाकर सेशन का पूरा मजा लिया। मित्र कथाकार सुभाष नीरव ने इस रू-ब-रू कार्यक्रम को बहुत ही जानदार-शानदार और चमकृत करने वाला माना और इनमें से विशेष प्रश्नोत्तर को अलग संकलित करते रहे। कुछेक महत्वपूर्ण प्रश्न तकनीक सम्बन्धी मेरी अज्ञानता के, तो कुछ मानस-पाठ हेतु सेशन से हट जाने के कारण अनुत्तरित रह गए थे। उनमें से कुछ का उत्तर सुभाष की पहल पर उसी दिन, तो बाकी का स्वयं देखकर बाद में जोड़ दिया। सुभाष का मानना रहा कि ‘लघुकथा से जुड़े अनेक नए-पुराने लेखक जिन सामान्य जिज्ञासाओं से लगातार जूझते दिखाई देते हैं, काफी हद तक उनका समाधान इन जवाबों में मिल सकता है; या फिर यह बातचीत कुछ नए प्रश्नों को भी जन्म दे सकती है। दोनों ही स्थितियों में लघुकया विधा के लिए वह एक आवश्यक ‘सवाल-जवाब’ सत्र था। जो मित्र उस समय वहाँ उपस्थित नहीं रह सके थे, देख-पढ़ नहीं सके थे, उन सब के लिए उस सत्र के चुने हुए सवाल-जवाब उसने तुरन्त फेसबुक वॉल पर पोस्ट करके तहलका-सा मचा दिया था। कांता राय ने इस प्रश्नोतरी को उस दिन ‘लघुकथा कुंजिका’ नाम दिया था।

और फिर, एक नया काम किया अशोक भाटिया ने ‘परिंदे पूछते हैं’ नाम से एक और लघुकथा कुंजिका प्रकाशित करके। निःसंदेह उस कार्य की प्रेरणा के मूल में सुभाष का ही कार्य रहा होगा। समाज और साहित्य के लिए उपयोगी कार्य अवचेतन मन की ऐसी ही परोक्ष-अपरोक्ष प्रेरणा से सामने आते और उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हैं। ‘परिंदे पूछते हैं’ हाथ में आई, पढ़ी, तो 28 सितम्बर, 2017 को ‘परिंदों के दरमियां’ बिताया समय याद हो आया।

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग। मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।

                                                                                                                    ॥रामचरितमानस 7/61॥

लेखकों का सत्संग सामान्य साधकों और भक्तों के सत्संग से एकदम अलग प्रकार का हुआ करता है; बिल्कुल वैसे, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान, ने ‘वीरों के वसंत’ को सामान्य-जन के वसंत से भिन्न प्रकार का बताया है। हमारा सत्संग लेखकों और चिंतकों के बीच होता है। संबंधित विधा ही हमारा ‘राम’ यानी इष्ट है। एक अन्य प्रसंग में तुलसीदास जी ने कहा है—बिनु सतसंग विवेक न होई। तात्पर्य यह कि सबसे पहले आप अपने ‘राम’ यानी चिंतन की दिशा को निश्चित करें। उसे निश्चित किए बिना आप कभी इस, तो कभी उस, मेज्योरिटी को 'सत्संग मानकर भटकते रहेंगे। अनुकूल सत्संग में उपस्थित हुए बिना किसी में अनुकूल विवेक उत्पन्न हो नहीं सकता। गत वर्ष यानी सन् 2017 में जिन प्रमुख सत्संगों का लाभ मुझे मिला, उनमें ‘लघुकथा के परिंदे’ समूह द्वारा आयोजित इस ऑनलाइन रू-ब-रू कार्यक्रम के अलावा ‘मिन्नी’ द्वारा 29 अक्टूबर 2017 को आयोजित ‘26वां अन्तरराज्यीय लघुकथा सम्मेलन, पंचकुला’ तथा 19 नवम्बर, 2017 को बिहार बाल भवन, सैदपुर, पटना में ‘किलकारी’ के बच्चों के मध्य उपस्थित होकर लघुकथा सहित सामान्य व्यवहार पर व्याख्यान देना भी रहा। इन सभी जगहों पर मैंने बहुत कुछ सीखा।

‘परिंदों के दरमियां’ विशेषतः साहित्य के उन पिपासुओं के लिए है जिन्होंने कथा साहित्य की ‘लघुकथा’ विधा को साधने का मन बनाया है, और जिन्होंने कथा साहित्य के विशाल बरगद के तले अपना आसन डाल लिया है। इसके तले कथा और उससे जुड़े सैद्धांतिक व व्यवहारिक सूत्र सुनने-गुनने, पढ़ने और सुनाने की रस प्राप्ति इसमें उन सब को होगी।

नाना विहंगों के बीच वक्ता के रूप में बीता कुछ समय ही किंचित परिवर्द्धन के साथ इस पुस्तक के रूप में आपके सम्मुख है। इसमें, विधा से जुड़े ऐसे कई सामयिक प्रश्नों का, जो एकाएक सामने नहीं आ पाते हैं, प्रत्यक्ष सवालों के विना भी समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। साथ ही, डॉ. लता अग्रवाल द्वारा हाल ही में पूछे गए समीक्षा-आधारित कुछ सैद्धांतिक प्रश्नों को उनके सम्भावित उत्तरों सहित रू-ब-रू की विशाल गोष्ठी में जोड़ा गया है।

-बलराम अग्रवाल

30 जनवरी 2018 / 21:38:27

 अनुक्रम

भूमिका

1. सवाल-दर-सवाल

नयना-आरती कानिटकर

अनधा जोगलेकर

दीना शर्मा

सविता गुप्ता

ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'

चित्रा राणा राघव

विभा रश्मि

शेख शहजाद उस्मानी

सुनीता त्यागी

कान्ता रॉय

चैतन्य चैतन्य

अर्विना गहलोत

आनन्दबाला शर्मा

कनक के. हरतालका

सुभाष नीरव

राजेश शी

कपिल शास्त्री

नीना सिंह सोलंकी

प्रेरणा गुप्ता

सुनीत वर्मा

मधु जैन

समा सिसौदिया

रेखा श्रीवास्तव

पवन जैन

उपा भदौरिया

नीता सैनी

नेहा नाहटा

रुपेन्द्र राज

कुणाल शर्मा

जानकी वाही

उदय श्री ताम्हणे

राहिला आसिफ

सुमित कुमार

कपिल भारद्वाज

पूनम डोगरा

सीमा भाटिया

पूनम झा

2. संदर्भित लघुकथाएँ

स्नेह गोस्वामी—वह, जो नहीं कहा गया

संध्या तिवारी—ब्रह्मराक्षस

शोभना श्याम—आखिरी पन्ना

कांता राय—कतरे हुए पंख

मधु जैन—लाक्षागृह

अर्विना गहलोत—एडजस्टमेंट

कमल कपूर—दुपट्टे बदले थे उन्होंने

दीपक मशाल—सयाना होने के दौरान

नीरज सुधांशु—पिनड्रॉप साइलेंस

कपिल शास्त्री—सम्मान

विजयानन्द विजय—और कहानी पूरी हो गयी

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा—पिल्ले, पहिया

बलराम अग्रवाल—ब्रह्म सरोवर के कीड़े

सूर्य प्रकाश मिश्र—हिन्दी दिवस

सविता—बेटी

सविता इन्द्र गुप्ता—पिघलती बर्फ

कमल चोपड़ा—छोनू

लता कादम्बरी—टिल्लू

लता कादम्बरी—हद

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति—हद

सुनीता त्यागी—विश्वासयात

महेश दर्पण—मुहल्ले का फर्ज

मुन्नूलाल—पात्रों का विद्रोह

जया आर्य—प्यार के साइड इफेक्ट्स

शोभना श्याम—स्पर्श

राहिला आसिफ—बबूल

जानकी विष्ट वाही—छुअन

सुधीर द्विवेदी—खुशियाँ

बलराम अग्रवाल—खोई हुई ताकत

अशोक भाटिया—देश

अर्चना तिवारी—सजा

चित्रा राणा राघव—वेटे-बेटियाँ उधार के

उषा भदौरिया—सिक्सटी प्लस

भगीरथ—हड़ताल

डॉ. सतीश दुबे—पासा

संदीप तोमर—मुक्त नदी

हेमंत राणा—दो टिकट

3. संदर्भित लेख/लेखांश

रघुवीर सहाय—कहानी की कला

दिनेश कुमार—कथा के बिना कहानी

रोहिणी अग्रवाल—वजूद का संकट

ज्ञान चतुर्वेदी—पागलखाना

राजेन्द्र यादव—बुर्कों की वापसी

नरेन्द्र कोहली—विधा के जोखिम

4. समीक्षक की कसौटी

डॉ. लता अग्रवाल के कुछ सैद्धांतिक प्रश्नों के उत्तर

5. 21वीं सदी की 22 लघुकथाएँ

अनघा जोगलेकर—अलमारी

अनिता ललित—हक

उपमा शर्मा—गिद्ध

उषा अग्रवाल 'पारस'—लकीरें

उषा लाल—संस्कार

कनक के. हरलालका—जानवर

क्षमा सिसौदिया—मिट्टी का दीपक

जानकी विष्ट वाही—स्वयंसिद्धा

तेजवीर सिंह 'तेज'—गर्ल फ्रेंड

नयना (आरती) कानितकर—उमड़ते आँसू

रुपेन्द्र राज—मन की तृप्ति

लता अग्रवाल—गमक

कल्पना भट्ट—पार्षद वाली गली

कुणाल शर्मा—अहसास

निधि शुक्ला—धनक

नीना सिंह सोलंकी—रोजी-रोटी

पूनम डोगरा—तुम बुद्ध नहीं हो

प्रेरणा गुप्ता—धुएँ की लकीरें

शेख शहजाद उस्मानी—रिश्तों का बसंत

शोभा रस्तोगी—गुब्बारा

संगीता गांधी—भयभीत परम्परा

सत्या शर्मा ‘कीर्ति’—अधूरा-सा

 

समीक्षित पुस्तक : परिंदों के दरमियां, लेखक : बलराम अग्रवाल, प्रकाशक : साक्षी प्रकाशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, प्रथम संस्करण : 2018, आई एस बी एन : 978-93-84456-63-4, कुल पृष्ठ संख्या :   144, मूल्यः   350-00 रुपए (हार्डबाउंड) 

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