बोझ हम उठाते हैं / राम मूरत 'राही' (सम्पादक)

बोझ हम उठाते हैं 

लघुकथा-संकलन 

राम मूरत 'राही' 

सम्पादक

ISBN 978-93-85438-74-5

© राम मूरत 'राही' (सम्पादक)

प्रथम संस्करण, 2025

आवरण 

सुधीर कुमार सोमानी 

भावेश कानूनगो

प्रकाशक 

अक्षरविन्यास

एफ-6/3, ऋषिनगर, उज्जैन

फोन : 0734-2512591

ई-मेल: aksharvinyas@gmail.com

मुद्रक 

ग्राफिक्स पार्क 160, साँवेर रोड तीन बत्ती चौराहा, उज्जैन

मोबाइल : 98270-70070

सम्पादकीय 

तकलीफों से भरा कुली जीवन...

लाल कमीज, बाजू पर बँधा नम्बर लिखा बिल्ला (बैज), यही पहचान होती है रेलवे स्टेशन के कुलियों की। सिर और कन्धों पर सामान ढोने वाले इन कुलियों का जीवन दुःख, तकलीफों से भरा होता है। चाहे कड़ाके की ठण्ड पड़े, तेज गर्मी हो या बरसात, ये हमेशा यात्रियों का सामान ढोने के लिए तैयार रहते हैं।

बचपन में जब हम माता-पिता के साथ गाँव जाते थे, तब भीड़-भाड़ होने पर कुली ही हम बच्चों को खिड़की के रास्ते डिब्बे में प्रवेश करवाकर बैठने की जगह दिलवाते थे। वर्षों बाद भी आज वो दृश्य आँखों के सामने किसी चलचित्र की तरह नजर आता है।

रेलवे स्टेशन पर मैं यात्रा के दौरान पुरुष कुलियों को ट्रेन के आने पर कोच की तरफ भागते-दौड़ते और भारी-भरकम सामान ढोते हुए देखता था, तब सोचता था कि ये लोग कितनी कड़ी मेहनत कर के एक-एक पैसा कमाते हैं और अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं।

एक समय था, जब रेलवे स्टेशन पर सिर्फ पुरुष कुलियों का ही एक-छत्र राज हुआ करता था, लेकिन अब जमाना बदल गया है। देश के रेलवे स्टेशन जयपुर (राजस्थान), भोपाल, ग्वालियर, अनूपपुर, कटनी (म.प्र.) भावनगर (गुजरात) और वाराणसी (उ.प्र.), नासिक (महाराष्ट्र) जैसे कई अन्य शहरों में भी पुरुष कुलियों के साथ-साथ ही महिला कुली भी भारी-भरकम सामान उठाकर प्लेटफॉर्म पर दौड़ती, ढोती नजर आती हैं। भले ही महिलाओं ने अपने कुली पति की मृत्यु के कारण कुली का पेशा अपनाया हो, लेकिन वे किसी पुरुष कुली से किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं।

देश की पहली महिला कुली होने का श्रेय जयपुर (राजस्थान) की मंजूदेवी को जाता है। जिन्होंने अपने कुली पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद अपने जीवन को रुकने नहीं दिया और तीन बच्चों का पालन-पोषण करने एवं उनके सुनहरे भविष्य के लिए कुली का पेशा अपनाया। मंजू देवी ने मीडिया को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था कि बच्चो को खिलाने का बोझ उठाने के सामने, यात्रियों के सामान का बोझ कुछ भी नहीं है। महिलाओं के लिए एक मिसाल पेश करने वाली मंजूदेवी के इसी जज्बे को प्रणाम करते हुए महिला और बाल कल्याण मन्त्रालय ने उन्हें सन् 2022 में सम्मानित किया था।

बहरहाल इस संकलन में शामिल सभी लघुकथाएँ जरूरी नहीं है कि उत्कृष्ट हों, कुछ कमजोर भी हैं। ऐसा हर संग्रह/संकलन में होता है, सभी रचनाएँ उत्कृष्ट नहीं होतीं।

मेरे आग्रह पर लघुकथा भेजने वाले सभी लघुकथाकारों का सम्मान करते हुए उनकी एक या दो लघुकथाएँ संकलन में शामिल की गयी हैं। इन लघुकथाओं में कुलियों की पीड़ा स्पष्ट नजर आती है कि कुली अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए किन-किन परेशानियों से गुजरता है।

जब से रेलवे स्टेशन पर लिफ्ट, एस्केलेटर की सुविधा और ट्रॉली बैग का चलन शुरू हुआ है, तब से उनकी परेशानी और बढ़ी है। इनकी वजह से अब कुलियों की उतनी कमाई नहीं हो पा रही है, जितनी पहले होती थी।

केन्द्र सरकार को चाहिए कि कुलियों के हित में ऐसे कदम उठाए जिससे कभी किसी कुली के परिवार को भूखा न सोना पड़े और उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, साथ ही उनका बुढ़ापा भी आराम से गुजर सके।

मैं इस संकलन में सम्मिलित सभी लघुकथाकारों का अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने मेरे आग्रह पर संकलन के लिए लघुकथाएँ समय पर प्रेषित कर उत्साह बढ़ाया, कृतार्थ किया।

संकलन की भूमिका लिखने हेतु मेरे प्रस्ताव को सहज एवं सहर्ष स्वीकार करने के लिए मैं आदरणीय माधव नागदा सर का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।

आकर्षक आवरण पृष्ठ हेतु सुधीर कुमार सोमानीजी एवं भावेश कानूनगोजी का हार्दिक आभार। संकलन के त्रुटिहीन, स्पष्ट मुद्रण के लिए अक्षरविन्यास प्रकाशन की श्रीमती इन्दु मिश्र जी का बहुत-बहुत शुक्रिया।

आशा करता हूँ कि कुली जीवन पर आधारित इस संकलन पर पाठकगण अपने अमूल्य विचारों एवं सुझावों से मुझे और लेखकों को अवगत कराएँगे।

राम मूरत 'राही'

168-बी, सूर्यदेव नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)

चलभाष 94245 94873

भूमिका 

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा...

'बोझ हम उठाते हैं' राम मूरत 'राही' द्वारा सम्पादित कुली जीवन पर आधारित लघुकथाओं का संकलन है। 'राही' स्वयं एक स्थापित लघुकथाकार हैं। उनके अब तक चार लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कुली जीवन की इतनी लघुकथाएँ एकमुश्त मेरी नजरों से पहली बार गुजर रही हैं। मुझे याद नहीं कि इस विषय पर पहले भी कोई संकलन या एकल लघुकथा संग्रह आया हो। 'राही' जी का आग्रह तो था ही, साथ ही मेरे तई यह एक अछूता विषय होने के कारण मैंने इन लघुकथाओं को बड़े चाव से पढ़ा। यहाँ कुलियों के सुख-दुःख, इनकी हार-जीत, यातनाएँ, निराशाएँ, ईमानदारी, छोटी-छोटी खुशियाँ एवं खुद्दारी के बहुत ही मार्मिक और विश्वसनीय चित्र मिलते हैं। यह वो तबका है जहाँ व्यक्ति कुलीगिरी करते-करते अपनी पहचान खोकर मात्र बिल्ला बनकर रह जाता है (कंधे - अंजु दुआ जैमिनी)। उसे सपने भी बोझ उठाने के ही आते हैं (दोपहर की नींद -पवन जैन)। संग्रह में सम्मिलित कई लघुकथाकारों की इस ओर दृष्टि गई है कि रेलवे स्टेशनों पर बढ़ती सुविधाओं के चलते कुलियों के रोजगार पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। यह तथाकथित विकास की विडम्बना ही है कि जिसके बोझ तले कभी-कभी आमजन की साँसें घुटने लगती हैं। जगह-जगह रैम्प बन जाना, लिफ्ट लग जाना, पहियों वाले बेग आ जाना, एस्केलेटर, आदि चाहे यात्रियों के लिए सुविधापूर्ण और किफायती हों परन्तु कुली जीवन के लिए त्रासद ही हैं। 'आखिरी कुली' (उमेश महादोषी), 'ढाढस' (नमिता सचान), 'किस्से कहानियों में' (विनीता राहुरीकर), 'कुली' (डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल), 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें' (सन्तोष सुपेकर), 'मजबूरियों के समाधान' (सतीश राठी), 'पहिये' (डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल), 'चलते फिरते कार्यालय' (राम मूरत 'राही'), आदि लघुकथाएँ कुलियों की इसी मजबूरी पर केन्द्रित हैं। इनमें से डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल की. 'कुली' और सन्तोष सुपेकर की 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें' न केवल संवेदनाओं की पुख्ता जमीन पर खड़ी हैं बल्कि ट्रीटमेंट की दृष्टि से भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। आधुनिकीकरण के चलते रोजगार छिन जाने के बावजूद इस आशा में कुलियों का प्रतिदिन स्टेशन पर आना कि कहीं भूले-भटके 'कुली' शब्द की मधुर टेर कानों में पड़ जाए। न भी पड़े तो भी इतने वर्षों से प्लेटफार्म से जो भावनात्मक जुड़ाव हो गया है वो तो अपनी जगह है ही। वही उन्हें बार-बार स्टेशन पर खींचकर ले आता है। इंजन की सीटी, चीं-चीं कर गाड़ियों का रुकना, प्लेटफार्म का शोर-शराबा वगैरह सुने बिना चैन कहाँ (कुली - डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल)। कमल कपूर की 'कुली दी गड्डी' में कुली से ऑटो ड्राइवर बने व्यक्ति को भी अपने कुली जीवन से इतना प्यार है कि वह अपने ऑटो का नाम ही 'कुली की गड्डी' रख लेता है और ड्रेस भी वही कुली वाली। इधर सन्तोष सुपेकर स्टेशनों पर बार-बार होने वाली उद्घोषणा 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें' का कुली की मनोव्यथा दर्शाने में खूबसूरत उपयोग करते हैं। लगातार ग्राहकी के अभाव में वह मानसिक रूप से टूट जाता है और ट्रॉली बेग लेकर चुपचाप निकलते यात्रियों को देखकर उसके मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ता है, 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें... इस स्टेशन पर कुली भी हैं'। इस अन्तिम वाक्य की मारकता से लघुकथा बेहद मार्मिक बन पड़ी है। कहना न होगा कि सन्तोष सुपेकर लोको पायलट रह चुके हैं और उन्होंने कुलियों के दुःख-दर्द बहुत नजदीक से देखे हैं। राम मूरत 'राही' भी अपनी लघुकथा 'चलते फिरते कार्यालय' में गहरी संवेदनात्मकता के साथ आधुनिक उपकरणों के चलते कुली की मनोव्यथा को अभिव्यक्त करने में कामयाब हुए हैं। अब यात्री कुली से बोझ नहीं उठवाते बल्कि केवल पूछताछ करते हैं। कुली को लगता है कि वह कुली न होकर चलता-फिरता पूछताछ कार्यालय बनकर रह गया है। कुली का व्यथित होकर स्टेशन मास्टर के पास जाकर पूछताछ कार्यालय में नौकरी पाने की गुहार करना आधुनिकता के दौर में कुली जीवन की विडम्बना को सशक्त तरीके से उजागर करता है।

यह सच है कि कई बार लघुकथा में आया मात्र एक वाक्य उसे ऊँचाइयों पर पहुँचा देता है, जैसे राधेश्याम भारतीय की लघुकथा 'कद' में। कुली का बेटा । स्टेशन मास्टर बन जाता है। प्लेटफार्म पर यात्रियों का बोझ ढोते पिता को यह खुशखबर सुनाकर उसे सामान सहित उठा लेता है। इस पर लेखक यों टिप्पणी करता है, 'उस दृश्य को देख ऐसा जान पड़ा मानो किसी ने आसमान को उठा आसमान से मिला दिया हो।' यह अन्तिम वाक्य इस लघुकथा का प्राण-तत्व है। वैसे अनिता रश्मि की लघुकथा 'प्रेरणा' में भी आई.ए.एस. बन गया बेटा दोस्तों के सामने इसका सारा श्रेय अपने पिता को, उनके पीठ के छालों को देता है। वस्तुतः कोई कुली नहीं चाहता है कि उसका बेटा भी उसी की तरह जिन्दगी भर बोझ ढोता रहे और यात्रियों की झिड़कियाँ सहे, चोर होने का कलंक झेले। इसीलिए 'कद' और 'प्रेरणा' के कुली पिताओं की तरह, नेतराम भारती की लघुकथा 'प्रण' का कुली भी अपने बेटे को पढ़ाने का संकल्प लेता है।

ट्रेन न चूक जाए इस चिन्ता में सिर पर बोझा लादे तेज चाल से चलते कुली पर सवारी के मन में चाहे उसके चोर होने का शक पैदा हो लेकिन यह वर्ग बेहद ईमानदार होता है। ये लोग खतरा मोल लेकर भी यात्री की मदद करने से नहीं चूकते। 'नेह की पोटली' (अंजु निगम), 'जान पर खेलकर' (आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर), 'मेहनताना' (कुँवर प्रेमिल), 'दो कुली' (मीरा जैन), 'अमीरी' (मधु जैन) आदि लघुकथाओं में इस मेहनतकश वर्ग का जो मानवीय चेहरा * उभरकर आया है वह अभिभूत करने वाला है। 'नेह की पोटली' और 'जान पर खेलकर' अपनी गहरी संवेदनशीलता के कारण पाठकों को देर तक याद रहेंगी। कई बार कुलियों को ऐसी सवारियाँ भी मिलतीं हैं जो मक्कार, काइयाँ और खुदगर्ज होती हैं और येन-केन-प्रकारेण उनका हक मारना चाहती हैं, जैसे कमल कपूर की 'शोषण', अनघा जोगलेकर की 'आत्मसम्मान', मृणाल आशुतोष की 'चेहरा', अनिल मकरिया की 'अहलकार' में।

अनिल मकरिया की 'अहलकार' का कुली इस मायने में भिन्न है कि वह अफसर यात्री की मक्कारी का जवाब होशियारी से देता है। कई सवारियाँ पर्याप्त संवेदनशील और कुली जीवन की मुश्किलों को समझते हुए उनसे सहानुभूति रखने वाली भी होती हैं। जैसे 'आज से पहले' (राम मूरत 'राही'), 'पहिये' (यशोधरा भटनागर), 'आखिरी कुली' (उमेश महादोषी), 'मिठास' (सतीश राठी) आदि।

इन लघुकथाओं में यात्रियों की मानवता के आलोक में कुछ देर के लिए ही सही कुलियों के मन में मिठास घुल जाती है।

परिस्थितियों से मजबूर होकर कुछ स्त्रियों को भी कुली-कर्म अंगीकार करना पड़ सकता है। वे किस प्रकार स्वाभिमानपूर्वक अपने कार्य को अंजाम देती हैं इस ओर भी कुछ लघुकथाकारों की नजर गई है। अनघा जोगलेकर की 'आत्मसम्मान', प्रदीप उपाध्याय की 'स्त्री स्वाभिमान', ऋचा शर्मा की 'लैम्प पोस्ट से वाई फाई तक', सन्ध्या तिवारी की 'बाजूबन्द', डॉ. वन्दना गुप्ता की 'उत्तराधिकारी' लघुकथाओं में इस बात की पड़ताल की गई है कि स्त्रियाँ किस प्रकार अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए कुली का जॉब पाने से लेकर इसे अंजाम देने तक का कार्य कुशलता से करती हैं। इनमें अनघा जोगलेकर की लघुकथा 'आत्मसम्मान' अपनी कतिपय विशेषताओं के कारण अलग से पहचानी जा सकती है। इसमें अभिजात्यवर्गीय धनाढ्य महिला का चरित्र यादगार बन पड़ा है। हाथ में जापानी पंखा, बार-बार साड़ी की चुन्नटें ठीक करना, ऊपर से सोने की चेन, घड़ी, कंगन का प्रदर्शन करती इस महिला द्वारा कुली लड़की को भारी-भरकम बॉक्स उठाने के बदले चन्द सिक्के देने का कंट्रास्ट लघुकथा को प्रभावी बनाता है। इधर लड़की का यह कहते हुए सिक्के लेने से इनकार करना कि मैं भिखारी नहीं कुली हूँ, उस मजबूर, गरीब, मेहनती लड़की के व्यक्तित्व को बहुत ऊँचाइयाँ प्रदान कर देता है। लघुकथा अपने शिल्प के कारण सशक्त बन पड़ी है। सन्ध्या तिवारी की 'बाजूबन्द' में लच्छी नाम की एक स्त्री अपने कुली पति की मौत के बाद उसका लाइसेन्स हासिल करने की जद्दोजहद करती है ताकि वह भी कुलीगिरी करके अपनी आजीविका चला सके। स्टेशन मास्टर को आरम्भिक ना-नुकुर के पश्चात् लच्छी की जिद के आगे झुकना पड़ता है। लेखिका ने बाँह पर बँधे बिल्ले की बाजूबन्द से तुलना करके लच्छी की भावनाओं को सटीक अभिव्यक्ति दी है। इस लघुकथा की विशेषता संवादों में स्थानीयता का पुट और लच्छी का दृढ़ संकल्प है। इधर डॉ. वन्दना गुप्ता की 'उत्तराधिकारी' इस बात की वकालत करती है कि बेटी यदि काबिल है तो पिता के बाद वह कुली-बिल्ला की वाजिब हकदार है। 'लैम्प पोस्ट से वाई फाई तक' (ऋचा वर्मा) में भी एक युवती कुली-कर्म करती है, परन्तु यह लघुकथा इस विषयक अन्य लघुकथाओं से जरा अलग धरातल पर खड़ी है। युवती सिर्फ पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि स्टेशन पर सुरक्षित रहते हुए यहाँ उपलब्ध मुफ्त वाई फाई का उपयोग अपनी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में कर सके, इसलिए कुली कर्म को अंगीकार करती है। यह लघुकथा आज की पीढ़ी के लिए काफी प्रेरक बन पड़ी है।

कनक हरलालका की 'राह की चाह' एवं सूर्यकान्त नागर की 'सियासत' अपने-अपने विषय की अकेली लघुकथाएँ हैं, जो संकलन की शेष लघुकथाओं से अलग राह पर चलती हैं। कनक की नजर एक किन्नर पर पड़ती है जो भीख माँगने की बजाय कुली का कार्य करना पसन्द करता है। प्रारम्भिक ना-नुकुर के पश्चात् अन्ततः उसकी लगन देखते हुए कुली वर्ग उसे स्वीकार कर ही लेता है। सूर्यकान्त नागर कुली यूनियन के नेताओं का अलग ही चेहरा सामने लाते हैं जो कुछ-कुछ अमानवीय है। ये लोग सीधे-सादे रामचरण के कार्य में इसलिए रोड़े अटकाते हैं क्योंकि वह कुली के धन्धे में एसोसिएशन माध्यम से न आकर सीधा स्टेशन मास्टर से नियुक्ति पाता है। यह लघुकथा कुलियों की अन्दरूनी राजनीति का अच्छा जायजा लेती है।

राम मूरत 'राही' का चयन अच्छा है। उनके कार्य में परिश्रम एवं ईमानदारी स्पष्ट दिखाई देती है। कुली जीवन के प्रति उनकी सहानुभूति इतनी गहरी है कि उन्होंने यह पुस्तक तमाम पुरुष एवं महिला कुलियों को समर्पित की है।

अन्त में, मैं अपनी बात दुष्यन्त कुमार के इस शेर के साथ समाप्त करना चाहूँगा-

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा। 

मैं सज्दे में नहीं था आपको धोका हुआ होगा।।

माधव नागदा

वरिष्ठ कथाकार और समालोचक

लालमादड़ी (नाथद्वारा)-313301

चलभाष 98295-88494

अनुक्रम

1. अनघा जोगलेकर / आत्मसम्मान

2. अनिल मकरिया / अहलकार

3. अनिता रश्मि / प्रेरणा

4. डॉ. अंजू दुआ जैमिनी / काँधे

5. अंजू निगम / नेह की पोटली

6. आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर / जान पर खेलकर

7. उमेश महादोषी / आखिरी कुली

8. ऋचा वर्मा / लैम्प पोस्ट से वाई-फाई तक

9. कनक हरलालका / राह की चाह

10. कमल कपूर / शोषण, कुली दी गड्डी

11. डॉ. कुँवर प्रेमिल / मेहनताना

12. ज्योत्स्ना कपिल / अच्छे दिनों के बीच, मन के जीते जीत

13. ज्योति जैन / बोझ

14. देवेन्द्र सिंह सिसोदिया / सहारा, भारहीन

15. दिव्या शर्मा / ग्लानि

16. नमिता सचान / ढाँढस, यात्राएँ

17. नीरजा कृष्णा / अतिथि देवो भव

18. नेतराम भारती / प्रण

19. पवन जैन / दोपहर की नींद

20. पूनम 'कतरियार' / दर्द

21. प्रदीप उपाध्याय / आँखें खुली, स्त्री स्वाभिमान

22. प्रेरणा गुप्ता / सन्तो

23. ब्रजेश कानूनगो / स्टीम इंजिन,अदृश्य बोझ

24. मधु जैन / अमीरी

25. मिन्त्री मिश्रा / मेहनत की कमाई

26. मीरा जैन / दो कुली

27. मृणाल आशुतोष / चेहरा

28. यशोधरा भटनागर / पहिये

29. डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल / कुली

30. राधेश्याम भारतीय / कद, पहिये

31. राजेन्द्र वामन काटदरे / कुली का बेटा

32. डॉ. राम कुमार घोटड़ / बकरा मण्डी, बोझिल-सितारे

33. राम मूरत 'राही' / आज से पहले, चलते फिरते कार्यालय

34. डॉ. रंजना जायसवाल / कुली

35. डॉ. वन्दना गुप्ता / उत्तराधिकारी

36. वर्षा गर्ग / ईनाम

37. विनीता राहुरीकर / किस्से कहानियों में

38. विनीता मोटलानी / अभिमान

39. शर्मिला चौहान / अच्छे दाग

40. डॉ. शील कौशिक / सहानुभूति

41. सन्तोष सुपेकर / यात्रीगण कृपया ध्यान दें

42. सन्ध्या तिवारी / बाजूबन्द

43. सतीश राठी / मजबूरियों के समाधान, मिठास

44. सविता मिश्रा 'अक्षजा' / सम्मान

45. सीमा व्यास / बूँदों का बोझ

46. सुधा भार्गव / जब हाथ से हाथ मिले

47. डॉ. सतीशचन्द्र शर्मा 'सुधांशु' / कुली

48. सूर्यकान्त नागर / सियासत, कुलीन

49. स्नेह गोस्वामी / उदास चेहरे

राम मूरत 'राही'

जन्मतिथि : 08 अक्टूबर 1959 (शैक्षणिक अभिलेखों के अनुसार)

जन्मस्थान : ग्राम वासा (पच्छू डीह) जिला बस्ती (उ.प्र.)

माता : श्रीमती सोना देवी चौधरी (स्व.)

पिता : श्री राम आधारे चौधरी

लेखन : 1980 से सतत बाल कहानियाँ, पत्र लेखन, गज़लें, कविताएँ, लघुकथाएँ, व्यंग्य, समीक्षा एवं संस्मरण लेखन में सक्रिय। प्रकाशन देश-विदेश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में एवं अनेक लघुकथा एवं काव्य संकलन में साझेदारी। प्रकाशित कृतियाँ - 'अन्तहीन रिश्ते' (लघुकथा संग्रह, 2019) 'भूख 2021) 'इंजेक्शन' (लघुकथा संग्रह, 2022) 'तेरे शहर में' (ग़ज़ल संग्रह, 2022) 'फ्लैट 2019) 'भूख से भरा पेट' (लघुकथा संग्रह, नम्बर इक्कीस' (लघुकथा संग्रह, 2024)

सम्पादन : 'अनाथ जीवन का दर्द' (लघुकथा संकलन, 2021) श्री सन्तोष सुपेकर जी के साथ।

अनुवाद : अनेक लघुकथाएँ अंग्रेजी, पंजाबी, उड़िया, गुजराती, नेपाली, बांग्ला, मराठी, उर्दू, मलयालम, असमिया, मैथिली भाषाओं तथा मालवी, गढ़वाली, भोजपुरी, अवधी चोली में अनूदित।

विशेष : लघुकथा 'स्वाभिमानी', 'इंसान नहीं' एवं 'मेरा तीर्थ' पर लघु फिल्म निर्मित। लघुकथा 'अनोखा जवाब', 'चौथी मीटिंग' एवं 'मेरा तीर्थ' यू ट्यूब पर प्रसारित। लघुकथा 'माँ के लिए' एवं 'मेरा तीर्थ' का नेपाली भाषा में अभिनयात्मक वाचन।

सम्मान : अखिल भारतीय माँ शकुन्तला कपूर स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता 2018-19 फरीदाबाद (हरियाणा) का 'श्रेष्ठ लघुकथा' का पुरस्कार। क्षितिज साहित्य मंच, इन्दौर द्वारा 2019 में 'लघुकथा विशेष उपलब्धि सम्मान'। 'सामाजिक आक्रोश' समाचार पत्र, सहारनपुर (उ.प्र.) द्वारा आयोजित अ.भा. लघुकथा प्रतियोगिता में दो बार पुरस्कृत। कथादेश अ.भा. लघुकथा प्रतियोगिता-12 (नयी दिल्ली) में पुरस्कृत। विश्व हिन्दी रचनाकार मंच (दिल्ली) द्वारा 'अटल हिन्दी सम्मान'-20201 साहित्य संवेद ग़ज़ल प्रतियोगिता-2020 में पुरस्कृत। सरल काव्यांजलि साहित्यिक संस्था उज्जैन (म.प्र.) द्वारा 'साहित्य सम्मान-2021', भाषा सखी संस्था, इन्दौर द्वारा 'साहित्य भूषण सम्मान-2021। कहानीकार स्व. कमलचन्द वर्मा की स्मृति में 'मालव मयूर' सम्मान-2021। 'अहा! जिन्दगी' पत्रिका (दैनिक भास्कर) में लघुकथाएँ चार बार पुरस्कृत। लघुकथा संग्रह 'भूख से भरा पेट' को क्रमशः लघुकथा शोच केन्द्र भोपाल द्वारा 'लघुकथा श्री सम्मान-2022' एवं जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'जयपुर साहित्य सम्मान-2022'। लघुकथा संग्रह 'इंजेक्शन' को क्रमशः इन्दौर सम्भाग पुस्तकालय संघ द्वारा 'कृति कुसुम सम्मान-2023' एवं प्रज्ञा साहित्यिक मंच रोहतक (हरियाणा) द्वारा 'प्रज्ञा वैश्विक लघुकथा विशिष्ट सेवी सम्मान-2023'। ग़ज़ल संग्रह 'तेरे शहर में' को क्षितिज साहित्य संस्था, इन्दौर द्वारा 'क्षितिज कृति सम्मान-2023। श्रीमती निर्मला देवी भारद्वाज स्मृति लघुकथा सम्मान-2023, सिरसा (हरियाणा) 'उत्कृष्ट लघुकथा अलंकरण' माँ शकुन्तला कपूर स्मृति सम्मान-2024, फरीदाबाद (हरियाणा)

सम्पर्क :

168-बी, सूर्यदेव नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)

 चलभाष - 94245-94873

ई-मेल rammooratrahi@gmail.com

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