समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद (आलोचना) / बलराम अग्रवाल (संपादक)
प्रेमचंद की लघ्वाकारीय कथाएँ
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बद्रीसिंह भाटिया (04-7-1947—24-4-2021) |
# बद्री सिंह भाटिया
लघुकथा के वर्तमान परिदृश्य से प्रतीत होता है कि यह अपनी विकास यात्रा पर उत्तरोत्तर अग्रसर है। गति धीमी होने का कारण पहले कि इसका आकार छोटा हैं पत्र–पत्रि़काओं के संपादकों को यह ‘फीलर’ की बजाए फिल्लर है। गद्यात्मक रूप होने के कारण यह कविता की तरह भी प्रस्तुत नहीं की जा सकती। चूँकि आकार छोटा है इसलिए कुछ रचनाकार इसके प्रस्तुतीकरण में मनमर्जी का प्रयोग भी कर रहे हैं। संभवत: यह कारण रहा हो कि वे मात्र लिखने के लिए लिख रहे हैं। विधा को या उसके मान को समक्ष रखकर नहीं लिखा जा रहा। यानी कि यह लेखन सायास बनकर रह गया है कि–इसमें क्या है, ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। चूँकि इसे ‘कथा’ नाम से अभिहित किया गया है अतएव यह चूल्हे के पास सुनाई जा रही बोध कथा, हितोपदेश के बात स्पष्ट करने के प्रसंग और पौराणिक प्रेरक प्रसंगों को भी अपने में समेटने लगी।
खैर, लघुकथा हमारे समाज में मौखिक और लिखित रूप में लंबे समय से विद्यमान है। मानव–मन की परिणति मनोरंजन की रही है। वह थोड़े समय में यो बिना दिमाग हिलाए मनोरंजन चाहता है जो उसे दृश्य व श्रव्य विधाओं से प्राप्त होता है। पहले वह इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आयोजित धार्मिक ग्रंथों के प्रवचन सुनने ओर कभी रात को आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में जाया करता था। सर्दियों की लंबी रातें काटने के लिए अँगीठी या चूल्हे के पास भी गप और कथा की प्रक्रिया चलती रहती थी। इन प्रसंगों में कालान्तर में शिक्षा के प्रसार से लिखित विधा ने कदम रखा। पाठक अब समय निकालकर वाचन करने लगा। इधर जो पत्र–पत्रिकाएँ अपनी सज–धज के साथ पाठ्य–सामग्री प्रस्तुत करने लगीं, उनमें लघुकथा कविता की तरह एक कोने में, किसी लंबी रचना के बीच बाक्स में स्थान प्राप्त करने लगी। पाठक ने पहले उसे ही पढ़ना आरम्भ किया मनोरंजन हुआ। लंबी रचना दूसरे पर्याप्त समय के लिए छूट गई। कविता भी उसकी दूसरी पसन्द बन गई ;क्योंकि उसमें उसे अपने मन की गहराई तक ले जाना था । इस प्रकार आज लघुकथा पठन-पाठन की प्रमुख और गम्भीर कथा विधा के रूप में उभरी है । जहाँ तक आलोचकों द्वारा इसे पूर्ण रूप से स्वीकार न करने का प्रश्न है, यह सम्भवत: उनकी एकांगी सोच का प्रतिफल है । और साथ में वे रचनाकार भी कारण हैं , जो इसे समय काटने माध्यम समझकर या प्रेरक प्रसंग मानकर ही रचनारत हैं। कोई भी विधा अपने आरंभ पर ही टिकी नहीं रहती, सामाजिक परिवर्तन उसे नई दिशा देते रहते हैं। कई बार तो रचना वर्तमान समय से आगे भी चल रही होती है और जब समय उस तक पहुँचता है ,तब याद आता है कि यह तो हम पहले पढ़ चुके है।
लघुकथा आज एक स्वतंत्र कथा–विधा के रूप में उभरकर सामन आई है ;परंतु उन्होंने तब लघुकथा–रचनाएँ प्रस्तुत कर दी थीं जब इस विधा का स्वतंत्र रूप नहीं था। यानी कहानी का प्लाट अपना स्वरूप,भाषा शैली स्वयं निर्धारित करता है। कथानक अपना विस्तार स्वयं निर्धारित करता है। संभवत: तभी उन्होंने अपनी एक लंबी कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ के अंतिम अंश को अलग कथा ‘बाँसुरी’ के रूप में स्वीकार कर प्रकाशित करवाया।
इन कथा रचनाओं से गुजरते हुए तथा वर्तमान लघुकथा के आधार पर खरी उतरती हैं उनमें बाँसुरी, बीमार बहिन, राष्ट्र का सेवक, बंद दरवाज़ा, बाबाजी का भोग हैं। इनमें दरवाज़ा कहानी को भी शामिल किया जा सकता है ;परंतु वह एक निश्चित समय का अथवा बीते समय का जिक्र नहीं है। उसमें संवेदना की प्रचुरता है। वह समय का प्रहरी है तथा हर समय भीतर और बाहर के संसार से परिचित है। प्रेमचंद ने दरवाज़े की स्थिति और पीड़ा का अच्छा वर्णन किया है। यह कहानी लंबी नहीं हो सकती ; क्योंकि जितना आवश्यक था उतने में ही दरवाजे की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। लघुकथा में जो कौतूहल, प्रभावान्विति अथवा मनोवैज्ञानिकता परिलक्षित होती है वह ‘दरवाज़ा’ में नहीं है। पाठोपरान्त इतना ही लगता है कि हाँ ऐसा तो है। और प्रभाव समाप्त।
‘बाँसुरी’ का कलेवर छोटा है। उदास मन को कोई ऐसा संगीत उल्लासमय बना देता है जो स्वरबद्ध और पात्र की समझ का हो। ऐसे ही संगीत का जिक्र प्रेमचंद ने ‘बाँसुरी’ कहानी में किया है। यह कहानी लघुकथा विधा पर फिट तो होती है परंतु एक खटक भी पैदा करती है कि कहीं कुछ शेष रह गया है। संभवत: यह पाठक के मनन के लिए हो।
‘बीमार बहिन’ में प्रेमचंद बाल–मानसिकता को प्रकट करते हैं। स्कूल जाते बच्चे की जितनी समझ है ,उसे प्रकट किया गया है। अपनी प्यारी बहन के लिए वह भी कुछ करना चाहता है, करता है। माँ–बाप, भगवान से उसे ठीक करने की प्रार्थना करते हैं तो वह मंदिर में ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसकी बहन को जल्द ठीक कर दे। एक क्रम प्रवाह और स्थिति कहानी को पूर्ण करती जाती है।
यहाँ यह जोड़ना आवश्यक होगा कि लघुकथा में जो वर्णन हम कर रहे हैं ,वह बेशक किसी बीते समय का है; परंतु प्रस्तुति का समय होना चाहिए। यानी वह क्षण पकड़ा जाए जो उसे इधर–उधर न होने दे। जैसा कि ओशो कहते हैं कि ईश्वर को प्राप्त करने लिए उस सूक्ष्म क्षेत्र को पकड़ा जाए; जो अनुभूत कराता है कि ईश्वर तीन लोकों में दिख गया, कि यह रहा ईश्वर।
‘राष्ट्र का सेवक’ अपनी प्रभावान्विति में एक बेजोड़ रचना है। यह उस समय की कहानी है जब गाँधी जी जातिविहीन समाज की कामना करनेलगे थे। वह समय ऐसे आदर्शों का था जो दूसरे को दिखाने में अच्छे लगते थे। यहाँ यह कहा जा सकता है कि गीता के प्रवचन सुनाने में अच्छे लगते हैं। वे परपीड़ाहारी लगते हैं; परंतु जब स्वयं पर गुजरती है तो बहुत पीड़ा होती है। ‘राष्ट्र का सेवक’ उस समय के दलित के साथ बराबरी के बर्ताव की बात करने के साथ उसे मंदिर में ले जाता है। उसकी सब जगह जय–जयकार होती है; परंतु जब उसकी अपनी बेटी उस लड़के से शादी की बात करती है तो ‘राष्ट्र का सेवक’ चुप होकर रह जाता है।
‘बंद दरवाजा’ बाल–मानसिकता की कहानी है। शिशु की प्राथमिकताएँ समय–समय पर कैसे बदलती हैं ,यह प्रेमचंद का वर्ण्य विषय है। इसके माध्यम से हम जीवन बड़े फ़लक को भी देख सकते हैं। जीवन में भी हमारे सरोकार उसी प्रकार बदलते हैं। इस कहानी में बच्चा पहले चिडि़या की ओर लालायित होता है, मगर जब वह उड़ जाती है ,तो उसका मन टूट जाता है। वह फिर अपनी देख–रेख वाले से या माँ से फरियाद करता है। उसे नया प्रलोभन दिया जाता है। उसे चिड़िया के बाद खोंचे वाले की आवाज सुनाई देती है वह उस ओर बढ़ता है परंतु वह आवाज भी विलुप्त हो जाती है–वह रोता है। फिर माँ से फरियाद। और अतत: उसे जब फांउटेनपेन दिया जाता है तो वह चहक उठता है। इस बीच हवा से एकाएक दरवाज़ा बंद हो जाता है। बंद दरवाज़े का आभास और आवाज उसे चौंकाते हैं और भीतर एक डर पैदा करते हैं। वह पेन छोड़कर रोने लगता है। वह मनुष्य की हार का भी संकेत है।
प्रेमचंद ने बाल–मानसिकता का मनोवैज्ञानिक बेहतरीन वर्णन किया है। साथ में यहाँ यह भी कहना समीचीन होगा कि उन्होंने समाज के इस छोटे और किनारे वाले वर्ग को अपना वर्ण्य–विषय बनाया। आज की लघुकथाओं में आगे ऐसा होगा, ऐसा सोचा जा सकता है।
‘बाबाजी का भोग’ भी लघुकथा के पैरामीटर पर खरी उतरती है। कथानक में गहनता है तथा समाज में व्याप्त रूढि़यों और पाखंड पर पूर्ण प्रहार है। भगवे वस्त्र धारक या इसी पंक्ति के लोग किस प्रकार गरीब लोगों का शोषण अपनी बात मनवाकर करते हैं, यह इस कहानी में बखूबी देखा जा सकता है।
जो लघु आकार की रचना होकर भी लघुकथा विधा में नहीं आ सकतीं उन कथा रचनाओं को इस प्रकार रखा जा सकता है–देवी, दरवाज़ा, कश्मीरी सेब, दूसरी शादी, ग़मी, गुरुमंत्र, यह भी नशा वह भी नशा, शादी की वजह और ठाकुर का कुआँ। इनमें देवी, कश्मीरी सेब, गमी, कहानी विधा की बजाए व्यंग्य की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। बल्कि ये गढ़ी गई–सी कहानियाँ हैं। प्रेमचंद को उस समय एक खयाल आया होगा कि मुफ्त में मिली चीज का मानव के लिए क्या मूल्य है; सो उन्होंने तीन पात्र गढ़े और ‘देवी’ लिख दी। यहाँ एक स्त्री का पार्क में रात को बैठना और विपन्न होकर दस का नोट भिखारी को देना कुछ उचित नहीं लगा। उस मसय दस रुपये का बहुत महत्त्व था; और यह भी कि राह में जो मिला वह अपना। हमारे यहाँ कहावत है–‘बाटा मिलेया बाबे रा खाटेया।’ यह यदि आज होता तो माना जा सकता कि कहीं कागज में कोई बम न हो।
‘कश्मीरी सेब’ तो सब्जी मंडी में हुई ठगी की गप है। ‘ग़मी’ में भी एक ऐसे विषय को लिया गया है जो ग्राह्य नहीं होता। यहाँ एक ऐसी ‘ग़मी’ एक ऐसा शब्द है जो श्रोता को परेशान कर देता है। परंतु इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने एक संदेश दिया कि अधिक संतान आदमी को अपाहिज कर देती है। आदमी का मौज मनाने का समय छिन सकता है।
‘यह भी नशा, वह भी नशा’ कहानी भी एक घटना को ही प्रकट करती है। इसमें आदमी की छोटी–बड़ी सोच को प्रकट किया गया है। दोनों घटनाएँ कथा–समय में अलग–अलग हैं, चिंताएँ भी उसी रूप में समीकरण के प्रश्न की तरह है। यह कहानी भी ‘कश्मीरी सेब’ की तरह एक समाचार स्टोरी के मानिंद हो गई। कहीं यह अकबर–बीरबल विनोद की तरह भी लगती है जबकि लघुकथा एक निश्चित स्थिति और समय को प्रकट कर कहीं मन के भीतर जाकर एक टंकार प्रकट करती है।
लघुकथा को अपने आकार के साथ समाचार और चुटकुले से बचना होगा। हास्य यदि हो भी तो वैसा, जो साथ में पाठक की सोच को बढ़ाए, सिर्फ़ हवा के झौके की तरह न निकल पाए। कहानी का समाचार होना कहानी की स्थिति को अथवा घटना को बयान कर क्षणिक संवेदना को जन्म देना होता है। उसमें वे विवरण नहीं होते जो कहानी में पाठक को अपने साथ प्रवाहित करते रहते हैं या जिनसे वह जुड़ाव महसूस करता है।
‘गुरुमंत्र’ और ‘शादी की वजह’ समाज के अलग पहलू हैं। इन्हें लघुकथा के सांचे में रखना उचित नहीं होगा। कारण यह कि इन कथाओं को एक समय में विनोदात्मक वर्णन हेतु कहा गया है। समाज में प्रतिदिन कितना कुछ होता रहता है, सारा कुछ कहानी या लघुकथा नहीं बन पाता। कुछ हुआ, कहा और चला गया। न कोई टीस न संवेदना और न बहस।
‘ठाकुर का कुआँ’ प्रेमचंद की चर्चित कहानी है। इसमें लघुकथा के गुण विद्यमान हैं परंतु यहाँ आकार और तत्संबंधी संवेदना कथा को बड़ी कहानी बना देता हैं। मगर यह लघुकथा और कहानी के बीच एक पैंडुलम की मानिन्द है।
‘दूसरी शादी’ में एक लंबा फलक है। इस प्रकार यह आकार में बेशक छोटी है परंतु वर्णन का समय और स्थिति में व्यापकता है।
लघुकथा आज एक अलग विधा के रूप में सामने आई है। इसका साँचा बनता जा रहा है। अपने आकार की वजह से यह अभी भी संपादकों के लिए फिलर की ही पर्याय बनी है। यत्र–तत्र कुछ पत्रिकाएँ इस अलग भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इधर कुछ रचनाकार जीवन के प्रेरक प्रसंगों को भी लघुकथा के आकार के दृष्टिगत इसकी श्रेणी में रखने लगे हैं जो अनुचित है तथा विधा के प्रति उनकी अनभिज्ञता का प्रमाण है। रचनाकारों को स्वयं अपने कर्म को परखकर मात्र लिखने के लिए ही नहीं करना चाहिए ;बल्कि पूरी संलग्नता के साथ जुड़ाव महसूस कर कहानी, लंबी कहानी के अनुरूप संवेदना को थोड़े से शब्दों में गहनता के साथ प्रस्तुत कर पाठक की भावना को अपने रचनाकर्म के साथ जोड़ना चाहिए।
यहाँ रचनाकारों को यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि साहित्य–समाज का एक ऐसा वर्ग भी है जो उनके कर्म को एक कसौटी या छुरी–चाकू पैना करने वाले की ‘साण’ पर भी परखता है। यह रचना की कमजोरी ही है जो उसे उद्वेलित नहीं कर पा रही और आलोचक उसे पढ़ते–सुनते ही मुँह बनाकर रह जाता है।
प्रेमचंद की इन रचनाओं को लघुकथा की पाठकीय कसौटी पर ही देखा गया है। जहाँ तक व्यक्तिगत सोच का सवाल है मुझे यह विधा काफी कठिन कर्म लगती है।
'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' में संकलित कथाकार बद्रीसिंह भाटिया द्वारा लिखित उपर्युक्त लेख 'लघुकथा डॉट कॉम' अगस्त 2025 में प्रकाशित किया गया है। संदर्भित सभी लघुकथाएँ क्योंकि 'दरवाज़ा' में भी संकलित थीं, इसलिए इसे वहाँ भी उद्धृत किया गया है। बहरहाल, यह एक संग्रहणीय आलेख है। 'लघुकथा डॉट कॉम' का धन्यवाद।
समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद (आलोचना)
बलराम अग्रवाल (संपादक)
ISBN : 81-88913-34-0
मूल्य : दो सौ अस्सी रुपये (₹ 280.00)
प्रकाशक : ग्रंथ सदन
27/109ए/3 (भूतल), पांडव रोड शंकर गली के सामने, ज्वाला नगर शाहदरा, दिल्ली-110032
संस्करण : प्रथम, 2012
सर्वाधिकार : सुरक्षित
अक्षरांकन एवं मुद्रण : रचना इंटरप्राइजिज, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
SAMKALIN LAGHUKATHA AUR PREMCHAND ed. by Balram Agarwal
अनुक्रमणिका
भूमिका : दरवाज़ा खुलता है
पहला कपाट : प्रेमचंद की लघु-आकारीय कथा-रचनाएँ
बाँसुरी / बीमार बहिन / राष्ट्र का सेवक / देवी / बंद दरवाज़ा / दरवाज़ा / बाबाजी का भोग / कश्मीरी सेब /दूसरी शादी / ग़मी / गुरु-मंत्र / यह भी नशा, वह भी नशा /शादी की वज़ह / ठाकुर का कुआँ।
दूसरा कपाट : समकालीन लघुकथा-विमर्श
प्रेमचंद की लघुकथाएँ : उल्लेख आवश्यक : कमल किशोर गोयनका
प्रेमचंद और लघुकथा विमर्श : भगीरथ
लघुकथा-रचनाप्रक्रिया और प्रेमचंद : डॉ. सतीश दुबे
पूर्व सदी में भी दृष्टि आधुनिक : सूर्यकांत नागर
प्रेमचंद बनाम समकालीन लघुकथा : डॉ. अशोक भाटिया
प्रेमचंद : लघुकथा की कसौटी पर : कृष्णानंद कृष्ण
प्रेमचंद की लघुकथाएँ : एक दृष्टि : डॉ. सतीशराज पुष्करणा
प्रेमचंद और यथार्थवादी परंपरा : कमल चोपड़ा
प्रेमचंद की लघु रचनाएँ : श्याम सुंदर अग्रवाल
प्रेमचंद : लघुकथा के दायरे में : डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
कुछ रचनाएँ अच्छी लघुकथाएँ : डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ
प्रेमचंद की लघुकथाएँ : सुभाष नीरव
प्रेमचंद और लघुकथा-अवधारणा : रूपसिंह चंदेल
प्रेमचंद की कथादृष्टि : संदर्भ लघुकथाएँ : रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
प्रेमचंद : संवेदना और संप्रेषण : डॉ. व्यासमणि त्रिपाठी
लघुकथा के निकष पर प्रेमचंद : नरेंद्र प्रसाद 'नवीन'
कथात्मक रचनाओं की श्रेष्ठ भाषा : डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र
वर्तमान लघुकथा की आधारभूमि : डॉ. शैल रस्तोगी
प्रेमचंद : लघुकथा के निकष पर : डॉ. पुष्पा जमुआर
भारतीय संस्कृति की सजीवमूर्ति : हारून रशीद 'अश्क'
प्रेमचंद : लघुकथापरक अध्ययन : डॉ. कुलदीप सिंह 'दीप'
प्रेमचंद : लघुकथा संदर्भ : डॉ. हरमहेन्द्र सिंह बेदी
लघुकथा की पौध : वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
प्रेमचंद की लघ्वाकारीय कथाएँ : बद्री सिंह भाटिया
परख की कसौटी : पृथ्वीराज अरोड़ा
समय व संस्कृति के महत्वपूर्ण कथाकार : डॉ. शिवनारायण
प्रेमचंद की लघुकथाएँ : एक अवलोकन : रामयतन यादव
प्रेमचंद की लघुकथाएँ : बलराम अग्रवाल
लघुकथा : प्रकार, प्रविधि और भाषा : गौतम सान्याल
भूमिका
दरवाज़ा खुलता है
भारतीय कथा-साहित्य को आधुनिक रूप-आकार देने में प्रेमचंद को अगुआई से कोई इंकार नहीं कर सकता। गद्य कथा-साहित्य में समय की नब्ज को चलता रखने की जो नींव उन्होंने डाली, उसके कारण वे वर्तमान और भावी तमाम कथा-पीढ़ियों के कथा-पूर्वज बने रहेंगे।
लघुकथा-रचना से जुड़े सैद्धांतिक और व्यवहारिक विचार अब तक अनेक लेखों में प्रस्तुत किए जा चुकने के बावजूद भी अपरिचित-से ही हैं। भ्रम की अनेक स्थितियाँ लघुकथा से विशेषतः नए जुड़ने वाले न सिर्फ पाठकों बल्कि कथाकारों और आलोचकों के मानस पर भी छाई हुई हैं। हममें से अनेक लोग ऐसे भी हैं जो किसी भी तरह की भ्रमपूर्ण स्थिति से जूझकर उसे साफ करने की कवायद में कूद पड़ने को मूर्खता से अधिक कुछ नहीं समझते; लेकिन बहुत-से ऐसे भी हैं जो उधर ले जाते हैं कश्ती, जिधर तूफान होते हैं।
अवसर था—डॉ. अशोक भाटिया द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन 'निर्वाचित लघुकथाएँ' के लोकार्पण समारोह तथा 'प्रेमचंद और लघुकथा विमर्श' विषय पर विचार गोष्ठी का। अध्यक्ष की हैसियत से बोलते हुए कथाकार राजेन्द्र यादव ने लघुकथा के आलोचना-पक्ष पर भी काम करने की जरूरत पर बल दिया। हालांकि ऐसा नहीं था कि लघुकथा-आलोचना पर कोई किताब उनका वक्तव्य देने तक आई ही न हो। श्रीयु्त् कृष्णानंद कृष्ण, डॉ. कमल किशोर गोयनका, डॉ. सुरेश गुप्त आदि की एकल तथा नन्दल हितेषी व धीरेन्द्र शर्मा, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, भगीरथ, बलराम, डॉ. सुरेश चंद्र गुप्त, रोशनलाल सुरीरवाला व प्रभाकर शर्मा, मुकेश शर्मा आदि द्वारा संपादित पुस्तकों में लघुकथा के आलोचना प्रयास सामने आ चुके थे; तथापि इतना अवश्य था कि इस पर गम्भीरतापूर्वक काम करने को आवश्यकता बनी हुई थी और अभी भी बनी हुई है। मेरे द्वारा संपादित प्रेमचंद की समस्त छोटी कहानियों का संकलन 'दरवाज़ा' भी उन्हीं दिनों बाजार में आया था। शायद इसीलिए यादवजी की सलाह ने मेरे मन में तुरंत आकार लेना शुरू कर दिया। 'दरवाज़ा' की प्रथम 14 कहानियों को, संदर्भ के तौर पर जिन्हें 'पहला कपाट' के अंतर्गत इस पुस्तक में स्थान दिया गया है, लघुकथा-आलोचना की समकालीन दृष्टि से देखने परखने के लिए मैंने कहानी व लघुकथा आलोचना से जुड़े अनेक विद्वज्जनों को भेज दिया। उनके साथ संलग्न सवालों का रूप लगभग यह था कि—
1. प्रेमचंद की प्रस्तुत 14 लघु-आकारीय कहानियों में से किन रचनाओं को तात्विक दृष्टि से लघुकथा की श्रेणी में रखा जा सकता है और किन को नहीं? कारण सहित बताएँ।
2. इन रचनाओं में ऐसा क्या है, जो समकालीन लघुकथा के सौष्ठव, गरिमा और मान्यता के अनुकूल नहीं है?
3. इन रचनाओं में ऐसा क्या है, जो समकालीन लघुकथा में अपेक्षित है, परंतु आम तौर पर है नहीं?
यहाँ यह बता देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि प्रेषित किसी भी रचना के प्रति मेरा यह आग्रह नहीं था कि उक्त रचना (मेरे मन्तव्य के अनुसार) लघुकथा कही जाने योग्य नहीं है इसलिए इसे प्रेषित न किया जाए अथवा उक्त रचना तो कहानी के तौर पर पहले से ही अतिचर्चित है, इसे इसलिए लघुकथा-विमर्श में शामिल न किया जाए। नहीं, किसी भी आग्रह को पालकर मैं नहीं चला सिवा इसके कि मैंने आकार में अपेक्षाकृत छोटी कहानियों को ही इस आयोजन में शामिल करने योग्य माना। कारण, 'लघुकथा' की प्राथमिक पहचान उसका कायिक आकार ही है, तात्विक दृष्टि से 'लघुकथा' होने के बावजूद अपेक्षाकृत लम्बी कथा-रचनाओं पर पाठक आकारगत छोटी कथा-रचनाओं को पढ़ लेने के बाद ही नजर डालता है। 'ठाकुर का कुआँ' को 'निर्वाचित लघुकथाएँ' के प्रारंभ में प्रस्तुत विकास नारायण राय के लेख 'बराबरी वाले प्रेमचंद' में एक लघुकथा के तौर पर उद्धृत किया गया है। उससे पहले 'सहकार संचय' (प्रेमचंद विशेषांक, जुलाई 1997) में मैं तथा भगीरथ इस पर अपनी लघुकथापरक टिप्पणियाँ दे चुके थे। बेशक, यह कहानी है लेकिन एकदम अलग कलेवर की। राय साहब की दृष्टि ने हम दोनों के ही मत को थोड़ा अलग ढंग से पुष्ट किया था अतः उनकी दृष्टि को सम्मान देते हुए 'ठाकुर का कुआँ' को इस बहस में सम्मिलित करना सर्वथा उचित लगा। इस रचना के बारे में डॉ. अशोक भाटिया की टिप्पणी को राय साहब की टिप्पणी के आलोक में आसानी से समझा जा सकता है।
प्रेमचंद के काल में लघुकथा नहीं थी, न ही अपनी या किसी अन्य कहानीकार की भी किसी कहानी को 'लघुकथा' कहने का विचार उनके या उनके किसी समकालीन के मस्तिष्क में कभी उभरा था। बकौल डॉ. सतीशराज पुष्करणा व मित्रमंडली—इस शब्द का अन्वेषण छोटी कथा रचनाओं के संदर्भ में सर्वप्रथम 1942 में हुआ (यानी कि प्रेमचंद के निधन के छह वर्ष बाद)। यह सब जानते हुए भी कि लघु-आकार की गद्य कथा-रथना के निमित्त प्रेमचंद के काल में 'लघुकथा' शब्द प्रचलन में नहीं था, मैंने उनकी इन छोटी कहानियों पर लघुकथापरक विचार माँगने की धृष्टता क्यों की? दरअसल, मेरा मानना यह रहा कि 'समकालीन लघुकथा' की समीक्षा एवं आलोचना के बिंदु उसकी प्रकृति, रूप, आकृति एवं भावभूमि के आकलन के माध्यम से तो तय किए ही जा रहे हैं, लघुकथा और आकारगत छोटी कहानी के बीच अंतर को समझने-समझाने के लिए किसी समर्थ कथाकार को न सिर्फ लघु-आकारीय बल्कि लघुकथापरक कहानियों को भी एकमुश्त उठाकर लघुकया सर्जना व समालोचना के 'टूल्स' तलाश किए जाएँ। समकालीन लघुकथा को समझने को राह में यह बेहतर परिणाम देनेवाला सिद्ध हो सकता है। लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में, रचनाओं को रचनाकार से अलग करके देखना (या वैसा सोचना भी) कोई आसान काम नहीं है। इस सत्य का भास मुझे इन रचनाओं को आकलन के लिए भेजने के उपरांत उस समय हुआ जब संबंधित कई विद्वानों से इस बारे में फोन पर भी बात हुई। इस काल में, जबकि हम प्रेमचंद की 130वीं जयंती मना चुके हों, उनके प्रति श्रद्धा का भाव उनकी रचनाओं पर बेबाक टिप्पणी करने से बेतरह रोकता नजर आया। वस्तुतः एक तटस्थ आकलन पाने के लिए श्रद्धा के वलय के उस-पार जाना बहुत जरूरी होता है, इसलिए श्रद्धालुओं से मैंने अनुरोध किया कि वे रचनाकार के प्रति श्रद्धा से स्वयं को अलग करके लघुकथा के मद्देनजर रचना की विशेषताओं या कमजोरियों के बारे में अपने विचार दें। यह आकलन समकालीन लघुकथा की सर्जना को समझने की दृष्टि से लघु-आकारीय कहानियों का है, प्रेमचंद का नहीं।
श्रद्धा अगर उचित आकलन के आड़े आती हो तो उसे त्यागने में संकोच नहीं करना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है। यह निर्विवाद है कि कुछेक श्रद्धाओं व पूर्वाग्रहों के चलते अनेक विचारकों ने लघुकथा-आलोचना का अपना दरवाजा अभी तक भी बंद ही रखा हुआ है।
"हिंदी कहानी का इतिहास' लिख रहे एक सुपरिचित समालोचक ने गत वर्ष बातचीत के दौरान बताया था कि उन्होंने अपने कार्य का प्रस्थान-बिंदु सन् 1901 को निर्धारित किया है। 1901 ही क्यों? यह प्रश्न यद्यपि उनसे किया नहीं गया, तथापि मन में उभरा अवश्य। इस प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं और वे सभी व्यक्ति सापेक्ष होंगे, शोध-सापेक्ष नहीं। वस्तुतः शोधकर्ता अपने व्यक्तित्व को अगर अकादमिक स्तर से अलग कर पाने में अक्षम रहता है तो आश्चर्य नहीं कि उसके कार्य का काल-निर्धारण पहले से ही तय हो। परंतु 'इतिहास लेखन' अकादमी-स्तर के शोध-कार्य से नितान्त भिन्न कर्म है जिसे व्यक्ति सापेक्ष नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत धारणाओं एवं पूर्वग्रहों को पुष्ट करने हेतु किए जाने वाले कार्य शोध-जैसे लग सकते हैं, होते नहीं हैं। सम्भवतः इसीलिए कुछ काल तक कोल्हू के बैल की तरह अकादमी-स्तर के कुछ शोध-पत्रों में चकराते रहने के उपरान्त वे काल के गाल में समा जाते हैं। शोध अज्ञात से ज्ञात की ओर', 'अपुष्ट से पुष्ट की ओर' तथा 'तमस से ज्योति की ओर' जाने व लाने का नाम है।
प्रेमचंद की लघु-आकारीय कथा-रचनाओं को समकालीन लघुकथा-सृष्टि के अथवा समकालीन लघुकथा को प्रेमचंद की लघु-आकारीय कथा-सृष्टि के आलोक में देखने के प्रस्तुत प्रयास को कुछ मित्रों ने 'लघुकथा-विधा को प्रतिष्ठित नाम का संबल देने की कवायद' के रूप में देखा। देखने और सोचने का ऐसा चलन हिंदी क्षेत्र में नया नहीं है। वस्तुतः साहित्यिक उठा-पटक में उलझे लोग जैसे-जैसे 'सत्ता' से जुड़ते हैं, संशय और असुरक्षा जनित भय की ग्रंथियाँ उनमें पनपती ही हैं। 'सता' से तात्पर्य यहाँ अहं की उन परतों से है जो दृष्ट-अदृष्ट स्वतः ही मानव-मन में आ पसरती है। व्यवसाय से अलग, 'शोध' जिनके लिए अध्यवसाय है, उनके मन और मस्तिष्क ही इन परतों से अछूते रहने में सफल रहते हैं।
व्यापक विद्वत्-वर्ग का मानना है कि 'लघुकथा' कथा-साहित्य में एकाएक उभरी विधा नहीं है। 'बीज' रूप में इसका संस्कार पुरातन भारतीय नाट्य एवं काव्यादि साहित्य में विद्यमान है। हो, इसका नामकरण नया है। दूसरे, 'समकालीन लघुकथा' अर्थात् 1970 के बाद लघुकथा-लेखन में उतरी कथा-पीढ़ी द्वारा सृजित लघुकथाओं के रूप में जो कथा-रचना हमारे सामने है, अनेक समसामयिक नवीनताओं के कारण 'प्रकार' और 'प्रभाव' में वह पूर्वकालीन 'लघुकथा' (अर्थात् 1970 तक के अधिकतर लघुकथापरक लेखन) से भिन्नता को प्राप्त रचना है। समकालीन लघुकथा की जड़ें पुरातन कथा-साहित्य में इतनी गहरी समाहित हैं कि 'शोध' में प्रवृत्त होते ही इन जड़ों के छोर तक पहुंचने का प्रयत्न करना हमें दायित्य प्रतीत होने लगता है। पूर्व-प्रतिष्ठित कथाकारों की लघु-आकारीय कथा-कृतियों पर लघुकथापरक दृष्टि डालने का कर्म भी उक्त दायित्व का ईमानदार निर्वाह ही है। लघुकथा के 'समकालीन' सरोकार पूर्व-प्रतिष्ठितों के प्रति श्रद्धाभाव की भेंट चढ़ उनके अनुगामी बनकर न रह जाएं—जहां यह ध्यान रखना आवश्यक है, वहीं यह भी कि ज्ञात-अज्ञात किसी भी लेखक का अपने समय को स्वर देने में सक्षम लघुकथा-कर्म हमारे अहं, पूर्वग्रह अथवा संशय के चलते क्षत न हो जाय।
बात किसी समर्थ कथाकार की लघु-आकारीय कहानियों अथवा लघुकथाओं को एकमुश्त उठाकर उनका लघुकथापरक आकलन प्रस्तुत करने की चल रही थी। इस आकलन के लिए सबसे पहले जिस कथाकार का नाम मस्तिष्क में कोंधा, वह निःसंदेह प्रेमचंद ही थे। उनके कोष में यथेष्ट संख्या में ऐसी छोटी कहानियों हैं भी, जो हमारे मन्तव्य को साधने में सहायक लगती हैं। हालाँकि यथेष्ट संख्या में छोटी कहानियाँ प्रसाद जी के कोष में भी हैं और उन>हें उनहोंने निरंतर लिखा है, लेकिन लघुकथा की समकालीन भूमि पर प्रेमचंद जितनी सहजता उनके कथ्यों में पहले ही प्रयास में नजर नहीं आती है। यद्यपि प्रसाद जी की मुख्यतः प्रसाद, गूदड़ साईं, गुदड़ी में लाल, पत्थर की पुकार, उस पार का योगी, करुणा की विजय, खण्डहर को लिपि, कलावती की शिक्षा और चक्रवर्ती का स्तम्भ में लघुकथा के तत्व नजर आते हैं और हिंदी में वे प्रेमचंद की कुछ छोटी कहानियों से काफी पहले सन् 1926 में प्रकाशित उनके कहानी-संग्रह 'प्रतिध्वनि' में संकलित होकर पाठकों तक पहुँच भी गई थीं, तथापि उनका आस्वाद प्रेमचंद की छोटी कहानियों के आस्वाद से काफी भिन्न प्रकृति का है। प्रसाद जी की भाषा और कथ्य प्रस्तुति में शास्त्रीय संस्कार है जो रचना को यह कलात्मक ऊँचाई प्रदान करता है, जिससे देश का आम नागरिक लम्बे समय से सदियों दूर है।
होना तो यह चाहिए था कि 'लघुकथा' की कसौटी के टूल्स तलाशने की कवायद 'लघुकथा' में ही करनी थी, 'लघुकथापरक कहानी' में नहींः क्योंकि जितने सटीक और धारदार टूल विधा-स्वयं दे सकती है, विधा-अन्य नहीं, भाले ही वह उसी परिवार को क्यों हो। लेकिन इस काम के लिए अभी तक न तो कोई 'मानक' लघुकथा तय हो पाई है और न ही मानक लघुकथाकार। यद्यपि यह तो शुरू हो चुका है कि कुछ लघुकथाओं-लघुकथाकारों को लेखकों-पाठकों-आलोचकों-समीक्षकों के द्वारा 'स्तरीय' रेखांकित किया जाने लगा है: तथापि रेखांकित करने की इस प्रक्रिया पर भी तो मूलतः 'कहानी' से ही आयातित प्रभावित होने का आरोप लगता रहा है।
लघुकथा-आलोचना व समीक्षा के टूल्स तलाशने को इस कोशिश में प्रेमचंद की प्रस्तुत रचनाएँ इसलिए भी सर्वाधिक उपयुक्त हैं कि इनमें से कुछ में 'सशक्त लघुकथा' होने के गुण मौजूद हैं तो कुछ पर 'अशक्त लघुकथा' होने का आरोप भी है। कुछ को कथा-विचारकों ने निःसंकोच लघुकथा माना है तो कुछ को लघुकथा होने से पूरी तरह नकार दिया है तथा कुछ के प्रति लघुकथा मानने, न मानने जैसा संकोच भी दिखाया है। ऐसी मान्य, अमान्य और दुविधाजन्य स्थिति उत्पन्न करने वाली रचनाओं के आकलन के द्वारा हम जहाँ स्तरीय लघुकथा के अवयवों से रू-ब-रू हो सकते हैं, वहीं उन बिंदुओं से भी सावधान हो पाते हैं जिनकी उपस्थिति लघुकथा को स्तरहीनता को ओर धकेल देती है। अब, प्रेमचंद ने क्योंकि 'लघुकथा' की दृष्टि से किसी भी रचना को नहीं लिखा था, इसलिए उन पर 'सशक्त' अथवा 'अशक्त' लघुकथा-लेखक की चेपी लगाना तो मूर्खता ही माना जाएगा। वस्तुतः तो पूर्ववती उन सभी कथाकारों पर ऐसी कोई चेपी लगाना असंगत माना जाना चाहिए, जिन्होंने लघुकथा को 'विधा' के तौर पर नहीं अपनाया था, कम-से-कम उस आंदोलनपरक स्तर पर तो बिल्कुल भी नहीं जिस पर उसे समकालीन लघुकथाकारों ने प्रतिष्ठित किया है।
प्रस्तुत विमर्श में भाग लेने वाले विचारकों द्वारा प्रेमचंद की इन लघु-आकारीय कथा-रचनाओं में 'राष्ट्र का सेवक' में समकालीन लघुकथा के गुण 100% आँके गए तो 'बाबाजी का भोग में 95%, 'बंद दरवाजा' में 80%, 'दरवाज़ा' और 'देवी' में 65%, तथा 'गुरुमंत्र' और 'बीमार बहिन' में 40%। उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेमचंद की सबसे कम शब्दों की व सबसे छोटे आकार की कथा-रचना 'बाँसुरी' में सबसे कम 10% गुण ही लघुकथा-पारखियों को नजर आए जबकि अपेक्षाकृत लंबी रचनाएँ 'बाबाजी का भोग' व 'राष्ट्र का सेवक' समकालीन लघुकथा का श्रेष्ठ उदाहरण आँकी गई हैं। स्पष्ट है कि 'लघुकथा' कहे जाने के लिए कथा-रचना में संवेदना की सूक्ष्म अभिव्यक्ति का तदनुरूप कथा-योजना में गूँथा होना अति आवश्यक है न कि मात्र आकार में लघु होना अथवा शब्द-संख्या में कम होना।
इस पुस्तक में डॉ. अशोक भाटिया व डॉ. हरमहेन्द्र सिंह बेदी के आलेख गुरुमुखी में प्रकाशित होने वाली लघुकथा की पंजाबी लघुकथा पत्रिका 'मिन्नी' के प्रेमचंद विशेषांक (अंक 73) से हिंदी में अनुवाद करके भाई सुभाष नीरव ने उपलब्ध कराए हैं। प्रेमचंद के अप्राप्य साहित्य के खोजी, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आलोचक डॉ. कमल किशोर गोयनका ने अपने एक लंबे लेख का अंश उद्धृत करने की कृपापूर्ण अनुमति प्रदान की है। साथ ही, प्रबुद्ध विचारक भाई गौतम सान्याल का लेख 'लघुकथा : प्रकार, प्रविधि और भाषा' भी विमर्श को आयाम देने की दृष्टि से साभार उद्धृत किया गया है। उनका व अन्य संकलित साथियों का भी मैं हृदय से आभारी हूँ।
लघुकथा की जमीन को उर्वरता और आसमान की असीमता से रू-ब-रू कराने के लिए इस पुस्तक के रूप में आलोचना, रचना और शोधपरक चिंतन का एक बंद अथवा अधखुला दरवाजा खुलता है, ऐसा मुझे विश्वास है।
एम-70, नवीन शाहदरा, बलराम अग्रवाल
दिल्ली-32
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